जहाँ लक्ष्मी क़ैद है (कहानी )
राजेन्द्र यादव
ज़रा ठहरिए, यह कहानी विष्णु की पत्नी लक्ष्मी के बारे में नहीं, लक्ष्मी नाम की एक ऐसी लड़की के बारे में है जो अपनी कैद से छूटना
चाहती है। इन दो नामों में ऐसा भ्रम होना स्वाभाविक है जैसाकि कुछ क्षण के लिए
गोविन्द को हो गया था।
एकदम घबराकर जब
गोविन्द की आँखें खुलीं तो वह पसीने से तर था और उसका दिल इतने ज़ोर से धड़क रहा था
कि उसे लगा, कहीं अचानक उसका धड़कना बन्द न हो
जाये। अँधेरे में उसने पाँच-छ: बार पलकें झपकाई, पहली बार तो उसकी समझ में ही न आया कि वह कहाँ है, कैसा है—एकदम दिशा और स्थान का ज्ञान उसे भूल गया। पास के हॉल की
घड़ी ने एक का घंटा बजाया तो उसकी समझ में ही न आया कि वह घड़ी कहाँ है,वह स्वयं कहाँ है और घंटा कहाँ बज रहा है। फिर धीरे-धीरे उसे ध्यान
आया, उसने ज़ार से अपने गले का पसीना पोंछा और उसे लगा, उसके दिमाग़ में फिर वही खट्खट् गूँज उठी है, जो अभी गूँज रही थी...।
पता नहीं, सपने में या सचमुच ही, अचानक गोविन्द को
ऐसा लगा था, जैसे किसी ने किवाड़ पर तीन-चार बार
खट्-खट् की हो और बड़े गिड़गिड़ाकर कहा हो—’मुझे निकालो, मुझे निकालो!’ और वह आवाज़ कुछ ऐसे रहस्यमय ढंग से आकर उसकी चेतना
को कोंचने लगी कि वह बौखलाकर जाग उठा—सचमुच ही यह किसी की आवाज़ थी या महज़ उसका
भ्रम?
फिर उसे धीरे-धीरे
याद आया कि यह भ्रम ही था और वह लक्ष्मी के बारे में सोचता हुआ ऐसा अभिभूत सोया था
कि वह स्वप्न में भी छायी रही। लेकिन वास्तव में यह आवाज़ कैसी विचित्र थी, कैसी साफ़ थी!—उसने कई बार सुना था कि अमुक स्त्री या पुरुष के
स्वप्न में आकर कोई कहता—’मुझे निकालो, मुझे निकालो!’ फिर
वह धीरे-धीरे स्थान की बात भी बताने लगता और वहाँ खुदवाने पर कड़ाहे या हांडी में
भरे सोने-चाँदी के सिक्के या माया उसे मिलती और वह देखते-देखते मालामाल हो जाता।
कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि किसी अनधिकारी आदमी ने उस द्रव्य को निकलवाना चाहा तो उसमें
कौड़ियाँ और कोयले निकले या फिर उसके कोढ़ फूट आया या घर में कोई मृत्यु हो गई। कहीं
इसी तरह, धरती के नीचे से उसे कोई लक्ष्मी तो
नहीं पुकार रही है? और वह बड़ी देर तक सोचता रहा, उसके दिमाग़ में फिर लक्ष्मी का ि़कस्सा साकार होने लगा। वह
मोहाछन्न-सा पड़ा रहा...
दूर कहीं दूसरे
घड़ियाल ने फिर वही एक घंटा बजाया।
गोविन्द से अब नहीं
रहा गया। रज़ाई को चारों तरफ़ से बन्द रखे
हुए ही बड़े सम्भालकर उसने कुहनी तक हाथ निकाला, लेटे-ही-लेटे
अलमारी के खाने से किताब-कॉपियाँ की बग़ल से उसने अधजली मोमबत्ती निकाली, वहीं कहीं से खोजकर दियासलाई निकाली और आधा उठकर, ताकि जाड़े में दूसरा हाथ पूरा न निकालना पड़े, उसने दो-तीन बार घिसकर दियासलाई जलायी, मोमबत्ती रौशन की और पिघले मोम की बूँद टपकाकर उसे दवात के ढक्कन
के ऊपर जमा दिया। धीरे-धीरे हिलती रोशनी में उसने देख लिया कि किवाड़ पूरे बन्द हैं, और दरवाज़े के सामने वाली दीवार में बने, जाली लगे रौशनदान के ऊपर, दूसरी मंजि़ल से
हल्की-हल्की जो रोशनी आती है, वह भी बुझ चुकी है।
सब कुछ कितना शान्त हो चुका है। बिजली का स्विच यद्यपि उसके तख्त के ऊपर ही लगा था, लेकिन एक तो जाड़े में रज़ाई समेत या रज़ाई छोड़कर खड़े होने का आलस्य, दूसरे लाला रूपाराम का डर, सुबह ही कहेगा—’गोविन्द
बाबू, बड़ी देर तक पढ़ाई हो रही है आजकल।’ जिसका सीधा अर्थ होगा कि बड़ी
बिजली खर्च करते हो।
फिर उसने चुपके से, जैसे कोई उसे देख रहा हो, तकिये के नीचे से
रज़ाई के भीतर-ही-भीतर हाथ बढ़ाकर वह पत्रिका निकाल ली और गर्दन के पास से हाथ
निकालकर उसके सैंतालीसवें पन्ने को बीसवीं बार खोलकर बड़ी देर घूरता रहा। एक बजे की
पठानकोट-एक्सप्रेस जब दहाड़ती हुई गुज़र गई तो सहसा उसे होश आया। 47 और 48—जो पन्ने उसके सामने खुले थे उनमें
जगह-जगह नीली स्याही से कुछ पंक्तियों के नीचे लाइनें खींची गई थीं—यही नहीं, उस पन्ने का कोना मोड़कर उन्हीं लाइनों की तरफ़ विशेष रूप से ध्यान
खींचा गया था। अब तक गोविन्द उन या उनके आस-पास की लाइनों को बीस बार से अधिक घूर
चुका था। उसने शंकित निगाहों से इधर-उधर देखा और फिर एक बार उन पंक्तियों को पढ़ा।
जितनी बार वह
उन्हें पढ़ता, उसका दिल एक अनजान आनन्द के बोझ से
ध्ड़ककर डूबने लगता और दिमाग़ उसी तरह भन्ना उठता जैसा उस समय भन्नाया था, जब यह पत्रिका उसे मिली थी। यद्यपि इस बीच उसकी मानसिक दशा कई विकट
स्थितियों से गुज़र चुकी थी; फिर भी वह बड़ी देर
तक काली स्याही से छपे कहानी के अक्षरों को स्थिर निगाहों से घूरता रहा—धीरे-धीरे
उसे ऐसा लगा, यह अक्षरों की पंक्ति एक ऐसी खिड़की की
जाली है, जिसके पीछे बिखरे बालों वाली एक निरीह
लड़की का चेहरा झाँक रहा है। और फिर उसके दिमाग़ में बचपन की सुनी कहानी साकार होने
लगी—शिकार खेलने में साथियों का साथ छूट जाने पर भटकता हुआ एक राजकुमार अपने
थके-माँदे घोड़े पर बिल्कुल वीराने में, समुद्र के किनारे
बने एक विशाल सुनमान ि़कले के नीचे जा पहुँचा। वहाँ ऊपर खिड़की में उसे एक अत्यन्त
सुन्दर राजकुमारी बैठी दिखाई दी, जिसे एक राक्षस ने
लाकर वहाँ कैद कर दिया था...छोटे-से-छोटे विवरण के साथ खिड़की में बैठी राजकुमारी
की तस्वीर गोविन्द की आँखों के आगे स्पष्ट और मूर्त होती गई। और उसे लगा, जैसे वही राजकुमारी उन रेखांकित, छपी लाइनों के पीछे से झाँक रही है। उसके गालों पर आँसुओं की
लकीरें सूख गई हैं, उसके होंठ पपड़ा गए हैं...चेहरा मुरझा
गया है और रेशमी बाल मकड़ी के जाले-जैसे लगते हैं—जैसे उसके पूरे शरीर से एक आवाज़
निकलती है—’मुझे छुड़ाओ, मुझे छुड़ाओ!’
गोविन्द के मन में
उस अनजान राजकुमारी को छुड़ाने के लिए जैसे रह-रहकर कोई कुरेदने लगा। एक-आध बार तो
उसकी बड़ी प्रबल इच्छा हुई कि अपने भीतर रह-रहकर कुछ करने की उत्तेजना को वह अपने
तख्त और कोठरी की दीवार के बीच में बची दो फीट चौड़ी गली में घूम-घूमकर दूर कर दे।
तो क्या सचमुच
लक्ष्मी ने यह सब उसी के लिए लिखा है? लेकिन उसने तो
लक्ष्मी को देखा तक नहीं! अगर अपनी कल्पना में किसी जवान लड़की का चेहरा लाये भी तो
वह आि़खर कैसी हो?...कुछ और भी बातें थीं कि वह लक्ष्मी के
रूप में एक सुन्दर लड़की के चेहरे की कल्पना करते डरता था—उसकी ठीक शक्ल-सूरत और
उम्र भी नहीं मालूम उसे...
गोविन्द यह अच्छी
तरह जानता था कि यह सब उसीके लिए लिखा गया है; ये लाइनें खींचकर
उसी का ध्यान आकृष्ट किया गया है। फिर भी वह इस अप्रत्याशित बात पर विश्वास नहीं
कर पाता था। वह अपने को इस लायक भी नहीं समझता था कि कोई लड़की इस तरह उसे संकेत
करेगी। यों शहरों के बारे में उसने बहुत काफी सुन रखा था, लेकिन यह सोचा भी नहीं था कि गाँव से इंटर पास करके शहर आने के एक
हफ्ते में ही उसके सामने एक ‘सौभाग्यपूर्ण’ बात आ जायेगी...
वह जब-जब इन
पंक्तियों को पढ़ता तब-तब उसका सिर इस तरह चकराने लगता, जैसे किसी दसमंजि़ले मकान से नीचे झाँक रहा हो। जब उसने पहले-पहल
ये पंक्तियाँ देखी थीं तो इस तरह उछल पड़ा था, जैसे हाथ में
अंगारा आ गया हो।
बात यह हुई कि वह चक्की
वाले हॉल में ईंटों के तख्त-जैसे बने चबूतरे पर बड़ी पुरानी काठ की संदूकची के ऊपर
लम्बा-पतला रजिस्टर खोले दिन-भर का हिसाब मिला रहा था, तभी लाला रूपाराम का सबसे छोटा, नौ-दस साल का लड़का
रामस्वरूप उसके पास आ खड़ा हुआ। यह लड़का एक फटे-पुराने-से चैस्टर की, जो साफ़ ही किसी बड़े भाई के चैस्टर को कटवाकर बनवाया गया होगा, जेबों में दोनों हाथों को ठूँसे पास खड़ा होकर उसे देखने लगा।
गोविन्द जब पहले ही
दिन आया था और हिसाब कर रहा था, तभी यह लड़का भी आ
खड़ा हुआ था। उस दिन लाला रूपाराम भी थे, इसलिए सिर्फ यह
दिखाने को कि वह उनके सुपुत्र में भी काफी रुचि रखता है, उसने नियमानुसार नाम, उम्र और
स्कूल-क्लास इत्यादि पूछे थे; नाम रामस्वरूप, उम्र नौ साल, चुंगी-प्राइमरी
स्कूल में चौथे क्लास में पढ़ता था। फिर तो सुबह-शाम गोविन्द उसे चैस्टर की छाया से
ही जानने लगा, शक्ल देखने की ज़रूरत ही नहीं होती
थी। चैस्टर के नीचे नेकर पहने होने के कारण उसकी पतली टाँगें खुली रहतीं और वह
पाँवों में बड़े-पुराने किरमिच के जूते पहने रहता, जिनकी फ़टी-निकली जीभों को देखकर उसे हमेशा दुम-कटे कुत्ते की पूँछ
का ध्यान हो आता था।
थोड़ी देर उसका
लिखना ताकते रहकर लड़के ने चैस्टर के बटनों के कसाब और छाती के बीच में रखी पत्रिका
निकालकर उसके सामने रख दी और बोला, ‘‘मुंशी जी, लक्ष्मी जीजी ने कहा है, हमें कुछ और पढ़ने
को दीजिए।’’
‘‘अच्छा, कल देंगे...’’ मन-ही-मन भन्नाकर उसने कहा।
यहाँ आकर उसे जो
‘मुंशी जी’ का नया खिताब मिला है, उसे सुनकर उसकी
आत्मा खाक़ हो जाती। ‘मुंशी जी’ नाम के साथ जो एक कान पर क़लम लगाये, गोल-मैली टोपी, पुराना कोट पहने, मुड़े-तुड़े आदमी की तस्वीर सामने आती है—उसे बीस-बाईस साल का युवक
गोविन्द सम्भाल नहीं पाता।
लाला रूपाराम उसी
के गाँव के हैं—शायद उसके पिता के साथ दो-तीन जमात पढ़े भी थे। शहर आते ही
आत्मनिर्भर होकर पढ़ाई चला सकने के लिए किसी ट्यूशन इत्यादि या छोटे पार्ट-टाइम काम
के लिए लाला रूपाराम से भी वह मिला तो उन्होंने अत्यन्त उत्साह से उसके मृत बाप को
याद करके कहा—’भैया, तुम तो अपने ही बच्चे हो, ज़रा हमारी चक्की का हिसाब-किताब घंटे-आध घंटे देख लिया करो और
मज़े में चक्की के पास जो कोठरी है, उसमें पड़े रहो, अपने पढ़ो। आटे की यहाँ तो कमी है ही नहीं।’ और अत्यन्त कृतज्ञता से
गद्गद् वह उनकी कोठरी में आ गया, पहली रात हिसाब
लिखने का ढंग समझाते हुए लाला रूपाराम, मोतियाबिन्द वाले
चश्मे के मोटे-मोटे काँचों के पीछे से मोरपंखी के चंदोवे-सी दीखती आँखों और मोटे
होंठों से मुस्कराते, उसका सम्मान बढ़ाने को ‘मुंशी जी’ कह
बैठे तो वह चौंक पड़ा। लेकिन उसने निश्चय कर लिया कि यहाँ जम जाने के बाद वह
विनम्रता से इस शब्द का विरोध करेगा। रामस्वरूप से ‘मुंशी जी’ नाम सुनकर उसकी
भौंहें तन गईं, इसीलिए उसने उपेक्षा से वह उत्तर दिया
था।
‘‘कल ज़रूर
दीजिएगा।’’ रामस्वरूप ने फिर अनुरोध किया।
‘‘हाँ भाई, ज़रूर देंगे।’’ उसने दाँत पीसकर कहा; लेकिन चुप ही रहा। वह अक्सर लक्ष्मी का नाम सुनता था। हालाँकि उसकी
कोठरी बिल्कुल सड़क की तरफ़ अलग ही पड़ती थी; लेकिन उसमें पीछे
की तरफ़ जो एक जालीदार छोटा-सा रौशनदान था, वह घर के भीतर नीचे
की मंजि़ल के चौक में खुलता था। लाला रूपाराम का परिवार ऊपर की मंजि़ल पर रहता था
और नीचे सामने की तरफ़ पनचक्की थी, पीछे कई तरह की
चीज़ों का स्टोर-रूम था। इस ‘लक्ष्मी’ नाम के प्रति उसे उत्सुकता और रुचि इसलिए भी
बहुत थी कि चाहे कोठरी में हो या बाहर, पनचक्की के हॉल में, हर पाँचवें मिनट पर उसका नाम विभिन्न रूपों में सुनाई देता
था—’लक्ष्मी बीबी ने यह कहा है’, ‘रुपये लक्ष्मी बीबी
के पास हैं’, ‘चाबी लक्ष्मी बीबी को दे देना।’ और
उसके जवाब में जो एक पतली तीखी-सी अधिकारपूर्ण आवाज़ सुनाई देती थी, उसे गोविन्द पहचानने लगा था। अनुमान से उसने समझ लिया कि यही
लक्ष्मी की आवाज़ है। लेकिन स्वयं वह कैसी है? उसकी एक झलक-भर देख
पाने को उसका दिल कभी-कभी बुरी तरह तड़प-सा उठता। लेकिन पहले कुछ दिनों उसे अपना
प्रभाव जमाना था, इसलिए वह आँख उठाकर भी भीतर देखने की
कोशिश न करता। मन-ही-मन उसने समझ लिया कि यही लक्ष्मी है, काफी महत्त्वपूर्ण है...दिक्क़त यह थी कि भीतर कुछ दिखाई भी तो
नहीं देता था। सड़क के किनारे तीन-चार दरवाज़े वाले इस चक्की के हॉल के बाद एक
आठ-दस फीट लम्बी गली थी और चौक के ऊपर लोहे का जाल पड़ा था, उस पर से ऊपर वाले लोग जब गुज़रते थे तो लोहे की झनझनाहट से पहले
तो उसका ध्यान हर बार उधर चला जाता था। बच्चे तो कभी-कभी और भी उछल-उछलकर उस पर
कूदने लगते थे। यहाँ से जब तक किसी बहाने पूरी गली पार न की जाये, कुछ भी दीखना असम्भव था। चूँकि गुसलखाना और नल इत्यादि उसी चौक में
थे, जिनकी वजह से नीचे प्राय: सीलन और गीलापन रहता था, इसलिए सुबह चौक में जाते हुए अत्यन्त सीधे लड़के की तरह निगाहें
नीची किये हुए भी वह ऊपर की स्थिति को भाँपने का प्रयत्न करता था। ऊपर सिर उठाकर
आँख-भर देख पाने की उसमें हिम्मत न थी। अपनी कोठरी का एक मात्र दरवाज़ा बन्द करके, तख्त पर चढ़कर मकड़ी के जाले और धूल से भरे जालीदार रौशनदान से
झाँककर उसने वहाँ की स्थिति को भी जानने की कोशिश की थी; लेकिन यह कम्बख्त जाली कुछ इस ढंग से बनी थी कि उसके ‘फोकस’ में
पूरा सामने वाला छज्जा और एकाध फुट लोहे का जाल भर आया था। वहाँ कई बार उसे लगा, जैसे दो छोटे-छोटे तलुए गुज़रे...बहुत कोशिश करने पर टखने दीखे—हाँ, हैं तो किसी लड़की के पैर, क्योंकि साथ में
धोती का किनारा भी झलका था....उसने एक गहरी साँस ली और तख्त से उतरते हुए बड़े
एक्टराना अन्दाज़ में छाती पर हाथ मारा और बुदबुदाया—’अरे लक्ष्मी जालिम, एक झलक तो दिखा देती...’
‘‘मुंशी जी, तुम तो देख रहे हो, लिखते क्यों नहीं?’’ रामस्वरूप ने जब देखा कि गोविन्द धीरे-धीरे होल्डर का पिछला हिस्सा
दाँतों में ठोंकता हुआ हिसाब की कॉपी में अपलक कुछ घूर रहा था तो पता नहीं कैसे यह
बात उसकी समझ में आ गई कि वह जो कुछ सोच रहा है, उसका सम्बन्ध सामने रखे हिसाब से नहीं है...
उसने चौंककर लड़के
की तरफ़ देखा...और चोरी पकड़ी जाने पर झेंपकर मुस्कराया, तभी अचानक एक बात उसके दिमाग़ में कौंधी—यह लक्ष्मी रामस्वरूप की
बहन ही तो है। ज़रूर उसका चेहरा इससे काफी मिलता-जुलता होगा। इस बार उसने ध्यान से
रामस्वरूप का चेहरा देखा कि वह सुन्दर है या नहीं। फिर अपनी बेवकूफी पर मुस्कराकर
एक अंगड़ाई ली। चारों तरफ़ ढीले हुए कम्बल को फिर से चारों ओर कस लिया और
अप्रत्याशित प्यार से बोला, ‘‘अच्छा मुन्ना, कल सुबह दे देंगे।’’...उसकी इच्छा हुई कि वह उससे लक्ष्मी के बारे
में कुछ बात करे, लेकिन सामने ही चौकीदार और मिस्तरी
सलीम काम कर रहे थे...
असल में आज वह थक
भी गया था। अचानक व्यस्त होकर बोला और जल्दी-जल्दी हिसाब करने लगा। दुनिया-भर की
सिफारिशों के बाद उसका नाम कॉलेज के नोटिसबोर्ड पर आ गया कि वह ले लिए गये लड़कों
में से है। आते समय कुछ किताब और कॉपियाँ भी खरीद लाया था, सो आज वह चाहता था कि जल्दी-से-जल्दी अपनी कोठरी में लेटे और कुछ
आगे-पीछे की बातें...दुनिया-भर की बातें सोचता हुआ सो जाये...सोचे, लक्ष्मी कौन है...कैसी है...वह उसके बारे में किससे पूछे?कोई उसका हमउम्र और विश्वास का आदमी भी तो नहीं है। किसी से पूछे
और रूपाराम को पता चल जाये, तो? लेकिन अभी तीसरा ही तो दिन है...मन-ही-मन अपने पास रखी पत्रिकाओं और
कहानी की पुस्तकों की गिनती करते हुए वह सोचने लगा कि इस बार उसे कौन-सी देनी
है...आगे जाकर जब काफी दिन हो जायेंगे तो वह चुपचाप उसमें एक ऐसा छोटा-सा पत्र रख
देगा जो किसी दोस्त के नाम लिखा गया होगा या उसकी भाषा ऐसी होगी कि पकड़ में न आ
सके...भूल से चला गया, पकड़े जाने पर वह आसानी से कह
सकेगा—उसे तो ध्यान भी नहीं था कि वह पर्चा इसमें रखा है। बीस जवाब हैं। अपनी
चालाक बेवकूफी की कल्पना पर वह मुस्कराने लगा।
जिसके विषय में वह
इतना सब सोचता है, वह उसी लक्ष्मी के पास से आई हुई
पत्रिका है—उसने इसे अपने कोमल हाथों से छुआ होगा, तकिये के नीचे, सिरहाने भी यह रही
होगी...लेटकर पढ़ते हुए हो सकता है, सोचते-सोचते छाती
पर भी रखकर सो गई हो...और उसका तन-मन गुदगुदा उठा। क्या लक्ष्मी उसके विषय में
बिल्कुल ही न सोचती होगी? हिसाब लिखने की व्यस्तता में भी उसने
गर्दन मोड़कर एक हाथ से पत्रिका के पन्ने पलटने शुरू कर दिये और एक कोना-मुड़े पन्ने
पर अचानक उसका हाथ ठिठक गया—यह किसने मोड़ा है? एक मिनट में
हज़ारों बातें उसके दिमाग़ में चक्कर लगा गईं। उसने पत्रिका उठाकर हिसाब की कॉपी
पर रख ली। मुड़ा पन्ना पूरा खुला था। छपे पन्ने पर जगह-जगह नीली स्याही से निशान
देखकर वह चौंक पड़ा। ये किसने लगाये हैं? उसे खूब अच्छी तरह
ध्यान है, ये पहले नहीं थे...
‘‘मैं तुम्हें
प्राणों से अधिक प्यार करती हूँ...’’ उसने एक नीली लाइन के ऊपर पढ़ा...
‘‘अयं! यह क्या चक्कर
है...?’’ वह एकदम जैसे बौखला उठा। उसने फौरन ही सामने बैठे मिस्तरी सलीम और
दिलावरसिंह को देखा, वे अपने में ही व्यस्त थे। उसकी निगाह
अपने-आप दूसरी लाइन पर फिसल गई।
‘मुझे यहाँ से भगा
ले चलो...’
‘‘अरे...!’’
तीसरी लाइन—’मैं
फाँसी लगाकर मर जाऊँगी....।’
और गोविन्द इतना
घबरा गया कि उसने फट से पत्रिका बन्द कर दी। शंका से इधर-उधर देखा, किसी ने ताड़ तो नहीं लिया? उसके माथे पर पसीना
उभर आया और दिल चक्की के मोटर की तरह चलने लगा। पत्रिका के उन पन्नों के बीच में
ही उँगली रखे हुए उसने उसे घुटने के नीचे छिपा लिया। कहीं दूर से रंग-बिरंगी कवर
की तस्वीर को देखकर वह कम्बख्त चौकीदार ही न माँग बैठे। उन पंक्तियों को एक बार
फिर देखने की दुर्निवार इच्छा उसके मन में हो रही थी; लेकिन जैसे हिम्मत न पड़ती थी। क्या सचमुच ये निशान लक्ष्मी ने ही
लगाये हैं? कहीं किसी ने मज़ाक तो नहीं किया? लेकिन मज़ाक उससे कौन करेगा, क्यों करेगा? ऐसा उसका कोई परिचित भी तो नहीं है यहाँ कि तीन दिन में ही ऐसी
हिम्मत कर डाले।
उसने फिर पत्रिका
निकालकर पूरी उलट-पुलट डाली। नहीं, निशान वही हैं, बस। वह उन तीनों लाइनों को फिर एकसाथ पढ़ गया और उसे ऐसा लगा, जैसे उसके दिमाग़ में हवाई जहाज़ भन्ना उठा हो। गोविन्द का दिमाग़
चकरा रहा था, दिल धड़क रहा था, और जो हिसाब वह लिख रहा था, वह तो जैसे एकदम
भूल गया। उसने क़लम के पिछले हिस्से से कान के ऊपर खुजलाया, खूब आँखें गड़ाकर जमा और खर्च के खानों को देखने की कोशिश की, लेकिन बस नस-नस में सन-सन करती कोई चीज़ दौड़े जा रही थी। उसे लगा, उसका दिल फट जायेगा और आतिशबाज़ी के अनार की तरह दिमाग़ फूट
पड़ेगा...अब वह किससे पूछे? ये सब निशान किसने लगाये हैं? क्या सचमुच लक्ष्मी ने?
इस मधुर सत्य पर
विश्वास नहीं होता। मैं चाहे उसे न देख पाया होऊँ, उसने तो ज़रूर ही मुझे देख लिया होगा। अरे, ये लड़कियाँ बड़ी तेज़ होती हैं। गोविन्द की इच्छा हुई, अगर उसे इसी क्षण शीशा मिल जाये तो वह लक्ष्मी की आँखों से एक बार
अपने को देखे—कैसा लगता है?
लेकिन यह लक्ष्मी
कौन है? विधवा, कुमारी, विवाहिता, परित्यक्ता, क्या? कितनी बड़ी है? कैसी है? उसकी नस-नस में एक प्रबल मरोड़-सी उठने लगी कि वह अभी उठे और दौड़कर
भीतर के आँगन की सीढ़ियों से धड़ाधड़ चढ़ता हुआ ऊपर जा पहुँचे—लक्ष्मी जहाँ भी, जिस कमरे में बैठी हो, उसके दोनों कन्धे
झकझोरकर पूछे, ‘लक्ष्मी, लक्ष्मी, यह सब तुमने लिखा है? तुम नहीं जानती लक्ष्मी, मैं कितना अभागा
हूँ। मैं क़तई इस सौभाग्य के लायक नहीं हूँ।’ और सचमुच इस अप्रत्याशित सौभाग्य से
गोविन्द का हृदय इस तरह पसीज़ उठा कि उसकी आँखों में आँसू आ गये। डोरी से लटकते
हुए बल्ब को अपलक देखता हुआ वह अपने अतीत और भविष्य की गहराइयों में उतरता चला गया; फिर उसने धीरे से अपनी कोरों में भरे आँसुओं को उँगली पर लेकर इस
तरह झटक दिया, जैसे देवता पर चन्दन चढ़ा रहा हो। उसका
ढीला पड़ा हाथ अब भी पत्रिका के पन्ने को पकड़े था।
एक बार उसने फिर उन
पंक्तियों को देखा—मान लो लक्ष्मी उसके साथ भाग जाये? कहाँ जायेंगे वे लोग? कैसे रहेंगे? उसकी पढ़ाई का क्या होगा? बाद में पकड़ लिए
गये तो?
लेकिन आि़खर यह
लक्ष्मी है कौन?
लक्ष्मी के बारे
में प्रश्नों का एक झुंड उसके दिमाग़ पर टूट पड़ा, जैसे शिकारी कुत्तों का बाड़ा खोल दिया गया हो या एक के बाद एक सिर
पर कोई हथौड़े की चोटें कर रहा हो, बड़ी निर्ममता और
क्रूरता से। जैसे छत पर से अचानक गिर पड़ने वाले आदमी के सामने सारी दुनिया एक झटके
के साथ, एक क्षण में चक्कर लगा जाती है, उसी तरह उसके सामने सैकड़ों-हज़ारों चीज़ें एकसाथ चमककर गायब हो
गईं।
ईंटों के ऊँचे
चौकोर तख्तनुमा चबूतरे पर पुरानी छोटी-सी संदूक़ची के आगे बैठा गोविन्द हिसाब लिख
रहा था और अभी हिसाब न मिलने के कारण जो कच्चे पुज़ेर्ं इधर-उधर बिखरे थे, वे सब यों ही बिखरे रहे। उसने खुले लेज़र-रजिस्टर पर दोनों
कुहनियाँ टिका दीं और हथेलियों से आँखें बन्द कर लीं...कनपटी के पास की नसें चटख
रही थीं। ऐसा तो कभी देखा-सुना नहीं...सिनेमा, उपन्यासों में भी
नहीं देखा-पढ़ा। सचमुच इन निशानों का क्या मतलब है? क्या लक्ष्मी ने ही ये लाइनें खींची हैं? हो सकता है, किसी बच्चे ने ही खींच दी हों...इस
सम्भावना से थोड़ा चौंककर गोविन्द ने फिर पन्ना खोला—नहीं, बच्चा क्या सिर्फ इन्हीं लाइनों के नीचे निशान लगाता? और लकीरें इतनी सधी और सीधी हैं कि किसी बच्चे की हो ही नहीं
सकतीं। किसी ने उसे व्यर्थ परेशान करने को तो निशान नहीं लगा दिये? हो सकता है, वह लक्ष्मी बहुत चुहलबाज़ हो और ज़रा
छकाने को उसी ने सब किया हो...
यद्यपि गोविन्द इस
तरह आँखें बन्द किये सोच रहा था; लेकिन उसे मन-ही-मन
डर था कि मिस्तरी और दरबान उसे देखकर कुछ समझ न जायें। सबसे बड़ा डर उसे लाला
रूपाराम का था। अभी रूई-भरी, सकलपारों वाली
सिलाई की, मैली-सी पूरी बाँहों की मिरज़ई पहने
और उस पर मैली चीकट, युगों पुरानी अंडी लपेटे, धीरे-धीरे हाँफते हुए बेंत टेकते बड़े कष्ट से सीढ़ियाँ उतरकर वे
आयेंगे...
अचानक बेंत की
खट्-खट् से चौंककर उसने जो आँखों के आगे से हाथ हटाये तो देखा, सच ही लाला रूपाराम चले आ रहे हैं। अरे, कम्बख्त याद करते ही आ पहुँचा—बैठे हुए देख तो नहीं लिया? उसने झट पत्रिका को घुटने के नीचे और भी सरका लिया और सामने फैले पुर्जों
पर आँखें टिकाकर व्यस्त हो उठा। मिस्तरी और चौकीदार की खुसुर-पुसुर बन्द हो गई।
गली-सी पार करके लाला रूपाराम ने प्रवेश किया।
मोटे-मोटे शीशों के
पीछे से उनकी आँखें बड़ी होकर भयंकर दीखती थीं। आँखों और पलकों का रंग मिलकर ऐसा
दिखाई देता था, जैसे पीछे मोरपंख के चंदावे लगे हों।
सिर पर रूई-भरा कंटोपा था, उसके कानों को ढकने वाले मोटर के
‘मडगार्ड’ जैसे कोने अब ऊपर मुड़े थे और पौराणिक राक्षसों के सींगों का दृश्य
उपस्थित कर रहे थे। चेहरा उनका झुर्रियों से भरा था और चश्मे का फ्रेम नाक के ऊपर
से टूट गया था, उसे उन्होंने डोरा लपेटकर मज़बूत कर
लिया था। दाँत उनके नक़ली थे और शायद ढीले भी थे; क्योंकि उन्हें वे हमेशा इस तरह मुँह चला-चलाकर पीछे सरकाये रखते
थे जैसे ‘चुइंगम’ चबा रहे हों। गोविन्द को उनके इस मुँह चलाने और मुँह से निकलती
तरह-तरह की आवाज़ों से बड़ी उबकाई-सी आती थी और जब वे उससे बात करते तो वह प्रयत्न
करके अपना ध्यान उस ओर से हटाये रखता। लाला रूपाराम की गर्दन हमेशा इस तरह हिलती
रहती, जैसे खिलौने वाले बुड्ढे की गर्दन का स्प्रिंग ढीला हो गया हो!
घुटनों तक की मैली-कुचैली धोती और मिलिटरी के कबाड़िया बाज़ार से खरीदकर लाये गये
मोज़ों पर बाँधने की पट्टियाँ, जो शायद उन्हें
गठिया के दर्द से भी बचाती थीं; बिना फीते के
खींसें निपोरते फटे-पुराने बूट—उन्हें देखकर हमेशा गोविन्द को लगता कि इस आदमी का
अन्त समय निकट आ गया है।
जब लाला रूपाराम
पास आ गये तो उनके सम्मान में चेहरे पर चिकनाई वाली मुस्कान लाकर उनकी ओर देखते
हुए स्वागत किया। ईंटों के चबूतरे पर लगभग दो सौ स्याही के दाग़ और छेद वाली दरी
पर, रामस्वरूप के उससे सटकर खड़े होने से, एक मोटी-सी सिकुड़न पड़ गई थी, उसे हाथ से ठीक
करके उसने कहा, ‘‘लाला जी, यहाँ बैठिए...।’’
लाला जी ने हाँफते हुए
बिना बोले ही इशारा कर दिया कि नहीं, वे ठीक हैं। और वे
टीन की कुर्सी पर ही उसकी ओर मुँह करके बैठ गये और हाँफते रहे। असल में उन्हें
साँस की बीमारी थी और वे हमेशा प्यासे कुत्ते की तरह हाँफते रहते थे।
उनके वहाँ आ बैठने
से एक बार तो गोविन्द काँप उठा, कहीं कम्बख्त को
पता तो नहीं चल गया? कुछ पूछने-ताछने न आया हो। हालाँकि
लाला रूपाराम इस समय खा-पीकर एक बार चक्कर ज़रूर लगाते थे, लेकिन उसे विश्वास हो गया कि हो-न-हो, बुड्ढा ताड़ गया है। उसका दिल धसक चला। रूपाराम अभी हाँफ रहे थे।
गोविन्द सिर झुकाये ही हिसाब-किताब जोड़ता रहा। आि़खर स्थिति सम्भालने की दृष्टि से
उसने कहा, ‘‘लाला जी, आज मेरा नाम आ गया कॉलेज में।’’
‘‘अच्छा!’’ लाला जी
ने खाँसी के बीच में ही कहा। वह एक हाथ से डंडे को धरती पर टेके थे, दूसरे हाथ में कलाई तक गोमुखी बंधी थी, जिसके भीतर उँगलियाँ चला-चलाकर वह माला घुमा रहे थे। और उनका वह
हाथ टोंटा-सा लग रहा था।
वातावरण का बोझ
बढ़ता ही चला जा रहा था कि एक घटना हो गई।
---------पहला भाग समाप्त -----------(कहानी जारी है )...