Monday, July 30, 2018

मिठाईवाला।Mithayiwala।भगवतीप्रसाद वाजपाई



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मिठाईवाला।Mithayiwala
बहुत ही मीठे स्वरों के साथ वह गलियों में घूमता हुआ कहता - "बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।"

 इस अधूरे वाक्य को वह ऐसे विचित्र किन्तु मादक-मधुर ढंग से गाकर कहता कि सुननेवाले एक बार अस्थिर हो उठते। उनके स्नेहाभिषिक्त कंठ से फूटा हुआ उपयुक्त गान सुनकर निकट के मकानों में हलचल मच जाती। छोटे-छोटे बच्चों को अपनी गोद में लिए युवतियाँ चिकों को उठाकर छज्जों पर नीचे झाँकने लगतीं। गलियों और उनके अन्तर्व्यापी छोटे-छोटे उद्यानों में खेलते और इठलाते हुए बच्चों का झुंड उसे घेर लेता और तब वह खिलौनेवाला वहीं बैठकर खिलौने की पेटी खोल देता।


बच्चे खिलौने देखकर पुलकित हो उठते। वे पैसे लाकर खिलौने का मोल-भाव करने लगते। पूछते - "इछका दाम क्या है, औल इछका? औल इछका?" खिलौनेवाला बच्चों को देखता, और उनकी नन्हीं-नन्हीं उँगलियों से पैसे ले लेता, और बच्चों की इच्छानुसार उन्हें खिलौने दे देता। खिलौने लेकर फिर बच्चे उछलने-कूदने लगते और तब फिर खिलौनेवाला उसी प्रकार गाकर कहता - "बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।" सागर की हिलोर की भाँति उसका यह मादक गान गली भर के मकानों में इस ओर से उस ओर तक, लहराता हुआ पहुँचता, और खिलौनेवाला आगे बढ़ जाता।


राय विजयबहादुर के बच्चे भी एक दिन खिलौने लेकर घर आए! वे दो बच्चे थे - चुन्नू और मुन्नू! चुन्नू जब खिलौने ले आया, तो बोला - "मेला घोला कैछा छुन्दल ऐ?"
मुन्नू बोला - "औल देखो, मेला कैछा छुन्दल ऐ?"

 दोनों अपने हाथी-घोड़े लेकर घर भर में उछलने लगे। इन बच्चों की माँ रोहिणी कुछ देर तक खड़े-खड़े उनका खेल निरखती रही। अन्त में दोनों बच्चों को बुलाकर उसने पूछा - "अरे ओ चुन्नू - मुन्नू, ये खिलौने तुमने कितने में लिए है?"


मुन्नू बोला - "दो पैछे में! खिलौनेवाला दे गया ऐ।"


रोहिणी सोचने लगी - इतने सस्ते कैसे दे गया है? कैसे दे गया है, यह तो वही जाने। लेकिन दे तो गया ही है, इतना तो निश्चय है!


एक जरा-सी बात ठहरी। रोहिणी अपने काम में लग गई। फिर कभी उसे इस पर विचार की आवश्यकता भी भला क्यों पड़ती।


2

छह महीने बाद।

नगर भर में दो-चार दिनों से एक मुरलीवाले के आने का समाचार फैल गया। लोग कहने लगे - "भाई वाह! मुरली बजाने में वह एक ही उस्ताद है। मुरली बजाकर, गाना सुनाकर वह मुरली बेचता भी है सो भी दो-दो पैसे भला, इसमें उसे क्या मिलता होगा। मेहनत भी तो न आती होगी!"


एक व्यक्ति ने पूछ लिया - "कैसा है वह मुरलीवाला, मैंने तो उसे नही देखा!"

उत्तर मिला - "उम्र तो उसकी अभी अधिक न होगी, यही तीस-बत्तीस का होगा। दुबला-पतला गोरा युवक है, बीकानेरी रंगीन साफा बाँधता है।"


"वही तो नहीं, जो पहले खिलौने बेचा करता था?"


"क्या वह पहले खिलौने भी बेचा करता था?'


"हाँ, जो आकार-प्रकार तुमने बतलाया, उसी प्रकार का वह भी था।"

"तो वही होगा। पर भई, है वह एक उस्ताद।


प्रतिदिन इसी प्रकार उस मुरलीवाले की चर्चा होती। प्रतिदिन नगर की प्रत्येक गली में उसका मादक, मृदुल स्वर सुनाई पड़ता - "बच्चों को बहलानेवाला, मुरलियावाला।


रोहिणी ने भी मुरलीवाले का यह स्वर सुना। तुरन्त ही उसे खिलौनेवाले का स्मरण हो आया। उसने मन ही मन कहा - "खिलौनेवाला भी इसी तरह गा-गाकर खिलौने बेचा करता था।"


रोहिणी उठकर अपने पति विजय बाबू के पास गई - "जरा उस मुरलीवाले को बुलाओ तो, चुन्नू-मुन्नू के लिए ले लूँ। क्या पता यह फिर इधर आए, न आए। वे भी, जान पड़ता है, पार्क में खेलने निकल गए है।"

विजय बाबू एक समाचार पत्र पढ़ रहे थे। उसी तरह उसे लिए हुए वे दरवाजे पर आकर मुरलीवाले से बोले - "क्यों भई, किस तरह देते हो मुरली?"

किसी की टोपी गली में गिर पड़ी। किसी का जूता पार्क में ही छूट गया, और किसी की सोथनी (पाजामा) ही ढीली होकर लटक आई है। इस तरह दौड़ते-हाँफते हुए बच्चों का झुण्ड आ पहुँचा। एक स्वर से सब बोल उठे - "अम बी लेंदे मुल्ली, और अम बी लेंदे मुल्ली।"

मुरलीवाला हर्ष-गद्गद हो उठा। बोला - "देंगे भैया! लेकिन जरा रुको, ठहरो, एक-एक को देने दो। अभी इतनी जल्दी हम कहीं लौट थोड़े ही जाएँगे। बेचने तो आए ही हैं, और हैं भी इस समय मेरे पास एक-दो नहीं, पूरी सत्तावन।... हाँ, बाबूजी, क्या पूछा था आपने कितने में दीं!... दी तो वैसे तीन-तीन पैसे के हिसाब से है, पर आपको दो-दो पैसे में ही दे दूँगा।"

विजय बाबू भीतर-बाहर दोनों रूपों में मुस्करा दिए। मन ही मन कहने लगे - कैसा है। देता तो सबको इसी भाव से है, पर मुझ पर उलटा एहसान लाद रहा है। फिर बोले - "तुम लोगों की झूठ बोलने की आदत होती है। देते होगे सभी को दो-दो पैसे में, पर एहसान का बोझा मेरे ही ऊपर लाद रहे हो।"

मुरलीवाला एकदम अप्रतिभ हो उठा। बोला - "आपको क्या पता बाबू जी कि इनकी असली लागत क्या है। यह तो ग्राहकों का दस्तूर होता है कि दुकानदार चाहे हानि उठाकर चीज क्यों न बेचे, पर ग्राहक यही समझते हैं - दुकानदार मुझे लूट रहा है। आप भला काहे को विश्वास करेंगे? लेकिन सच पूछिए तो बाबूजी, असली दाम दो ही पैसा है। आप कहीं से दो पैसे में ये मुरलियाँ नहीं पा सकते। मैंने तो पूरी एक हजार बनवाई थीं, तब मुझे इस भाव पड़ी हैं।"

विजय बाबू बोले - "अच्छा, मुझे ज्यादा वक्त नहीं, जल्दी से दो ठो निकाल दो।"

दो मुरलियाँ लेकर विजय बाबू फिर मकान के भीतर पहुँच गए। मुरलीवाला देर तक उन बच्चों के झुण्ड में मुरलियाँ बेचता रहा। उसके पास कई रंग की मुरलियाँ थीं। बच्चे जो रंग पसन्द करते, मुरलीवाला उसी रंग की मुरली निकाल देता।


"यह बड़ी अच्छी मुरली है। तुम यही ले लो बाबू, राजा बाबू तुम्हारे लायक तो बस यह है। हाँ भैए, तुमको वही देंगे। ये लो।... तुमको वैसी न चाहिए, यह नारंगी रंग की, अच्छा वही लो।.... ले आए पैसे? अच्छा, ये लो तुम्हारे लिए मैंने पहले ही निकाल रखी थी...! तुमको पैसे नहीं मिले। तुमने अम्मा से ठीक तरह माँगे न होंगे। धोती पकड़कर पैरों में लिपटकर, अम्मा से पैसे माँगे जाते हैं बाबू! हाँ, फिर जाओ। अबकी बार मिल जाएँगे...। दुअन्नी है? तो क्या हुआ, ये लो पैसे वापस लो। ठीक हो गया न हिसाब?....मिल गए पैसे? देखो, मैंने तरकीब बताई! अच्छा अब तो किसी को नहीं लेना है? सब ले चुके? तुम्हारी माँ के पैसे नहीं हैं? अच्छा, तुम भी यह लो। अच्छा, तो अब मैं चलता हूँ।"

इस तरह मुरलीवाला फिर आगे बढ़ गया।


3

आज अपने मकान में बैठी हुई रोहिणी मुरलीवाले की सारी बातें सुनती रही। आज भी उसने अनुभव किया, बच्चों के साथ इतने प्यार से बातें करनेवाला फेरीवाला पहले कभी नहीं आया। फिर यह सौदा भी कैसा सस्ता बेचता है! भला आदमी जान पड़ता है। समय की बात है, जो बेचारा इस तरह मारा-मारा फिरता है। पेट जो न कराए, सो थोड़ा!


इसी समय मुरलीवाले का क्षीण स्वर दूसरी निकट की गली से सुनाई पड़ा - "बच्चों को बहलानेवाला, मुरलियावाला!"


रोहिणी इसे सुनकर मन ही मन कहने लगी - और स्वर कैसा मीठा है इसका!


बहुत दिनों तक रोहिणी को मुरलीवाले का वह मीठा स्वर और उसकी बच्चों के प्रति वे स्नेहसिक्त बातें याद आती रहीं। महीने के महीने आए और चले गए। फिर मुरलीवाला न आया। धीरे-धीरे उसकी स्मृति भी क्षीण हो गई।



4

आठ मास बाद -

सर्दी के दिन थे। रोहिणी स्नान करके मकान की छत पर चढ़कर आजानुलंबित केश-राशि सुखा रही थी। इसी समय नीचे की गली में सुनाई पड़ा - "बच्चों को बहलानेवाला, मिठाईवाला।"


मिठाईवाले का स्वर उसके लिए परिचित था, झट से रोहिणी नीचे उतर आई। उस समय उसके पति मकान में नहीं थे। हाँ, उनकी वृद्धा दादी थीं। रोहिणी उनके निकट आकर बोली - "दादी, चुन्नू-मुन्नू के लिए मिठाई लेनी है। जरा कमरे में चलकर ठहराओ। मैं उधर कैसे जाऊँ, कोई आता न हो। जरा हटकर मैं भी चिक की ओट में बैठी रहूँगी।"


दादी उठकर कमरे में आकर बोलीं - "ए मिठाईवाले, इधर आना।"


मिठाईवाला निकट आ गया। बोला - "कितनी मिठाई दूँ, माँ? ये नए तरह की मिठाइयाँ हैं - रंग-बिरंगी, कुछ-कुछ खट्टी, कुछ-कुछ मीठी, जायकेदार, बड़ी देर तक मुँह में टिकती हैं। जल्दी नहीं घुलतीं। बच्चे बड़े चाव से चूसते हैं। इन गुणों के सिवा ये खाँसी भी दूर करती हैं! कितनी दूँ? चपटी, गोल, पहलदार गोलियाँ हैं। पैसे की सोलह देता हूँ।"


दादी बोलीं - "सोलह तो बहुत कम होती हैं, भला पचीस तो देते।"


मिठाईवाला - "नहीं दादी, अधिक नहीं दे सकता। इतना भी देता हूँ, यह अब मैं तुम्हें क्या... खैर, मैं अधिक न दे सकूँगा।"


रोहिणी दादी के पास ही थी। बोली - "दादी, फिर भी काफी सस्ता दे रहा है। चार पैसे की ले लो। यह पैसे रहे।



मिठाईवाला मिठाइयाँ गिनने लगा।

"तो चार की दे दो। अच्छा, पच्चीस नहीं सही, बीस ही दो। अरे हाँ, मैं बूढ़ी हुई मोल-भाव अब मुझे ज्यादा करना आता भी नहीं।"

कहते हुए दादी के पोपले मुँह से जरा-सी मुस्कराहरट फूट निकली।

रोहिणी ने दादी से कहा - "दादी, इससे पूछो, तुम इस शहर में और भी कभी आए थे या पहली बार आए हो? यहाँ के निवासी तो तुम हो नहीं।"

दादी ने इस कथन को दोहराने की चेष्टा की ही थी कि मिठाईवाले ने उत्तर दिया - "पहली बार नहीं, और भी कई बार आ चुका है।"

रोहिणी चिक की आड़ ही से बोली - "पहले यही मिठाई बेचते हुए आए थे, या और कोई चीज लेकर?"

मिठाईवाला हर्ष, संशय और विस्मयादि भावों मे डूबकर बोला - "इससे पहले मुरली लेकर आया था, और उससे भी पहले खिलौने लेकर।"

रोहिणी का अनुमान ठीक निकला। अब तो वह उससे और भी कुछ बातें पूछने के लिए अस्थिर हो उठी। वह बोली - "इन व्यवसायों में भला तुम्हें क्या मिलता होगा?"

वह बोला - "मिलता भला क्या है! यही खाने भर को मिल जाता है। कभी नहीं भी मिलता है। पर हाँ; सन्तोष, धीरज और कभी-कभी असीम सुख जरूर मिलता है और यही मैं चाहता भी हूँ।"

"सो कैसे? वह भी बताओ।"

"अब व्यर्थ उन बातों की क्यों चर्चा करुँ? उन्हें आप जाने ही दें। उन बातों को सुनकर आप को दु:ख ही होगा।"

"जब इतना बताया है, तब और भी बता दो। मैं बहुत उत्सुक हूँ। तुम्हारा हर्जा न होगा। मिठाई मैं और भी कुछ ले लूँगी।"

अतिशय गम्भीरता के साथ मिठाईवाले ने कहा - "मैं भी अपने नगर का एक प्रतिष्ठित आदमी था। मकान-व्यवसाय, गाड़ी-घोड़े, नौकर-चाकर सभी कुछ था। स्त्री थी, छोटे-छोटे दो बच्चे भी थे। मेरा वह सोने का संसार था। बाहर संपत्ति का वैभव था, भीतर सांसारिक सुख था। स्त्री सुन्दरी थी, मेरी प्राण थी। बच्चे ऐसे सुन्दर थे, जैसे सोने के सजीव खिलौने। उनकी अठखेलियों के मारे घर में कोलाहल मचा रहता था। समय की गति! विधाता की लीला। अब कोई नहीं है। दादी, प्राण निकाले नहीं निकले। इसलिए अपने उन बच्चों की खोज में निकला हूँ। वे सब अन्त में होंगे, तो यहीं कहीं। आखिर, कहीं न जन्मे ही होंगे। उस तरह रहता, घुल-घुल कर मरता। इस तरह सुख-संतोष के साथ मरूँगा। इस तरह के जीवन में कभी-कभी अपने उन बच्चों की एक झलक-सी मिल जाता है। ऐसा जान पड़ता है, जैसे वे इन्हीं में उछल-उछलकर हँस-खेल रहे हैं। पैसों की कमी थोड़े ही है, आपकी दया से पैसे तो काफी हैं। जो नहीं है, इस तरह उसी को पा जाता हूँ।"

रोहिणी ने अब मिठाईवाले की ओर देखा - उसकी आँखें आँसुओं से तर हैं।

इसी समय चुन्नू-मुन्नू आ गए। रोहिणी से लिपटकर, उसका आँचल पकड़कर बोले - "अम्माँ, मिठाई!"

"मुझसे लो।" यह कहकर, तत्काल कागज की दो पुड़ियाँ, मिठाइयों से भरी, मिठाईवाले ने चुन्नू-मुन्नू को दे दीं!
रोहिणी ने भीतर से पैसे फेंक दिए।

मिठाईवाले ने पेटी उठाई, और कहा - "अब इस बार ये पैसे न लूँगा।"

दादी बोली - "अरे-अरे, न न, अपने पैसे लिए जा भाई!"
तब तक आगे फिर सुनाई पड़ा उसी प्रकार मादक-मृदुल स्वर में - "बच्चों को बहलानेवाला मिठाईवाला।"

- भगवतीप्रसाद वाजपेयी

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Saturday, July 21, 2018

Class 12 Hindi Elective Changed Syllabus from 2018-19

क्षितिज भाग १ Kshitiz 1- Class 9th (NCERT)



  1. दो बैलों की कथा  Part 1:https://youtu.be/2L0xpxhWukw                                                                                            Part 2:https://youtu.be/vGQ8trEYc8Q
     
  2. ल्हासा की ओर -Lhasa ki or -https://youtu.be/lJhyx2gGOOw
  3. Upbhoktavad ki sanskriti उपभोक्तावाद की संस्कृति-https://youtu.be/2F_q82qe2V8
  4. साँवले सपनों की याद Sanwale sapno ki Yaad-https://youtu.be/LdV6tK0bzs0
  5. Nana Sahab ki putri Maina नाना साहब की पुत्री देवी मैनाhttps://youtu.be/nDo5wAOdfUc
  6. प्रेमचंद के फटे जूते Premchand ke phate Jutey https://youtu.be/UcSp10QVmBU
  7. बचपन के दिन Mahadevi VermaMere Bachpan ke din (Part 1) https://youtu.be/xd47HjJr7co     Mere Bachpan ke din (Part 2) https://youtu.be/T8Ov2ZYucAg 
  8. एक कुत्ता और एक मैना  Ek kutta aur Ek maina https://youtu.be/XHmBZBKnYiQ                   Poems:
  9. Kabir ke sabad- https://youtu.be/ODQNnP60XXU
  10. Sakhiyan- https://youtu.be/PtPHPPMmGuE
  11. Laldyad ke vaakh- https://youtu.be/Ewtgrbpkcs4
  12. Raskhan - https://youtu.be/TMyv2Js0gCU
  13.  Kaidi/Qaidi aur kokila माखनलाल चतुर्वेदी https://youtu.be/TQs2rU9cf4k
  14. Gram Shree-ग्राम श्री  सुमित्रानंदन पन्त -https://youtu.be/K76Rr98qOsw
  15. Chandr gahana se lautTi ber केदारनाथ अग्रवाल https://youtu.be/FUPYYrJ-ojQ
  16. Megha aaye  सर्वेश्वर दयाल सक्सेना -https://youtu.be/y2P5whRxP7g
  17. Bachche Kaam par Ja rahe hain चंद्रकांत देवताल   https://youtu.be/EKKyt32N8fA
  18. Yamraj ki disha राजेश जोशी https://youtu.be/lM76K3_PGQM                                                    *9 हिंदी कृतिका Kritika NCERT
  19. इस जल प्रलय में -is jal pralay mein-https://youtu.be/ix44_w3ynlg
  20. मेरे संग की औरतें mere sang ki aurten -https://youtu.be/96feSiibwXA
  21. Reedh ki haddi रीढ़ की हड्डी https://youtu.be/poLsFqn2oOc
  22. Maati wali माटी वाली https://youtu.be/1Hv5pmlU_WI
  23. किस तरह आखिरकार मैं हिन्दी में आया-Kis tarah Aakhirkar main hindi mein aaya/ https://youtu.be/tI3-cKknTPI

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बारहवीं (12th) कोर / आरोह और वितान भाग - 2

video lectures of the Class 12 Hindi (Core) Check this playlist -:

कक्षा (Class) - बारहवीं (12th) कोर 
विषय (Subject) - हिंदी (Hindi)
पुस्तक  का नाम (Book Name):  आरोह भाग - 2 (Aaroh- 2)

विषय सूची

काव्य खंड

1. हरिवंश राय बच्चन
1. आत्मपरिचय
2. एक गीत
2. आलोक धन्वा
1. पतंग
3. कुँवर नारायण
1. कविता के बहाने
2. बात सीधी थी पर
4. रघुवीर सहाय
1. कैमरे में बंद अपाहिज
5. गजानन माध्व मुक्तिबोध
1. सहर्ष स्वीकारा है
6. शमशेर बहादुर सिंह
1. उषा
7. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
1. बादल राग
8. तुलसीदास
1. कवितावली (उत्तर कांड से)
2. लक्ष्मण-मूर्छा  और राम का विलाप
9. फ़िराक गोरखपुरी
1. रुबाइयाँ
2. गजल
10. उमाशंकर जोशी
1. छोटा मेरा खेत
2. बगुले के पंख

गद्य खंड

11. महादेवी वर्मा
भक्तिन
12. जैनेन्द्र कुमार
बाज़ार दर्शन
13. धर्मवीर भारती
काले मेघा पानी दे
14. फणीश्वर नाथ रेणु
पहलवान की ढोलक
15. विष्णु खरे
चार्ली चैप्लिन यानी हम सब
16. रशिया सज्जाद शहीर
नमक
17. हजारी प्रसाद द्विवेदी
शिरीष के फूल 
18. बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर
1. श्रम विभाजन और जाति-प्रथा
2. मेरी कल्पना का आदर्श समाज

वितान   भाग - 2  विषय सूची

1. सिल्वर वैडिंग
-मनोहर श्याम जोशी
2. जूझ
-आनंद यादव
3. अतीत में दबे पाँव
-ओम थानवी
4. डायरी के पन्ने
-ऐन फ्रैंक

Monday, July 16, 2018

जहाँ लक्ष्मी क़ैद है -Story (अंतिम भाग )

(Audio ) गतांक से आगे -:
वातावरण का बोझ बढ़ता ही चला जा रहा था कि एक घटना हो गई।
उन्होंने साँस इकट्ठी करके कुछ बोलने को मुँह खोला ही था कि भीतर आँगन का टट्टर (लोहे का जाल) भयंकर रूप से झनझना उठा, जैसे कोई बहुत ही भारी चीज़ ऊपर से फेंक दी गई हो। और फिर ज़ोर से बजती हुई खनखनाती कल्छी जैसी चीज़ नीचे आ गिरी; उसके पीछे चिमटा, संडासी...और फिर तो उसे ऐसा लगा जैसे कोई बाल्टी, कड़ाही, तवा इत्यादि निकालकर टट्टर पर फेंक रहा है और पानी और छोटी-मोटी चीज़ें नीचे गिर रही हैं। उसके साथ कुछ ऐसा कोलाहल और कुहराम भीतर सुनाई दिया, जैसे आग लग गई हो!
गोविन्द झटककर सीधा हो गया—कहीं सचमुच आग-वाग तो नहीं लग गई? उसने प्रश्नसूचक दृष्टि से चौंककर लाला की तरफ़ देखा और वह आश्चर्य से अवाक् रह गया। लाला परेशान ज़रूर दिखाई देता था लेकिन कोई भयंकर घटना हो गई है और उसे दौड़कर जाना चाहिए, ऐसी कोई बात उसके चेहरे पर नहीं थी। मिस्तरी और चौकीदार, दोनों बड़े दबे व्यंग्य से एक-दूसरे की ओर देखते, मुस्कराते, लाला की ओर निगाहें फेंक रहे थे। किसी को भी कोई खास चिन्ता नहीं थी। भीतर कोलाहल बढ़ रहा था, चीज़ें फिंक रही थीं और टट्टर की खड़खड़ाहट-घनघनाहट गूंजती जा रही थी। आखिर  यह क्या हो रहा है? उत्तेजना से उसकी पसलियाँ तड़कने को हो आईं। वह लाला से यह पूछने ही वाला था कि यह क्या है, तभी बड़े कष्ट से हाथ की लकड़ी पर सारा ज़ोर देकर वह उठ खड़ा हुआ...और घिसटता-सा जहाँ से आया, उसी गली में चला गया। जाते हुए उलटकर धीरे से उसने किवाड़ बन्द कर दिये। मिस्तरी और चौकीदार ने मुक्त होकर बदन ढीला किया, एक-दूसरे की ओर मुस्कराकर देखा, खंखारा और फिर एक बार खुलकर मुस्कराये। लाला का पीछा करती गोविन्द की निगाह अब उन लोगों की ओर मुड़ गई। और जब उससे नहीं रहा गया तो वह खड़ा हो गया। मुर्गे के पंखों की तरह कम्बल को बाँहों पर फड़फड़ाकर उसने लपेटा और उस पत्रिका को देखता हुआ चबूतरे से नीचे उतर आया। थोड़ी देर यों ही असमंजस में खड़ा रहा, फिर उस गलियारे के दरवाज़े तक गया कि कुछ दिखाई-सुनाई दे। कोलाहल में चार-पाँच आवाज़ें एकसाथ किवाड़ की दरार से घुटी-घुटी सुनाई दीं और उसमें सबसे तेज़ आवाज़ वही थी जिसे उसने लक्ष्मी की आवाज़ समझ रखा था। हे भगवान, क्या हो गया? कोई कहीं से गिर पड़ा, आग लग गई, साँप-बिच्छू ने काट लिया? लेकिन जिस तरह ये लोग बैठे देख रहे थे, उससे तो ऐसा लगता था जैसे यह कोई खास बात नहीं है। यह कम्बख्त किवाड़ क्यों बन्द कर गया? इस वक्त टट्टर इस तरह धमाधम बज रहा था, जैसे उस पर कोई तांडव कर रहा हो। उस ऊँची, चीखती महीन आवाज़ में वह नारी-कंठ, जिसे वह लक्ष्मी की आवाज़ समझता था, इतनी तेज़ और ज़ोर से बोल रहा था कि लाख कोशिश करने पर भी वह कुछ नहीं समझा सका।
‘‘परेशान क्यों हो रहे हो बाबू जी?’’ चौकीदार की आवाज़ सुनकर वह एकदम सीधा खड़ा हो गया। मुस्कराता हुआ वह कह रहा था, ‘‘आज चंडी चेत रही है।’’ उसकी इस बात पर मिस्तरी हँसा।
गोविन्द बुरी तरह झुँझला उठा। कोई इतनी बड़ी बात, घटना हो रही है और ये बदमाश इस तरह मज़ा लूट रहे हैं! फिर भी वह अत्यन्त चिन्तित और उत्सुक-सा उधर मुड़ा।
इस बड़े कमरे या छोटे हॉल में हर चीज़ पर आटे का महीन पाउडर छाया हुआ था। एक ओर आटे में नहायी चक्की, काले पत्थर के बने हाथी की तरह चुपचाप खड़ी थी और उसका पिसे आटे को सम्भालने वाला गिलाफ़ हाथी की सूंड की तरह लटका था। उसी की सीध में दूसरी दीवार के नीचे मोटर लगी थी, जहाँ से एक चौड़ा पट्टा चक्की को चलाता था। इतने हिस्से में सुरक्षा के लिए एक रेलिंग लगा दिया गया था। सामने की दीवार में चिपके लम्बे-चौड़े लाल चीकोर तख्ते पर एक खोपड़ी और दो हड्डियों के क्रॉस के नीचे ‘खतरा’ और ‘डेंजर’ लिखे थे। उसके चबूतरे की बगल में ही छत से जाती ज़ंजीर में एक बड़ी लोहे की तराजू, कथाकली की मुद्रा में एक बाँह ऊँची किये लटकी थी, क्योंकि दूसरे पलड़े में मन से लेकर छटाँक तक के बाटों का ढेर लगा था। यद्यपि लाला रूपाराम अक्सर चौकीदार को डाँटते थे कि रात में इसे उतारकर रख दिया कर; लेकिन किसी-किसी दिन आधी रात तक चक्की चलती और दुकान-दफ्तर वाले तो सुबह पाँच बजे से ही आने लगते—उस समय बर्फ जैसी ठंडी तराजू को छूना और टाँगना दिलावरसिंह को अधिक पसन्द नहीं था। वह उसे यह कहकर टाल देता कि लड़ाई में सुबह-ही-सुबह काफी ठंडी बन्दूकें लेकर मार्च और परेड कर लिया, अब क्या जि़न्दगी-भर ठंडा लोहा ही छूना उसकी किस्मत  में बदा है? इसीलिए वह उसे टंगी ही रहने देता। हालाँकि ठीक बीच में होने के कारण वह जब भी दरवाज़ा खोलने उठता तो खुद ही उससे टकराता-उलझता और रात के एकान्त में फौज़ी गालियों का स्वागत भाषण करता। पुराना कैलेंडर, एक ओर पिसाई के लिए भरे अन्न या पिसे आटे के बोरे, कनस्तर, पोटलियाँ और ऊपर चढ़कर अन्न डालने का मज़बूत-सा स्टूल। इस समय दोनों टाँगें, जिनमें कीलदार फुलबूट डटे हुए थे, धरती पर फैलाये चौकीदार मज़े में खाट की पाटी पर झुका बैठा अपना पुराना—पहली लड़ाई के सिपाहीपने की याद—ग्रेटकोट चारों ओर लपेटे शान से बीड़ी धौंक रहा था और धीरे-धीरे सामने बैठे मिस्तरी सलीम से बातें भी करता जा रहा था।
उसके और मिस्तरी के बीच में एक बरोसी जल रही थी; जब भी ध्यान आ जाता तो पास रखे कोयले-लकड़ी कुछ डाल देता और कभी-कभी अत्यन्त निस्पृहता से हाथ या पाँव उस दिशा में बढ़ाकर गर्मी सोखता। सलीम सिर झुकाये गर्म पानी की बाल्टी में ट्यूब डुबा-डुबाकर उनके पंक्चर देखने में व्यस्त था। उसके आस-पास दस-बारह काले-लाल ट्यूब, रबर की कतरनें, कैंची, पेंच, प्लास, सोल्यूशन, चमड़े की पेटी और एक ओर टायर लटके दस-बारह साइकिल के पहियों का ढेर था। अपने इस सामान से उसने आधे से ज़्यादा कमरा घेर लिया था।
जब गोविन्द उसके पास आया तो वह सिर झुकाये ही हँसता हुआ ट्यूब के पंक्चर को पकड़कर कान में लगी कॉपीइंग पेंसिल को थूक से गीला करते हुए (हालाँकि ट्यूब पानी से भीगा था और सामने पानी-भरी बाल्टी भी रखी थी) निशान लगाता हुआ जवाब दे रहा था, ‘‘यह कहा जमादार साहब ने?’’ फिर एक भौंह को ज़रा तिरछी करके बोला, ‘‘लाला कुछ नामा ढीला करे तो...उसकी लड़की पर जिन का साया है, उसका इलाज तो हम अपने मौलवी बदरुद्दीन साहब से मिनटों में करा दें।’’
गोविन्द का माथा ठनका, लाला की किसी लड़की पर क्या कोई देवी आती है? उसे अपने गाँव की एक ब्राह्मणी विधवा, तारा का एकदम ध्यान हो आया। उसे भी जब देवी आती थी तो घर के बर्तन उठा-उठाकर फेंकती थी, उसका सारा बदन ऐंठने लगता था, मुँह से झाग जाने लगते थे, गर्दन मरोड़ खाने लगती थी, आँखें और जीभ बाहर निकलने लगती थीं। कौन लड़की है लाला की? लक्ष्मी तो नहीं? भगवान करे, लक्ष्मी न हो! उसका दिल आशंका से डूबने-सा लगा। उसने सुना, कोलाहल अब लगभग शान्त हो गया था और कहीं दूर से रह-रहकर एक हल्की रोने की आवाज़-भर सुनाई देती थी। शायद किसी को दौरा-बौरा ही आ गया है, सभी तो ये लोग निश्चिंत हैं।
गोविन्द को सुनाकर चौकीदार बोला, ‘‘नामा? तुम भी यार मिस्तरी, किसी दिन बेचारे बुड्ढे का हार्टफेल कराओगे। और बेटा, इस ‘जिन’ का इलाज तुम्हारे मौलवी के पास नहीं है, समझे? वह तो हवा ही दूसरी है। आओ बाबू जी, बैठो।’’
चौकीदार ने बैठे-बैठे स्टूल की तरफ़ इशारा किया। असल में वह गोविन्द को ‘बाबू जी’ जरूर कहता था; लेकिन उसका विशेष आदर नहीं करता था। एक तो गोविन्द क़स्बे से आया था, और उसे शहर में चौकीदारी करते हो चुके थे नक़द बीस साल; दूसरे वह फौज में रहा था और कैरो तक घूम आया था—उम्र, अनुभव, तहज़ीब सभी में वह अपने को गोविन्द से ज़्यादा ही समझता था। लेकिन गोविन्द को इस समय इस सबका ध्यान नहीं था। उसने स्टूल से टिककर ज़रा सहारा लेते हुए चिन्तित स्वर में पूछा, ‘‘क्यों भई, यह शोरगुल क्या था? क्या हो रहा था?’’
मिस्तरी ने सिर उठाकर उसे देखा और चौकीदार की मुस्कराती नज़रों से उसकी आँखें मिलीं। उसने अपनी खिचड़ी मूँछों पर हथेली फेरते हुए कहा, ‘‘कुछ नहीं बाबू जी, ऊपर कोई चीज़ किसी बच्चे ने गिरा दी होगी...।’’
मिस्तरी ने कहा, ‘‘जमादार साहब, झूठ क्यों बोलते हो? साफ़-साफ़ क्यों नहीं बता देते? अब इनसे क्या छिपा रहेगा?’’
‘‘तू खुद क्यों नहीं बता देता?’’ चौकीदार ने कहा और जेब से बीड़ी का बंडल निकाल लिया, काग़ज़ नोचकर आटे की लोई बनाने की तरह उसे ढीला किया, फिर एक बीड़ी निकालकर मिस्तरी की ओर फेंकी। दूसरी को दोनों तरफ़ से फूँका और जलाने के लिए किसी दहकते कोयले की तलाश में बरोसी में निगाहें घुमाते ज़रा व्यस्तता से बात जारी रखी, ‘‘तुझे क्या मालूम नहीं है?’’
इन दोनों की चुहल से गोविन्द की झुँझलाहट बढ़ रही थी। उसे लगा, ज़रूर ही दाल में काला है, जिसे ये लोग टाल रहे हैं। मिस्तरी जीभ निकाले पंक्चर के स्थान को रेगमाल से घिस रहा था। वह जब भी कोई काम एकाग्रचित्त से करता तो अपनी जीभ को निकालकर ऊपर के होंठ की तरफ़ मोड़ लेता था। उसकी चाँद के बीच में उभरते गंज को देखकर गोविन्द ने सोचा कि गंजापन तो रईसी की निशानी है; लेकिन यह कम्बख्त तो आधी रात में यहाँ पंक्चर जोड़ रहा है। उसने उसी तरह सिर झुकाये ही कहा, ‘‘अब मैं बाबू जी को ि़कस्सा बताऊँ या इन ट्यूबों से सिर फोड़ूँ? साले सड़कर हलुआ तो हो गये हैं, पर बदलेगा नहीं। मन तो होता है, सबको उठाकर इस अँगीठी में रख दूँ, होगा सुबह सो देखा जायेगा...’’
‘‘ये इतने ट्यूब हैं काहे के?’’ ज़रा आत्मीयता जताने को गोविन्द ने पूछा, ‘‘हालत तो सचमुच इतनी बड़ी ख़राब हो रही है।’’
‘‘आपको नहीं मालूम?’’ इस बार काम छोड़कर मिस्तरी ने गौर से गोविन्द को देखा, ‘‘यह आपके लाला के जो दो दर्जन रिक्शा चलते हैं, उनका कूड़ा है। यह तो होता नहीं कि इतने रिक्शे हैं, रोज टूट-फूट, मरम्मत होती ही रहती है; हमेशा के लिए लगा ले एक मिस्तरी; दिन भर की छुट्टी हुई। सो तो नहीं; ट्यूब-टायर मेरे सिर हैं और बाकी टूट-फूट मिस्तरी अली अहमद ठीक करते हैं।’’ फिर उनसे यूँ ही पूछा, ‘‘आप बाबू जी, नये आये हैं?’’
‘‘हाँ, दो-तीन दिन ही तो हुए हैं। मैं यहाँ पढ़ने आया हूँ।’’ गोविन्द ने कहा। उसके पेट में खलबलाहट मच रही थी, लेकिन वह नये सिरे से पूछने का सूत्र खोज रहा था।
‘‘तभी तो,’’ मिस्तरी बोला, ‘‘तभी तो आप यह सब पूछ रहे हैं। रात को इसका हिसाब रखते हैं न? हाँ, थोड़े दिनों में अपने फ़रज़न्द को भी आपसे पढ़वायेगा।’’ अपने ‘फ़रज़न्द’ शब्द में सो व्यंग्य उसने दिया था, उससे खुद ही प्रसन्न होकर मुस्कराते हुए उसने चौकीदार की दी हुई बीड़ी सुलगाई।
‘‘अबे, उन्हें यह सब क्या बताता है? वे तो उसके गाँव से ही आये हैं। उन्हें सब मालूम है।’’ चौकीदार बोला।
‘‘नहीं, सच, मुझे कुछ नहीं मालूम।’’ गोविन्द ने ज़रा आश्वासन के स्वर में
कहा, ‘‘इन लाला के तो पिता ही यहाँ चले आये थे न, सो हम लोगों को कुछ भी
नहीं मालूम। बताइए न, क्या बात है?’’ गोविन्द ने आदरपूर्वक ज़रा खुशामद के लहज़े में पूछा।
शायद उसकी जिज्ञासु व्याकुलता से प्रभावित होकर ही मिस्तरी बोला, ‘‘अजी कुछ नहीं, लाला की बड़ी लड़की जो है न, उसे मिरगी का दौरा आता है। कोई कहता है उसे हिस्टीरिया है, पर हमारा तो क़यास है कि बाबू जी, दौरा-वौरा कुछ नहीं, उस पर किसी आसेब का साया है...उस बेचारी को तो कुछ होश नहीं रहता।’’
‘‘विधवा है?’’ जल्दी से बात काटकर गोविन्द धक्-धक् करते दिल से पूछ बैठा—हाय, लक्ष्मी ही न हो!
इस बार पुन: दोनों की निगाहों का आपस में टकराकर मुस्कराना उससे छिपा न रहा। बीड़ी के लम्बे कश के धुएँ को लीलकर इस बार चौकीदार ज़बरदस्ती गम्भीर बनकर बोला, ‘‘अजी, इसने इसकी शादी ही कहाँ की है?’’
‘‘नाम क्या है?’’ गोविन्द से नहीं रहा गया।
‘‘लक्ष्मी।’’
‘‘लक्ष्मी...!’’ उसके मुँह से निकल गया और जैसे एकदम उसकी सारी शक्ति किसी ने सोख ली हो, जिज्ञासा और उत्तेजना से तना शरीर ढीला पड़ गया।
चौकीदार इस बार अत्यन्त ही रहस्यमय ढंग से हँसा, जैसे कह रहा हो—अच्छा, तुम भी जानते हो?
गोविन्द के मन में स्वाभाविक प्रश्न उठा, उसकी उम्र क्या है?
लेकिन चौकीदार ने पूछा, ‘‘तो सचमुच बाबू जी, आप इनके घर के बारे में कुछ भी नहीं जानते?’’
‘‘नहीं भाई, मैंने बताया तो, मैं इनके बारे में कुछ भी क़तई नहीं जानता।’’ एक तरह आत्म-समर्पण के भाव से गोविन्द बोला।
‘‘लेकिन लक्ष्मी का किस्सा तो सारे शहर में मशहूर है,’’ चौकीदार बोला।
‘‘आप शायद नये आये हैं, यही वजह है।’’ फिर मिस्तरी की ओर देखकर बोला, ‘‘क्यों मिस्तरी साहब, तो बाबू जी को किस्सा बता ही दूँ...।’’
‘‘अरे लो, यह भी कोई पूछने की बात है? इसमें छिपाना क्या? यहाँ रहेंगे तो कभी-न-कभी जान ही जायेंगे।’’
‘‘अच्छा तो फिर सुन ही लो यार, तुम भी क्या कहोगे...’’ चौकीदार ने आनन्द में आकर कहना शुरू किया, ‘‘आप शायद जानते हैं, यह हमारा लाला शहर का मशहूर कंजूस और मशहूर रईस है...।’’
‘‘लामुहाला जो कंजूस होगा वो रईस तो होगा ही।’’ मिस्तरी बोला।
‘‘नहीं मिस्तरी साहब, पूरा किस्सा सुनना हो तो बीच में मत टोको।’’ चौकीदार इस हस्तक्षेप पर नाराज़ हो गया।
‘‘अच्छा-अच्छा, सुनाओ।’’ मिस्तरी बुड्ढों की तरह मुस्कराया।
‘‘इसकी यह चक्की है न, सहालगों (shadi byah ke din/shubh maukon]में इस पर हज़ारों मन पिसता है, वैसे भी दो-ढाई सौ मन तो कम-से-कम पिसता ही है रोज़। अफ़सरों और क्लर्कों को कुछ खिला-पिलाकर लड़ाई के ज़माने में इसे मिलिटरी से कुछ ठेके मिल ही जाते थे। आप जानो, मिलिटरी का ठेका तो जिसके पास आया सो बना। आप उन दिनों देखते ‘लक्ष्मी फ्लोर मिल’ के हल्ले। बोरे यों चुने रखे रहते थे, जैसे मोर्चें के लिए बालू भर-भरकर रख दिये हों! इसमें इसने खूब रुपया पीटा, मिलिटरी के गेहूँ बेच दिये औने-पौने भाव, और रद्दी सस्तेवाले खरीदकर कोटा पूरा किया; उसमें खड़िया मिला दी। पिसाई के उल्टे-सीधे पैसे तो इसने मारे ही, ब्लैक, चार-सौ बीसी, चोरी—क्या-क्या इसने नहीं किया! इसके अलावा एक बड़ी साबुन की फैक्टरी और एक काफी बड़ा जूतों का कारखाना भी इसका है। दस-बारह से ज़्यादा इसके मकान हैं, जिनका किराया आता है। रुपये सूद पर देता है। शायद गाँव में भी काफी ज़मीन इसने ले रखी है। एक काम है साले का! इतना तो हमें पता है, बाकी इसकी असली आमदनी तो कोई भी नहीं जानता, कुछ-न-कुछ करता ही रहता है। भगवान ही जाने! रात-दिन किसी-न-किसी तिकड़म में लगा ही रहता है। करोड़ों का आसामी है। और सबसे ताज्जुब की बात तो यह है कि सब सिर्फ इसी पच्चीस-छब्बीस साल में जमा की हुई रक़म है।’’ चौकीदार दिलावरसिंह मिलिटरी में रह आने के कारण खूब बातूनी था और मोर्चे के अपने अफ़सरों के ि़कस्सों को, अपनी बहादुरी के कारनामों को खूब नमक-मिर्च लगाकर इतनी बार सुना चुका था कि उसे कहानी सुनाने का मुहावरा हो गया था। हर बात के उतार-चढ़ाव के साथ उसकी आँखें और चेहरे का भंगिमाएँ बदलती रहती थीं।
उसकी बातें गौर और रुचि के सुनते हुए भी गोविन्द के मन में एक बात टकरायी, लक्ष्मी को दौरे आते हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने जो यह निशान लगाकर भेजे हैं, यह भी दौरों की दशा में ही लगाये हों और उनका कोई विशेष गहरा अर्थ न हो।
 इस बात से सचमुच उसे बड़ी निराशा हुई, फिर भी उसने ऊपर से आश्चर्य प्रकट करके पूछा, ‘‘सिर्फ पच्चीस-छब्बीस साल?’’
नई बीड़ी जलाते हुए चौकीदार ने ज़ोर से सिर हिलाया। गोविन्द ने सोचा—’और लक्ष्मी की उम्र क्या होगी?’
‘‘और कंजूसी की तो हद आपने देख ही ली होगी! बुड्ढा हो गया है, साँस का रोग हो रहा है, सारा बदन काँपता है; लेकिन एक पैसे का भी फायदा देखेगा तो दस मील धूप में हाँफता हुआ पैदल जायेगा, क्या मजाल जो सवारी कर ले। गर्मी आई तो पूरा शरीर नंगा; कमर में धोती—आधी पहने, आधी बदन में लपेटे। जाड़ा हुआ तो यही डैस, बस, इसी में पिछले दस साल से तो मैं देख रहा हूँ। कभी किसी मकान की मरम्मत न कराना, सफेदी-सफाई न कराना और हमेशा यही ध्यान रखना कि कौन कितनी बिजली खर्च कर रहा है, कहाँ बेकार नल या पंखा चल रहा है। लड़का है सो उसे मुफ्त के चुंगी के स्कूल में डाल दिया है, लड़की घर पर बैठा रखी है। एक-एक पैसे के लिए घंटों रिक्शावालों, ट्रकवालों से लड़ना, बहसें करना और चक्की वालों की नाक में दम रखना, उन्हें दिन-रात यह सिखाना कि किस चालाकी से आटा बचाया जा सकता है। बीसियों रुपये का आटा रोज़ होटलवालों को बिकता है, सो अलग। जिस दिन से चक्की खुली है, घर के लिए तो आटा बाज़ार से आया ही नहीं। आप विश्वास मानिए, कम-से-कम बारह-पन्द्रह हज़ार की आमदनी होगी इसकी, लेकिन सूरत देखिए, मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं। किसी आने-जाने वाले के लिए एक कुर्सी तक नहीं—पान-सुपाड़ी की तो बात ही दूर है। कौन कह देगा कि यह पैसे वाला है? यह उम्र होने आई, सुबह से शाम तक बस, पैसे के पीछे हाय-हाय! दुनिया के किसी और काम से इसे मतलब ही नहीं है। सभा हो, सोसाइटी हो, हड़ताल हो, छुट्टी हो, कुछ भी हो—लेकिन लाला रूपाराम अपनी ही धुन में मस्त! नौकरों को कम-से-कम देना पड़े, इसलिए खुद ही उनके काम को देखता है। मुझसे तो कुछ इसलिए नहीं कहता कि मुझ पर थोड़ा विश्वास है; दूसरे मेरी ज़रूरत सबसे बड़ी है। लेकिन बाकी हर नौकर रोता है इसके नाम को। और मज़ा यह कि सब जानते हैं कि झक्की है। कोई इसकी बात को ध्यान से सुनता नहीं। बाद में सब इसका नुकसान करते हैं, आस-पास के सभी हँसते और गालियाँ देते हैं...’’
‘‘बच्चे कितने हैं...?’’ चौकीदार को इन बेकार की बातों में बहकता देखकर गोविन्द ने सवाल किया।
‘‘उसी बात पर आता हूँ,’’ चौकीदार इत्मीनान से बोला, ‘‘सच बाबू जी, मैं यह देख-देखकर हैरान हूँ कि इस उम्र तक तो इसने यह दौलत जुटायी है, अब इसका यह कम्बख्त करेगा क्या? लोग जमा करते हैं कि बैठकर भोगें; लेकिन यह राक्षस तो जमा करने में ही लगा रहता है। इसे जमा करने की ही ऐसी हाय-हाय रही है कि दौलत किसलिए जमा की जाती है, इस बात को यह बेचारा बिल्कुल भूल गया है।’’ फिर बड़े चिन्तित और दार्शनिक मूड में दिलावरसिंह ने आग वाली राख को देखते हुए कहा, ‘‘इस उम्र तक तो इसे जोड़ने की ऐसी हवस है, अब इसका यह भोग कब करेगा? सचमुच बाबू जी, जब कभी मैं सोचता हूँ तो बेचारे पर बड़ी दया आती है। देखो, आज की तारीख तक यह बेचारा भाग-दौड़कर, लू-धूप की चिन्ता छोड़कर जमा कर रहा है। एक पाई उसमें से खा नहीं सकता, जैसे किसी दूसरे का हो—अब मान लीजिए, कल यह मर जाता है, तो यह सब किसके लिए जमा किया गया? बेचारे के साथ कैसे लाचारी है, मरकर-जीकर, नौकर की तरह जमा किये जा रहा है, न खुद खा सकता है, न देख सकता है कि कोई दूसरा छू भी ले—जैसे धन के ऊपर बैठा साँप, खुद उसे खा नहीं सकता, खाने तो खैर देगा ही क्या? उसकी रखवाली करना और जोड़ना...’’ और लाला रूपाराम के प्रति दया से अभिभूत होकर चौकीदार ने एक गहरी साँस ली। फिर दूसरे ही क्षण दाँत किटकिटाता हुआ बोला, ‘‘और कभी-कभी मन होता है, छुरा लेकर साले की छाती पर जा चढ़ूँ, और मुरब्बे के आम की तरह गोदूँ। अपने पेट में जो इसने इतना धन भर रखा है, उसकी एक-एक पाई उगलवा लूँ। चाहे खुद न खाये लेकिन, जिसे अपने बच्चों को भी खिला-पिला नहीं सकता, उस धन का क्या होगा?’’
‘‘इसके बच्चे कितने हैं?’’ इस बार फिर गोविन्द अधीर हो आया। असल में वह चाहता था कि दार्शनिक उद्गारों को छोड़कर वह जल्दी-से-जल्दी मूल विषय पर आ जाये—लक्ष्मी के विषय में बताये।
वर्णन में बह जाने की अपनी कमज़ोरी पर चौकीदार मुस्कराया और बोला, ‘‘इसके बच्चे हैं चार; बीवी मर गई, बाकी किसी नातेदार, किसी रिश्तेदार को झाँकने नहीं देता, ऊपर तो कोई नौकर भी नहीं है। बस, एक मरी-मरायी सी बुढ़िया पाल ली है, लोग बड़े भाई की बीवी बताते हैं। बस, वही सारी देख-भाल करती है। और तो किसी को मैंने साथ देखा नहीं। खुद के तीन लड़के और एक लड़की...।’’
‘‘बड़े दो लड़के तो साथ नहीं रहते...’’ इस बार मिस्तरी बोला।
‘‘हाँ, वो लोग अलग ही रहते हैं। दिन में एकाध चक्कर लगा जाते हैं। एक जूतों का कारखाना देखता है, दूसरा साबुन की फैक्टरी सम्भालता है। इस साले को उनपर भी विश्वास नहीं है। पूरे काग़ज़-पत्तर, हिसाब-किसाब अपने पास ही रखता है, नियम से शाम को वहाँ जाता है वसूली करने। लेकिन लड़के भी बड़े तेज हैं, ज़रा शौकीन तबियत पाई है। इसके मरते ही देख लेना मिस्तरी, वो इसकी सारी कंजूसी निकाल डालेंगे।’’ फिर याद करके बोला, ‘‘और क्या कहा तुमने? साथ रहने की बात, सो भैया, जब तक अकेले थे, तब तक तो कोई बात ही नहीं थी; लेकिन अब तो उनकी बीवियाँ आ गई हैं न, एकाध बच्चा भी आ गया है घर में, सो उसे दिन भर गोद में लटकाये फिरता है। इसके घर में एक चंडी जो है न, उसके साथ सबका निभाव नहीं हो सकता।’’
एकदम गोविन्द के मन में आया—लक्ष्मी। और वह ऊपर से नीचे तक सिहर उठा। ‘‘कौन? लक्ष्मी!’’ उसके मुँह से निकल गया।
‘‘जी हाँ, उसी की बदौलत तो यह सारा खेल है, वही तो इस भंडारे की चाबी है। वह न होती तो यह सब ताम-झाम आता कहाँ से? उसने तो इसके दिन ही पलट दिये, नहीं तो था क्या इसके पास?’’ इस बार यह बात चौकीदार ने ऐसे लटके से कही, जैसे सचमुच किसी रहस्य की चाबी दे दी हो।
‘‘कैसे भाई, कैसे?’’ गोविन्द पूछ बैठा। उसका दिमाग चकरा गया। यह क्या विरोधाभास है? एक पल को उसके दिमाग में आया—कहीं यह रुपया कमाने के लिए तो लक्ष्मी का उपयोग नहीं करता? राक्षस! चांडाल!
उसकी व्याकुलता पर चौकीदार फिर मुस्कराया, और बोला, ‘‘बाप तो इसका ऐसा रईस था भी नहीं, फिर वह कच्ची गृहस्थी छोड़कर मर गया था। ज्यादा-से-ज्यादा हज़ार-हज़ार रुपया दोनों भाइयों के पल्ले पड़ा होगा। शादियाँ दोनों की हो ही चुकी थीं। कुछ कारोबार खोलने के विचार से यह सट्टे में अपने रुपये दूने-चौगुने करने जो पहुँचा तो सारे गँवा आया। बड़े भइया रोचूराम ने एक पनचक्की खोल डाली। पहले तो उसकी भी हालत डाँवाडोल रही थी; लेकिन सुनते हैं कि जब से उसकी लड़की गौरी पैदा हुई, उसकी हालत सम्भलती ही चली गई। वह उसी के यहाँ काम करता था, मियाँ-बीवी वहीं पड़े रहते। ऐसा कुछ उस लड़की का पाँव आया कि लाला रोचूराम सचमुच के लाला हो गये। इन लोगों के बड़े-बूढ़ों का कहना था कि लड़की उनके खानदान में भगवान होती है। अब तो अपना लाला कभी इस ओझा के पास जा, कभी उस पीर के पास जा, कभी इसकी ‘मानता’, कभी उसका ‘संकल्प’—दिन-रात बस यही कि हे भगवान, मेरी लड़की हो। और पता नहीं कैसे, भगवान ने सुन ली और लड़की ही आई। आप विश्वास नहीं करेंगे, फिर तो सचमुच ही रूपाराम के नक्शे बदलने लगे। पता नहीं गड़ा हुआ मिला या छप्पर फाड़कर मिला—लाला रूपाराम के सितारे फिर गये...। इसे विश्वास होने लगा कि यह सब बेटी की कृपा है और वास्तव में यह कोई देवी है। उसने उसका नाम लक्ष्मी रखा और साहब, कहना पड़ेगा कि लक्ष्मी सचमुच लक्ष्मी ही बनकर आई। थोड़े दिनों में ही ‘लक्ष्मी फ्लोर मिल’ अलग बन गई। अब तो इसका यह हाल है कि यह मिट्टी भी छू दे तो सोना बन जाये और कंकड़ को उठा ले तो हीरा दीखे। फिर आ गई लड़ाई और इसके पंजे-छक्के हो गये। इसे ठेके मिलने लगे। समझिए, एक के बाद एक मकान खरीदे जाने लगे—सामान लाने-ले जाने वाले ट्रक आये। इधर रोचूराम भी फल रहा था, और दोनों भाई गर्व से कहते थे—’हमारे यहाँ लड़कियाँ लक्ष्मी बनकर ही आती है।’ लेकिन फिर एक ऐसा वाक़या हो गया कि तस्वीर की शक्ल बदल गई...’’ चौकीदार दिलावरसिंह जानता था कि यह उसकी कहानी का क्लाइमैक्स है। इसलिए श्रोताओं की उत्सुकता को झटका देने के लिए उसने उँगलियों में दबी, व्यर्थ जलती बीड़ी को दो-तीन कश लगाकर ख़त्म किया और बोला :



‘‘गौरी शादी लायक़ हो गई थी। शायद किसी पड़ोसी लड़के को लेकर कुछ ऐसी-वैसी बातें भी लाला रोचूराम ने सुनीं। लोगों ने उँगलियाँ उठाना शुरू कर दिया तो उन्होंने गौरी की शादी कर दी। बस, उसकी शादी होना था कि जैसे एकदम सारा खेल उजड़ गया। उसके जाते ही लाला एक बहुत बड़ा मुक़दमा हार गया और भगवान की लीला देखिए, उन्हीं दिनों उसकी पनचक्की में आग लग गई। कुछ लोगों का कहना तो यह है किसी घरेलू दुश्मन का काम था। जो भी हो, बड़े हाथी की तरह जो एकबारगी गिरे तो उठना दुश्वार हो गया। लोग रुपये दाब गये और उनका दिवाला निकल गया। दिवाला क्या जी, एक तरह से बिल्कुल मटिया मेट हो गया। सब कुछ चौपट हो गया और छल्ला-छल्ला तक बिक गया। एक दिन लाला जी की लाश तालाब में फूली हुई मिली। अब तो हमारे लाला रूपाराम को साँप सूँघ गया, उनके कान खड़े हो गये और लक्ष्मी पर पहरा बैठा दिया गया। उसे स्कूल से उठा लिया गया। और वह दिन सो आज का दिन, बेचारी नीचे नहीं उतरी। घर के भीतर न किसी को आने देता है,न जाने देता है। मास्टर रखकर पढ़ाने की बात पहले उठी थी; लेकिन जब सुना कि मास्टर लोग लड़कियों को बहकाकर भगा ले जाते हैं तो वह विचार एकदम छोड़ दिया गया। लक्ष्मी खूब रोयी-पीटी; लेकिन इस राक्षस ने उसे भेजा ही नहीं। सुनते हैं लड़की देखने-दिखाने लायक...’’
बात काटकर मिस्तरी बोला, ‘‘अरे देखने-दिखाने लायक़ क्या, हमने खुद देखा है। जिधर से निकल जाती उधर बिजली-सी कौंध जाती। सौ में एक...।’’
उसकी बात का विरोध न करके, अर्थात् स्वीकार करके चौकीदार बोला, ‘‘स्कूल में भी सुनते हैं बड़ी तारीफ़ थी; लेकिन सबकी साले ने रेड़ कर दी। उसे यह विश्वास हो गया कि लड़की सचमुच लक्ष्मी है और जब यह दूसरे की हो जायेगी तो इसका भी एकदम सत्यानाश हो जायेगा। इसी डर से न तो किसी को आने-जाने देता है और न उसकी शादी करता है। उसकी हर बात पर पुलिस के सिपाही की तरह नज़र रखता है। उसकी हर बात मानता है। बुरी तरह उसकी इज़्ज़त करता है; उसकी हर जि़द पूरी करता है, लेकिन निकलने नहीं देता। लक्ष्मी सोलह की हुई, सत्रह की हुई, अठारह, उन्नीस...साल-पर-साल बीत गये। पहले तो वह सबसे लड़ती थी। बड़ी चिड़चिड़ी और जिद्दी हो गई थी। कभी-कभी सबको गाली देती और मार भी बैठती थी, फिर तो मालूम नहीं क्या हुआ कि घंटों रात-रात भर पड़ी ज़ोर-ज़ोर से रोती रहती, फिर धीरे-धीरे उसे दौरा पड़ने लगा...’’
‘‘अब क्या उम्र है?’’ गोविन्द ने बीच में पूछा।
‘‘उसकी ठीक उम्र तो किसी को भी पता नहीं; लेकिन अन्दाज़ से पच्चीस-छब्बीस से कम क्या होगी?’’ घृणा से होंठ टेढ़े करके चौकीदार ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘दौरा न पड़े तो बेचारी जवान लड़की क्या करे? उधर पिछले पाँच-छ: साल से तो यह हाल है कि दौरे में घंटे-दो घंटे वह बिल्कुल पागल हो जाती है। उछलती-कूदती है, बुरी-बुरी गालियाँ देती है, बेमतलब रोती-हँसती है, चीज़ें उठा-उठाकर इधर-उधर फेंकती है। जो चीज़ सामने होती है उसे तोड़-फोड़ देती है। जो हाथ में आता है, उससे मार-पीट शुरू कर देती है, और सारे कपड़े उतारकर फेंक देती है। बिल्कुल नंगी हो जाती है और जाँघें पीट-पीटकर बाप से कहती है, ‘ले, तूने मुझे अपने लिए रखा है, मुझे खा, मुझे चबा, मुझे भोग...!’ यह पिटता है, गालियाँ खाता है; और सब-कुछ करता है, लेकिन पहरे में ज़रा ढील नहीं होने देता। चुपचाप सिर पर हाथ रखकर बैठा-बैठा सुनता रहता है। क्या जि़न्दगी है बेचारे की! बाप है सो उसे भोग नहीं सकता और छोड़ तो सकता ही नहीं। मेरी तो उम्र नहीं रही, वर्ना कभी मन होता है ले जाऊँ भगाकर, जो होगा सो देखा जायेगा...।’’ और एक तीखी व्यथा से मुस्कराता चौकीदार देर तक आग को देखता रहा, फिर धीरे से होंठ चबाकर बोला, ‘‘इसकी बोटी-बोटी गर्म लोहे से दागी जाये और फिर टिकटी बाँधकर गोली से उड़ा दिया जाये।’’
गोविन्द का भी दिल भारी हो आया था। उसने देखा, बुड्ढे चौकीदार की गीली आँखों में सामने की बरोसी (angithi) की धुँधली आग की परछाईं झलमला रही है।

आधी रात को अपनी कोठरी में लेटे लक्ष्मी के बारे में सोचते हुए मोमबत्ती की रोशनी में उसकी सारी बातों का एक-एक चित्र गोविन्द की आँखों के आगे साकार हो आया और फिर उसने अन्धकार की प्राचीरों से घिरी, गर्म-गर्म आँसू बहाती मोमबत्ती की धुँधली रोशनी में रेखांकित पंक्तियाँ पढ़ीं :
मैं तुम्हें प्राणों से अधिक प्यार करती हूँ।’
मुझे यहाँ से भगा ले चलो...।’
मैं फाँसी लगाकर मर जाऊँगी...।’
गोविन्द के मन में अपने-आप एक सवाल उठा : ‘क्या मैं ही पहला आदमी हूँ जो इस पुकार को सुनकर ऐसा व्याकुल हो उठा हूँ या औरों ने भी इस आवाज़ को सुना है और सुनकर अनसुना कर दिया है? और क्या सचमुच जवान लड़की की आवाज़ को सुनकर अनसुना किया जा सकता है?


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