Thursday, February 25, 2021

एक दिन का मेहमान (कहानी ) लेखक : निर्मल वर्मा /Ek din ka mehman

Part 1  

Part 2  

एक दिन का मेहमान (कहानी ) /लेखक : निर्मल वर्मा 

उसने अपना सूटकेस दरवाजे के आगे रख दिया। घंटी का बटन दबाया और प्रतीक्षा करने लगा। मकान चुप था। कोई हलचल नहीं – एक क्षण के लिए भ्रम हुआ कि घर में कोई नहीं है और वह खाली मकान के आगे खड़ा है। उसने रूमाल निकाल कर पसीना पोंछा, अपना एयर-बैग सूटकेस पर रख दिया। दोबारा बटन दबाया और दरवाजे से कान सटा कर सुनने लगा, बरामदे के पीछे कोई खुली खिड़की हवा में हिचकोले खा रही थी।

वह पीछे हट कर ऊपर देखने लगा। वह दुमंजिला मकान था – लेन के अन्य मकानों की तरह-काली छत, अंग्रेजी ‘वी’ की शक्ल में दोनों तरफ से ढलुआँ, और बीच में सफेद पत्थर की दीवार, जिसके माथे पर मकान का नंबर एक काली बिंदी-सा टिमक रहा था। ऊपर की खिड़कियाँ बंद थीं और परदे गिरे थे। कहाँ जा सकते हैं इस वक्त?

वह मकान के पिछवाड़े गया – वही लॉन, फेंस और झाड़ियाँ थीं, जो उसने दो साल पहले देखी थीं, बीच में विलो अपनी टहनियाँ झुकाए एक काले, बूढ़े रीछ की तरह ऊँघ रहा था। लेकिन गैराज खुला और खाली पड़ा था; वे कहीं कार ले कर गए थे, संभव है, उन्होंने सारी सुबह उसकी प्रतीक्षा की हो और अब किसी काम से बाहर चले गए हों। लेकिन दरवाजे पर उसके लिए एक चिट तो छोड़ ही सकते थे?

वह दोबारा सामने के दरवाजे पर लौट आया। अगस्त की चुनचुनाती धूप उनकी आँखों पर पड़ रही थी। सारा शरीर चू रहा था। वह बरामदे में ही अपने सूटकेस पर बैठ गया। अचानक उसे लगा, सड़क के पार मकानों की खिड़कियों से कुछ चेहरे बाहर झाँक रहे हैं, उसे देख रहे हैं। उसने सुना था, अंग्रेज लोग दूसरों की निजी चिंताओं में दखल नहीं देते, लेकिन वह मकान के बाहर बरामदे में बैठा था, जहाँ प्राइवेसी का कोई मतलब नहीं था; इसलिए वे निस्संकोच, नंगी उन्मुक्तता से उसे घूर रहे थे। लेकिन शायद उनके कौतूहल का एक दूसरा कारण था; उस छोटे, अंग्रेजी कस्बाती शहर में लगभग सब एक-दूसरे को पहचानते थे और वह न केवल अपनी शक्ल-सूरत में, बल्कि झूलते-झालते हिंदुस्तानी सूट में काफी अद्भुत प्राणी दिखाई दे रहा होगा। उसकी तुड़ी-मुड़ी वेशभूषा और गर्द और पसीने में लथपथ चेहरे से कोई यह अनुमान भी नहीं लगा सकता था कि अभी तीन दिन पहले फ्रेंकफर्ट की कान्फ्रेंस में उसने पेपर पढ़ा था।

‘मैं एक लुटा-पिटा एशियन इमीग्रेंट दिखाई दे रहा हूँगा’ …उसने सोचा और अचानक खड़ा हो गया-मानो खड़ा हो कर प्रतीक्षा करना ज्यादा आसान हो। इस बार बिना सोचे-समझे उसने दरवाजा जोर से खटखटाया और तत्काल हकबका कर पीछे हट गया – हाथ लगते ही दरवाजा खट-से खुल गया। जीने पर पैरों की आवाज सुनाई दी – और दूसरे क्षण वह चौखट पर उसके सामने खड़ी थी।

वह भागते हुए सीढ़ियाँ उतर कर नीचे आई थी, और उससे चिपट गई थी। इससे पहले वह पूछता, क्या तुम भीतर थीं? और वह पूछती, तुम बाहर खड़े थे? – उसने अपने धूल-भरे लस्तम-पस्तम हाथों से उसके दुबले कंधों को पकड़ लिया और लड़की का सिर नीचे झुक आया और उसने अपना मुँह उसके बालों पर रख दिया।

पड़ोसियों ने एक-एक करके अपनी खिड़कियाँ बंद कर दीं।

लड़की ने धीरे से उसे अपने से अलग कर दिया, ‘बाहर कब से खड़े थे?’

‘पिछले दो साल से।’

‘वाह!’ लड़की हँसने लगी। उसे अपने बाप की ऐसी ही बातें बौड़म जान पड़ती थीं।

‘मैंने दो बार घंटी बजाई – तुम लोग कहाँ थे?’

‘घंटी खराब है, इसलिए मैंने दरवाजा खुला छोड़ दिया था।’

‘तुम्हें मुझे फोन पर बताना चाहिए था – मैं पिछले एक घंटे से आगे-पीछे दौड़ रहा था।’

‘मैं तुम्हें बतानेवाली थी, लेकिन बीच में लाइन कट गई… तुमने और पैसे क्यों नहीं डाले?’

‘मेरे पास सिर्फ दस पैसे थे… वह औरत काफी चुड़ैल थी।’

‘कौन औरत?’ लड़की ने उसका बैग उठाया।

‘वही, जिसने हमें बीच में काट दिया।’

आदमी अपना सूटकेस बीच ड्राइंगरूम में घसीट लाया। लड़की उत्सुकता से बैग के भीतर झाँक रही थी – सिगरेट के पैकेट, स्कॉच की लंबी बोतल, चॉकलेट के बंडल – वे सारी चीजें, जो उसने इतनी हड़बड़ी में फ्रेंकफर्ट के एयरपोर्ट पर ड्यूटी-फ्री दुकान से खरीदी थीं, अब बैग से ऊपर झाँक रही थीं।

‘तुमने अपने बाल कटवा लिए?’ आदमी ने पहली बार चैन से लड़की का चेहरा देखा।

‘हाँ… सिर्फ छुट्टियों के लिए। कैसे लगते हैं?’

‘अगर तुम मेरी बेटी नहीं होतीं तो मैं समझता, कोई लफंगा घर में घुस आया है।’

‘ओह, पापा!’ लड़की ने हँसते हुए बैग से चाकलेट निकाली, रैपर खोला, फिर उसके आगे बढ़ा दी।

‘स्विस चाकलेट,’ उसने उसे हवा में डुलाते हुए कहा।

‘मेरे लिए एक गिलास पानी ला सकती हो?’

‘ठहरो, मैं चाय बनाती हूँ।’

‘चाय बाद में…’ वह अपने कोट की अंदरूनी जेब में कुछ टटोलने लगा – नोटबुक, वालेट, पासपोर्ट – सब चीजें बाहर निकल आईं, अंत में उसे टेबलेट्स की डिब्बी मिली, जिसे वह ढूँढ़ रहा था।

लड़की पानी का गिलास ले कर आई तो उससे पूछा, ‘कैसी दवाई है?’

‘जर्मन,’ उसने कहा, ‘बहुत असर करती है।’ उसने टेबलेट पानी के साथ निगल ली, फिर सोफे पर बैठ गया। सब कुछ वैसा ही था, जैसा उसने सोचा था। वही कमरा, शीशे का दरवाजा, खुले हुए परदों के बीच वही चौकोर, हरे रूमाल-जैसा लॉन, टी.वी. के स्क्रीन पर उड़ती पक्षियों की छाया, जो बाहर उड़ते थे और भीतर होने का भ्रम देते थे…।

वह किचन की देहरी पर आया। गैस के चूल्हों के पीछे लड़की की पीठ दिखाई दे रही थी। कार्डराय की काली जींस और सफेद कमीज, जिसकी मुड़ी स्लीव्स बाँहों की कुहनियों पर झूल रही थीं। वह बहुत हल्की और छुई-मुई-सी दिखाई दे रही थी।

‘मामा कहाँ हैं?’ उसने पूछा। शायद उसकी आवाज इतनी धीमी थी कि लड़की ने उसे नहीं सुना, किंतु उसे लगा, जैसे लड़की की गर्दन कुछ ऊपर उठी थी। ‘मामा क्या ऊपर हैं?’ उसने दोबारा कहा और लड़की वैसे ही निश्चल खड़ी रही और तब उसे लगा, उसने पहली बार भी उसके प्रश्न को सुन लिया था। ‘क्या वह बाहर गई हैं?’ उसने पूछा। लड़की ने बहुत धीरे, धुँधले ढंग से सिर हिलाया, जिसका मतलब कुछ भी हो सकता था।

‘तुम पापा, कुछ मेरी मदद करोगे?’

वह लपक कर किचन में चला आया, ‘बताओ, क्या काम है?’

‘तुम चाय की केतली ले कर भीतर जाओ, मैं अभी आती हूँ।’

‘बस!’ उसने निराश स्वर में कहा।

‘अच्छा, प्याले और प्लेटें भी लेते जाओ।’

वह सब चीजें ले कर भीतर कमरे में चला आया। वह दोबारा किचन में जाना चाहता था, लेकिन लड़की के डर से वह वहीं सोफा पर बैठा रहा। किचन से कुछ तलने की खुश्बू आ रही थी। लड़की उसके लिए कुछ बना रही थी – और वह उसकी कोई भी मदद नहीं कर पा रहा था। एक बार इच्छा हुई, किचन में जा कर उसे मना कर आए कि वह कुछ नहीं खाएगा – किंतु दूसरे क्षण भूख ने उसे पकड़ लिया। सुबह से उसने कुछ नहीं खाया था। यूस्टन स्टेशन के कैफेटेरिया में इतनी लंबी ‘क्यू’ लगी थी कि वह टिकट ले कर सीधा ट्रेन में घुस गया था। सोचा था, वह डायनिंग-कार में कुछ पेट में डाल लेगा, किंतु वह दुपहर से पहले नहीं खुलती थी। सच पूछा जाए, तो उसने अंतिम खाना कल शाम फ्रेंकफर्ट की एयरपोर्ट में खाया था और जब रात को लंदन पहुँचा था, तो अपने होटल की बॉर में पीता रहा था। तीसरे गिलास के बाद उसने जेब से नोटबुक निकाली, नंबर देखा और बॉर के टेलीफोन बूथ में जा कर फोन मिलाया था…

पहली बार में पता नहीं चला, उसकी पत्नी की आवाज है या बच्ची की। उसकी पत्नी ने फोन उठाया होगा, क्योंकि कुछ देर तक फोन का सन्नाटा उसके कान में झनझनाता रहा, फिर उसने सुना, वह ऊपर से बच्ची को बुला रही है। और तब उसने घड़ी देखी; उसे अचानक ध्यान आया, इस समय वह सो रही होगी, और वह फोन नीचे रखना चाहता था, किंतु उसी समय उसे बच्ची का स्वर सुनाई दिया; वह आधी नींद में थी। उसे कुछ देर तक पता ही नहीं चला कि वह इंडिया से बोल रहा है या फ्रेंकफर्ट से या लंदन से… वह उसे अपनी स्थिति समझा ही रहा था कि तीन मिनट खत्म हो गए और उसके पास इतनी ‘चेंज’ भी नहीं थी कि वह लाइन को कटने से बचा सके, तसल्ली सिर्फ इतनी थी कि वह नींद, घबराहट और नशे के बीच यह बताने में सफल हो गया कि वह कल उनके शहर पहँच रहा है… कल यानी आज।

वे अच्छे क्षण थे। बाहर इंग्लैंड की पीली और मुलायम धूप फैली थी। वह घर के भीतर था। उसके भीतर गरमाई की लहरें उठने लगी थीं। हवाई अड्डों की भाग-दौड़, होटलों की हील-हुज्जत, ट्रेन-टैक्सियों की हड़बड़ाहट – वह सबसे परे हो गया था। वह घर के भीतर था; उसका अपना घर न सही, फिर भी एक घर – कुर्सियाँ, परदे, सोफा, टी.वी.। वह अर्से से इन चीजों के बीच रहा था और हर चीज के इतिहास को जानता था। हर दो-तीन साल बाद जब वह आता था, तो सोचता था – बच्ची कितनी बड़ी हो गई होगी और पत्नी? वह कितनी बदल गई होगी! लेकिन ये चीजें उस दिन से एक जगह ठहरी थीं, जिस दिन उसने घर छोड़ा था; वे उसके साथ जाती थीं, उसके साथ लौट आती थीं…

‘पापा, तुमने चाय नहीं डाली?’ वह किचन से दो प्लेटें ले कर आई, एक में टोस्ट और मक्खन थे, दूसरे में तले हुए सॉसेज।

‘मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा था।’

‘चाय डालो, नहीं तो बिल्कुल ठंडी हो जाएगी।’

वह उसके साथ सोफा पर बैठ गई। ‘टी.वी. खोल दूँ… देखोगे?’

‘अभी नहीं… सुनो, तुम्हें मेरे स्टैंप्स मिल गए थे?’

‘हाँ, पापा, थैंक्स!’ वह टोस्ट्स पर मक्खन लगा रही थी।

‘लेकिन तुमने चिट्ठी एक भी नहीं लिखी!’

‘मैंने एक लिखी थी, लेकिन जब तुम्हारा टेलीग्राम आया, तो मैंने सोचा, अब तुम आ रहे हो तो चिट्ठी भेजने की क्या जरूरत?’

‘तुम सचमुच गागा हो।’

लड़की ने उसकी ओर देखा और हँसने लगी। यह उसका चिढ़ाऊ नाम था, जो बाप ने बरसों पहले उसे दिया था, जब वह उसके साथ घर में रहता था, वह बहुत छोटी थी और उसने हिंदुस्तान का नाम भी नहीं सुना था।

बच्ची की हँसी का फायदा उठाते हुए वह उसके पास झुक आया जैसे कोई चंचल चिड़िया हो, जिसे केवल सुरक्षा के भ्रामक क्षण में ही पकड़ा जा सकता है, ‘ममी कब लौटेंगी?’

प्रश्न इतना अचानक था कि लड़की झूठ नहीं बोल सकी, ‘वह ऊपर अपने कमरे में हैं।’

‘ऊपर? लेकिन तुमने तो कहा था…’

किरच, किरच, किरच – वह चाकू से जले हुए टोस्ट को कुरेद रही थी मानो उसके साथ-साथ वह उसके प्रश्न को भी काट डालना चाहती हो। हँसी अब भी थी, लेकिन अब वह बर्फ में जमे कीड़े की तरह उसके होंठों पर चिपकी थी।

‘क्या उन्हें मालूम है कि मैं यहाँ हूँ?’

लड़की ने टोस्ट पर मक्खन लगाया, फिर जैम – फिर उसके आगे प्लेट रख दी।

‘हाँ, मालूम है।’ उसने कहा।

‘क्या वह नीचे आ कर हमारे साथ चाय नहीं पिएँगी?’

लड़की दूसरी प्लेट पर सॉसेज सजाने लगी – फिर उसे कुछ याद आया। वह रसोई में गई और अपने साथ मस्टर्ड और कैचुप की बोतलें ले आई।

‘मैं ऊपर जा कर पूछ आता हूँ।’ उसने लड़की की तरफ देखा, जैसे उससे अपनी कार्यवाही का समर्थन पाना चाहता हो। जब वह कुछ नहीं बोली, तो वह जीने की तरफ जाने लगा।

‘प्लीज, पापा!’

उसके पाँव ठिठक गए।

‘आप फिर उनसे लड़ना चाहते हैं?’ लड़की ने कुछ गुस्से में उसे देखा।

‘लड़ना!’ वह शर्म से भीगा हुआ हँसने लगा, ‘मैं यहाँ दो हजार मील उनसे लड़ने आया हूँ?’

‘फिर आप मेरे पास बैठिए।’ लड़की का स्वर भरा हुआ था। वह अपनी माँ के साथ थी, लेकिन बाप के प्रति क्रूर नहीं थी। वह उसे पुरचाती निगाहों से निहार रही थी, ‘मैं तुम्हारे पास हूँ, क्या यह काफी नहीं है?’

वह खाने लगा, टोस्ट, सॉसेज, टिन के उबले हुए मटर। उसकी भूख उड़ गई थी, लेकिन लड़की की आँखें उस पर थीं। वह उसे देख रही थी, और कुछ सोच रही थी, कभी-कभी टोस्ट का एक टुकड़ा मुँह में डाल लेती और फिर चाय पीने लगती। फिर उसकी ओर देखती और चुपचाप मुस्कराने लगती, उसे दिलासा-सी देती, सब कुछ ठीक है, तुम्हारी जिम्मेदारी मुझ पर है और जब तक मैं हूँ, डरने की कोई बात नहीं।

डर नहीं था। टेबलेट का असर रहा होगा, या यात्रा की थकान – वह कुछ देर के लिए लड़की की निगाहों से हटना चाहता था। वह अपने को हटाना चाहता था। ‘मैं अभी आता हूँ।’ उसने कहा। लड़की ने सशंकित आँखों से उसे देखा, ‘क्या बाथरूम जाएँगे?’ वह उसके साथ-साथ गुसलखाने तक चली आई और जब उसने दरवाजा बंद कर लिया, तो भी उसे लगता रहा, वह दरवाजे के पीछे खड़ी है…

उसने बेसिनी में अपना मुँह डाल दिया और नलका खोल दिया। पानी झर-झर उसके चेहरे पर बहने लगा – और वह सिसकने-सा लगा, आधे बने हुए शब्द उसकी छाती के खोखल से बाहर निकलने लगे, जैसे भीतर जमी हुई काई उलट रहा हो, उलटी, जो सीधी दिल से बाहर आती है – वह टेबलेट जो कुछ देर पहले खाई थी, अब पीले चूरे-सी बेसिनी के संगमरमर पर तैर रही थी। फिर उसने नल बंद कर दिया और रूमाल निकाल कर मुँह पोंछा। बाथरूम की खूँटी पर स्त्री के मैले कपड़े टँगे थे – प्लास्टिक की एक चौड़ी बाल्टी में अंडरवियर और ब्रेसियर साबुन में डूबे थे… खिड़की खुली थी और बाग का पिछवाड़ा धूप में चमक रहा था। कहीं किसी दूसरे बाग से घास कटने की उनींदी-सी घुर्र-घुर्र पास आ रही थी…

वह जल्दी से बाथरूम का दरवाजा बंद करके कमरे में चला आया। सारे घर में सन्नाटा था। वह किचन में आया, तो लड़की दिखाई नहीं दी। वह ड्राइंगरूम में लौटा, तो वह भी खाली पड़ा था। उसे संदेह हुआ कि वह ऊपरवाले कमरे में अपनी माँ के पास बैठी है। एक अजीब आतंक ने उसे पकड़ लिया। घर जितना शांत था, उतना ही खतरे से अटा जान पड़ा। वह कोने में गया, जहाँ उसका सूटकेस रखा था, वह जल्दी-जल्दी उसे खोलने लगा। उसने अपने कान्फ्रेंस के नोट्स और कागज अलग किए, उनके नीचे से वह सारा सामान निकालने लगा, जो वह दिल्ली से अपने साथ लाया था – एंपोरियम का राजस्थानी लहँगा (लड़की के लिए), ताँबे और पीतल के ट्रिंकेट्स, जो उसने जनपथ पर तिब्बती लामा हिप्पियों से खरीदे थे, पशमीने की कश्मीरी शॉल (बच्ची की माँ के लिए), एक लाल गुजराती जरीदार स्लीपर, जिसे बच्ची और माँ दोनों पहन सकते थे, हैंडलूम के बेडकवर, हिंदुस्तानी टिकटों का अल्बम – और एक बहुत बड़ी सचित्र किताब ‘बनारस : द एटर्नल सिटी।’ फर्श पर धीरे-धीरे एक छोटा-सा हिंदुस्तान जमा हो गया था जिसे वह हर बार यूरोप आते समय अपने साथ ढो लाता था।

सहसा उसके हाथ ठिठक गए। वह कुछ देर तक चीजों के ढेर को देखता रहा। कमरे के फर्श पर बिखरी हुई वे बिल्कुल अनाथ और दयनीय दिखाई दे रही थीं। एक पागल-सी इच्छा हुई कि वह उन्हें कमरे में जैसे का तैसा छोड़ कर भाग खड़ा हो। किसी को पता भी न चलेगा, वह कहाँ चला गया? लड़की थोड़ा-बहुत जरूर हैरान होगी, किंतु बरसों से वह उससे ऐसे ही अचानक मिलती रही थी और बिना कारण बिछुड़ती रही थी, ‘यू आर ए कमिंग मैन एंड ए गोइंग मैन’, वह उससे कहा करती थी, पहले विषाद में और बाद में कुछ-कुछ हँसी में… उसे कमरे में न बैठा देख कर लड़की को ज्यादा सदमा नहीं पहुँचेगा। वह ऊपर जाएगी और माँ से कहेगी, ‘अब तुम नीचे आ सकती हो; वह चले गए।’ फिर वे दोनों एक-साथ नीचे आएँगी, और उन्हें राहत मिलेगी कि अब उन दोनों के अलावा घर में कोई नहीं है।

‘पापा!’

वह चौंक गया, जैसे रँगे हाथों पकड़ा गया हो। खिसियानी-सी मुस्कराहट में लड़की को देखा – वह कमरे की चौखट पर खड़ी थी और खुले हुए सूटकेस को ऐसे देख रही थी, जैसे वह कोई जादू की पिटारी हो, जिसने अपने पेट से अचानक रंग-बिरंगी चीजों को उगल दिया हो, लेकिन उसकी आँखों में कोई खुशी नहीं थी; एक शर्म-सी थी, जब बच्चे अपने बड़ों को कोई ऐसी ट्रिक करते हुए देखते हैं जिसका भेद उन्हें पहले से मालूम होता है; वे अपने संकोच को छिपाने के लिए कुछ ज्यादा ही उत्सुक हो जाते हैं।

‘इतनी चीजें?’ वह आदमी के सामने कुर्सी पर बैठ गई, ‘कैसे लाने दीं? सुना है, आजकल कस्टमवाले बहुत तंग करते हैं!’

‘नहीं, इस बार उन्होंने कुछ नहीं किया,’ आदमी ने उत्साह में आ कर कहा, ‘शायद इसलिए कि मैं सीधे फ्रेंकफर्ट से आ रहा था। उन्हें सिर्फ एक चीज पर शक हुआ था।’ उसने मुस्कराते हुए लड़की की ओर देखा।

‘किस चीज पर?’ लड़की ने इस बार सच्ची उत्सुकता से पूछा।

उसने अपने बैग से दालबीजी का डिब्बा निकाला और उसे खोल कर मेज पर रख दिया। लड़की ने झिझकते हुए दो-चार दाने उठाए और उन्हें सूँघने लगी, ‘क्या है यह?’ उसने जिज्ञासा से आदमी को देखा।

‘वे भी इसी तरह सूँघ रहे थे,’ वह हँसने लगा, ‘उन्हें डर था कि कहीं इसमें चरस-गाँजा तो नहीं है।’

‘हैश?’ लड़की की आँखें फैल गईं, ‘क्या इसमें सचमुच हैश मिली है?’

‘खा कर देखो।’

लड़की ने कुछ दालमोठ मुँह में डाले और उन्हें चबाने लगी, फिर हलाट-सी हो कर सी-सी करने लगी।

‘मिर्चें होंगी – थूक दो!’ आदमी ने कुछ घबरा कर कहा।

किंतु लड़की ने उन्हें निगल लिया और छलछलाई आँखों से बाप को देखने लगी।

‘तुम भी पागल हो… सब निगल बैठीं।’ आदमी ने जल्दी से उसे पानी का गिलास दिया, जो वह उसके लिए लाई थी।

‘मुझे पसंद है।’ लड़की ने जल्दी से पानी पिया और अपनी कमीज की मुड़ी हुई बाँहों से आँखें पोंछने लगी। फिर मुस्कराते हुए आदमी की ओर देखा, ‘आई लव इट।’ वह कई बातें सिर्फ आदमी का मन रखने के लिए करती थी। उनके बीच बहुत कम मुहलत रहती थी और वह उसके निकट पहुँचने के लिए ऐसे शॉर्टकट लेती थी, जिसे दूसरे बच्चे महीनों में पार करते हैं।

‘क्या उन्होंने भी इसे चख कर देखा था?’ लड़की ने पूछा।

‘नहीं, उनमें इतनी हिम्मत कहाँ थी! उन्होंने सिर्फ मेरा सूटकेस खोला, मेरे कागजों को उल्टा-पलटा और जब उन्हें पता चला कि मैं कान्फ्रेंस से आ रहा हूँ तो उन्होंने कहा, ‘मिस्टर, यू मे गो।’ ‘

‘क्या कहा उन्होंने?’ लड़की हँस रही थी।

‘उन्होंने कहा, ‘मिस्टर यू मे गो, लाइक एन इंडियन क्रो!’ आदमी ने भेदभरी निगाहों से उसे देखा। ‘क्या है यह?’

लड़की हँसती रही – जब वह बहुत छोटी थी और आदमी के साथ पार्क में घूमने जाती थी, तो वे यह सिरफिरा खेल खेलते थे। वह पेड़ की ओर देख कर पूछता था, ओ डियर, इज देयर एनीथिंग टू सी? और लड़की चारों तरफ देख कर कहती थी, येस डियर, देयर इज ए क्रो ओवर द ट्री। आदमी विस्मय से उसकी ओर देखता। क्या है यह? और वह विजयोल्लास में कहती – पोयम!

ए पोयम! बढ़ती हुई उम्र में छूटते हुए बचपन की छाया सरक आई – पार्क की हवा, पेड़, हँसी। वह बाप की उँगली पकड़ कर सहसा एक ऐसी जगह आ गई, जिसे वह मुद्दत पहले छोड़ चुकी थी, जो कभी-कभार रात को सोते हुए सपनों में दिखाई दे जाती थी…

‘मैं तुम्हारे लिए कुछ इंडियन सिक्के लाया था… तुमने पिछली बार कहा था न!’

‘दिखाओ, कहाँ हैं?’ लड़की ने कुछ जरूरत से ज्यादा ही ललकते हुए पूछा।

आदमी ने सलमे-सितारों से जड़ी एक लाल थैली उठाई – जिसे हिप्पी लोग अपने पासपोर्ट के लिए खरीदते थे। लड़की ने उसे उसके हाथ से छीन लिया और हवा में झुलाने लगी। भीतर रखी चवन्नियाँ, अठन्नियाँ चहचहाने लगीं, फिर उसने थैली का मुँह खोला और सारे पैसों को मेज पर बिखेर दिया।

‘हिंदुस्तान में क्या सब लोगों के पास ऐसे ही सिक्के होते हैं?’

वह हँसने लगा, ‘और क्या सबके लिए अलग-अलग बनेंगे?’ उसने कहा।

‘लेकिन गरीब लोग?’ उसने आदमी को देखा, ‘मैंने एक रात टी.वी. में उन्हें देखा था…।’ वह सिक्कों को भूल गई और कुछ असमंजस में फर्श पर बिखरी चीजों को देखने लगी। तब पहली बार आदमी को लगा – वह लड़की जो उसके सामने बैठी है, कोई दूसरी है। पहचान का फ्रेम वही है जो उसने दो साल पहले देखा था लेकिन बीच की तस्वीर बदल गई है। किंतु वह बदली नहीं थी, वह सिर्फ कहीं और चली गई थी। वे माँ-बाप जो अपने बच्चों के साथ हमेशा नहीं रहते, उन गोपनीय मंजिलों के बारे में कुछ नहीं जानते जो उनके अभाव की नींव पर ऊपर ही ऊपर बनती रहती हैं, लड़की अपने बचपन की बेसमेंट में जा कर ही पिता से मिल पाती थी… लेकिन कभी-कभी उसे छोड़ कर दूसरे कमरों में चली जाती थी, जिसके बारे में आदमी को कुछ भी मालूम नहीं था।

‘पापा!’ लड़की ने उसकी ओर देखा, ‘क्या मैं इन चीजों को समेट कर रख दूँ?’

‘क्यों, इतनी जल्दी क्या है?’

‘नहीं, जल्दी नहीं… लेकिन मामा आ कर देखेंगी तो…!’ उसके स्वर में हल्की-सी घबराहट थी, जैसे वह हवा में किसी अदृश्य खतरे को सूँघ रही हो।

‘आएँगी तो क्या?’ आदमी ने कुछ विस्मय से लड़की की ओर देखा।

‘पापा, धीरे बोलो…!’ लड़की ने ऊपर कमरे की तरफ देखा, ऊपर सन्नाटा था, जैसे घर की एक देह हो, दो में बँटी हुई, जिसका एक हिस्सा सुन्न और निस्पंद पड़ा हो, दूसरे में वे दोनों बैठे थे। और तब उसे भ्रम हुआ कि लड़की कोई कठपुतली का नाटक कर रही है। ऊपर के धागे से बँधी हुई, जैसे वह खिंचता है, वैसे वह हिलती है, लेकिन वह न धागे को देख सकता है, न उसे, जो उसे हिलाता है…

वह उठ खड़ा हुआ। लड़की ने आतंकित हो कर उसे देखा, ‘आप कहाँ जा रहे हैं?’

‘वह नीचे नहीं आएँगी?’ उसने पूछा।

‘उन्हें मालूम है, आप यहाँ हैं।’ लड़की ने कुछ खीज कर कहा।

‘इसीलिए वह नहीं आना चाहतीं?’

‘नहीं…।’ लड़की ने कहा, ‘इसीलिए वह कभी भी आ सकती हैं।’

कैसे पागल हैं! इतनी छोटी-सी बात नहीं समझ सकते। ‘आप बैठिए, मैं अभी इन सब चीजों को समेट लेती हूँ।’

वह फर्श पर उकड़ूँ बैठ गई; बड़ी सफाई से हर चीज को उठा कर कोने में रखने लगी। मखमल की जूती, पशमीने की शॉल, गुजरात एंपोरियम का बेडकवर। उसकी पीठ पिता की ओर थी, किंतु वह उसके हाथ देख सकता था, पतले और साँवले, बिल्कुल अपनी माँ की तरह, वैसे ही निस्संग और ठंडे, जो उसकी लाई चीजों को आत्मीयता से पकड़ते नहीं थे, सिर्फ अनमने भाव से अलग ठेल देते थे। वे एक ऐसी बच्ची के हाथ थे, जिसने सिर्फ माँ के सीमित और सुरक्षित स्नेह को छूना सीखा था, मर्द के उत्सुक और पीड़ित उन्माद को नहीं जो पिता के सेक्स की काली कंदरा से उमड़ता हुआ बाहर आता है।

अचानक लड़की के हाथ ठिठक गए। उसे लगा, कोई दरवाजे की घंटी बजा रहा है लेकिन दूसरे ही क्षण फोन का ध्यान आया जो जीने के नीचे कोटर में था और जंजीर से बँधे पिल्ले की तरह जोर-जोर से चीख रहा था। लड़की ने चीजें वैसे ही छोड़ दीं और लपकते हुए सीढ़ियों के पास गई, फोन उठाया, एक क्षण तक कुछ सुनाई नहीं दिया। फिर वह चिल्लाई –

‘मामा, आपका फोन!’

बच्ची बेनिस्टर के सहारे खड़ी थी, हाथ में फोन झुलाती हुई। ऊपर का दरवाजा खुला और जीना हिलने लगा। कोई नीचे आ रहा था, फिर एक सिर लड़की के चेहरे पर झुका, गुँथा हुआ जूड़ा और फोन के बीच एक पूरा चेहरा उभर आया…

‘किसका है?’ औरत ने अपने लटकते हुए जूड़े को पीछे धकेल दिया और लड़की के हाथ से फोन खींच लिया। आदमी कुर्सी से उठा… लड़की ने उसकी ओर देखा। ‘हलो,’ औरत ने कहा। ‘हलो, हलो,’ औरत की आवाज ऊपर उठी और तब उसे पता चला, कि यह उस स्त्री की आवाज है, जो उसकी पत्नी थी; वह उसे बरसों बाद भी सैकड़ों आवाजों की भीड़ में पहचान सकता था… ऊँची पिच पर हल्के-से काँपती हुई, हमेशा से सख्त, आहत, परेशान, उसकी देह की एकमात्र चीज, जो देह से परे आदमी की आत्मा पर खून की खरोंच खींच जाती थी… वह जैसे उठा था, वैसे ही बैठ गया।

लड़की मुस्करा रही थी।

वह हैंगर के आईने से आदमी का चेहरा देख रही थी – और वह चेहरा कुछ वैसा ही बेडौल दिखाई दे रहा था जैसे उम्र के आईने से औरत की आवाज – उल्टा, टेढ़ा, पहेली-सा रहस्यमय! वे तीनों व्यक्ति अनजाने में चार में बँट गए थे – लड़की, उसकी माँ, वह और उसकी पत्नी… घर जब गृहस्थी में बदलता है, तो अपने-आप फैलता जाता है…

‘तुम जेनी से बात करोगी?’ औरत ने लड़की से कहा और बच्ची जैसे इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रही थी। वह उछल कर ऊपरी सीढ़ी पर आई और माँ से टेलीफोन ले लिया, ‘हलो जेनी, इट इज मी!’

वह दो सीढ़ियाँ नीचे उतरी; अब आदमी उसे पूरा-का-पूरा देख सकता था।

‘बैठो…’ आदमी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। उसके स्वर में एक बेबस-सा अनुनय था, मानो उसे डर हो कि कहीं उसे देख कर वह उल्टे पाँव न लौट जाए।

वह एक क्षण अनिश्चय में खड़ी रही। अब वापस मुड़ना निरर्थक था, लेकिन इस तरह उसके सामने खड़े रहने का भी कोई तुक नहीं था। वह स्टूल खींच कर टी.वी. के आगे बैठ गई।

‘कब आए?’ उसका स्वर इतना धीमा था कि आदमी को लगा, टेलीफोन पर कोई दूसरी औरत बोल रही थी।

‘काफी देर हो गई… मुझे तो पता भी न था कि तुम ऊपर के कमरे में हो!’

स्त्री चुपचाप उसे देखती रही।

आदमी ने जेब से रूमाल निकाला, पसीना पोंछा, मुस्कराने की कोशिश में मुस्कराने लगा। ‘मैं बहुत देर तक बाहर खड़ा रहा, मुझे पता नहीं था, घंटी खराब है। गैरेज खाली पड़ा था, मैंने सोचा, तुम दोनों कहीं बाहर गए हो… तुम्हारी कार?’ उसे मालूम था, फिर भी उसने पूछा।

‘सर्विसिंग के लिए गई है!’ स्त्री ने कहा। वह हमेशा से उसकी छोटी, बेकार की बातों से नफरत करती आई थी, जबकि आदमी के लिए वे कुछ ऐसे तिनके थे, जिन्हें पकड़ कर डूबने से बचा जा सकता था। कम-से-कम कुछ देर के लिए…

‘तुम्हें मेरा टेलीग्राम मिल गया था? मैं फ्रेंकफर्ट आया था, उसी टिकट पर यहाँ आ गया; कुछ पौंड ज्यादा देने पड़े। मैंने तुम्हें वहाँ से फोन भी किया, लेकिन तुम दोनों कहीं बाहर थे…’

‘कब?’ औरत ने हल्की जिज्ञासा से उसकी ओर देखा, ‘हम दोनों घर में थे।’

‘घंटी बज रही थी, लेकिन किसी ने उठाया नहीं। हो सकता है, आपरेटर मेरी अंग्रेजी नहीं समझ सकी और गलत नंबर दे दिया हो! लेकिन सुनो।’ वह हँसने लगा, ‘एक अजीब बात हुई। हीथ्रो पर मुझे एक औरत मिली, जो पीछे से बिल्कुल तुम्हारी तरह दिखाई दे रही थी, यह तो अच्छा हुआ, मैंने उसे बुलाया नहीं… हिंदुस्तान के बाहर हिंदुस्तानी औरतें एक जैसी ही दिखाई देती हैं…।’ वह बोले जा रहा था। वह उस आदमी की तरह था जो आँखों पर पट्टी बाँध कर हवा में तनी हुई रस्सी पर चलता है, स्त्री कहीं बहुत नीचे थी, एक सपने में, जिसे वह बहुत पहले कभी जानता था, किंतु अब उसे याद नहीं आ रहा था कि वह उसके सामने क्यों बैठा था?

वह चुप हो गया। उसे खयाल आया, इतनी देर से वह सिर्फ अपनी आवाज सुन रहा है, उसके सामने बैठी स्त्री बिल्कुल चुप बैठी थी। उसकी ओर बहुत ठंडी और हताश निगाहों से देख रही थी।

‘क्या बात है?’ आदमी ने कुछ भयभीत-सा हो कर पूछा।

‘मैंने तुमसे मना किया था; तुम समझते क्यों नहीं?’

‘किसके लिए? तुमने किसके लिए मना किया था?’

‘मैं तुमसे कुछ नहीं चाहती… मेरे घर तुम ये सब क्यों लाते हो? क्या फायदा है इनका?’

पहले क्षण वह नहीं समझा, कौन-सी चीजें? फिर उसकी निगाहें फर्श पर गईं… शांति-निकेतन का पर्स, डाक टिकटों का अल्बम, दालबीजी का डिब्बा – वे अब बिल्कुल लुटी-पिटी दिखाई दे रही थीं, जैसे वह कुर्सी पर बैठा हुआ था, वैसी वे फर्श पर बिखरी हुई। ‘कौन-सी ज्यादा हैं?’ उसने खिसियाते हुए कहा, ‘इन्हें न लाता तो आधा सूटकेस खाली पड़ा रहता।’

‘लेकिन मैं तुमसे कुछ नहीं चाहती… तुम क्या इतनी-सी बात नहीं समझ सकते?’

स्त्री की आवाज काँपती हुई ऊपर उठी, जिसके पीछे न जाने कितनी लड़ाइयों की पीड़ा, कितने नरकों का पानी भरा था, जो बाँध टूटते ही उसके पास आने लगा, एक-एक इंच आगे बढ़ता हुआ। उसने जेब से रूमाल निकाला और अपने लथपथ चेहरे को पोंछने लगा।

‘क्या तुम्हें इतनी देर के लिए आना भी बुरा लगता है?’

‘हाँ…।’ उसका चेहरा तन गया, फिर अजीब हताशा में वह ढीली पड़ गई, ‘मैं तुम्हें देखना नहीं चाहती – बस!’

क्या यह इतना आसान है? वह जिद्दी लड़के की तरह उसे देखने लगा, जो सवाल समझ लेने के बाद भी बहाना करता है कि उसे कुछ समझ में नहीं आया।

‘वुक्कू!’ उसने धीरे से कहा, ‘प्लीज!’

‘मुझे माफ करो…।’ औरत ने कहा।

‘तुम चाहती क्या हो?’

‘लीव मी अलोन…। इससे ज्यादा मैं कुछ और नहीं चाहती।’

‘मैं बच्ची से भी मिलने नहीं आ सकता?’

‘इस घर में नहीं, तुम उससे कहीं बाहर मिल सकते हो?’

‘बाहर!’ आदमी ने हकबका कर सिर उठाया, ‘बाहर कहाँ?’

उस क्षण वह भूल गया कि बाहर सारी दुनिया फैली है, पार्क, सड़कें, होटल के कमरे – उसका अपना संसार – बच्ची कहाँ-कहाँ उसके साथ घिसटेगी?

वह फोन पर हँस रही थी। कुछ कह रही थी, ‘नहीं, आज मैं नहीं आ सकती। डैडी घर में हैं, अभी-अभी आ रहे हैं… नहीं, मुझे मालूम नहीं। मैंने पूछा नहीं…।’ क्या नहीं मालूम? शायद उसकी सहेली ने पूछा था, वह कितने दिन रहेगा? सामने बैठी स्त्री भी शायद यह जानना चाहती थी, कितना समय, कितनी घड़ियाँ, कितनी यातना अभी और उसके साथ भोगनी पड़ेगी?

शाम की आखिरी धूप भीतर आ रही थी। टी.वी. का स्क्रीन चमक रहा था, लेकिन वह खाली था और उसमें सिर्फ स्त्री की छाया बैठी थी, जैसे खबरें शुरू होने से पहले एनांउसर की छवि दिखाई देती है, पहले कमजोर और धुँधली, फिर धीरे-धीरे ‘ब्राइट’ होती हुई… वह साँस रोके प्रतीक्षा कर रहा था कि वह कुछ कहेगी हालाँकि उसे मालूम था कि पिछले वर्षों से सिर्फ एक न्यूज-रील है जो हर बार मिलने पर एक पुरानी पीड़ा का टेप खोलने लगती है, जिसका संबंध किसी दूसरी जिंदगी से है… चीजें और आदमी कितनी अलग हैं! बरसों बाद भी घर, किताबें, कमरे वैसे ही रहते हैं, जैसा तुम छोड़ गए थे; लेकिन लोग? वे उसी दिन से मरने लगते हैं, जिस दिन से अलग हो जाते हैं… मरते नहीं, एक दूसरी जिंदगी जीने लगते हैं, जो धीरे-धीरे उस जिंदगी का गला घोंट देती है, जो तुमने साथ गुजारी थी…

‘मैं सिर्फ बच्ची से नहीं…’ वह हकलाने लगा, ‘मैं तुमसे भी मिलने आया था।’

‘मुझसे?’ औरत के चेहरे पर हँसी, हिकारत, हैरानी एक साथ उमड़ आईं, ‘तुम्हारी झूठ की आदत अभी तक नहीं गई!’

‘तुमसे झूठ बोल कर अब मुझे क्या मिलेगा?’

‘मालूम नहीं, तुम्हें क्या मिलेगा – मुझे जो मिला है, उसे मैं भोग रही हूँ।’ उसने एक ठहरी ठंडी निगाह से बाहर देखा। ‘मुझे अगर तुम्हारे बारे में पहले से ही कुछ मालूम होता, तो मैं कुछ कर सकती थी।’

‘क्या कर सकती थीं?’ एक ठंडी-सी झुरझुरी ने आदमी को पकड़ लिया।

‘कुछ भी। मैं तुम्हारी तरह अकेली नहीं रह सकती; लेकिन अब इस उम्र में… अब कोई मुझे देखता भी नहीं।’

‘वुक्कू…!’ उसने हाथ पकड़ लिया।

‘मेरा नाम मत लो… वह सब खत्म हो गया।’

वह रो रही थी; बिल्कुल निस्संग, जिसका गुजरे हुए आदमी और आनेवाली उम्मीद – दोनों से कोई सरोकार नहीं थी। आँसू, जो एक कारण से नहीं, पूरा पत्थर हट जाने से आते हैं, एक ढलुआ जिंदगी पर नाले की तरह बहते हुए; औरत बार-बार उन्हें अपने हाथ से झटक देती थी…

बच्ची कब से फोन के पास चुप बैठी थी। वह जीने की सबसे निचली सीढ़ी पर बैठी थी और सूखी आँखों से रोती माँ को देख रही थी। उसके सब प्रयत्न निष्फल हो गए थे, किंतु उसके चेहरे पर निराशा नहीं थी। हर परिवार के अपने दुःस्वप्न होते हैं, जो एक अनवरत पहिए में घूमते हैं; वह उसमें हाथ नहीं डालती थी। इतनी कम उम्र में वह इतना बड़ा सत्य जान गई थी कि मनुष्य के मन और बाहर की सृष्टि में एक अद्भुत समानता है – वे जब तक अपना चक्कर पूरा नहीं कर लेते, उन्हें बीच में रोकना बेमानी है…।

वह बिना आदमी को देखे माँ के पास गई; कुछ कहा, जो उसके लिए नहीं था। औरत ने उसे अपने पास बैठा लिया, बिल्कुल अपने से सटा कर। काउच पर बैठी वे दोनों दो बहनों-सी लग रही थीं। वे उसे भूल गई थीं। कुछ देर पहले जो ज्वार उठा था, उसमें घर डूब गया था लेकिन अब पानी वापस लौट गया था और अब आदमी वहाँ था, जहाँ उसे होना चाहिए था – किनारे पर। उसे यह ईश्वर का वरदान जैसा जान पड़ा; वह दोनों के बीच बैठा है – अदृश्य! बरसों से उसकी यह साध रही थी कि वह माँ और बेटी के बीच अदृश्य बैठा रहे। सिर्फ ईश्वर ही अपनी दया में अदृश्य होता है – यह उसे मालूम था। किंतु जो आदमी गढ़हे की सबसे निचली सतह पर जीता है, उसे भी कोई नहीं देख सकता। माँ और बच्ची ने उसे अलग छोड़ दिया था; यह उसकी उपेक्षा नहीं थी। उसकी तरफ से मुँह मोड़ कर उन्होंने उसे अपने पर छोड़ दिया था – ठीक वहीं – जहाँ उसने बरसों पहले घर छोड़ा था।

लड़की माँ को छोड़ कर उसके पास आ कर बैठ गई।

‘हमारा बाग देखने चलोगे?’ उसने कहा।

‘अभी?’ उसने कुछ विस्मय से लड़की को देखा। वह कुछ अधीर और उतावली-सी दिखाई दे रही थी, जैसे वह उससे कुछ कहना चाहती हो, जिसे कमरे के भीतर कहना असंभव हो।

‘चलो,’ आदमी ने उठते हुए कहा, ‘लेकिन पहले इन चीजों को ऊपर ले जाओ।’

‘हम इन्हें बाद में समेट लेंगे।’

‘बाद में कब?’ आदमी ने कुछ सशंकित हो कर पूछा।

‘आप चलिए तो!’ लड़की ने लगभग उसे घसीटते हुए कहा।

‘इनसे कहो, अपना सामान सूटकेस में रख लें।’ स्त्री की आवाज सुनाई दी।

उसे लगा, किसी ने अचानक पीछे से धक्का दिया हो। वह चमक कर पीछे मुड़ा, ‘क्यों?’

‘मुझे इनकी कोई जरूरत नहीं है।’

उसके भीतर एक लपलपाता अंधड़ उठने लगा, ‘मैं नहीं ले जाऊँगा, तुम चाहो तो इन्हें बाहर फेंक सकती हो।’

‘बाहर?’ स्त्री की आवाज थरथरा रही थी, ‘मैं इनके साथ तुम्हें भी बाहर फेंक सकती हूँ।’ रोने के बाद उसकी आँखें चमक रही थीं; गालों का गीलापन सूखे काँच-सा जम गया था, जो पोंछे हुए नहीं, सूखे हुए आँसुओं से उभर कर आता है।

‘क्या हम बाग देखने नहीं चलेंगे?’ बच्ची ने उसका हाथ खींचा – और वह उसके साथ चलने लगा। वह कुछ भी नहीं देख रहा था। घास, क्यारियाँ और पेड़ एक गूँगी फिल्म की तरह चल रहे थे। सिर्फ उसकी पत्नी की आवाज एक भुतैली कमेंट्री की तरह गूँज रही थी – बाहर, बाहर!

‘आप ममी के साथ बहस क्यों करते हैं?’ लड़की ने कहा।

‘मैंने बहस कहाँ की?’ उसने बच्ची को देखा – जैसे वह भी उसकी दुश्मन हो।

‘आप करते हैं।’ लड़की का स्वर अजीब-सा हठीला हो आया था। वह अंग्रेजी में ‘यू’ कहती थी, जिसका मतलब प्यार में ‘तुम’ होता था और नाराजगी में ‘आप’। अंग्रेजी सर्वनाम की यह संदिग्धता बाप-बेटी के रिश्ते को हवा में टाँगे रहती थी, कभी बहुत पास, कभी बहुत पराया – जिसका सही अंदाज उसे सिर्फ लड़की की टोन में टटोलना पड़ता था। एक अजीब-से भय ने आदमी को पकड़ लिया। वह एक ही समय में माँ और बच्ची दोनों को नहीं खोना चाहता था।

‘बड़ा प्यारा बाग है,’ उसने फुसलाते हुए कहा, ‘क्या माली आता है?’

‘नहीं, माली नहीं।’ लड़की ने उत्साह से कहा, ‘मैं शाम को पानी देती हूँ और छुट्टी के दिन ममी घास काटती हैं… इधर आओ, मैं तुम्हें एक चीज दिखाती हूँ।’

वह उसके पीछे-पीछे चलने लगा। लॉन बहुत छोटा था – हरा, पीला, मखमली। पीछे गैराज था और दोनों तरफ झाड़ियों की फेंस लगी थी। बीच में एक घना, बूढ़ा, विलो खड़ा था। लड़की पेड़ के पीछे छिप-सी गई, फिर उसकी आवाज सुनाई दी, ‘कहाँ हो तुम?’

वह चुपचाप, दबे-पाँवों से पेड़ के पीछे चला आया और हैरान-सा खड़ा रहा। विलो और फेंस के बीच काली लकड़ी का बाड़ा था, जिसके दरवाजे से एक खरगोश बाहर झाँक रहा था; दूसरा खरगोश लड़की की गोद में था। वह उसे ऐसे सहला रही थी, जैसे वह ऊन का गोला हो, जो कभी भी हाथ से छूट कर झाड़ियों में गुम हो जाएगा।

‘ये हमने अभी पाले हैं… पहले दो थे, अब चार।’

‘बाकी कहाँ हैं?’

‘बाड़े के भीतर… वे अभी बहुत छोटे हैं।’

पहले उसका मन भी खरगोश को छूने के लिए हुआ, किंतु उसका हाथ अपने-आप बच्ची के सिर पर चला गया और वह धीरे-धीरे उसके भूरे, छोटे बालों से खेलने लगा। लड़की चुप खड़ी रही और खरगोश अपनी नाक सिकोड़ता हुआ उसकी ओर ताक रहा था।

‘पापा?’ लड़की ने बिना सिर उठाए धीरे से कहा, ‘क्या आपने डे-रिटर्न का टिकट लिया है?’

‘नहीं; क्यों?’

‘ऐसे ही; यहाँ वापसी का टिकट बहुत सस्ता मिल जाता है।’

क्या उसने यही पूछने के लिए उसे यहाँ बुलाया था? उसने धीरे से अपना हाथ लड़की के सिर से हटा लिया।

‘आप रात को कहाँ रहेंगे?’ लड़की का स्वर बिल्कुल भावहीन था।

‘अगर मैं यहीं रहूँ तो?’

लड़की ने धीरे से खरगोश को बाड़े में रख दिया और खट से दरवाजा बंद कर दिया।

‘मैं हँसी कर रहा था,’ उसने हँस कर कहा, ‘मैं आखिरी ट्रेन से लौट जाऊँगा।’

लड़की ने मुड़ कर उसकी ओर देखा, ‘यहाँ दो-तीन अच्छे होटल भी हैं…। मैं अभी फोन करके पूछ लेती हूँ।’ बच्ची का स्वर बहुत कोमल हो आया। यह जानते ही कि वह रात को घर में नहीं ठहरेगा, वह माँ से हट कर आदमी के साथ हो गई; धीरे से उसका हाथ पकड़ा, उसे वैसे ही सहलाने लगी, जैसे अभी कुछ देर पहले खरगोश को सहला रही थी। लेकिन आदमी का हाथ पसीने से तरबतर था।

‘सुनो, मैं अगली छुट्टियों में इंडिया आऊँगी – इस बार पक्का है।’

उसे कुछ आश्चर्य हुआ कि आदमी ने कुछ नहीं कहा; सिर्फ बाड़े में खरगोशों की खटर-पटर सुनाई दे रही थी।

‘पापा… तुम कुछ बोलते क्यों नहीं?’

‘तुम हर साल यही कहती हो।’

‘कहती हूँ… लेकिन इस बार मैं आऊँगी, डोंट यू बिलीव मी?… भीतर चलें? ममी हैरान हो रही होंगी कि हम कहाँ रह गए।’

अगस्त का अँधेरा चुपचाप चला आया था। हवा में विलो की पत्तियाँ सरसरा रही थीं। कमरों के परदे गिरा दिए गए थे, लेकिन रसोई का दरवाजा खुला था। लड़की भागते हुए भीतर गई और सिंक का नल खोल कर हाथ धोने लगी। वह उसके पीछे आ कर खड़ा हो गया; सिंक के ऊपर आईने में उसने अपना चेहरा देखा – रूखी गर्द और बढ़ी हुई दाढ़ी और सुर्ख आँखों के बीच उसकी ओर हैरत में ताकता हुआ – नहीं, तुम्हारे लिए कोई उम्मीद नहीं…

पापा, क्या तुम अब भी अपने-आपसे बोलते हो?’ लड़की ने पानी में भीगा अपना चेहरा उठाया – वह शीशे में उसे देख रही थी।

‘हाँ, लेकिन अब मुझे कोई सुनता नहीं…।’ उसने धीरे से बच्ची के कंधे पर हाथ रखा, ‘क्या फ्रिज में सोडा होगा?’

‘तुम भीतर चलो, मैं अभी लाती हूँ।’

कमरे में कोई न था। उसकी चीजें बटोर दी गई थीं। सूटकेस कोने में खड़ा था; जब वे बाग में थे, उसकी पत्नी ने शायद उन सब चीजों को देखा होगा; उन्हें छुआ होगा। वह उससे चाहे कितनी नाराज क्यों न हो – चीजों की बात अलग थी। वह उन्हें ऊपर नहीं ले गई थी, लेकिन दुबारा सूटकेस में डालने की हिम्मत नहीं की थी… उसने उन्हें अपने भाग्य पर छोड़ दिया था।

कुछ देर बाद जब बच्ची सोडा और गिलास ले कर आई, तो उसे सहसा पता नहीं चला कि वह कहाँ बैठा है। कमरे में अँधेरा था – पूरा अँधेरा नहीं – सिर्फ इतना, जिसमें कमरे में बैठा आदमी चीजों के बीच चीज-जैसा दिखाई देता है, ‘पापा… तुमने बत्ती नहीं जलाई?’

‘अभी जलाता हूँ…।’ वह उठा और स्विच को ढूँढ़ने लगा, बच्ची ने सोडा और गिलास मेज पर रख दिया और टेबुल लैंप जला दिया।

‘ममी कहाँ हैं?’

‘वह नहा रही हैं, अभी आती होंगी।’

उसने अपने बैग से व्हिस्की निकाली, जो उसने फ्रेंकफर्ट के एयरपोर्ट पर खरीदी थी… गिलास में डालते हुए उसके हाथ ठिठक गए, ‘तुम्हारी जिंजर-एल कहाँ है?’

‘मैं अब असली बियर पीती हूँ।’ लड़की ने हँस कर उसकी ओर देखा, ‘तुम्हें बर्फ चाहिए?’

‘नहीं… लेकिन तुम जा कहाँ रही हो?’

‘बाड़े में खाना डालने… नहीं तो वे एक-दूसरे को मार खाएँगे।’

वह बाहर गई तो खुले दरवाजे से बाग का अँधेरा दिखाई दिया – तारों की पीली तलछट में झिलमिलाता हुआ। हवा नहीं था। बाहर का सन्नाटा घर की अदृश्य आवाजों के भीतर से छन कर आता था। उसे लगा, वह अपने घर में बैठा है और जो कभी बरसों पहले होता था, वह अब हो रहा है। वह शॉवर के नीचे गुनगुनाती रहती थी और जब वह बालों पर तौलिया साफे की तरह बाँध कर बाहर निकलती थी, तब पानी की बूँदें बाथरूम से ले कर उसके कमरे तक एक लकीर बनाती जाती थीं – पता नहीं वह लकीर कहाँ बीच में सूख गई? कौन-सी जगह, किस खास मोड़ पर वह चीज हाथ से छूट गई, जिसे वह कभी दोबारा नहीं पकड़ सका?

उसने कुछ और व्हिस्की डाली; हालाँकि गिलास अभी खाली नहीं हुआ था। उसे कुछ अजीब लगा कि पिछली रात भी यही घड़ी थी जब वह पी रहा था, लेकिन तब वह हवा में था। जब उसे एयर-होस्टेज की आवाज सुनाई दी कि हम चैनल पार कर रहे हैं तो उसने हवाई जहाज की खिड़की से नीचे देखा – कुछ भी दिखाई नहीं देता था – न समुद्र, न लाइटहाउस, सिर्फ अँधेरा, अँधेरे में बहता हुआ अँधेरा – फिर कुछ भी नहीं। और तब नीचे अँधेरे में झाँकते हुए उसे खयाल आया कि वह चैनल जो नीचे कहीं दिखाई नहीं देता था, असल में कहीं भीतर है – उसकी एक जिंदगी से दूसरी जिंदगी तक फैला हुआ; जिसे वह हमेशा पार करता रहेगा, कभी इधर, कभी उधर, कहीं का भी नहीं, न कहीं से आता हुआ, न कहीं पहुँचता हुआ…।

‘बिंदु कहाँ है?’ उसने चौंक कर ऊपर देखा, वह वहाँ कब से खड़ी थी, उसे पता नहीं चला था। ‘बाहर बाग में,’ उसने कहा, ‘खरगोशों को खाना देने।’

वह अलग खड़ी थी, बेनिस्टर के नीचे। नहाने के बाद उसने एक लंबी मैक्सी पहन ली थी…। बाल खुले थे। चेहरा बहुत धुला और चमकीला-सा लग रहा था। वह मेज पर रखे उसके गिलास को देख रही थी। उसका चेहरा शांत था; शॉवर ने जैसे न केवल उसके चेहरे को, बल्कि उसके संताप को भी धो डाला था।

‘बर्फ भी रखी है।’ उसने कहा।

‘नहीं, मैंने सोडा ले लिया; तुम्हारे लिए एक बना दूँ?’

उसने सिर हिलाया, जिसका मतलब कुछ भी था, उसे मालूम था कि गर्म पानी से नहाने के बाद उसे कुछ ठंडा पीना अच्छा लगता था। अर्से बाद भी वह उसकी आदतें नहीं भूला था, बल्कि उन आदतों के सहारे ही दोनों के बीच पुरानी पहचान लौट आती थी। वह रसोई में गया और उसके लिए एक गिलास ले आया। उसमें थोड़ी-सी बर्फ डाली। जब व्हिस्की मिलाने लगा, तो उसकी आवाज सुनाई दी, ‘बस, इतनी काफी है।’

वह धुली हुई आवाज थी, जिसमें कोई रंग नहीं था, न स्नेह का, न नाराजगी का – एक शांत और तटस्थ आवाज। वह सीढ़ियों से हट कर कुर्सी के पास चली आई थी।

‘तुम बैठोगी नहीं?’ उसने कुछ चिंतित हो कर पूछा।

उसने अपना गिलास उठाया और वहीं स्टूल पर बैठ गई, जहाँ दुपहर को बैठी थी। टी.वी. के पास लेकिन टेबुल-लैंप से दूर – जहाँ सिर्फ रोशनी की एक पतली-सी झाँई, उस तक पहुँच रही थी।

कुछ देर तक दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला, फिर स्त्री की आवाज सुनाई दी, ‘घर में सब लोग कैसे हैं?’

‘ठीक हैं… ये सब चीजें उन्होंने ही भेजी हैं।’

‘मुझे मालूम है,’ औरत ने कुछ थके स्वर में कहा, ‘क्यों उन बेचारों को तंग करते हो? तुम ढो-ढो कर इन चीजों को लाते हो और वे यहाँ बेकार पड़ी रहती हैं।’

‘वे यही कर सकते हैं,’ उसने कहा, ‘तुम बरसों से वहाँ गई नहीं; वे बहुत याद करते हैं।’

‘अब जाने का कोई फायदा है?’ उसने गिलास से लंबा घूँट लिया, ‘मेरा अब उनसे कोई रिश्ता नहीं।’

‘तुम बच्ची के साथ तो आ सकती हो, उसने अभी तक हिंदुस्तान नहीं देखा।’

वह कुछ देर चुप रही… फिर धीरे से कहा, ‘अगले साल वह चौदह वर्ष की हो जाएगी… कानून के मुताबिक तब वह कहीं भी जा सकती है।’

‘मैं कानून की बात नहीं कर रहा; तुम्हारे बिना वह कहीं नहीं जाएगी।’

स्त्री ने गिलास की भीगी सतह से आदमी को देखा, ‘मेरा बस चले तो उसे वहाँ कभी न भेजूँ।’

‘क्यों?’ आदमी ने उसकी ओर देखा।

वह धीरे से हँसी, ‘क्या हम दो हिंदुस्तानी उसके लिए काफी नहीं हैं?’

वह बैठा रहा। कुछ देर बाद रसोई का दरवाजा खुला, लड़की भीतर आई, चुपचाप दोनों को देखा और फिर जीने के पास चली गई जहाँ टेलीफोन रखा था।

‘किसे कर रही हो?’ औरत ने पूछा।

लड़की चुप रही, फोन का डायल घुमाने लगी।

आदमी उठा, उसकी ओर देखा, ‘थोड़ा-सा और लोगी?’

‘नहीं…।’ उसने सिर हिलाया। आदमी धीरे-धीरे अपने गिलास में डालने लगा।

‘क्या बहुत पीने लगे हो?’ औरत ने कहा।

‘नहीं…।’ आदमी ने सिर हिलाया, ‘सफर में कुछ ज्यादा ही हो जाता है।’

‘मैंने सोचा था, अब तक तुमने घर बसा लिया होगा।’

‘कैसे?’ उसने स्त्री को देखा, ‘तुम्हें यह कैसे भ्रम हुआ?’

औरत कुछ देर तक नीरव आँखों से उसे देखती रही, ‘क्यों, उस लड़की का क्या हुआ? वह तुम्हारे साथ नहीं रहती?’ स्त्री के स्वर में कोई उत्तेजना नहीं थी, न क्लेश की कोई छाया थी… जैसे दो व्यक्ति मुद्दत बाद किसी ऐसी घटना की चर्चा कर रहे हों जिसने एक झटके से दोनों को अलग छोरों पर फेंक दिया था।

‘मैं अकेला रहता हूँ… माँ के साथ।’ उसने कहा।

औरत ने तनिक विस्मय से उसे देखा, ‘क्या बात हुई?’

‘कुछ नहीं… मैं शायद साथ रहने के काबिल नहीं हूँ।’ उसका स्वर असाधारण रूप से धीमा हो आया, जैसे वह उसे अपनी किसी गुप्त बीमारी के बारे में बता रहा हो, ‘तुम हैरान हो? लेकिन ऐसे लोग होते हैं…’ वह कुछ और कहना चाहता था, प्रेम के बारे में, वफादारी के बारे में, विश्वास और धोखे के बारे में; कोई बड़ा सत्य, जो बहुत-से झूठों से मिल कर बनता है, व्हिस्की की धुंध में बिजली की तरह कौंधता है और दूसरे क्षण हमेशा के लिए अँधेरे में लोप हो जाता है…

लड़की शायद इस क्षण की ही प्रतीक्षा कर रही थी; वह टेलीफोन से उठ कर आदमी के पास आई, एक बार माँ को देखा, वह टेबुल-लैंप के पीछे अँधेरे के आधे कोने में छिप गई थीं, और आदमी? वह गिलास के पीछे सिर्फ एक डबडबाता-सा धब्बा बन कर रह गया था।

‘पापा,’ लड़की के हाथ में कागज का पुरजा था, ‘यह होटल का नाम है, टैक्सी तुम्हें सिर्फ दस मिनट में पहुँचा देगी।’

उसने लड़की को अपने पास खींच लिया और कागज जेब में रख लिया। कुछ देर तक तीनों चुप बैठे रहे, जैसे बरसों पहले यात्रा पर निकलने से पहले घर के सब प्राणी एक साथ सिमट कर चुप बैठ जाते थे। बाहर बहुत-से तारे निकल आए थे, जिसमें बूढ़ी, विलो, झाड़ियाँ और खरगोशों का बाड़ा एक निस्पंद पीले आलोक में पास-पास सरक आए थे।

उसने अपना गिलास मेज पर रखा, फिर धीरे से लड़की को चूमा, अपना सूटकेस उठाया और जब लड़की ने दरवाजा खोला, तो वह क्षण भर देहरी पर ठिठक गया, ‘मैं चलता हूँ।’ उसने कहा। पता नहीं, यह बात उसने किससे कही थी, किंतु जहाँ वह बैठी थी, वहाँ से कोई आवाज नहीं आई। वहाँ उतनी ही घनी चुप्पी थी, जितनी बाहर अँधेरे में, जहाँ वह जा रहा था।
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त्रिशंकु (कहानी) लेखिका : मन्नू भण्डारी/ Trishanku/Hindi/Mannu Bhandari

त्रिशंकु (कहानी) लेखिका : मन्नू भण्डारी

“घर की चहारदीवारी आदमी को सुरक्षा देती है, पर साथ ही उसे एक सीमा में बाँधती भी है। स्कूल-कॉलेज जहाँ व्यक्ति के मस्तिष्क का विकास करते हैं, वहीं नियम-कायदे और अनुशासन के नाम पर उसके व्यक्त्वि को कुठित भी करते हैं… बात यह है बंधु, कि हर बात का विरोध उसके भीतर ही रहता है।”

ये सब मैं किसी किताब के उदाहरण नहीं पेश कर रही। ऐसी भारी-भरकम किताबें पढ़ने का तो मेरा बूता ही नहीं। वे तो उन बातों और बहसों के टुकड़े हैं जो रात-दिन हमारे घर में हुआ करती हैं। हमारा घर, यानी बुद्धिजीवियों का अखाड़ा। यहाँ सिगरेट के धूएँ और कॉफी के प्यालों के बीच बातों के बड़े-बड़े तुमार बाँधे जाते हैं… बड़ी-बड़ी शाब्दिक क्रान्तियाँ की जाती हैं। इस घर में काम कम और बातें ज्यादा होती हैं। मैंने कहीं पढ़ा तो नहीं, पर अपने घर से यह लगता ज़रूर है कि बुद्धिजीवियों के लिए काम करना शायद वर्जित है। मातुश्री अपनी तीन घण्टे की तफरीहनुमा नौकरी बजाने के बाद मुक्त। थोड़ा बहुत पढ़ने-लिखने के बाद जो समय बचता है वह या तो बात-बहस में जाता है या फिर लेट लगाने में। उनका ख़्याल है कि शरीर के निष्क्रिय होते ही मन-मस्तिष्क सक्रिय हो उठते हैं और वे दिन के चौबीस घण्टों में से बारह घण्टे अपना मन-मस्तिष्क ही सक्रिय बनाए रखती हैं। पिताश्री और भी दो कदम आगे। उनका बस चले तो वे नहाएँ भी अपनी मेज़ पर ही।
जिस बात की हमारे यहाँ सबसे अधिक कताई होती है, वह है – आधुनिकता! पर जरा ठहरिए, आप आधुनिकता का गलत अर्थ मत लगाइए। यह बाल कटाने और छुरी-काँटे से खाने वाली आधुनिकता कतई नहीं है। यह है ठेठ बुद्धिजीवियों की आधुिनिकता। यह क्या होती है सो तो ठीक-ठीक मैं भी नहीं जानती पर हाँ, इसमें लीक छोड़ने की बात बहुत सुनाई देती है। आप लीक को दुलत्ती झाड़ते आइए, सिर-आँखों पर लीक से चिपककर आइए, दुलत्ती खाइए।

बहसों में यों तो दुनिया-जहान के विषय पीसे जाते हैं पर एक विषय शायद सब लोगों को बहुत प्रिय है और वह है शादी। शादी यानी बर्बादी। हल्के-फुल्के ढंग से शुरू हुई बात एकदम बौद्धिक स्तर पर चली जाती है- विवाह-संस्था एकदम खोखली हो चुकी है… पति-पत्नी का सम्बन्ध बड़ा नकली और ऊपर से थोपा हुआ है… और फिर धुआँधार ढंग से विवाह की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। इस बहस में अक्सर स्त्रियाँ एक तरफ हो जाती और पुरुष एक तरफ। और बहस का माहौल कुछ ऐसा गरम हो जाया करता कि मुझे पूरा विश्वास हो जाता कि अब ज़रूर एक-दो लोग तलाक दे बैठेंगे। पर मैंने देखा कि ऐसा कोई हादसा कभी नहीं हुआ। सारे ही मित्र लोग अपने-अपने ब्याह को खूब अच्छी तरह तह-समेटकर, उस पर जमकर आसन मारे बैठे हैं। हाँ, बहस की रफ्तार और टोन आज भी वही है।
अब सोचिए, ब्याह को कोसेंगे तो फ्री-लव और फ्री-सेक्स को तो पोसना ही पड़ेगा। इसमें पुरुष लोग उछल-उछलकर आगे रहते – कुछ इस भाव से मानो बात करते ही इसका आधा सुख तो वे ले ही लेंगे। पापा खुद बड़े समर्थक। पर हुआ यों कि घर में हमेशा चुप-चुप रहने वाली दूर-दराज़ की एक दिदिया ने बिना कभी इन बहसों में भाग लिए ही इस पर पूरी तरह अमल कर डाला तो पाया कि सारी आधुनिकता आऽऽऽधम् ! वह तो फिर ममी ने बड़े सहज ढंग से सारी बात को संभाला और निरर्थक विवाह के बंधन में बाँधकर दिदिया का जीवन सार्थक किया हालांकि यह बात बहुत पुरानी है और मैंने तो बड़ी दबी-ढकी जुबान से इसका जिक्र ही सुना है।

वैसे पापा-ममी का भी प्रेम विवाह हुआ था। यों यह बात बिल्कुल दूसरी है कि होश सँभालने के बाद मैंने उन्हें प्रेम करते नहीं केवल बहस करते ही देखा है। विवाह के पहले अपने इस निर्णय पर ममी को नाना से भी बहुत बहस करनी पड़ी थी और बहस का यह दौर बहुत लम्बा भी चला था शायद। इसके बावजूद यह बहस-विवाह नहीं प्रेम-विवाह ही है, जिसका जिक्र ममी बड़े गर्व से किया करती है। गर्व विवाह को लेकर नहीं, पर इस बात को लेकर है कि किस प्रकार उन्होंने नाना से मोर्चा लिया। अपने और नाना के बीच हुए संवादों को वे इतनी बार दोहरा चुकी हैं कि मुझे वे कंठस्थ-से हो गए हैं। आज भी जब वे उसकी चर्चा करती हैं तो लीक से हटकर कुछ करने का संतोष उनके चेहरे पर झलक उठता है।
बस, ऐसे ही घर में मैं पल रही हूँ – बड़े मुक्त और स्वच्छन्द ढंग से। और पलते-पलते एक दिन अचानक बड़ी हो गई। बड़े होने का यह अहसास मेरे अपने भीतर से इतना नहीं फूटा, जितना बाहर से। इसके साथ भी एक दिलचस्प घटना जुड़ी हुई है। हुआ यों कि घर के ठीक सामने एक बरसाती है। एक कमरा और उसके सामने फैली छत। उसमें हर साल दो-तीन विद्यार्थी आकर रहते… छत पर घूम-घूमकर पढ़ते, पर कभी ध्यान ही नहीं गया। शायद ध्यान जाने जैसी मेरी उम्र ही नहीं थी।

इस बार देखा, वहाँ दो लड़के आए हैं। थे तो वे दो ही, पर शाम तक उनके मित्रों का एक अच्छा-खासा जमघट हो जाता और सारी छत ही नहीं, सारा मोहल्ला तक गुलजार हँसी-मजाक, गाना-बजाना और आसपास की जो भी लड़कियाँ उनकी नजर के दायरे में आ जाती, उन पर चुटीली फब्तियाँ। पर उनकी नज़रों का असली केन्द्र हमारा घर, और स्पष्ट कहूँ तो मैं ही थी। बरामदे में निकलकर मैं कुछ भी करूँ, उधर से एक न एक रिमार्क हवा में उछलता हुआ टपकता और मैं भीतर तक थरथरा उठती। मुझे पहली बार लगा कि मैं हूँ और केवल हूँ ही नहीं… किसी के आकर्षण का केन्द्र हूँ। ईमानदारी से कहूँ तो अपने होने का यह पहला अहसास बड़ा रोमांचक लगा और अपनी ही नज़रों में मैं नयी हो उठी.. नयी और बड़ी।
अजीब सी स्थिति थी। जब वे फब्तियाँ कसते तो मैं गुस्से से भन्ना जाती – हालाँकि उनकी फब्तियों में अशिष्टता कहीं नहीं थी। …थी तो केवल मन को सहलाने वाली एक चुहल। पर जब वे नहीं होते या होकर भी आपस में ही मशगूल रहते तो मैं प्रतीक्षा करती रहती… एक अनाम-सी बेचैनी भीतर ही भीतर कसमसाती रहती। आलम यह है कि हर हालत में ध्यान वहीं अटका रहता और मैं कमरा छोड़कर बरामदे में ही टँगी रहती।

पर इन लड़कों के इस हल्ले-गुल्ले वाले व्यवहार ने मोहल्ले वालों की नींद ज़रूर हराम कर दी। हमारा मोहल्ला यानी हाथरस। खुरजा के लालाओं की बस्ती। जिनके घरों में किशोरी लड़कियाँ थीं वे बाँहें चढ़ा-चढ़ाकर दाँत और लात तोड़ने की धमकियाँ दे रहे थे क्योंकि सबको अपनी लड़कियों का भविष्य खतरे में जो दिखाई दे रहा था। मोहल्ले में इतनी सरगर्मी और मेरे ममी-पापा को कुछ पता ही नहीं। बात असल में यह है कि इन लोगों ने अपनी स्थिति एक द्वीप जैसी बना रखी है। सबके बीच रहकर भी सबसे अलग।

एक दिन मैंने ममी से कहा- “ममी, ये जो सामने लड़के आए हैं, जब देखो मुझ पर रिमार्क पास करते हैं। मैं चुपचाप नहीं सुनँगी, मैं भी यहाँ जवाब दूँगी।”

“कौन लड़के?” ममी ने आश्चर्य से पूछा।
कमाल है, ममी को कुछ पता ही नहीं। मैंने कुछ खीज और कुछ पुलक के मिले-जुले स्वर में सारी बात बतायी। पर ममी पर कोई विशेष प्रतिक्रिया ही नहीं हुई।

“बताना कौन हैं ये लड़के…” बड़े ठण्डे लहजे में उन्होंने कहा और फिर पढ़ने लगीं। अपना छेड़ा जाना मुझे जितना सनसनीखेज लग रहा था, उस पर ममी की ऐसी उदासीनता मुझे अच्छी नहीं लगी। कोई और माँ होती तो फेंटा कसकर निकल जाती और उनकी सात पुश्तों को तार देती। पर माँ पर जैसे कोई असर ही नहीं।

दोपहर ढले लड़कों की मजलिस छत पर जमी तो मैंने ममी को बताया – “देखो, ये लड़के हैं जो सारे समय इधर देखते रहते हैं और मैं कुछ भी करूं उस पर फब्तियाँ कसते हैं”, पता नहीं मेरे कहने में ऐसा क्या था कि ममी एकटक मेरी ओर देखती रहीं फिर धीरे से मुस्कराईं। थोड़ी देर तक छत वाले लड़कों का मुआयना करने के बाद बोलीं – “कल शाम को इन लोगों को चाय पर बुला लेते हैं और तुमसे दोस्ती करवा देते हैं।”

मैं तो अवाक्!

“तुम इन्हें चाय पर बुलाओगी?” मुझे जैसे ममी की बात पर विश्वास ही नहीं आ रहा था।

“हाँ। क्यों, क्या हुआ? अरे, यह तो हमारे ज़माने में होता था कि मिल तो सकते नहीं, बस दूर से ही फब्तियाँ कस-कसकर तसल्ली करो। अब तो ज़माना बदल गया।”

मैं तो इस विचार-मात्र से ही पुलकित। लगा, माँ सचमुच कोई ऊँची चीज़ हैं। ये लोग हमारे घर आएँगे और मुझसे दोस्ती करेंगे। एकाएक मुझे लगने लगा कि मैं बहुत अकेली हूँ और मुझे किसी की दोस्ती की सख्त आवश्यकता है। इस मोहल्ले में मेरा किसी से विशेष मेल-जोल नहीं और घर में केवल ममी-पापा के दोस्त ही आते हैं।

दूसरा दिन मेरा बहुत ही संशय में बीता। पता नहीं ममी अपनी बात पूरी भी करती हैं या यों ही रौ में कह गईं और बात खत्म। शाम को मैंने याद दिलाने के लिए ही कहा – “ममी, तुम सचमुच ही इन लड़कों को बुलाने जाओगी?” शब्द मेरे यही थे, वरना भाव तो था कि ममी, जाओ न, प्लीज़।

और ममी सचमुच ही चली गईं। मुझे याद नहीं, ममी दो-चार बार से अधिक मोहल्ले में किसी के घर गई हों। मैं साँस रोककर उनके लौटने की प्रतीक्षा करती रही। एक विचित्र सी थिरकन मैं अंग-प्रत्यंग में महसूस कर रही थी कि कहीं ममी साथ ही लेती आईं तो? कहीं वे ममी से भी बदतमीजी से पेश आए तो?
पर नहीं, वे ऐसे लगते तो नहीं हैं। कोई घण्टे-भर बाद ममी लौटीं। बेहद प्रसन्न।

“मुझे देखते ही उनकी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। उन्हें अभी तक तो लोग अपने-अपने घरों से ही उनके लात-दाँत तोड़ने की धमकी दे रहे थे, मैं जैसे सीधे घर ही पहुँच गई उनकी हड्डी पसली एक करने पर फिर तो इतनी खातिर की बेचारों ने कि बस! बड़े ही स्वीट बच्चे हैं। बाहर से आए हैं – होस्टल में जगह नहीं मिली इसलिए कमरा लेकर रह रहे हैं। शाम को जब पापा आएगे तब बुलवा लेंगे।”

प्रतीक्षा में समय इतना बोझिल हो जाता है, यह भी मेरा पहला अनुभव था। पापा आए तो ममी ने बड़े उमंगकर सारी बात बताई। सबसे कुछ अलग करने का सन्तोष और गर्व उनके हर शब्द में से जैसे छलका पड़ रहा था। पापा ही कौन पीछे रहने वाले थे। उन्होंने सुना तो वे भी प्रसन्न।

“बुलाओ लड़कों को। अरे, खेलने-खाने दो और मस्ती मारने दो बच्चों को।” ममी-पापा को अपनी आधुनिकता तुष्ट करने का एक जोरदार अवसर मिल रहा था।

नौकर को भेजकर उन्हें बुलवाया गया तो अगले ही क्षण सब हाजिर। ममी ने बड़े कायदे से परिचय करवाया और ‘हलो….हाई’ का आदान-प्रदान हुआ।

“तनु बेटे, अपने दोस्तों के लिए चाय बनाओ।”
धत्तेरे की। ममी के दोस्त आएँ तब भी तनु बेटा चाय बनाए और उसके दोस्त आएँ तब भी। पर मन मारकर उठी।

चाय-पानी होता रहा। खूब हँसी-मज़ाक भी चली। ये सफाई पेश करते रहे कि मोहल्ले वाले झूठ-मूठ ही उनके पीछे पड़े रहते हैं… वे तो ऐसा कुछ भी नहीं करते। ‘जस्ट फॉर फन’ कुछ कर दिया वरना इस सबब का कोई मतलब नहीं।

पापा ने बढ़ावा देते हुए कहा- “अरे, इस उमर में तो यह सब करना ही चाहिए। हमें मौका मिले तो आज भी करने से बाज न आएँ।”

हँसी की एक लहर यहाँ से वहाँ तक दौड़ गई। कोई दो घण्टे बाद वे चलने लगे तो ममी ने कहा- “देखो, इसे अपना ही घर समझो। जब इच्छा हो चले आया करो। हमारी तनु बिटिया को अच्छी कम्पनी मिल जाएगी… कभी तुम लोगों से कुछ पढ़ भी लिया करेगी और देखो, कुछ खाने-पीने का मन हुआ करे तो बता दिया करना, तुम्हारे लिए बनवा दिया करूंगी…” और वे लोग पापा के खुलेपन और ममी की आत्मीयता और स्नेह पर मुग्ध होते हुए चले गए। बस, जिससे दोस्ती करवाने के लिए उन्हें बुलाया गया था वह बेचारी इस तमाशे की मात्र दर्शक-भर ही बनी रही।
उनके जाने के बाद बड़ी देर तक उनको लेकर ही चर्चा होती रही। अपने घर की किशोरी लड़की को छेड़ने वाले लड़कों को घर बुलाकर चाय पिलाई जाए और लड़की से दोस्ती करवाई जाए, यह सारी बात ही बड़ी थ्रिलिंग और रोमांचक लग रही थी। दूसरे दिन से ममी हर आने वाले से इस घटना का उल्लेख करती। वर्णन करने में पटु ममी नीरस से नीरस बात को भी ऐसा दिलचस्प बना देती हैं, फिर यह तो बात ही बड़ी दिलचस्प थी। जो सुनता वही कहता – “वाह, यह हुई न कुछ बात। आपका बड़ा स्वस्थ दृष्टिकोण है चीजों के प्रति। वरना लोग बातें तो बड़ी-बड़ी करेंगे पर बच्चों को घोटकर रखेंगे और जरा सा शक-शुबह हो जाए तो बाकायदा जासूसी करेंगे।” और ममी इस प्रशंसा से निहाल होती हुई कहतीं – “और नहीं तो क्या? मुक्त रहो और बच्चों को मुक्त रखो। हम लोगों को बचपन में यह मत करो.. यहाँ मत जाओ कह-कहकर कितना बाँधा गया था। हमारे बच्चे तो कम से कम इस घुटने के शिकार न हों।

पर ममी का बच्चा उस समय एक दूसरी ही घुटन का शिकार हो रहा था और वह यह कि जिस नाटक की हीरोइन उसे बनना था, उसकी हीरोइन ममी बन बैठीं।

खैर, इस सारी घटना का परिणाम यह हुआ कि उन लड़कों का व्यवहार एकदम ही बदल गया। जिस शराफत को ममी ने उन पर लाद दिया, उसके अनुरूप व्यवहार करना उनकी मजबूरी बन गया। अब जब भी वे अपनी छत पर ममी-पापा को देखते तो अदब में लपेटकर एक नमस्कार और मुझे देखते तो मुस्कान में पलटकर एक ‘हाई’ उछाल देते। फब्तियों की जगह बाकायदा हमारा वार्तालाप शुरू हो गया… बड़ाखुला और बेझिझक वार्तालाप। हमारे बरामदे और छत में इतना ही फासला था कि जोर से बोलने पर बातचीत की जा सकती थी। हाँ, यह बात ज़रूर थी कि हमारी बातचीत सारा मोहल्ला सुन सकता था और काफी दिलचस्पी से सुनता था।

जैसे ही हम लोग चालू होते, पास-पड़ोस की खिड़कियों में चार-छ: सिर और धड़ आकर चिपक जाते। मोहल्ले में लड़कियों के प्रेम-प्रसंग न हों ऐसी बात तो थी नहीं, बाकायदा लड़कियों के भागने तक की घटनाएँ घट चुकी थीं। पर वह सब-कुछ बड़े गुप्त और छिपे ढंग से होता था। और मोहल्ले वाले जब अपनी पैनी नज़रों से ऐसे किसी रहस्य को जान लेते थे तो बड़ा सन्तोष उन्हें होता था। पुरुष मूंछों पर ताव देकर और स्त्रियाँ हाथ नचा-नचाकर खूब नमक-मिर्च लगाकर इन घटनाओं का यहाँ से वहाँ तक प्रचार करतीं।
कुछ इस भाव से कि अरे, हमने दुनिया देखी है… हमारी आँखों में कोई नहीं धूल झोंक सकता। पर यहाँ स्थिति ही उलट गई थी। हमारी वार्तालाप इतने खुलेआम होता था कि लोगों को खिड़कियों की ओट में छिप-छिपकर देखना-सुनना पड़ता था और सुनकर भी ऐसा कुछ उनके हाथ नहीं लगता था जिससे वे कुछ आत्मिक संतोष पाते।

पर बात को बढ़ना था और बात बढ़ी। हुआ यह कि धीरे-धीरे छत की मजलिस मेरे अपने कमरे में जमने लगी। रोज ही कभी दो, तो कभी तीन या चार लड़के आकर जम जाते और दुनियाभर के हँसी-मज़ाक और गपशप का दौर चलता। गाना-बजाना भी होता और चाय-पानी भी। शाम को ममी-पापा के मित्र आते तो इन लोगों में से कोई न कोई बैठा ही होता। शुरू में जिन लोगों ने ‘मुक्त रहो और मुक्त रखो’ की बड़ी प्रशंसा की थी, उन्होंने मुक्त रहने का जो रूप देखा तो उनकी आँखों में भी कुछ अजीब-सी शंकाएँ तैरने लगीं। ममी की एकाध मित्र ने दबी जुबान में कहा भी- ‘तनु तो बढ़ी फास्ट चल रही है।’ ममी का अपना सारा उत्साह मन्द पड़ गया था और लीक से हटकर कुछ करने की थ्रिल पूरी तरह झड़ चुकी थी। अब तो उन्हें इस नंगी सच्चाई को झेलना था कि उनकी निहायत कच्ची और नाजुक उम्र की लड़की तीन-चार लड़कों के बीच, घिरी रही है। और ममी की स्थिति यह थी कि वे न इस स्थिति को पूरी तरह स्वीकार कर पा रही थीं और न अपने ही द्वारा बड़े जोश में शुरू किए इस सिलसिले को नकार ही पा रही थीं।
आखिर एक दिन उन्होंने मुझे अपने पास बिठाकर कहा – “तनु बेटे, ये लोग रोज-रोज यहाँ आकर जम जाते हैं। आखिर तुमको पढ़ना-लिखना भी तो है। मैं तो देख रही हैं कि इस दोस्ती के चक्कर में तेरी पढ़ाई-लिखाई सब चौपट हुई जा रही है। इस तरह तो यह सब चलेगा नहीं।”

“रात को पढ़ती तो हूँ।” लापरवाही से मैंने कहा।

“खाक पढ़ती है रात को, समय ही कितना मिलता है? और फिर यह रोज़-रोज़ की धमा-चौकड़ी मुझे वैसे भी पसन्द नहीं। ठीक है, चार-छः दिन में कभी आ गए, गपशप कर ली, पर यहाँ तो एक न एक रोज़ ही डटा रहता है।” ममी के स्वर में आक्रोश का पुट गहराता जा रहा था।

ममी की यह टोन मुझे अच्छी नहीं लगी, पर मैं चुप।

“तू तो उनसे बहुत खुल गई है। कह दे कि वे लोग भी बैठकर पढ़े और तुझे भी पढ़ने दें। और तुझसे न कहा जाए तो मैं कह दूँगी।”

पर किसी के भी कहने की नौबत नहीं आई। कुछ तो पढ़ाई के डर से, कुछ दिल्ली के दूसरे आकर्षणों से खिचकर होस्टल वाले लड़कों का आना कम हो गया। पर सामने के कमरे से शेखर रोज़ ही आ जाता… कभी दोपहर में तो कभी शाम को। तीन-चार लोगों की उपस्थिति में उसकी जिस बात पर मैंने ध्यान नहीं दिया, वही बात अकेले में सबसे अधिक उजागर होकर आई। वह बोलता कम था, पर शब्दों के परे बहुत कुछ कहने की कोशिश करता था और एकाएक ही मैं उसकी अनकही भाषा समझने लगी थी… केवल समझने ही नहीं लगी थी, प्रत्युत्तर भी देने लगी थी। जल्दी ही मेरी समझ में आ गया कि शेखर और मेरे बीच प्रेम जैसी कोई चीज पनपने लगी है। यों तो शायद मैं समझ ही नहीं पाती, पर हिन्दी फिल्में देखने के बाद इसको समझने में खास मुश्किल नहीं हुई।

जब तक मन में कहीं कुछ नहीं था, सब कुछ बड़ा खुला था पर जैसे ही ‘कुछ’ हुआ तो उसे औरों की नजर से बचाने की इच्छा भी साथ ही आई। जब कभी दूसरे लड़के आते तो सीढ़ियों से ही शोर करते आते… जोर-जोर से बोलते, लेकिन शेखर जब भी आता रेंगता हुआ आता और फुसफुसाकर हम बातें करते। वैसे बातें बहुत ही साधारण होती थीं – स्कूल की, कॉलेज की। पर फुसफुसाकर करने में ही वे कुछ विशेष लगती थीं। प्रेम को कुछ रहस्यमय, कुछ गुपचुप बना दो तो वह बड़ा थ्रिलिंग हो जाता है वरना तो एकदम सीधा-सपाट! पर ममी के पास घर और घरवालों के हर रहस्य को जान लेने की एक छठी इन्द्रिय है और जिससे पापा भी काफी त्रस्त रहते हैं… उससे उन्हें यह सब समझने में ज़रा भी देर नहीं लगी। शेखर कितना ही दब-छिपकर आता और ममी घर के किसी कोने में होतीं… फट, से प्रकट हो जातीं या फिर वहीं से पूछतीं – “तनु, कौन है तुम्हारे कमरे में?”

मैंने देखा कि शेखर के इस रवैये से ममी के चेहरे पर एक अजीब-सी परेशानी झलकने लगी है। पर ममी इस बात को लेकर यों परेशान हो उठेंगी, यह मैं सोच भी नहीं सकती थी। जिस घर में रात-दिन तरह-तरह के प्रेम-प्रसंग ही पीसे जाते रहे हों – कुँआरों के प्रेम-प्रसंग, विवाहितों के प्रेम-प्रसंग, दो तीन प्रेमियों से एक साथ चलने वाले प्रेम-प्रसंग—उस घर के लिए तो यह बात बहुत ही मामूली होनी चाहिए। जब लड़कों से दोस्ती की है तो एकाध से प्रेम भी हो ही सकता है। ममी ने शायद समझ लिया था कि यह सारी स्थिति आजकल की कलात्मक फिल्मों की तरह चलेगी – जिनकी वे बड़ी प्रशंसक और समर्थक हैं – पर जिनमें शुरू से लेकर आखिर तक कुछ भी सनसनीखेज़ घटता ही नहीं।

जो भी हो, ममी की इस परेशानी ने मुझे भी कहीं हल्के से विचलित ज़रूर कर दिया। ममी मेरी माँ ही नहीं, मित्र और साथिन भी हैं। दो घनिष्ठ मित्रों की तरह ही हम दुनिया-जहान की बातें करते हैं – हँसी-मज़ाक करते हैं। मैं चाहती थी कि वे इस बारे में भी कोई बात करें, पर उन्होंने कोई बात नहीं की। बस, जब शेखर आता तो वे अपनी स्वभावगत लापरवाही छोड़कर बड़े सहज भाव से मेरे कमरे के इर्द-गिर्द ही मंडराती रहती।

एक दिन ममी के साथ बाहर जाने के लिए मैं नीचे उतरी तो दरवाजे पर ही पड़ोस की एक भद्र महिला टकरा गई। नमस्कार और कुशल-क्षेम के आदान-प्रदान के बाद वे बात के असली मुद्दे पर आईं।

“ये सामने की छत वाले लड़के आपके रिश्तेदार हैं क्या?”

“नहीं तो।”

“अच्छा? शाम को रोज़ ही आपके घर बैठे रहते हैं तो सोचा आपके जरूर कुछ लगते होंगे।”

“तनु के दोस्त हैं।” ममी ने कुछ ऐसी लापरवाही और निसंकोच भाव से यह वाक्य उछाला कि बेचारी तीर निशाने पर न लगने का गम लिए ही लौट गई।

वे तो लौट गईं पर मुझे लगा कि इस बात का सूत्र पकड़कर ही ममी अब जरूर मेरी थोड़ी धुनाई कर देंगी। कहने वाली का तो कुछ न बना, पर मेरा कुछ बिगाड़ने का हथियार तो ममी के हाथ में आ ही गया। बहुत दिनों से उनके अपने मन में भी कुछ उमड़-घुमड़ तो रहा ही है पर ममी ने इतना ही कहा – “लगता है, इनके अपने घर में कोई धन्धा नहीं है। …जब देखो दूसरे के घर में चोंच गड़ाए रहते हैं।”

मैं आश्वस्त ही नहीं हुई, बल्कि ममी की ओर से हरा सिगनल समझकर मैंने अपनी रफ्तार कुछ और तेज कर दी। पर इतना ज़रूर किया कि शेखर के साथ तीन घण्टों में से एक घण्टा ज़रूर पढ़ाई में गुजारती। वह बहुत मन लगाकर पढ़ाता और मैं बहुत मन लगाकर पढ़ती। हाँ, बीच-बीच में वह कागज़ की छोटी-छोटी पर्चियों पर कुछ ऐसी पंक्तियाँ लिखकर थमा देता कि मैं भीतर तक झनझना जाती। उसके जाने के बाद भी उन पंक्तियों के वे शब्द, शब्दों के पीछे के भाव मेरी रग-रग में सनसनाते रहते और मैं उन्हीं में डूबी रहती।

मेरे भीतर अपनी ही एक दुनिया बनती चली जा रही थी। बड़ी भरी-पूरी और रंगीन। आजकल मुझे किसी की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती। लगता जैसे मैं अपने में ही पूरी हूँ। हमेशा साथ रहने वाली ममी भी आउट होती जा रही है और शायद यही कारण है कि इधर मैंने ममी पर ध्यान देना ही छोड़ दिया है। रोजमर्रा की बातें तो होती हैं, पर केवल बातें ही होती हैं – उसके परे कहीं कुछ नहीं।

दिन गुजरते जा रहे थे और मैं अपने में ही डूबी, अपनी दुनिया में और गहरे धंसती जा रही थी – बाहर की दुनिया से एक तरह से बेखबर-सी।

एक दिन स्कूल से लौटी, कपड़े बदले। शोर-शराबे के साथ खाना माँगा, मीन-मेख के साथ खाया और जब कमरे में घुसी तो ममी ने लेटे-लेटे ही बुलाया – “तनु इधर आओ।”

पास आई तो पहली बार ध्यान गया कि ममी का चेहरा तमतमा रहा है। मेरा माथा ठनका। उन्होंने साइड टेबल पर से एक किताब उठाई और उसमें से कागज़ की पाँध-छ: पर्चियाँ निकालकर सामने कर दी। ‘तौबा।’ ममी से कुछ पढ़ना था तो जाते समय उन्हें अपनी किताब दे गई थी। गलती से शेखर की लिखी पर्चियाँ उसी में रह गईं।

“तो इस तरह चल रही है शेखर और तुम्हारी दोस्ती? यही पढ़ाई होती है यहाँ बैठकर…. यही सब करने के लिए आता है वह यहाँ?”

मैं चुप। जानती हूँ, गुस्से में ममी को जवाब देने से बढ़कर मूर्खता और कोई नहीं।

“तुमको छूट दी… आजादी दी, पर इसका यह मतलब तो नहीं कि तुम उसका नाजायज़ फायदा उठाओ।”

मैं फिर चुप।

“बिते-भर की लड़की और करतब देखो इनके। जितनी छूट दो उतने ही पैर पसरते जा रहे हैं इनके। एक झापड़ दूँगी तो सारा रोमांस झड़ जाएगा दो मिनट में…”

इस वाक्य पर मैं एकाएक तिलमिला उठी। तमककर नज़र उठाई और ममी की तरफ देखा- पर यह क्या यह तो मेरी ममी नहीं है। न यह तेवर ममी का है, न यह भाषा। फिर भी ये सारे वाक्य बहुत परिचित-से लगे। लगा, यह सब मैंने कहीं सुना है और सटाक से मेरे मन में कौंधा- नाना। पर नाना को मरे तो कितने साल हो गए, ये फिर जिन्दा कैसे हो गए? और वह भी ममी के भीतर… जो होश सँभालने के बाद हमेशा उनसे झगड़ा ही करती रहीं… उनकी हर बात का विरोध ही करती रहीं।

ममी का ‘नानई’ लहजे वाला भाषण काफी देर तक चालू रहा, पर वह सब मुझे कहीं से भी छू नहीं रहा था.. बस, कोई बात झकझोर रही थी तो यही कि ममी के भीतर नाना कैसे आ बैठे?

और फिर घर में एक विचित्र-सा तनावपूर्ण मौन छा गया। खासकर मेरे और ममी के बीच। नहीं, ममी तो घर में रही ही नहीं, मेरे और नाना के बीच। मैं ममी को अपनी बात समझा भी सकती हूँ, उनकी बात समझ भी सकती हूँ- पर नाना? मैं तो इस भाषा से भी अपरिचित हूँ और इस तेवर से भी – बात करने का प्रश्न ही कैसे उठता? पापा ज़रूर मेरे दोस्त हैं, पर बिलकुल दूसरी तरह के। शतरंज खेलना, पंजा लड़ाना और जो फर्माइश ममी पूरी न करें, उनसे पूरी करवा लेना। बचपन में उनकी पीठ पर लदी रहती थी और आज भी बिना किसी झिझक के उनकी पीठ पर लदकर अपनी हर इच्छा पूरी करवा लेती हूँ। पर इतने ‘माई डियर दोस्त’ होने के बावजूद अपनी निजी बातें मैं ममी के साथ ही करती आई हूँ। और वहाँ एकदम सन्नाटा – ममी को पटखनी देकर नाना पूरी तरह उन पर सवार जो हैं।

शेखर को मैंने इशारे से ही लाल झंडी दिखा दी थी सो वह भी नहीं आ रहा और शाम का समय है कि मुझसे काटे नहीं कटता।

कई बार मन हुआ कि ममी से जाकर बात करूं और साफ-साफ पूछूँ कि तुम इतना बिगड़ क्यों रही हो? मेरी और शेखर की दोस्ती के बारे में जानती तो हो। मैंने तो कभी कुछ छिपाया नहीं। और दोस्ती है तो यह सब तो होगा ही। तुम क्या समझ रही थीं कि हम भाई-बहन की तरह… पर तभी ख्याल आता कि ममी है ही कहाँ, जिनसे जाकर यह सब कहूँ।

चार दिन हो गए, मैंने शेखर की सूरत तक नहीं देखी। मेरे हलके से इशारे से ही उस बेचारे ने तो घर क्या, छत पर आना भी छोड़ दिया। होस्टल में रहने वाले उसके साथी भी छत पर न दिखाई दिए, न घर ही आए। कोई आता तो कम से कम उसका हालचाल ही पूछ लेती। मैं जानती हूँ, वह बेवकूफी की हद तक भावुक है। उसे तो ठीक से यह भी नहीं मालूम कि आखिर यहाँ हुआ क्या है? लगता है, ममी के गुस्से की आशंका मात्र से ही सबके हौसले पस्त हो गए थे।

वैसे कल से ममी के चेहरे का तनाव कुछ ढीला ज़रूर हुआ है। तीन दिन से जमी हुई सख्ती जैसे पिघल गई हो। पर मैंने तय कर लिया है कि बात अब ममी ही करेंगी।

सवेरे नहा-धोकर मैं दरवाजे के पीछे अपनी यूनिफार्म प्रेस कर रही थी। बाहर मेज पर ममी चाय बना रही थीं और पापा अखबार में सिर गड़ाए बैठे थे। ममी को शायद मालूम ही नहीं पड़ा कि मैं कब नहाकर बाहर निकल आई। वे पापा से बोलीं- “जानते हो, कल रात को क्या हुआ? पता नहीं, तब से मन बहुत खराब हो गया – उसके बाद मैं तो सो ही नहीं पाई।”

ममी के स्वर की कोमलता से मेरा हाथ जहाँ का तहाँ थम गया और कान बाहर लग गए।

“आधी रात के करीब मैं बाथरूम जाने के लिए उठी। सामने छत पर घुप्प अँधेरा छाया हुआ था। अचानक एक लाल सितारा-सा चमक उठा। मैं चौकी। गौर से देखा तो धीरे-धीरे एक आकृति उभर आई। शेखर छत पर खड़ा सिगरेट पी रहा था। मैं चुपचाप लौट आई। कोई दो घण्टे बाद फिर गई तो देखा, वह उसी तरह छत पर टहल रहा था। बेचारा… मेरा मन जाने कैसा हो आया। तनु भी कैसी बुझी-बुझी रहती है…” फिर जैसे अपने को ही धिक्कारती-सी बोली- “पहले तो छूट दो और फिर जब आगे बढ़े तो खींचकर चारों खाने चित कर दो। यह भी कोई बात हुई भला।”

राहत की एक गहरी नि:श्वास मेरे भीतर से निकल पड़ी। जाने कैसा आवेग मन में उमड़ा कि इच्छा हुई दौड़कर ममी के गले से लग जाऊँ। लगा जैसे अरसे के बाद मेरी ममी लौट आई हों। पर मैंने कुछ नहीं कहा। बस, अब खुलकर बात करूंगी। चार दिन से न जाने कितने प्रश्न मन में घुमड़ रहे थे। अब क्या, अब तो ममी हैं और उनसे तो कम से कम सब कहा-पूछा जा सकता है।

पर घर पहुँचकर जो देखा तो अवाक। शेखर हथेलियों में सिर थामे कुर्सी पर बैठा है और ममी उसी कुर्सी के हत्थे पर बैठी उसकी पीठ और माथा सहला रही हैं। मुझे देखते ही बड़े सहज-स्वाभाविक स्वर में बोलीं- “देखा इस पगले को। चार दिन से ये साहब कॉलेज नहीं गए हैं। न ही कुछ खाया-पिया है। अपने साथ इसका भी खाना लगवाना।”

और फिर ममी ने खुद बैठकर बड़े स्नेह से मनुहार कर-करके उसे खाना खिलाया। खाने के बाद कहने पर भी शेखर ठहरा नहीं। ममी के प्रति कृतज्ञता के बोझ से झुका-झुका ही वह लौट गया और मेरे भीतर खुशी का ऐसा ज्वार उमड़ा कि अब तक के सोचे सारे प्रश्न उसी में बिला गए।

सारी स्थिति को समय पर आने में समय तो लगा, पर आ गई। शेखर ने भी अब एक दो दिन छोड़कर आना शुरू किया और आता भी तो अधिकतर हम लिखाई-पढ़ाई की ही बातें करते। अपने किए पर शर्मिन्दगी प्रकट करते हुए उसने ममी से वायदा किया कि वह अब कोई ऐसा काम नहीं करेगा, जिससे ममी को शिकायत हो। जिस दिन वह नहीं आता, मैं दो-तीन बार थोड़ी-थोड़ी देर के लिए अपने बरामदे से ही बात कर लिया करती। घर की अनुमति और सहयोग से यों सरेआम चलने वाले इस प्रेम-प्रसंग में मोहल्ले वालों के लिए भी कुछ नहीं रह गया था और उन्होंने इस जानलेवा जमाने के नाम दो-चार लानतें भेजकर, किसी गुल खिलने तक के लिए अपनी दिलचस्पी को स्थगित कर दिया।

लेकिन एक बात मैंने जरूर देखी। जब भी शेखर शाम को कुछ ज्यादा देर बैठ जाता या दोपहर में भी आ जाता तो ममी के भीतर नाना कसमसाने लगते और उसकी प्रतिक्रिया ममी के चेहरे पर झलकने लगती। ममी भरसक कोशिश करके नाना को बोलने तो नहीं देती, पर उन्हें पूरी तरह हटा देना भी शायद ममी के बस की बात नहीं रह गई थी।

हाँ, यह प्रसंग मेरे और ममी के बीच में अब रोजमर्रा की बातचीत का विषय ज़रूर बन गया था। कभी वे मजाक में कहतीं- “यह जो तेरा शेखर है न, बड़ा लिज़लिज़ा-सा लड़का है। अरे, इस उम्र में लड़कों को चाहिए घूमें, फिरें… मस्ती मारें। क्या मुहर्रमी-सी सूरत बनाए मजनू की तरह छत पर टँगा सारे समय इधर ही ताकता रहता है।”

मैं केवल हँस देती।

कभी बड़ी भावुक होकर कहतीं- “तू क्यों नहीं समझती बेटे, कि तुझे लेकर कितनी महत्वाकांक्षाएँ हैं मेरे मन में। तेरे भविष्य को लेकर कितने सपने सँजो रखे हैं मैंने।”

मैं हँसकर कहती- “ममी, तुम भी कमाल करती हो। अपनी ज़िन्दगी को लेकर भी तुम सपने देखो और मेरी जिन्दगी के सपने भी तुम्हीं देख डालो… कुछ सपने मेरे लिए भी तो छोड़ दो।”

कभी वे समझाने के लहजे में कहतीं- “देखो तनु, अभी तुम बहुत छोटी हो। अपना सारा ध्यान पढ़ने-लिखने में लगाओ और दिमाग से ये उलटे-सीधे फितूर निकाल डालो। ठीक है बड़े हो जाओ तो प्रेम भी करना और शादी भी। मैं तो वैसे भी तुम्हारे लिए लड़का ढूँढने वाली नहीं हूँ – अपने-आप ही ढूँढना, पर इतनी अक्ल तो आ जाए कि ढंग का चुनाव कर सको।”

अपने चुनाव के रिजेक्शन को मैं समझ जाती और पूछती- “अच्छा ममी, बताओ, जब तुमने पापा को चुना था तो नाना को वह पसन्द था?”

“मेरा चुनाव! अपनी सारी पढ़ाई-लिखाई खत्म करके पच्चीस साल की उमर में चुनाव किया था मैंने – खूब सोच-समझकर और अक्ल के साथ, समझीं।”

ममी अपनी बौखलाहट को गुस्से में छिपाकर कहती। उम्र और पढ़ाई-लिखाई- ये दो ही तो ऐसे मुद्दे हैं जिनपर ममी मुझे जब तब धौंसती रहती हैं। पढ़ने लिखने में मैं अच्छी थी और रहा, उम्र का सवाल, सो उसके लिए मन होता कि कहूँ- ‘ममी, तुम्हारी पीढ़ी जो काम पच्चीस साल की उम्र में करती थी, हमारी उसे पन्द्रह साल की उम्र में ही करेगी, इसे तुम क्यों नहीं समझतीं।’ पर चुप रह जाती। नाना का ज़िक्र तो चल ही पड़ा है, कहीं वे ही जाग उठे तो?

छमाही परीक्षाएँ पास आ गई थीं और मैंने सारा ध्यान पढ़ने में लगा दिया था। सबका आना और गाना-बजाना एकदम बन्द। इन दिनों मैंने इतनी जमकर पढ़ाई की कि ममी का मन प्रसन्न हो गया। शायद कुछ आश्वस्त भी। आखिरी पेपर देने के पश्चात् लग रहा था कि एक बोझ था, जो हट गया है। मन बेहद हलका होकर कुछ मस्ती मारने को कर रहा था।

मैंने ममी से पूछा- “ममी, कल शेखर और दीपक पिक्चर जा रहे हैं, मैं भी साथ चली जाऊँ?” आज तक मैं इन लोगों के साथ कभी घूमने नहीं गई थी, पर इतनी पढ़ाई करने के बाद अब इतनी छूट तो मिलनी ही थी।

ममी एक क्षण मेरा चेहरा देखती रहीं, फिर बोलीं- इधर आ, यहाँ बैठ। तुझसे कुछ बात करनी है।”

मैं जाकर बैठ गई, पर यह न समझ आया कि इसमें बात करने को क्या है- हाँ कहो या ना। लेकिन ममी को बात करने का मर्ज़ जो है। उनकी तो हाँ-ना भी पचास-साठ वाक्यों में लिपटे बिना नहीं निकल सकती।

“तेरे इम्तिहान खतम हुए हैं, मैं तो खुद पिक्चर का प्रोग्राम बना रही थी। बोल, कौन-सी पिक्चर देखना चाहती है?”

क्यों, उन लोगों के साथ जाने में क्या है?” मेरे स्वर में इतनी खीज भरी हुई थी कि ममी एकटक मेरा चेहरा ही देखती रह गई।

“तनु, तुझे पूरी छूट दे रखी है बेटे, पर इतना ही तेज़ चल कि मैं भी साथ तो चल सकूँ।”

“तुम साफ कहो न, कि जाने दोगी या नहीं? बेकार की बातें… मैं भी साथ चल सकूँ – तुम्हारे साथ चल सकने की बात भला कहाँ से आ गई।”

ममी ने पीठ सहलाते हुए कहा- “साथ तो चलना ही पड़ेगा। कभी औंधे मुँह गिरी तो कोई उठाने वाला भी तो चाहिए न?”

मैं समझ गई कि ममी नहीं जाने देंगी, पर इस तरह प्यार से मना करती हैं तो झगड़ा भी तो नहीं किया जा सकता। बहस करने का सीधा-सा मतलब है कि उनका बघारा हुआ दर्शन सुनो- यानी पचास मिनट की एक क्लास। पर मैं कतई नहीं समझ पाई कि जाने में आखिर हर्ज क्या है? हर बात में ना-नुकुर। कहाँ तो कहती थीं कि बचपन में, यह मत करो, यहाँ मत जाओ कहकर हमको बहुत डाँटा गया था और खुद अब वही सब कर रही हैं। देख लिया इनकी बड़ी-बड़ी बातों को। मैं उठी और दनदनाती हुई अपने कमरे में आ गई। हाँ, एक वाक्य ज़रूर थमा आई-“ममी जो चलेगा, वह गिरेगा भी और जो गिरेगा, वह उठेगा भी और खुद ही उठेगा, उसे किसी की ज़रूरत नहीं है।”

पता नहीं, मेरी बात की उन पर प्रतिक्रिया हुई या उनके मन में ही कुछ जागा कि शाम को उन्होंने खुद शेखर और उसके कमरे पर आए तीनों-चारों लड़कों को बुलवाकर मेरे ही कमरे में मजलिस जमवाई और खूब गरम-गरम खाना खिलवाया। कुछ ऐसा रंग जमा कि मेरा दोपहर वाला आक्रोश धुल गया।

इम्तिहान खतम हो गए थे और मौसम सुहाना था। ममी का रवैया भी अनुकूल था सो दोस्ती का स्थगित हुआ सिलसिला फिर शुरू हो गया और आजकल तो जैसे उसके सिवाय कुछ रह ही नहीं गया था। पर फिर एक झटका।

उस दिन मैं अपनी सहेली के घर से लौटी तो ममी की सख्त आवाज़ सुनाई दी-“तनु, इधर आओ तो।”

आवाज़ से ही लगा कि खतरे का सिगनल है। एक क्षण को मैं सकते में आ गई। पास गई तो चेहरा पहले की तरह सख्त।

“तुम शेखर के कमरे पर जाती हो?” ममी ने बन्दूक दागी। समझ गई कि पीछे गली में से किसी ने अपना करतब कर दिखाया।

“कब से जाती हो?”

मन तो हुआ कि कहूँ जिसने जाने की खबर दी है, उसने बाकी बातें भी बता दी होंगी… कुछ जोड़-तोड़कर ही बताया होगा। पर ममी जिस तरह भभक रही थीं, उसमें चुप रहना ही बेहतर समझा। वैसे मुझे ममी के इस गुस्से का कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था। दो-तीन बार यदि मैं थोड़ी-थोड़ी देर के लिए शेखर के कमरे पर चली ही गई तो ऐसा क्या गुनाह हो गया? पर ममी का हर काम सकारण तो होता नहीं… बस, वे तो मूड पर ही चलती हैं।

अजीब मुसीबत थी- गुस्से में ममी से बात करने का मतलब नहीं… और मेरी चुप्पी ममी के गुस्से को और भड़का रही थी।

“याद नहीं है, मैंने शुरू में ही तुम्हें मना कर दिया था कि तुम उनके कमरे पर कभी नहीं जाओगी। तीन-तीन घण्टे वह यहाँ धूनी रमाकर बैठता है, उसमें जी भरा नहीं तुम्हारा?”

दुःख, क्रोध और आतंक की परतें उनके चेहरे पर गहरी होती जा रही थीं और मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि कैसे उन्हें सारी स्थिति समझाऊँ?

“वह तो बेचारे सामने वालों ने मुझे बुलाकर आगाह कर दिया – जानती है, यह सिर आज तक किसी के सामने झुका नहीं, पर वहाँ मुझसे आँख नहीं उठाई गईं। मुँह दिखाने लायक मत रखना हमको कभी भी। सारी गली में थू-थू हो रही है। नाक कटाकर रख दी।”

गज़ब।

इस बार तो सारा मोहल्ला ही बोलने लगा ममी के भीतर से। आश्चर्य है कि जो ममी आज तक अपने आसपास से बिल्कुल कटी हुई थीं… जिसका मजाक ही उड़ाया करती थीं… आज कैसे उसके सुर में सुर मिलाकर बोल रही हैं।

ममी का भाषण बदस्तूर चालू… पर मैंने तो अपने कान के स्विच ही ऑफ कर लिए। जब गुस्सा ठंडा होगा… ममी अपने में लौट आएँगी तब समझा दूँगी- ममी, इस छोटी-सी बात को तुम नाहक इतना तूल दे रही हो।

पर जाने कैसी डोज लेकर आई हैं इस बार कि उनका गुस्सा ठंडा ही नहीं हो रहा और हुआ यह है कि अब उनके गुस्से से मुझे गुस्सा चढ़ने लगा।

फिर घर में एक अजीब सा तनाव बढ़ गया। इस बार ममी ने शायद पापा को भी सब-कुछ बता दिया है। कहा तो उन्होंने कुछ नहीं, वे शुरू से ही इस सारे मामले में आउट ही रहे… पर इस बार उनके चेहरे पर भी एक अनकहा-सा तनाव दिखाई दे रहा है।

कोई दो महीने पहले जब इस तरह की घटना हुई थी तो मैं भीतर तक सहम गई थी, पर इस बार मैंने तय कर लिया है कि इस सारे मामले में ममी को यदि नाना बनकर ही व्यवहार करना है तो मुझे भी फिर ममी की तरह ही मोर्चा लेना होगा उनसे… और मैं ज़रूर लूँगी। दिखा तो दूँ कि मैं तुम्हारी ही बेटी हूँ और तुम्हारे ही नक्शो-कदम पर चली हूँ। खुद तो लीक से हटकर चली थीं… सारी जिन्दगी इस बात की घुट्टी पिलाती रहीं, पर मैंने जैसे ही अपना पहला कदम रखा, घसीटकर मुझे अपनी ही खींची लीक पर लाने के दंद-फंद शुरू हो गए।

मैंने मन में ढेर-ढेर तर्क सोच डाले कि एक दिन बाकायदा ममी से बहस करूंगी। साफ-साफ कहूँगी कि ममी, इतने ही बन्धन लगाकर रखना था तो शुरू से वैसे पालतीं। क्यों झूठ-मूठ आज़ादी देने की बातें करती-सिखाती रहीं। पर इस बार मेरा भी मन सुलगकर इस तरह राख हो गया था कि मैं गुमसुम-सी अपने ही कमरे में पड़ी रहती। मन बहुत भर आता तो रो लेती। घर में सारे दिन हँसती-खिलखिलाती रहने वाली मैं एकदम चुप होकर अपने में ही सिमट गई थी। हाँ, एक वाक्य ज़रूर बार-बार दोहरा रही थी- ‘ममी, मुझे अच्छी तरह समझ लो कि मैं भी अपने मन की ही करूंगी।’ हालाँकि मेरे मन में क्या है, इसकी कोई भी रूपरेखा मेरे सामने न थी।

मुझे नहीं मालूम कि इन तीन-चार दिनों में बाहर क्या हुआ। घर-बाहर की दुनिया से कटी, अपने ही कमरे में सिमटी, मैं ममी से मोर्चा लेने के दाँव सोच रही थी।

पर आज दोपहर मुझे कतई-कतई अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ जब मैंने ममी को अपने बरामदे से ही चिल्लाते हुए सुना- “शेखर, कल तो तुम लोग छुट्टियों में अपने घर चले जाओगे, आज अपने दोस्तों के साथ खाना इधर ही खाना।”

नहीं जानती, किस जद्दोजहद से गुजरकर ममी इस स्थिति पर पहुँची होंगी।

और रात को शेखर, दीपक और रवि के साथ खाने की मेज पर डटा हुआ था। ममी उतने ही प्रेम से खाना खिला रही थी… पापा वैसे ही खुले ढंग से मज़ाक कर रहे थे, मानो बीच में कुछ घटा ही न हो। अगल-बगल की खिड़कियों में दो-चार सिर चिपके हुए थे। सब कुछ पहले की तरह बहुत सहज-स्वाभाविक हो उठा था..।

केवल मैं इस सारी स्थिति से एकदम तटस्थ होकर यही सोच रही थी कि नाना पूरी तरह नाना थे – शत-प्रतिशत और इसी से ममी के लिए लड़ना कितना आसान हो गया होगा। पर इन ममी से लड़ा भी कैसे जाए जो एक पल नाना होकर जीती हैं तो एक पल ममी होकर।
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Friday, February 19, 2021

कविता अँधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध

 


कविता

अँधेरे में
गजानन माधव मुक्तिबोध


जिंदगी के...
      कमरों में अँधेरे
      लगाता है चक्कर
      कोई एक लगातार;
आवाज पैरों की देती है सुनाई
बार-बार... बार-बार,
वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता,
किंतु वह रहा घूम
तिलस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक,
भीत-पार आती हुई पास से,
गहन रहस्यमय अंधकार ध्वनि-सा
       अस्तित्व जनाता
       अनिवार कोई एक,
और मेरे हृदय की धक्-धक्
पूछती है - वह कौन
सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई !
इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से
फूले हुए पलस्तर,
खिरती है चूने-भरी रेत
खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह -
खुद-ब-खुद
कोई बड़ा चेहरा बन जाता है,
स्वयमपि
मुख बन जाता है दिवाल पर,
नुकीली नाक और
भव्य ललाट है,
दृढ़ हनु
कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति।
कौन वह दिखाई जो देता, पर
नहीं जाना जाता है !
कौन मनु ?

बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब...
अँधेरा सब ओर,
निस्तब्ध जल,
पर, भीतर से उभरती है सहसा
सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति
कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है
और मुसकाता है,
पहचान बताता है,
किंतु, मैं हतप्रभ,
नहीं वह समझ में आता।

अरे ! अरे !!
तालाब के आस-पास अँधेरे में वन-वृक्ष
चमक-चमक उठते हैं हरे-हरे अचानक
वृक्षों के शीशे पर नाच-नाच उठती हैं बिजलियाँ,
शाखाएँ, डालियाँ झूमकर झपटकर
चीख, एक दूसरे पर पटकती हैं सिर कि अकस्मात् -
वृक्षों के अँधेरे में छिपी हुई किसी एक
तिलस्मी खोह का शिला-द्वार
खुलता है धड़ से



घुसती है लाल-लाल मशाल अजीब-सी
अंतराल-विवर के तम में
लाल-लाल कुहरा,
कुहरे में, सामने, रक्तालोक-स्नात पुरुष एक,
रहस्य साक्षात् !!

तेजो प्रभामय उसका ललाट देख
मेरे अंग-अंग में अजीब एक थरथर
गौरवर्ण, दीप्त-दृग, सौम्य-मुख
संभावित स्नेह-सा प्रिय-रूप देखकर
विलक्षण शंका,
भव्य आजानुभुज देखते ही साक्षात्
गहन एक संदेह।

वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
पूर्ण अवस्था वह
निज-संभावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की,
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा।

प्रश्न थे गंभीर, शायद खतरनाक भी,
इसी लिए बाहर के गुंजान
जंगलों से आती हुई हवा ने
फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी -
कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर
मौत की सजा दी !

किसी काले डैश की घनी काली पट्टी ही
आँखों में बँध गयी,
किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया,
किसी शून्य बिंदु के अँधियारे खड्डे में
       गिरा दिया गया मैं
       अचेतन स्थिति में !


2

सूनापन सिहरा,
अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभरे,
शून्य के मुख पर सलवटें स्वर की,
मेरे ही उर पर, धँसाती हुई सिर,
छटपटा रही हैं शब्दों की लहरें
मीठी है दुःसह !!
अरे, हाँ, साँकल ही रह-रह
बजती है द्वार पर।
कोई मेरी बात मुझे बताने के लिए ही
बुलाता है - बुलाता है
हृदय को सहला मानो किसी जटिल
प्रसंग में सहसा होठों पर
होठ रख, कोई सच-सच बात
सीधे-सीधे कहने को तड़प जाय, और फिर
वही बात सुनकर धँस जाय मेरा जी -
इस तरह, साँकल ही रह-रह बजती है द्वार पर
आधी रात, इतने अँधेरे में, कौन आया मिलने?
विमन प्रतीक्षातुर कुहरे में घिरा हुआ
द्युतिमय मुख - वह प्रेम भरा चेहरा -
भोला-भाला भाव -
पहचानता हूँ बाहर जो खड़ा है
यह वही व्यक्ति है, जी हाँ !
जो मुझे तिलस्मी खोह में दिखा था।
अवसर-अनवसर
प्रकट जो होता ही रहता
मेरी सुविधाओं का न तनिक खयाल कर।
चाहे जहाँ, चाहे जिस समय उपस्थित,
चाहे जिस रूप में
चाहे जिन प्रतीकों में प्रस्तुत,
इशारे से बताता है, समझाता रहता,
हृदय को देता है बिजली के झटके
अरे, उसके चेहरे पर खिलती हैं सुबहें,
गालों पर चट्टानी चमक पठार की
आँखों में किरणीली शांति की लहरें
उसे देख, प्यार उमड़ता है अनायास!
लगता है - दरवाजा खोलकर
बाँहों में कस लूँ,
हृदय में रख लूँ
घुल जाऊँ, मिल जाऊँ लिपटकर उससे
परंतु, भयानक खड्डे के अँधेरे में आहत
और क्षत-विक्षत, मैं पड़ा हुआ हूँ,
शक्ति ही नहीं है कि उठ सकूँ जरा भी
(यह भी तो सही है कि
       कमजोरियों से ही लगाव है मुझको)
इसीलिए टालता हूँ उस मेरे प्रिय को
कतराता रहता,
डरता हूँ उससे।
वह बिठा देता है तुंग शिखर के
खतरनाक, खुरदरे कगार-तट पर
शोचनीय स्थिति में ही छोड़ देता मुझको।
कहता है - "पार करो पर्वत-संधि के गह्वर,
रस्सी के पुल पर चलकर
दूर उस शिखर-कगार पर स्वयं ही पहुँचो"
अरे भाई, मुझे नहीं चाहिए शिखरों की यात्रा,
मुझे डर लगता है ऊँचाइयों से
बजने दो साँकल!!
उठने दो अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले,
वह जन - वैसे ही
आप चला जायेगा आया था जैसा।
खड्डे के अँधेरे में मैं पड़ा रहूँगा
पीड़ाएँ समेटे !
क्या करूँ क्या नहीं करूँ मुझे बताओ,
इस तम-शून्य में तैरती है जगत्-समीक्षा
की हुई उसकी
(सह नहीं सकता)
विवेक-विक्षोभ महान् उसका
तम-अंतराल में (सह नहीं सकता)
अँधियारे मुझमें द्युति-आकृति-सा
भविष्य का नक्शा दिया हुआ उसका
सह नहीं सकता !
नहीं, नहीं, उसको छोड़ नहीं सकूँगा,
सहना पड़े - मुझे चाहे जो भले ही।

कमजोर घुटनों को बार-बार मसल,
लड़खड़ाता हुआ मैं
उठता हूँ दरवाजा खोलने,
चेहरे के रक्त-हीन विचित्र शून्य को गहरे
पोंछता हूँ हाथ से,
अँधेरे के ओर-छोर टटोल-टटोलकर
बढ़ता हूँ आगे,
पैरों से महसूस करता हूँ धरती का फैलाव,
हाथों से महसूस करता हूँ दुनिया,
मस्तक अनुभव करता है, आकाश
दिल में तड़पता है अँधेरे का अंदाज,
आँखें ये तथ्य को सूँघती-सी लगतीं,
केवल शक्ति है स्पर्श की गहरी।
आत्मा में, भीषण
सत्-चित्-वेदना जल उठी, दहकी।
विचार हो गए विचरण-सहचर।
बढ़ता हूँ आगे,
चलता हूँ सँभल-सँभलकर,
द्वार टटोलता,
जंग खायी, जमी हुई जबरन
सिटकनी हिलाकर
जोर लगा, दरवाजा खोलता
झाँकता हूँ बाहर...
सूनी है राह, अजीब है फैलाव,
सर्द अँधेरा।
ढीली आँखों से देखते हैं विश्व
उदास तारे।
हर बार सोच और हर बार अफसोस
हर बार फिक्र
के कारण बढे हुए दर्द का मानो कि दूर वहाँ, दूर वहाँ
अँधियारा पीपल देता है पहरा।
हवाओं की निःसंग लहरों में काँपती
कुत्तों की दूर-दूर अलग-अलग आवाज,
टकराती रहती सियारों की ध्वनियों से।
काँपती हैं दूरियाँ, गूँजते हैं फासले
(बाहर कोई नहीं, कोई नहीं बाहर)

इतने में अँधियारे सूने में कोई चीख गया है
रात का पक्षी
कहता है -
"वह चला गया है,
वह नहीं आएगा, आएगा ही नहीं
अब तेरे द्वार पर।
वह निकल गया है गाँव में शहर में !
उसको तू खोज अब
उसका तू शोध कर!
वह तेरी पूर्णतम परम अभिव्यक्ति,
उसका तू शिष्य है (यद्यपि पलातक...)
वह तेरी गुरु है,
गुरु है..."


3

समझ न पाया कि चल रहा स्वप्न या
                                 जागृति शुरू है।
दिया जल रहा है,
पीतालोक-प्रसार में काल चल रहा है,
आस-पास फैली हुई जग-आकृतियाँ
लगती हैं छपी हुई जड़ चित्राकृतियों-सी
अलग व दूर-दूर
निर्जीव !!
यह सिविल लाइन्स है। मैं अपने कमरे में
यहाँ पड़ा हुआ हूँ
आँखें खुली हुई हैं,
पीटे गये बालक-सा मार खाया चेहरा
उदास इकहरा,
स्लेट-पट्टी पर खींची गयी तसवीर
भूत-जैसी आकृति -
क्या वह मैं हूँ ?
मैं हूँ ?

रात के दो हैं,
दूर-दूर जंगल में सियारों का हो-हो,
पास-पास आती हुई घहराती गूँजती
किसी रेल-गाड़ी के पहियों की आवाज !!
किसी अनपेक्षित
असंभव घटना का भयानक संदेह,
अचेतन प्रतीक्षा,
कहीं कोई रेल-एक्सीडेंट न हो जाय।
चिंता के गणित अंक
आसमानी-स्लेट-पट्टी पर चमकते
खिड़की से दीखते।

... ... ...

हाय! हाय! तॉल्सतॉय
कैसे मुझे दीख गये
सितारों के बीच-बीच
घूमते व रुकते
पृथ्वी को देखते।

शायद तॉल्सतॉय-नुमा
कोई वह आदमी
और है,
मेरे किसी भीतरी धागे का आखिरी छोर वह
अनलिखे मेरे उपन्यास का
केंद्रीय संवेदन
दबी हाय-हाय-नुमा।
शायद, तॉल्सतॉय-नुमा।

प्रोसेशन ?
निस्तब्ध नगर के मध्य-रात्रि-अँधेरे में सुनसान
किसी दूर बैंड की दबी हुई क्रमागत तान-धुन,
मंद-तार उच्च-निम्न स्वर-स्वप्न,
उदास-उदास ध्वनि-तरंगें हैं गंभीर,
दीर्घ लहरियाँ !!
गैलरी में जाता हूँ, देखता हूँ रास्ता
वह कोलतार-पथ अथवा
मरी हुई खिंची हुई कोई काली जिह्वा
बिजली के द्युतिमान दिये या
मरे हुए दाँतों का चमकदार नमूना!!

किंतु दूर सड़क के उस छोर
शीत-भरे थर्राते तारों के अँधियारे तल में
नील तेज-उद्भास
पास-पास पास-पास
आ रहा इस ओर!
दबी हुई गंभीर स्वर-स्वप्न-तरंगें,
शत-ध्वनि-संगम-संगीत
उदास तान-धुन
समीप आ रहा!!
और, अब
गैस-लाइट-पाँतों की बिंदुएँ छिटकीं,
बीचों-बीच उनके
साँवले जुलूस-सा क्या-कुछ दीखता!!

और अब
गैस-लाइट-निलाई में रँगे हुए अपार्थिव चेहरे,
बैंड-दल,
उनके पीछे काले-काले बलवान् घोड़ों का जत्था
दीखता,
घना व डरावना अवचेतन ही
जुलूस में चलता।
क्या शोभा-यात्रा
किसी मृत्यु दल की ?

अजीब!!
दोनों ओर, नीली गैस-लाइट-पाँत
रही जल, रही जल।
नींद में खोये हुए शहर की गहन अवचेतना में
हलचल, पाताली तल में
चमकदार साँपों की उड़ती हुई लगातार
लकीरों की वारदात !!
सब सोये हुए हैं।
लेकिन, मैं जाग रहा, देख रहा
रोमांचकारी वह जादुई करामात!!

विचित्र प्रोसेशन,
गंभीर क्विक मार्च...
कलाबत्तूवाला काला जरीदार ड्रेस पहने
चमकदार बैंड-दल -
अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति
आँतों के जालों से, बाजे वे दमकते हैं भयंकर
गंभीर गीत-स्वप्न-तरंगें
उभारते रहते,
ध्वनियों के आवर्त मँडराते पथ पर।
बैंड के लोगों के चेहरे
मिलते हैं मेरे देखे हुओं-से
लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार
इसी नगर के !!
बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैंड-दल में !
उनके पीछे चल रहा
संगीन नोकों का चमकता जंगल,
चल रही पदचाप, ताल-बद्ध दीर्घ पाँत
टैंक-दल, मोर्टार, ऑर्टिलरी, सन्नद्ध,
धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना,
सैनिकों के पथराये चेहरे
चिढ़े हुए, झुलसे हुए, बिगड़े हुए गहरे !
शायद, मैंने उन्हे पहले भी तो कहीं देखा था।
शायद, उनमें कई परिचित !!
उनके पीछे यह क्या !!
कैवेलरी !
काले-काले घोड़ों पर खाकी मिलिट्री ड्रेस,
चेहरे का आधा भाग सिन्दूरी-गेरुआ
आधा भाग कोलतारी भैरव,
आबदार !!
कंधे से कमर तक कारतूसी बेल्ट है तिरछा।
कमर में, चमड़े के कवर में पिस्तोल,
रोष-भरी एकाग्रदृष्टि में धार है,
कर्नल, बिग्रेडियर, जनरल, मॉर्शल
कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते,
उनके चित्र समाचारपत्रों में छपे थे,
उनके लेख देखे थे,
यहाँ तक कि कविताएँ पढ़ी थीं
भई वाह!
उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक जगमगाते कवि-गण
मंत्री भी, उद्योगपति और विद्वान
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
डोमाजी उस्ताद
बनता है बलबन
हाय, हाय !!
यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय।
भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
साफ उभर आया है,
छिपे हुए उद्देश्य
यहाँ निखर आये हैं,
यह शोभायात्रा है किसी मृत-दल की।
विचारों की फिरकी सिर में घूमती है

इतने में प्रोसेशन में से कुछ मेरी ओर
आँखें उठीं मेरी ओर-भर
हृदय में मानो कि संगीन नोकें ही घुस पड़ीं बर्बर,
सड़क पर उठ खड़ा हो गया कोई शोर -
"मारो गोली, दागो स्साले को एकदम
दुनिया की नजरों से हटकर
छिपे तरीके से
हम जा रहे थे कि
आधीरात - अँधेरे में उसने
देख लिया हमको
व जान गया वह सब
मार डालो, उसको खत्म करो एकदम"
रास्ते पर भाग-दौड़ थका-पेल !!
गैलरी से भागा मैं पसीने से शराबोर !!

एकाएक टूट गया स्वप्न व छिन्न-भिन्न हो गये
सब चित्र
जागते में फिर से याद आने लगा वह स्वप्न,
फिर से याद आने लगे अँधेरे में चेहरे,
और, तब मुझे प्रतीत हुआ भयानक
गहन मृतात्माएँ इसी नगर की
हर रात जुलूस में चलतीं,
परंतु दिन में
बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र
विभिन्न दफ्तरों-कार्यालयों, केंद्रों में, घरों में।

हाय, हाय! मैंने उन्हे दैख लिया नंगा,
इसकी मुझे और सजा मिलेगी।


4

अकस्मात्
चार का गजर कहीं खड़का
मेरा दिल धड़का,
उदास मटमैला मनरूपी वल्मीक
चल-विचल हुआ सहसा।
अनगिनत काली-काली हायफन-डैशों की लीकें
बाहर निकल पड़ीं, अंदर घुस पड़ीं भयभीत,
सब ओर बिखराव।
मैं अपने कमरे में यहाँ लेटा हुआ हूँ।
काले-काले शहतीर छत के
हृदय दबोचते।
यद्यपि आँगन में नल जो मारता,
जल खखारता।
किंतु न शरीर में बल है
अँधेरे में गल रहा दिल यह।

एकाएक मुझे भान होता है जग का,
अखबारी दुनिया का फैलाव,
फँसाव, घिराव, तनाव है सब ओर,
पत्ते न खड़के,
सेना ने घेर ली हैं सड़कें।
बुद्धि की मेरी रग
गिनती है समय की धक्-धक्।
यह सब क्या है
किसी जन-क्रांति के दमन-निमित्त यह
मॉर्शल-लॉ है!
दम छोड़ रहे हैं भाग गलियों में मरे पैर,
साँस लगी हुई है,
जमाने की जीभ निकल पड़ी है,
कोई मेरा पीछा कर रहा है लगातार
भागता मैं दम छोड़,
घूम गया कई मोड़,
चौराहा दूर से ही दीखता,
वहाँ शायद कोई सैनिक पहरेदार
नहीं होगा फिलहाल
दिखता है सामने ही अंधकार-स्तूप-सा
भयंकर बरगद -
सभी उपेक्षितों, समस्त वंचितों,
गरीबों का वही घर, वही छत,
उसके ही तल-खोह-अँधेरे में सो रहे
गृह-हीन कई प्राण।
अँधेरे में डूब गये
डालों में लटके जो मटमैले चिथड़े
किसी एक अति दीन
पागल के धन वे।
हाँ, वहाँ रहता है, सिर-फिरा एक जन।
किंतु आज इस रात बात अजीब है।
वही जो सिर-फिरा पागल कतई था
आज एकाएक वह
जागृत बुद्धि है, प्रज्वलत् धी है।
छोड़ सिर-फिरापन,
बहुत ऊँचे गले से,
गा रहा कोई पद, कोई गान
आत्मोद्बोधमय !!
खूब भई, खूब भई,
जानता क्या वह भी कि
सैनिक प्रशासन है नगर में वाकई!
क्या उसकी बुद्धि भी जग गयी!

(करुण रसाल वे हृदय के स्वर हैं
गद्यानुवाद यहाँ उनका दिया जा रहा)

''ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया !!

उदरंभरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में कनात-से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,

दुःखों के दागों को तमगों-सा पहना,
अपने ही खयालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
जिंदगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,

अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!!

बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,
बन गये पत्थर,
बहुत-बहुत ज्यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम !!
लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य - त्याग दिये,
हृदय के मंतव्य - मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,
जम गये, जाम हुए, फँस गये,
अपने ही कीचड़ में धँस गये !!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गये !

अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम...''

मेरा सिर गरम है,
इसीलिए भरम है।
सपनों में चलता है आलोचन,
विचारों के चित्रों की अवलि में चिंतन।
निजत्व-माफ है बेचैन,
क्या करूँ, किससे कहूँ,
कहाँ जाऊँ, दिल्ली या उज्जैन?
वैदिक ऋषि शुनःशेप के
शापभ्रष्ट पिता अजीर्गत समान ही
व्यक्तित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ
वही उसे अकस्मात् मिलता था रात में,
पागल था दिन में
सिर-फिरा विक्षिप्त मस्तिष्क।

हाय, हाय!
उसने भी यह क्या गा दिया,
यह उसने क्या नया ला दिया,
प्रत्यक्ष,
मैं खड़ा हो गया
किसी छाया मूर्ति-सा समक्ष स्वयं के
होने लगी बहस और
लगने लगे परस्पर तमाचे।
छिः पागलपन है,
वृथा आलोचन है।
गलियों में अंधकार भयावह -
मानो मेरे कारण ही लग गया
मॉर्शल-लॉ वह,
मानो मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया,
मानो मेरे कारण ही दुर्घट
हुई यह घटना।
चक्र से चक्र लगा हुआ है...
जितना ही तीव्र है द्वंद्व क्रियाओं घटनाओं का
बाहरी दुनिया में,
उतनी ही तेजी से भीतरी दुनिया में,
चलता है द्वंद्व कि
फिक्र से फिक्र लगी हुई है।
आज उस पागल ने मेरी चैन भुला दी,
मेरी नींद गवाँ दी।

मैं इस बरगद के पास खड़ा हूँ।
मेरा यह चेहरा
घुलता है जाने किस अथाह गंभीर, साँवले जल से,
झुके हुए गुमसुम टूटे हुए घरों के
तिमिर अतल से
घुलता है मन यह।
रात्रि के श्यामल ओस से क्षालित
कोई गुरु-गंभीर महान् अस्तित्व
महकता है लगातार
मानो खंडहर-प्रसारों में उद्यान
गुलाब-चमेली के, रात्रि-तिमिर में,
महकते हों, महकते ही रहते हों हर पल।
किंतु वे उद्यान कहाँ हैं,
अँधेरे में पता नहीं चलता।
मात्र सुगंध है सब ओर,
पर, उस महक - लहर में
कोई छिपी वेदना, कोई गुप्त चिंता
छटपटा रही है।


5

एकाएक मुझे भान !!
पीछे से किसी अजनबी ने
कंधे पर रक्खा हाथ।
चौंकता मैं भयानक
एकाएक थरथर रेंग गयी सिर तक,
नहीं नहीं। ऊपर से गिरकर
कंधे पर बैठ गया बरगद-पात तक,
क्या वह संकेत, क्या वह इशारा?
क्या वह चिट्ठी है किसी की?
कौन-सा इंगित?
भागता मैं दम छोड़,
घूम गया कई मोड़!!
बंदूक धाँय-धाँय
मकानों के ऊपर प्रकाश-सा छा रहा गेरुआ।
भागता मैं दम छोड़
घूम गया कई मोड़।
घूम गयी पृथ्वी, घूम गया आकाश,
और फिर, किसी एक मुँदे हुए घर की
पत्थर, सीढ़ी दिख गयी, उस पार
चुपचाप बैठ गया सिर पकड़कर !!
दिमाग में चक्कर
चक्कर... भँवरें
भँवरों के गोल-गोल केंद्र में दीखा
स्वप्न सरीखा -

भूमि की सतहों के बहुत-बहुत नीचे
अँधियारी एकांत
प्राकृत गुहा एक।
विस्तृत खोह के साँवले तल में
तिमिर को भेदकर चमकते हैं पत्थर
मणि तेजस्क्रिय रेडियो-एक्टिव रत्न भी बिखरे,
झरता है जिन पर प्रबल प्रपात एक।
प्राकृत जल वह आवेग-भरा है,
द्युतिमान् मणियों की अग्नियों पर से
फिसल-फिसलकर बहती लहरें,
लहरों के तल में से फूटती हैं किरनें
रत्नों की रंगीन रूपों की आभा
फूट निकलती
खोह की बेडौल भीतें हैं झिलमिल !!
पाता हूँ निज को खोह के भीतर,
विलुब्ध नेत्रों से देखता हूँ द्युतियाँ,
मणि तेजस्क्रिय हाथों में लेकर
विभोर आँखों से देखता हूँ उनको -
पाता हूँ अकस्मात्
दीप्ति में वलयित रत्न वे नहीं हैं
अनुभव, वेदना, विवेक-निष्कर्ष,
मेरे ही अपने यहाँ पड़े हुए हैं
विचारों की रक्तिम अग्नि के मणि वे
प्राण-जल-प्रपात में घुलते हैं प्रतिपल
अकेले में किरणों की गीली है हलचल
गीली है हलचल !!


6

हाय, हाय! मैंने उन्हें गुहा-वास दे दिया
लोक-हित क्षेत्र से कर दिया वंचित
जनोपयोग से वर्जित किया और
निषिद्ध कर दिया
खोह में डाल दिया!!
वे खतरनाक थे,
(बच्चे भीख माँगते) खैर...
यह न समय है,
जूझना ही तै है।

सीन बदलता है
सुनसान चौराहा साँवला फैला,
बीच में वीरान गेरुआ घंटाघर,
ऊपर कत्थई बुजर्ग गुंबद,
साँवली हवाओं में काल टहलता है।
रात में पीले हैं चार घड़ी-चेहरे,
मिनिट के काँटों की चार अलग गतियाँ,
चार अलग कोण,
कि चार अलग संकेत
(मनस् में गतिमान् चार अलग मतियाँ)
खंभों पर बिजली की गरदनें लटकीं,
शर्म से जलते हुए बल्बों के आस-पास
बेचैन खयालों के पंखों के कीड़े
उड़ते हैं गोल-गोल
मचल-मचलकर।
घंटाघर तले ही
पंखों के टुकड़े व तिनके।
गुंबद-विवर में बैठे हुए बूढ़े
असंभव पक्षी
बहुत तेज नजरों से देखते हैं सब ओर,
मानो कि इरादे
भयानक चमकते।
सुनसान चौराहा
बिखरी हैं गतियाँ, बिखरी है रफ्तार,
गश्त में घूमती है कोई दुष्ट इच्छा।
भयानक सिपाही जाने किस थकी हुई झोंक में
अँधेरे में सुलगाता सिगरेट अचानक
ताँबे से चेहरे की ऐंठ झलकती।
पथरीली सलवट
दियासलाई की पल-भर लौ में
साँप-सी लगती।
पर उसके चेहरे का रंग बदलता है हर बार,
मानो अनपेक्षित कहीं न कुछ हो...
वह ताक रहा है -
संगीन नोंकों पर टिका हुआ
साँवला बंदूक-जत्था
गोल त्रिकोण एक बनाये खड़ा जो
चौक के बीच में !!
एक ओर
टैंकों का दस्ता भी खड़े-खड़े ऊँघता,
परंतु अड़ा है!!

भागता मैं दम छोड़,
घूम गया कई मोड़
भागती है चप्पल, चटपट आवाज
चाँटों-सी पड़ती।
पैरों के नीचे का कीच उछलकर
चेहरे पर छाती पर, पड़ता है सहसा,
ग्लानि की मितली।
गलियों का गोल-गोल खोह अँधेरा
चेहरे पर आँखों पर करता है हमला।
अजीब उमस-बास
गलियों का रुँधा हुआ उच्छवास
भागता हूँ दम छोड़,
घूम गया कई मोड़।
धुँधले-से आकार कहीं-कहीं दीखते,
भय के? या घर के? कह नहीं सकता
आता है अकस्मात् कोलतार-रास्ता
लंबा व चौड़ा व स्याह व ठंडा,
बेचैन आँखें ये देखती हैं सब ओर।
कहीं कोई नहीं है,
नहीं कहीं कोई भी।
श्याम आकाश में, संकेत-भाषा-सी तारों की आँखें
चमचमा रही हैं।
मेरा दिल ढिबरी-सा टिमटिमा रहा है।
कोई मुझे खींचता है रास्ते के बीच ही।
जादू से बँधा हुआ चल पड़ा उस ओर।
सपाट सूने में ऊँची-सी खड़ी जो
तिलक की पाषाण-मूर्ति है निःसंग
स्तब्ध जड़ीभूत...
देखता हूँ उसको परंतु, ज्यों ही मैं पास पहुँचता
पाषाण-पीठिका हिलती-सी लगती
अरे, अरे यह क्या!!
कण-कण काँप रहे जिनमें-से झरते
नीले इलेक्ट्रान
सब ओर गिर रही हैं चिनगियाँ नीली
मूर्ति के तन से झरते हैं अंगार।
मुस्कान पत्थरी होठों पर काँपी,
आँखों में बिजली के फूल सुलगते।
इतने में यह क्या!!
भव्य ललाट की नासिका में से
बह रहा खून न जाने कब से
लाल-लाल गरमीला रक्त टपकता
(खून के धब्बों से भरा अँगरखा)
मानो कि अतिशय चिंता के कारण
मस्तक-कोष ही फूट पड़े सहसा
मस्तक-रक्त ही बह उठा नासिका में से।
हाय, हाय, पितः पितः ओ,
चिंता में इतने न उलझो
हम अभी जिंदा हैं जिंदा,
चिंता क्या है !!
मैं उस पाषाण-मूर्ति के ठंडे
पैरों की छाती से बरबस चिपका
रुआँसा-सा होता
देह में तन गये करुणा के काँटे
छाती पर, सिर पर, बाँहों पर मेरे
गिरती हैं नीली
बिजली की चिनगियाँ
रक्त टपकता है हृदय में मेरे
आत्मा में बहता-सा लगता
खून का तालाब।
इतने में छाती के भीतर ठक्-ठक्
सिर में है धड़-धड़ !! कट रही हड्डी !!
फिक्र जबरदस्त !!
विवेक चलाता तीखा-सा रंदा
चल रहा बसूला
छीले जा रहा मेरा निजत्व ही कोई
भयानक जिद कोई जाग उठी मेरे भी अंदर
हठ कोई बड़ा भारी उठ खड़ा हुआ है।
इतने में आसमान काँपा व धाँय-धाँय
बंदूक-धड़ाका
बिजली की रफ्तार पैरों में घूम गयी।
खोहों-सी गलियों के अँधेरे में एक ओर
मैं थक बैठ गया,
सोचने-विचारने।

अँधेरे में डूबे मकानों के छप्परों के पार से
रोने की पतली-सी आवाज
सूने में काँप रही काँप रही दूर तक
कराहों की लहरों में पाशव प्राकृत
वेदना भयानक थरथरा रही है।
मैं उसे सुनने का करता हूँ यत्न
कि देखता क्या हूँ -
सामने मेरे
सर्दी में बोरे को ओढ़कर
कोई एक अपने
हाथ-पैर समेटे
काँप रहा, हिल रहा - वह मर जायगा।
इतने में वह सिर खोलता है सहसा
बाल बिखरते
दीखते हैं कान कि
फिर मुँह खोलता है, वह कुछ
बुदबुदा रहा है,
किंतु मैं सुनता ही नहीं हूँ।
ध्यान से देखता हूँ - वह कोई परिचित
जिसे खूब देखा था, निरखा था कई बार
पर पाया नहीं था।
अरे हाँ, वह तो...
विचार उठते ही दब गये,
सोचने का साहस सब चला गया है।
वह मुख - अरे, वह मुख, वे गाँधी जी !!
इस तरह पंगु !!
आश्चर्य !!
नहीं, नहीं वे जाँच-पड़ताल
रूप बदलकर करते हैं चुपचाप।
सुरागरसी-सी कुछ।
अँधेरे की स्याही में डूबे हुए देव को सम्मुख पाकर
मैं अति दीन हो जाता हूँ पास कि
बिजली का झटका
कहता है - "भाग जा, हट जा
हम हैं गुजर गये जमाने के चेहरे
आगे तू बढ़ जा।"
किंतु मैं देखा किया उस मुख को।
गंभीर दृढ़ता की सलवटें वैसी ही,
शब्दों में गुरुता।

वे कह रहे हैं -
"दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट
कोई भी मुरगा
यदि बाँग दे उठे जोरदार
बन जाये मसीहा"
वे कह रहे हैं -
''मिट्टी के लोंदे में किरगीले कण-कण
गुण हैं,
जनता के गुणों से ही संभव
भावी का उद्भव...''
गंभीर शब्द वे और आगे बढ़ गये,
जाने क्या कह गये!!
मैं अति उद्विग्न!

एकाएक उठ पड़ा आत्मा का पिंजर
मूर्ति की ठठरी।
नाक पर चश्मा, हाथ में डंडा,
कंधे पर बोरा, बाँह में बच्चा।
आश्चर्य ! अद्भुत ! यह शिशु कैसे !!
मुसकरा उस द्युति-पुरुष ने कहा तब -
"मेरे पास चुपचाप सोया हुआ यह था।
सँभालना इसको, सुरक्षित रखना"

मैं कुछ कहने को होता हूँ इतने में वहाँ पर
कहीं कोई नहीं है, कहीं कोई नहीं है :
और ज्यादा गहरा व और ज्यादा अकेला
अँधेरे का फैलाव!
बालक लिपटा है मेरे इस गले से चुपचाप,
छाती से कंधे से चिपका है नन्हा-सा आकाश
स्पर्श है सुकुमार प्यार-भरा कोमल
किंतु है भार का गंभीर अनुभव
भावी की गंध और दूरियाँ अँधेरी
आकाशी तारों को साथ लिये हुए मैं
चला जा रहा हूँ
घुसता ही जाता हूँ फासलों की खोहों तहों में।

सहसा रो उठा कंधे पर वह शिशु
अरे, अरे, वह स्वर अतिशय परिचित !!
पहले भी कई बार कहीं तो भी सुना था,
उसमें तो स्फोटक क्षोभ का आयेगा,
गहरी है शिकायत,
क्रोध भयंकर।
मुझे डर यदि कोई वह स्वर सुन ले
हम दोनों फिर कहीं नहीं रह सकेंगे।
मैं पुचकारता हूँ, बहुत दुलारता,
समझाने के लिए तब गाता हूँ गाने,
अधभूली लोरी ही होठों से फूटती !
मैं चुप करने की जितनी भी करता हूँ कोशिश,
और-और चीखता है क्रोध से लगातार !!
गरम-गरम अश्रु टपकते हैं मुझपर।
किंतु, न जाने क्यों खुश बहुत हूँ।
जिसको न मैं जीवन में कर पाया,
वह कर रहा है।
मैं शिशु-पीठ को थपथपा रहा हूँ,
आत्मा है गीली।
पैर आगे बढ़ रहे, मन आगे जा रहा।
डूबता हूँ मैं किसी भीतरी सोच में -
हृदय के थाले में रक्त का तालाब,
रक्त में डूबी हैं द्युतिमान् मणियाँ,
रुधिर से फूट रहीं लाल-लाल किरणें,
अनुभव-रक्त में डूबे हैं संकल्प,
और ये संकल्प
चलते हैं साथ-साथ।
अँधियारी गलियों में चला जा रहा हूँ।

इतने में पाता हूँ अँधेरे में सहसा
कंधे पर कुछ नहीं !!
वह शिशु
चला गया जाने कहाँ,
और अब उसके ही स्थान पर
मात्र हैं सूरज-मुखी-फूल-गुच्छे।
उन स्वर्ण-पुष्पों से प्रकाश-विकीरण
कंधों पर, सिर पर, गालों पर, तन पर,
रास्ते पर, फैले हैं किरणों के कण-कण।
भई वाह, यह खूब !!

इतने गली एक आ गयी और मैं
दरवाजा खुला हुआ देखता।
जीना है अँधेरा।
कहीं कोई ढिबरी-सी टिमटिमा रही है!
मैं बढ़ रहा हूँ
कंधों पर फूलों के लंबे वे गुच्छे
क्या हुए, कहाँ गये?
कंधे क्यों वजन से दुख रहे सहसा।
ओ हो,
बंदूक आ गयी
वाह वा... !!
वजनदार रॉयफल
भई खूब !!
खुला हुआ कमरा है साँवली हवा है,
झाँकते हैं खिड़कियों में से दूर अँधेरे में टँके हुए सितारे
फैली है बर्फीली साँस-सी वीरान,
तितर-बितर सब फैला है सामान।
बीच में कोई जमीन पर पसरा,
फैलाये बाँहें, ढह पड़ा आखिर।
मैं उस जन पर फैलाता टार्च कि यह क्या -
खून भरे बाल में उलझा है चेहरा,
भौहों के बीच में गोली का सूराख,
खून का परदा गालों पर फैला,
होठों पर सूखी है कत्थई धारा,
फूटा है चश्मा नाक है सीधी,
ओफ्फो !! एकांत-प्रिय यह मेरा
परिचित व्यक्ति है, वहीं, हाँ,
सचाई थी सिर्फ एक अहसास
वह कलाकार था
गलियों के अँधेरे का, हृदय में, भार था
पर, कार्य क्षमता से वंचित व्यक्ति,
चलाता था अपना असंग अस्तित्व।
सुकुमार मानवीय हृदयों के अपने
शुचितर विश्व के मात्र थे सपने।
स्वप्न व ज्ञान व जीवनानुभव जो -
हलचल करता था रह-रह दिल में
किसी को भी दे नहीं पाया था वह तो।
शून्य के जल में डूब गया नीरव
हो नहीं पाया उपयोग उसका।
किंतु अचानक झोंक में आकर क्या कर गुजरा कि
संदेहास्पद समझा गया और
मारा गया वह बधिकों के हाथों।
मुक्ति का इच्छुक तृषार्त अंतर
मुक्ति के यत्नों के साथ निरंतर
सबका था प्यारा।
अपने में द्युतिमान।
उनका यों वध हुआ,
मर गया एक युग,
मर गया एक जीवनादर्श !!
इतने में मुझको ही चिढ़ाता है कोई।
सवाल है - मैं क्या करता था अब तक,
भागता फिरता था सब ओर।
(फिजूल है इस वक़्त कोसना खुद को)
एकदम जरूरी-दोस्तों को खोजूँ
पाऊँ मैं नये-नये सहचर
सकर्मक सत्-चित्-वेदना-भास्कर!!

जीने से उतरा
एकाएक विद्रूप रूपों से घिर गया सहसा
पकड़ मशीन-सी,
भयानक आकार घेरते हैं मुझको,
मैं आततायी-सत्ता के सम्मुख।

एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ !!
भयानक सनसनी।
पकड़कर कॉलर गला दबाया गया।
चाँटे से कनपटी टूटी कि अचानक
त्वचा उखड़ गयी गाल की पूरी।
कान में भर गयी
भयानक अनहद-नाद की भनभन।
आँखों में तैरीं
रक्तिम तितलियाँ, चिनगियाँ नीली।
सामने ऊगते-डूबते धुँधले
कुहरिल वर्तुल,
जिनका कि चक्रिल केंद्र ही फैलता जाता
उस फैलाव में दीखते मुझको
धँस रहे, गिर रहे बड़े-बड़े टॉवर
घुँघराला धूआँ, गेरूआ ज्वाला।
हृदय में भगदड़ -
सम्मुख दीखा
उजाड़ बंजर टीले पर सहसा
रो उठा कोई, रो रहा कोई
भागता कोई सहायता देने।
अंतर्तत्त्वों का पुनर्प्रबंध और पुनर्व्यवस्था
पुनर्गठन-सा होता जा रहा।

दृश्य ही बदला, चित्र बदल गया
जबरन ले जाया गया मैं गहरे
अँधियारे कमरे के स्याह सिफर में।
टूटे-से स्टूल में बिठाया गया हूँ।
शीश की हड्डी जा रही तोड़ी।
लोहे की कील पर बड़े हथौड़े
पड़ रहे लगातार।
शीश का मोटा अस्थि-कवच ही निकाल डाला।
देखा जा रहा -
मस्तक-यंत्र में कौन विचारों की कौन-सी ऊर्जा,
कौन-सी शिरा में कौन-सी धक्-धक्,
कौन-सी रग में कौन-सी फुरफुरी,
कहाँ है पश्यत् कैमरा जिसमें
तथ्यों के जीवन-दृश्य उतरते,
कहाँ-कहाँ सच्चे सपनों के आशय
कहाँ-कहाँ क्षोभक-स्फोटक सामान!
भीतर कहीं पर गड़े हुए गहरे
तलघर अंदर
छिपे हुए प्रिंटिंग प्रेस को खोजो।
जहाँ कि चुपचाप खयालों के परचे
छपते रहते हैं, बाँटे जाते।
इस संस्था के सेक्रेट्री को खोज निकालो,
शायद, उसका ही नाम हो आस्था,
कहाँ है सरगना इस टुकड़ी का
कहाँ है आत्मा?
(और, मैं सुनता हूँ चिढ़ी हुई ऊँची
खिझलायी आवाज)
स्क्रीनिंग करो - मिस्टर गुप्ता,
क्रॉस एक्जामिन हिम थॉरोली !!

चाबुक-चमकार
पीठ पर यद्यपि
उखड़े चर्म की कत्थई-रक्तिम रेखाएँ उभरीं
पर, यह आत्मा कुशल बहुत है,
देह में रेंग रही संवेदना की गरमीली कड़ुई धारा गहरी
झनझन थरथर तारों को उसके,
समेटकर वह सब
वेदना-विस्तार करके इकट्ठा
मेरा मन यह
जबरन उसकी छोटी-सी कड्ढी
गठान बाँधता सख्त व मजबूत
मानो कि पत्थर।
जोर लगाकर,
उसी गठान को हथेलियों से
करता है चूर-चूर,
धूल में बिखरा देता है उसको।
मन यह हटता है देह की हद से
जाता है कहीं पर अलग जगत् में।
विचित्र क्षण है,
सिर्फ है जादू,
मात्र मैं बिजली
यद्यपि खोह में खूँटे बँधा हूँ
दैत्य है आस-पास
फिर भी बहुत दूर मीलों के पार वहाँ
गिरता हूँ चुपचाप पत्र के रूप में
किसी एक जेब में
वह जेब...
किसी एक फटे हुए मन की।

समस्वर, समताल,
सहानुभूति की सनसनी कोमल !!
हम कहाँ नहीं हैं
सभी जगह हम।
निजता हमारी ?
भीतर-भीतर बिजली के जीवित
तारों के जाले,
ज्वलंत तारों की भीषण गुत्थी,
बाहर-बाहर धूल-सी भूरी
जमीन की पपड़ी
अग्नि को लेकर, मस्तक हिमवत्,
उग्र प्रभंजन लेकर, उर यह
बिलकुल निश्चल।
भीषण शक्ति को धारण करके
आत्मा का पोशाक दीन व मैला।
विचित्र रूपों को धारण करके
चलता है जीवन, लक्ष्यों के पथ पर।


7

रिहा !!
छोड़ दिया गया मैं,
कई छाया-मुख अब करते हैं पीछा,
छायाकृतियाँ न छोड़ती हैं मुझको,
जहाँ-जहाँ गया वहाँ
भौंहों के नीचे के रहस्यमय छेद
मारते हैं संगीन -
दृष्टि की पत्थरी चमक है पैनी।
मुझे अब खोजने होंगे साथी -
काले गुलाब व स्याह सिवंती,
श्याम चमेली,
सँवलाये कमल जो खोहों के जल में
भूमि के भीतर पाताल-तल में
खिले हुए कबसे भेजते हैं संकेत
सुझाव-संदेश भेजते रहते !!
इतने में सहसा दूर क्षितिज पर
दीखते हैं मुझको
बिजली की नंगी लताओं से भर रहे
सफेद नीले मोतिया चंपई फूल गुलाबी
उठते हैं वहीं पर हाथ अकस्मात्
अग्नि के फूलों को समेटने लगते।
मैं उन्हें देखने लगता हूँ एकटक,
अचानक विचित्र स्फूर्ति से मैं भी
जमीन पर पड़े हुए चमकीले पत्थर
लगातार चुनकर
बिजली के फूल बनाने की कोशिश
करता हूँ। रश्मि-विकिरण -
मेरे भी प्रस्तर करते हैं प्रतिक्षण।
रेडियो-एक्टिव रत्न हैं वे भी।
बिजली के फूलों की भाँति ही
यत्न हैं वे भी,
किंतु, असंतोष मुझको है गहरा,
शब्दाभिव्यक्ति-अभाव का संकेत।
काव्य-चमत्कार उतना ही रंगीन
परंतु, ठंडा।
मेरे भी फूल हैं तेजस्क्रिय, पर
अतिशय शीतल।
मुझको तो बेचैन बिजली की नीली
ज्वलंत बाँहों में बाँहों को उलझा
करनी है उतनी ही प्रदीप्त लीला
आकाश-भर में साथ-साथ उसके घूमना है मुझको
मेरे पास न रंग है बिजली का गौर कि
भीमाकार हूँ मेघ मैं काला
परंतु, मुझको है गंभीर आवेश
अथाह प्रेरणा-स्रोत का संयम।
अरे, इन रंगीन पत्थर-फूलों से मेरा
काम नहीं चलेगा !!
क्या कहूँ,
मस्तक-कुंड में जलती
सत्-चित्-वेदना-सचाई व गलती -
मस्तक शिराओं में तनाव दिन-रात।

अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक
ले जाने उसको धँसना ही होगा
झील के हिम-शीत सुनील जल में
चाँद उग गया है
गलियों की आकाशी लंबी-सी चीर में
तिरछी है किरनों की मार
उस नीम पर
जिसके कि नीचे
मिट्टी के गोल चबूतरे पर, नीली
चाँदनी में कोई दिया सुनहला
जलता है मानो कि स्वप्न ही साक्षात्
अदृश्य साकार।
मकानों के बड़े-बड़े खंडहर जिनके कि सूने
मटियाले भागों में खिलती ही रहती
महकती रातरानी फूल-भरी जवानी में लज्जित
तारों की टपकती अच्छी न लगती।

भागता मैं दम छोड़
घूम गया कई मोड़,
ध्वस्त दीवालों के उस पार कहीं पर
बहस गरम है
दिमाग में जान है, दिलों में दम है
सत्य से सत्ता के युद्ध को रंग है,
पर कमजोरियाँ सब मेरे संग हैं,
पाता हूँ सहसा -
अँधेरे की सुरंग-गलियों में चुपचाप
चलते हैं लोग-बाग
दृढ़-पद गंभीर,
बालक युवागण
मंद-गति नीरव
किसी निज भीतरी बात में व्यस्त हैं,
कोई आग जल रही तो भी अंत:स्थ।

विचित्र अनुभव !!
जितना मैं लोगों की पाँतों को पार कर
बढ़ता हूँ आगे,
उतना ही पीछे मैं रहता हूँ अकेला,
पश्चात्-पद हूँ।
पर, एक रेला और
पीछे से चला और
अब मेरे साथ है।
आश्चर्य !! अद्भुत !!
लोगों की मुट्ठियाँ बँधी हैं।
अँगुली-संधि से फूट रहीं किरनें
लाल-लाल
यह क्या !!
मेरे ही विक्षोभ-मणियों को लिये वे,
मेरे ही विवेक-रत्नों को लेकर,
बढ़ रहे लोग अँधेरे में सोत्साह।
किंतु मैं अकेला।
बौद्धिक जुगाली में अपने से दुकेला।

गलियों के अँधेरे में मैं भाग रहा हूँ,
इतने में चुपचाप कोई एक
दे जाता पर्चा,
कोई गुप्त शक्ति
हृदय में करने-सी लगती है चर्चा !!
मैं बहुत ध्यान से पढ़ता हूँ उसको !
आश्चर्य!
उसमें तो मेरे ही गुप्त विचार व
दबी हुई संवेदनाएँ व अनुभव
पीड़ाएँ जगमगा रही हैं।
यह सब क्या है !!

आसमान झाँकता है लकीरों के बीच-बीच
वाक्यों की पाँतों में आकाशगंगा-फैली
शब्दों के व्यूहों में ताराएँ चमकीं
तारक-दलों में भी खिलता है आँगन
जिसमें कि चंपा के फूल चमकते
शब्दाकाशों के कानों में गहरे तुलसी श्यामल खिलते हैं
            चेहरे !!
चमकता है आशय मनोज्ञ मुखों से
पारिजात-पुष्प महकते।

पर्चा पढ़ते हुए उड़ता हूँ हवा में,
चक्रवात-गतियों में घूमता हूँ नभ पर,
जमीन पर एक साथ
सर्वत्र सचेत उपस्थित।
प्रत्येक स्थान पर लगा हूँ मैं काम में,
प्रत्येक चौराहे, दुराहे व राहों के मोड़ पर
सड़क पर खड़ा हूँ,
मानता हूँ, मानता हूँ, मनवाता अड़ा हूँ !!

और तब दिक्काल-दूरियाँ
अपने ही देश के नक्शे-सी टँगी हुई
रँगी हुई लगतीं !!
स्वप्नों की कोमल किरनें कि मानो
घनीभूत संघनित द्युतिमान
शिलाओं में परिणत
ये दृढ़ीभूत कर्म-शिलाएँ हैं
जिनसे की स्वप्नों की मूर्ति बनेगी
सस्मित सुखकर
जिसकी कि किरनें,
ब्रह्मांड-भर में नापेंगी सब कुछ!
सचमुच, मुझको तो जिंदगी-सरहद
सूर्यों के प्रांगण पार भी जाती-सी दीखती !!
मैं परिणत हूँ,
कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज चल नहीं सकता।
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,
स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,
जन को।


8

एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ !!
नगर से भयानक धुआँ उठ रहा है,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
सड़कों पर मरा हुआ फैला है सुनसान,
हवाओं में अदृश्य ज्वाला की गरमी
गरमी का आवेग।
साथ-साथ घूमते हैं, साथ-साथ रहते हैं,
साथ-साथ सोते हैं, खाते हैं, पीते हैं,
जन-मन उद्देश्य !!
पथरीले चेहरों के खाकी ये कसे ड्रेस
घूमते हैं यंत्रवत्,
वे पहचाने-से लगते हैं वाकई
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!

सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्
चिंतक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं
उनके खयाल से यह सब गप है
मात्र किंवदंती।
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे।
प्रश्न की उथली-सी पहचान
राह से अनजान
वाक् रुदंती।
चढ़ गया उर पर कहीं कोई निर्दयी,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।

भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गये
समाचारपत्रों के पतियों के मुख स्थूल।
गढ़े जाते संवाद,
गढ़ी जाती समीक्षा,
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर-शूर।
बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास,
किराये के विचारों का उद्भास।
बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियाँ पुत गयीं।
नपुंसक श्रद्धा
सड़क के नीचे की गटर में छिप गयी,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।

धुएँ के जहरीले मेघों के नीचे ही हर बार
द्रुत निज-विश्लेष-गतियाँ,
एक स्प्लिट सेकेंड में शत साक्षात्कार।
टूटते हैं धोखों से भरे हुए सपने।
रक्त में बहती हैं शान की किरनें
विश्व की मूर्ति में आत्मा ही ढल गयी,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।

राह के पत्थर-ढोकों के अंदर
पहाड़ों के झरने
तड़पने लग गये।
मिट्टी के लोंदे के भीतर
भक्ति की अग्नि का उद्रेक
भड़कने लग गया।
धूल के कण में
अनहद नाद का कंपन
खतरनाक !!
मकानों के छत से
गाडर कूद पड़े धम से।
घूम उठे खंभे
भयानक वेग से चल पड़े हवा में।
दादा का सोंटा भी करता दाँव-पेंच
नाचता है हवा में
गगन में नाच रही कक्का की लाठी।
यहाँ तक कि बच्चे की पेंपें भी उड़तीं,
तेजी से लहराती घूमती है हवा में
सलेट पट्टी।
एक-एक वस्तु या एक-एक प्राणाग्नि-बम है,
ये परमास्त्र हैं, प्रक्षेपास्त्र हैं, यम हैं।
शून्याकाश में से होते हुए वे
अरे, अरि पर ही टूट पड़े अनिवार।
यह कथा नहीं है, यह सब सच है, हाँ भई !!
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!

किसी एक बलवान् तन-श्याम लुहार ने बनाया
कंडों का वर्तुल ज्वलंत मंडल।
स्वर्णिम कमलों की पाँखुरी-जैसी ही
ज्वालाएँ उठती हैं उससे,
और उस गोल-गोल ज्वलंत रेखा में रक्खा
लोहे का चक्का
चिनगियाँ स्वर्णिम नीली व लाल
फूलों-सी खिलतीं। कुछ बलवान् जन साँवले मुख के
चढ़ा रहे लकड़ी के चक्के पर जबरन
लाल-लाल लोहे की गोल-गोल पट्टी
घन मार घन मार,
उसी प्रकार अब
आत्मा के चक्के पर चढ़ाया जा रहा
संकल्प शक्ति के लोहे का मजबूत
ज्वलंत टायर !!
अब युग बदल गया है वाकई,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।

गेरुआ मौसम उड़ते हैं अंगार,
जंगल जल रहे जिंदगी के अब
जिनके कि ज्वलंत-प्रकाशित भीषण
फूलों में बहतीं वेदना नदियाँ
जिनके कि जल में
सचेत होकर सैकड़ों सदियाँ, ज्वलंत अपने
बिंब फेंकतीं‍‍ !!
वेदना नदियाँ
जिनमें कि डूबे हैं युगानुयुग से
मानो कि आँसू
पिताओं की चिंता का उद्विग्न रंग भी,
विवेक-पीड़ा की गहराई बेचैन,
डूबा है जिनमें श्रमिक का संताप।
वह जल पीकर
मेरे युवकों में होता जाता व्यक्तित्वांतर,
विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर,
मानो कि ज्वाला-पंखुरियों से घिरे हुए वे सब
अग्नि के शत-दल-कोष में बैठे !!
द्रुत-वेग बहती हैं शक्तियाँ निश्चयी।
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।

X X X

एकाएक फिर स्वप्न भंग
बिखर गये चित्र कि मैं फिर अकेला।
मस्तिष्क हृदय में छेद पड़ गये हैं।
पर उन दुखते हुए रंध्रों में गहरा
प्रदीप्त ज्योति का रस बस गया है।
मैं उन सपनों का खोजता हूँ आशय,
अर्थों की वेदना घिरती है मन में।
अजीब झमेला।
घूमता है मन उन अर्थों के घावों के आस-पास
आत्मा में चमकीली प्यास भर गयी है।
जग भर दीखती हैं सुनहली तस्वीरें मुझको
मानो कि कल रात किसी अनपेक्षित क्षण में ही सहसा
प्रेम कर लिया हो
जीवन भर के लिए !!
मानो कि उस क्षण
अतिशय मृदु किन्ही बाँहों ने आकर
कस लिया था इस भाँति कि मुझको
उस स्वप्न-स्पर्श की, चुंबन की याद आ रही है,
याद आ रही है !!
अज्ञात प्रणयिनी कौन थी, कौन थी?

कमरे में सुबह की धूप आ गयी है,
गैलरी में फैला है सुनहला रवि छोर
क्या कोई प्रेमिका सचमुच मिलेगी?
हाय ! यह वेदना स्नेह की गहरी
जाग गयी क्यों कर ?

सब ओर विद्युत्तरंगीय हलचल
चुंबकीय आकर्षण।
प्रत्येक वस्तु का निज-निज आलोक,
मानो कि अलग-अलग फूलों के रंगीन
अलग-अलग वातावरण हैं बेमाप,
प्रत्येक अर्थ की छाया में अन्य अर्थ
झलकता साफ-साफ !
डेस्क पर रखे हुए महान् ग्रंथों के लेखक
मेरी इन मानसिक क्रियाओं के बन गये प्रेक्षक,
मेरे इस कमरे में आकाश उतरा,
मन यह अंतरिक्ष-वायु में सिहरा।

उठता हूँ, जाता हूँ, गैलरी में खड़ा हूँ।
एकाएक वह व्यक्ति
आँखों के सामने
गलियों में, सड़कों पर, लोगों की भीड़ में
चला जा रहा है।
वही जन जिसे मैंने देखा था गुहा में।
धड़कता है दिल
कि पुकारने को खुलता है मुँह
कि अकस्मात् -
वह दिखा, वह दिखा
वह फिर खो गया किसी जन यूथ में...
उठी हुई बाँह यह उठी रह गयी !!

अनखोजी निज-समृद्धि का वह परम उत्कर्ष,
परम अभिव्यक्ति
मैं उसका शिष्य हूँ
वह मेरी गुरु है,
गुरु है !!
वह मेरे पास कभी बैठा ही नहीं था,
वह मेरे पास कभी आया ही नहीं था,
तिलस्मी खोह में देखा था एक बार,
आखिरी बार ही।
पर, वह जगत् की गलियों में घूमता है प्रतिपल
वह फटेहाल रूप।
तडित्तरंगीय वही गतिमयता,
अत्यंत उद्विग्न ज्ञान-तनाव वह
सकर्मक प्रेम की वह अतिशयता
वही फटेहाल रूप !!
परम अभिव्यक्ति
लगातार घूमती है जग में
पता नहीं जाने कहाँ, जाने कहाँ
वह है।
इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,
प्रत्येक गतिविधि
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति !!
खोजता हूँ पठार... पहाड़... समुंदर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-संभवा।
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