===============================
आनंद सर्ग की व्याख्या Explanation: all parts:
Part 1: https://youtu.be/5RSI4iE54H8
Part 2 :https://youtu.be/N_sXP-Wklz0
Part 3 :https://youtu.be/IqFiJpxdpnQ
Part 4:https://youtu.be/DHunJGYf07E
Part 5:https://youtu.be/xxqzM8u-TBk
Part 6(last):https://youtu.be/mp41sdVsBys
Video lesson prepared and presented by Alpana Verma
=====
========================
कोमल किसलय के अंचल में नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी,
गोधुली के धूमिल पट में दीपक के स्वर में दिपती-सी।
मंजुल स्वप्नओं की विस्मृति में मन का उन्माद निखरता ज्यों -
सुरभित लहरों की छाया में बुल्ले का विभव बिखरता ज्यों -
वैसी ही माया से लिपटी अधरों पर उँगली धरे हुए,
माधव के सरस कुतूहल का आँखों में पानी भरे हुए।
नीरव निशीथ में लतिका-सी तुम कौन आ रही हो बढ़ती?
कोमल-बाहें फैलाये-सी आलिंगन का जादू पढ़ती!
किन इंद्रजाल के फूलों से लेकर सुहाग-कण राग-भरे,
सिर नीचा कर हो गूँथ रही माला जिससे मधु धार ढरे?
पुलकित कदंब की माला-सी पहना देती हो अन्तर में,
झुक जाती है मन की डाली अपनी फलभरता के डर में।
वरदान सदृश हो डाल रही नीली किरनों से बुना हुआ,
यह अंचल कितना हल्का-सा कितना सौरभ से सना हुआ।
सब अंग मोम से बनते हैं कोमलता में बल खाती हूँ,
मैं सिमट रही-सी अपने में परिहास-गीत सुन पाती हूँ।
स्मित बन जाती है तरल हँसी नयनों में भर कर बाँकपना,
प्रत्यक्ष देखती हूँ सब जो वह बनता जाता है सपना।
मेरे सपनों में कलरव का संसार आँख जब खोल रहा,
अनुराग समीरों पर तिरता था इतराता-सा डोल रहा।
अभिलाषा अपने यौवन में उठती उस सुख के स्वागत को,
जीवन भर के बल-वैभव से सत्कृत करती दूरागत को।
किरनों की रज्जु समेट लिया जिसका अवलम्बन ले चढ़ती,
रस के निर्झर में धँस कर मैं आनन्द-शिखर के प्रति बढ़ती।
छूने में हिचक, देखने में पलकें आँखों पर झुकती हैं,
कलरव परिहास भरी गूँजें अधरों तक सहसा रुकती हैं।
संकेत कर रही रोमाली चुपचाप बरजाती खड़ी रही,
भाषा बन भौहों की काली रेखा-सी भ्रम में पड़ी रही।
तुम कौन! हृदय की परवशता? सारी स्वतंत्रता छीन रही,
स्वच्छंद सुमन जो खिले रहे जीवन-वन से हो बीन रही!"
संध्या की लाली में हँसती, उसका ही आश्रय लेती-सी,
छाया प्रतिमा गुनगुना उठी, श्रद्धा का उत्तर देती-सी।
"इतना न चमकृत हो बाले! अपने मन का उपकार करो,
मैं एक पकड़ हूँ जो कहती ठहरो कुछ सोच-विचार करो।
अंबर-चुंबी हिम-श्रृंगों से कलरव कोलाहल साथ लिये,
विद्युत की प्राणमयी धारा बहती जिसमें उन्माद लिये।
मंगल कुंकुम की श्री जिसमें निखरी हो ऊषा की लाली,
भोला सुहाग इठलाता हो ऐसा हो जिसमें हरियाली,
हो नयनों का कल्याण बना आनन्द सुमन-सा विकसा हो,
वासंती के वन-वैभव में जिसका पंचमस्वर पिक-सा हो,
जो गूँज उठे फिर नस-नस में मूर्छना समान मचलता-सा,
आँखों के साँचे में आकर रमणीय रूप बन ढलता-सा,
नयनों की नीलम की घाटी जिस रस घन से छा जाती हो,
वह कौंध कि जिससे अन्तर की शीतलता ठंढक पाती हो,
हिल्लोल भरा हो ऋतुपति का गोधुली की सी ममता हो,
जागरण प्रात-सा हँसता हो जिसमें मध्याह्न निखरता हो,
हो चकित निकल आई सहसा जो अपने प्राची के घर से,
उस नवल चंद्रिका-से बिछले जो मानस की लहरों पर से,
फूलों की कोमल पंखड़ियाँ बिखरें जिसके अभिनन्दन में,
मकरंद मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चन्दन में,
कोमल किसलय मर्मर-रव-से जिसका जयघोष सुनाते हों,
जिसमें दुःख सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते हों,
उज्जवल वरदान चेतना का सौन्दर्य्य जिसे सब कहते हैं,
जिसमें अनंत अभिलाषा के सपने सब जगते रहते हैं।
मैं उसई चपल की धात्री हूँ, गौरव महिमा हूँ सिखलाती,
ठोकर जो लगने वाली है उसको धीरे से समझाती,
मैं देव-सृष्टि की रति-रानी निज पंचबाण से वंचित हो,
बन आवर्जना-मूर्ति दीना अपनी अतृप्ति-सी संचित हो,
अवशिष्ट रह गईं अनुभव में अपनी अतीत असफलता-सी,
लीला विलास की खेद-भरी अवसादमयी श्रम-दलिता-सी,
मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ मैं शालीनता सिखाती हूँ,
मतवाली सुन्दरता पग में नूपुर सी लिपट मनाती हूँ,
लाली बन सरल कपोलों में आँखों में अंजन सी लगती,
कुंचित अलकों सी घुँघराली मन की मरोर बनकर जगती,
चंचल किशोर सुन्दरता की मैं करती रहती रखवाली,
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ जो बनती कानों की लाली।"
"हाँ, ठीक, परन्तु बताओगी मेरे जीवन का पथ क्या है?
इस निविड़ निशा में संसृति की आलोकमयी रेखा क्या है?
यह आज समझ तो पाई हूँ मैं दुर्बलता में नारी हूँ,
अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर मैं सबसे हारी हूँ।
पर मन भी क्यों इतना ढीला अपने ही होता जाता है,
घनश्याम-खंड-सी आँखों में क्यों सहसा जल भर आता है?
सर्वस्व-समर्पण करने की विश्वास-महा-तरु-छाया में,
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों ममता जगती हैं माया में?
छायापथ में तारक-द्युति सी झिलमिल करने की मधु-लीला,
अभिनय करती क्यों इस मन में कोमल निरीहता श्रम-शीला?
निस्संबल होकर तिरती हूँ इस मानस की गहराई में,
चाहती नहीं जागरण कभी सपने की इस सुघराई में।
नारी जीवन की चित्र यही क्या? विकल रंग भर देती हो,
अस्फुट रेखा की सीमा में आकार कला को देती हो।
रुकती हूँ और ठहरती हूँ पर सोच-विचार न कर सकती,
पगली-सी कोई अंतर में बैठी जैसे अनुदित बकती।
मैं जभी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूँ,
भुजलता फँसा कर नर-तरु से झूले-सी झोंके खाती हूँ।
इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है,
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ, इतना ही सरल झलकता है।
"क्या कहती हो ठहरो नारी! संकल्प-अश्रु जल से अपने -
तुम दान कर चुकी पहले ही जीवन के सोने-से सपने।
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास-रजत-नग पगतल में,
पीयूष-स्रोत बहा करो जीवन के सुंदर समतल में।
देवों की विजय, दानवों की हारों का होता युद्ध रहा,
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित रह नित्य-विरुद्ध रहा।
आँसू से भींगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा -
तुमको अपनी स्मित रेखा से यह संधिपत्र लिखना होगा।
==============================
प्रलय निशा का होता प्रात।कवि : जयशंकर प्रसाद
Summary available:
1.चिंता Chinta :https://youtu.be/BIcMcJEXIr0
2.आशा Asha:https://youtu.be/scQom9EjQlc
3.श्रद्धा Shraddha :https://youtu.be/7RiQ97oCeNs
4.लज्जा Lajja :https://youtu.be/hGWM9E4eQRg
5.इड़ा Idaa:https://youtu.be/hQSrfC1aroc
6.आनंद Anand:https://youtu.be/QqKez4M71ms
===============================
आनंद सर्ग की व्याख्या Explanation: all parts:
Part 1: https://youtu.be/5RSI4iE54H8
Part 2 :https://youtu.be/N_sXP-Wklz0
Part 3 :https://youtu.be/IqFiJpxdpnQ
Part 4:https://youtu.be/DHunJGYf07E
Part 5:https://youtu.be/xxqzM8u-TBk
Part 6(last):https://youtu.be/mp41sdVsBys
Video lesson prepared and presented by Alpana Verma
=====
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह |
नीचे जल था ऊपर हिम था,
एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन |
दूर दूर तक विस्तृत था हिम
स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से
टकराता फिरता पवमान |
तरूण तपस्वी-सा वह बैठा
साधन करता सुर-श्मशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का
होता था सकरूण अवसान।
उसी तपस्वी-से लंबे थे
देवदारू दो चार खड़े,
हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर
बनकर ठिठुरे रहे अड़े।
अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ,
ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार,
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का
होता था जिनमें संचार।
चिंता-कातर वदन हो रहा
पौरूष जिसमें ओत-प्रोत,
उधर उपेक्षामय यौवन का
बहता भीतर मधुमय स्रोत।
बँधी महावट से नौका थी
सूखे में अब पड़ी रही,
उतर चला था वह जल-प्लावन,
और निकलने लगी मही।
निकल रही थी मर्म वेदना
करूणा विकल कहानी सी,
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही,
हँसती-सी पहचानी-सी।
"ओ चिंता की पहली रेखा,
अरी विश्व-वन की व्याली,
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण
प्रथम कंप-सी मतवाली।
हे अभाव की चपल बालिके,
री ललाट की खलखेला
हरी-भरी-सी दौड़-धूप,
ओ जल-माया की चल-रेखा।
इस ग्रहकक्षा की हलचल-
री तरल गरल की लघु-लहरी,
जरा अमर-जीवन की,
और न कुछ सुनने वाली, बहरी।
अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी-
अरी आधि, मधुमय अभिशाप
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी,
पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप।
मनन करावेगी तू कितना?
उस निश्चित जाति का जीव
अमर मरेगा क्या?
तू कितनी गहरी डाल रही है नींव।
आह घिरेगी हृदय-लहलहे
खेतों पर करका-घन-सी,
छिपी रहेगी अंतरतम में
सब के तू निगूढ धन-सी।
बुद्धि, मनीषा, मति, आशा,
चिंता तेरे हैं कितने नाम
अरी पाप है तू, जा, चल जा
यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।
विस्मृति आ, अवसाद घेर ले,
नीरवते बस चुप कर दे,
चेतनता चल जा, जड़ता से
आज शून्य मेरा भर दे।"
"चिंता करता हूँ मैं जितनी
उस अतीत की, उस सुख की,
उतनी ही अनंत में बनती जाती
रेखायें दुख की।
आह सर्ग के अग्रदूत
तुम असफल हुए, विलीन हुए,
भक्षक या रक्षक जो समझो,
केवल अपने मीन हुए।
अरी आँधियों ओ बिजली की
दिवा-रात्रि तेरा नतर्न,
उसी वासना की उपासना,
वह तेरा प्रत्यावत्तर्न।
मणि-दीपों के अंधकारमय
अरे निराशा पूर्ण भविष्य
देव-दंभ के महामेध में
सब कुछ ही बन गया हविष्य।
अरे अमरता के चमकीले पुतलो
तेरे ये जयनाद
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि
बन कर मानो दीन विषाद।
प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित
हम सब थे भूले मद में,
भोले थे, हाँ तिरते केवल सब
विलासिता के नद में।
वे सब डूबे, डूबा उनका विभव,
बन गया पारावार
उमड़ रहा था देव-सुखों पर
दुख-जलधि का नाद अपार।"
"वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या
स्वप्न रहा या छलना थी
देवसृष्टि की सुख-विभावरी
ताराओं की कलना थी।
चलते थे सुरभित अंचल से
जीवन के मधुमय निश्वास,
कोलाहल में मुखरित होता
देव जाति का सुख-विश्वास।
सुख, केवल सुख का वह संग्रह,
केंद्रीभूत हुआ इतना,
छायापथ में नव तुषार का
सघन मिलन होता जितना।
सब कुछ थे स्वायत्त,विश्व के-बल,
वैभव, आनंद अपार,
उद्वेलित लहरों-सा होता
उस समृद्धि का सुख संचार।
कीर्ति, दीप्ती, शोभा थी नचती
अरूण-किरण-सी चारों ओर,
सप्तसिंधु के तरल कणों में,
द्रुम-दल में, आनन्द-विभोर।
शक्ति रही हाँ शक्ति-प्रकृति थी
पद-तल में विनम्र विश्रांत,
कँपती धरणी उन चरणों से होकर
प्रतिदिन ही आक्रांत।
स्वयं देव थे हम सब,
तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?
अरे अचानक हुई इसी से
कड़ी आपदाओं की वृष्टि।
गया, सभी कुछ गया,मधुर तम
सुर-बालाओं का श्रृंगार,
ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित
मधुप-सदृश निश्चित विहार।
भरी वासना-सरिता का वह
कैसा था मदमत्त प्रवाह,
प्रलय-जलधि में संगम जिसका
देख हृदय था उठा कराह।"
"चिर-किशोर-वय, नित्य विलासी
सुरभित जिससे रहा दिगंत,
आज तिरोहित हुआ कहाँ वह
मधु से पूर्ण अनंत वसंत?
कुसुमित कुंजों में वे पुलकित
प्रेमालिंगन हुए विलीन,
मौन हुई हैं मूर्छित तानें
और न सुन पडती अब बीन।
अब न कपोलों पर छाया-सी
पडती मुख की सुरभित भाप
भुज-मूलों में शिथिल वसन की
व्यस्त न होती है अब माप।
कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे,
हिलते थे छाती पर हार,
मुखरित था कलरव,गीतों में
स्वर लय का होता अभिसार।
सौरभ से दिगंत पूरित था,
अंतरिक्ष आलोक-अधीर,
सब में एक अचेतन गति थी,
जिसमें पिछड़ा रहे समीर।
वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा
अंग-भंगियों का नत्तर्न,
मधुकर के मरंद-उत्सव-सा
मदिर भाव से आवत्तर्न।
=======
सुरा सुरभिमय बदन अरूण वे
नयन भरे आलस अनुराग़,
कल कपोल था जहाँ बिछलता
कल्पवृक्ष का पीत पराग।
विकल वासना के प्रतिनिधि
वे सब मुरझाये चले गये,
आह जले अपनी ज्वाला से
फिर वे जल में गले, गये।"
"अरी उपेक्षा-भरी अमरते री
अतृप्ति निबार्ध विलास
द्विधा-रहित अपलक नयनों की
भूख-भरी दर्शन की प्यास।
बिछुडे़ तेरे सब आलिंगन,
पुलक-स्पर्श का पता नहीं,
मधुमय चुंबन कातरतायें,
आज न मुख को सता रहीं।
रत्न-सौंध के वातायन,
जिनमें आता मधु-मदिर समीर,
टकराती होगी अब उनमें
तिमिंगिलों की भीड़ अधीर।
देवकामिनी के नयनों से जहाँ
नील नलिनों की सृष्टि-
होती थी, अब वहाँ हो रही
प्रलयकारिणी भीषण वृष्टि।
वे अम्लान-कुसुम-सुरभित-मणि
रचित मनोहर मालायें,
बनीं श्रृंखला, जकड़ी जिनमें
विलासिनी सुर-बालायें।
देव-यजन के पशुयज्ञों की
वह पूर्णाहुति की ज्वाला,
जलनिधि में बन जलती
कैसी आज लहरियों की माला।"
"उनको देख कौन रोया
यों अंतरिक्ष में बैठ अधीर
व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय
यह प्रालेय हलाहल नीर।
हाहाकार हुआ क्रंदनमय
कठिन कुलिश होते थे चूर,
हुए दिगंत बधिर, भीषण रव
बार-बार होता था क्रूर।
दिग्दाहों से धूम उठे,
या जलधर उठे क्षितिज-तट के
सघन गगन में भीम प्रकंपन,
झंझा के चलते झटके।
अंधकार में मलिन मित्र की
धुँधली आभा लीन हुई।
वरूण व्यस्त थे, घनी कालिमा
स्तर-स्तर जमती पीन हुई,
पंचभूत का भैरव मिश्रण
शंपाओं के शकल-निपात
उल्का लेकर अमर शक्तियाँ
खोज़ रहीं ज्यों खोया प्रात।
बार-बार उस भीषण रव से
कँपती धरती देख विशेष,
मानो नील व्योम उतरा हो
आलिंगन के हेतु अशेष।
उधर गरजती सिंधु लहरियाँ
कुटिल काल के जालों सी,
चली आ रहीं फेन उगलती
फन फैलाये व्यालों-सी।
धसँती धरा, धधकती ज्वाला,
ज्वाला-मुखियों के निस्वास
और संकुचित क्रमश: उसके
अवयव का होता था ह्रास।
सबल तरंगाघातों से
उस क्रुद्ध सिंद्धु के, विचलित-सी-
व्यस्त महाकच्छप-सी धरणी
ऊभ-चूम थी विकलित-सी।
बढ़ने लगा विलास-वेग सा
वह अतिभैरव जल-संघात,
तरल-तिमिर से प्रलय-पवन का
होता आलिंगन प्रतिघात।
वेला क्षण-क्षण निकट आ रही
क्षितिज क्षीण, फिर लीन हुआ
उदधि डुबाकर अखिल धरा को
बस मर्यादा-हीन हुआ।
करका क्रंदन करती
और कुचलना था सब का,
पंचभूत का यह तांडवमय
नृत्य हो रहा था कब का।"
"एक नाव थी, और न उसमें
डाँडे लगते, या पतवार,
तरल तरंगों में उठ-गिरकर
बहती पगली बारंबार।
लगते प्रबल थपेडे़, धुँधले तट का
था कुछ पता नहीं,
कातरता से भरी निराशा
देख नियति पथ बनी वहीं।
लहरें व्योम चूमती उठतीं,
चपलायें असंख्य नचतीं,
गरल जलद की खड़ी झड़ी में
बूँदे निज संसृति रचतीं।
चपलायें उस जलधि-विश्व में
स्वयं चमत्कृत होती थीं।
ज्यों विराट बाड़व-ज्वालायें
खंड-खंड हो रोती थीं।
जलनिधि के तलवासी
जलचर विकल निकलते उतराते,
हुआ विलोड़ित गृह,
तब प्राणी कौन! कहाँ! कब सुख पाते?
घनीभूत हो उठे पवन,
फिर श्वासों की गति होती रूद्ध,
और चेतना थी बिलखाती,
दृष्टि विफल होती थी क्रुद्ध।
उस विराट आलोड़न में ग्रह,
तारा बुद-बुद से लगते,
प्रखर-प्रलय पावस में जगमग़,
ज्योतिर्गणों-से जगते।
प्रहर दिवस कितने बीते,
अब इसको कौन बता सकता,
इनके सूचक उपकरणों का
चिह्न न कोई पा सकता।
काला शासन-चक्र मृत्यु का
कब तक चला, न स्मरण रहा,
महामत्स्य का एक चपेटा
दीन पोत का मरण रहा।
किंतु उसी ने ला टकराया
इस उत्तरगिरि के शिर से,
देव-सृष्टि का ध्वंस अचानक
श्वास लगा लेने फिर से।
आज अमरता का जीवित हूँ मैं
वह भीषण जर्जर दंभ,
आह सर्ग के प्रथम अंक का
अधम-पात्र मय सा विष्कंभ!"
"ओ जीवन की मरू-मरिचिका,
कायरता के अलस विषाद!
अरे पुरातन अमृत अगतिमय
मोहमुग्ध जर्जर अवसाद!
मौन नाश विध्वंस अँधेरा
शून्य बना जो प्रकट अभाव,
वही सत्य है, अरी अमरते
तुझको यहाँ कहाँ अब ठाँव।
मृत्यु, अरी चिर-निद्रे
तेरा अंक हिमानी-सा शीतल,
तू अनंत में लहर बनाती
काल-जलधि की-सी हलचल।
महानृत्य का विषम सम अरी
अखिल स्पंदनों की तू माप,
तेरी ही विभूति बनती है सृष्टि
सदा होकर अभिशाप।
अंधकार के अट्टहास-सी
मुखरित सतत चिरंतन सत्य,
छिपी सृष्टि के कण-कण में तू
यह सुंदर रहस्य है नित्य।
जीवन तेरा क्षुद्र अंश है
व्यक्त नील घन-माला में,
सौदामिनी-संधि-सा सुन्दर
क्षण भर रहा उजाला में।"
पवन पी रहा था शब्दों को
निर्जनता की उखड़ी साँस,
टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि
बनी हिम-शिलाओं के पास।
धू-धू करता नाच रहा था
अनस्तित्व का तांडव नृत्य,
आकर्षण-विहीन विद्युत्कण
बने भारवाही थे भृत्य।
मृत्यु सदृश शीतल निराश ही
आलिंगन पाती थी दृष्टि,
परमव्योम से भौतिक कण-सी
घने कुहासों की थी वृष्टि।
वाष्प बना उड़ता जाता था
या वह भीषण जल-संघात,
सौरचक्र में आवतर्न था
प्रलय निशा का होता प्रात।
==============chinta sarg samaapt=======
उस दिन बड़े सबेरे जब श्यामू की नींद खुली तब उसने देखा - घर भर में कुहराम मचा हुआ है। उसकी काकी – उमा - एक कम्बल पर नीचे से ऊपर तक एक कपड़ा ओढ़े हुए भूमि-शयन कर रही हैं, और घर के सब लोग उसे घेरकर बड़े करुण स्वर में विलाप कर रहे हैं।
लोग जब उमा को श्मशान ले जाने के लिए उठाने लगे तब श्यामू ने बड़ा उपद्रव मचाया। लोगों के हाथों से छूटकर वह उमा के ऊपर जा गिरा। बोला - “काकी सो रही हैं, उन्हें इस तरह उठाकर कहाँ लिये जा रहे हो? मैं न जाने दूँ।”
लोग बड़ी कठिनता से उसे हटा पाये। काकी के अग्नि-संस्कार में भी वह न जा सका। एक दासी राम-राम करके उसे घर पर ही सँभाले रही।
यद्दापि बुद्धिमान गुरुजनों ने उन्हें विश्वास दिलाया कि उसकी काकी उसके मामा के यहाँ गई है, परन्तु असत्य के आवरण में सत्य बहुत समय तक छिपा न रह सका। आस-पास के अन्य अबोध बालकों के मुँह से ही वह प्रकट हो गया। यह बात उससे छिपी न रह सकी कि काकी और कहीं नहीं, ऊपर राम के यहाँ गई है। काकी के लिए कई दिन तक लगातार रोते-रोते उसका रुदन तो क्रमश: शांत हो गया, परन्तु शोक शांत न हो सका। वर्षा के अनन्तर एक ही दो दिन में पृथ्वी के ऊपर का पानी अगोचर हो जाता है, परन्तु भीतर ही भीतर उसकी आर्द्रता जैसे बहुत दिन तक बनी रहती है, वैसे ही उसके अन्तस्तल में वह शोक जाकर बस गया था। वह प्राय: अकेला बैठा-बैठा, शून्य मन से आकाश की ओर ताका करता।
एक दिन उसने ऊपर एक पतंग उड़ती देखा। न जाने क्या सोचकर उसका हृदय एकदम खिल उठा। विश्वेश्वर के पास जाकर बोला - “काका मुझे पतंग मँगा दो।”
पत्नी की मृत्यु के बाद से विश्वेश्वर अन्यमनस्क रहा करते थे। “अच्छा, मँगा दूँगा।” कहकर वे उदास भाव से और कहीं चले गये।
श्यामू पतंग के लिए बहुत उत्कण्ठित था। वह अपनी इच्छा किसी तरह रोक न सका। एक जगह खूँटी पर विश्वेश्वर का कोट टँगा हुआ था। इधर-उधर देखकर उसने उसके पास स्टूल सरकाकर रक्खा और ऊपर चढ़कर कोट की जेबें टटोलीं। उनमें से एक चवन्नी का आविष्कार करके तुरन्त वहाँ से भाग गया।
सुखिया दासी का लड़का - भोला - श्यामू का समवयस्क साथी था। श्यामू ने उसे चवन्नी देकर कहा - “अपनी जीजी से कहकर गुपचुप एक पतंग और डोर मँगा दो। देखो, खूब अकेले में लाना, कोई जान न पावे।”
पतंग आई। एक अँधेरे घर में उसमें डोर बाँधी जाने लगी। श्यामू ने धीरे से कहा, “भोला, किसी से न कहो तो एक बात कहूँ।”
भोला ने सिर हिलाकर कहा - “नहीं, किसी से नहीं कहूँगा।”
श्यामू ने रहस्य खोला। कहा - “मैं यह पतंग ऊपर राम के यहाँ भेजूँगा। इसे पकड़कर काकी नीचे उतरेंगी। मैं लिखना नहीं जानता, नहीं तो इस पर उनका नाम लिख देता।”
भोला श्यामू से अधिक समझदार था। उसने कहा - “बात तो बड़ी अच्छी सोची, परन्तु एक कठिनता है। यह डोर पतली है। इसे पकड़कर काकी उतर नहीं सकतीं। इसके टूट जाने का डर है। पतंग में मोटी रस्सी हो, तो सब ठीक हो जाय।”
श्यामू गम्भीर हो गया! मतलब यह, बात लाख रुपये की सुझाई गई है। परन्तु कठिनता यह थी कि मोटी रस्सी कैसे मँगाई जाय। पास में दाम है नहीं और घर के जो आदमी उसकी काकी को बिना दया-मया के जला आये हैं, वे उसे इस काम के लिए कुछ नहीं देंगे। उस दिन श्यामू को चिन्ता के मारे बड़ी रात तक नींद नहीं आई।
पहले दिन की तरकीब से दूसरे दिन उसने विश्वेश्वर के कोट से एक रुपया निकाला। ले जाकर भोला को दिया और बोला - “देख भोला, किसी को मालूम न होने पाये। अच्छी-अच्छी दो रस्सियाँ मँगा दे। एक रस्सी ओछी पड़ेगी। जवाहिर भैया से मैं एक कागज पर ‘काकी’ लिखवा रक्खूँगा। नाम की चिट रहेगी, तो पतंग ठीक उन्हीं के पास पहुँच जायेगी।”
दो घण्टे बाद प्रफुल्ल मन से श्यामू और भोला अँधेरी कोठरी में बैठे-बैठे पतंग में रस्सी बाँध रहे थे। अकस्मात शुभ कार्य में विघ्न की तरह उग्ररूप धारण किये विश्वेश्वर वहाँ आ घुसे। भोला और श्यामू को धमकाकर बोले - “तुमने हमारे कोट से रुपया निकाला है?”
भोला सकपकाकर एक ही डाँट में मुखबिर हो गया। बोला - “श्यामू भैया ने रस्सी और पतंग मँगाने के लिए निकाला था।” विश्वेश्वर ने श्यामू को दो तमाचे जड़कर कहा - “चोरी सीखकर जेल जायेगा? अच्छा, तुझे आज अच्छी तरह समझाता हूँ।” कहकर फिर तमाचे जड़े और कान मलने के बाद पतंग फाड़ डाला। अब रस्सियों की ओर देखकर पूछा - “ये किसने मँगाई?”
भोला ने कहा - “इन्होंने मँगायी थी। कहते थे, इससे पतंग तानकर काकी को राम के यहाँ से नीचे उतारेंगे।”
विश्वेश्वर हतबुद्धि होकर वहीं खड़े रह गये। उन्होंने फटी हुई पतंग उठाकर देखी। उस पर चिपके हुए कागज पर लिखा हुआ था - “काकी।”
बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गाँव के ज़मींदार और नम्बरदार थे। उनके पितामह किसी समय बड़े धन-धान्य सम्पन्न थे। गाँव का पक्का तालाब और मंदिर, जिनकी अब मरम्मत भी मुश्किल थी, उन्हीं के कीर्ति-स्तम्भ थे। कहते हैं, इस दरवाज़े पर हाथी झूमता था, अब उसकी जगह एक बूढ़ी भैंस थी, जिसके शरीर में अस्थि-पंजर के सिवा और कुछ न रहा था, पर दूध शायद बहुत देती थी, क्योंकि एक न एक आदमी हाँड़ी लिये उसके सिर पर सवार ही रहता था। बेनीमाधव सिंह अपनी आधी से अधिक सम्पत्ति वकीलों को भेंट कर चुके थे।
आपको अगर लगता है वर्तमान पाठ्यक्रम में बदलाव की आवश्यकता है और क्या बदलाव होना चाहिए तो अपने सुझाव आप ३० अप्रैल २०१८ तक दिए लिंक पर दे दीजिए: http://mhrd.gov.in/suggestions/ Anyone can give suggestion to HRD if They feel in present syllabus any change is required. They are inviting suggestion. Suggestions could be made latest by 30th April (Monday). It will be appreciated if suggestions are precise. It is assured that your personal details will remain confidential .http://mhrd.gov.in/suggestions/