Saturday, May 14, 2022

राणा हम्मीर सिंह सिसोदिया - वीर योद्धा जिन्होंने तुगलक को ज़िन्दा बंदी बनाया

 


राणा हम्मीर सिंह (सन 1314–1364  ई )
या हम्मीरा
जो १४वीं शताब्दी में भारत के राजस्थान के मेवाड़ के एक वीर प्रतापी शासक थे।
१३वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत ने गुहिलों की सिसोदिया राजवंश की शाखा को मेवाड़ से सत्तारूढ़ कर दिया था, इनसे पहले गुहिलों की रावल शाखा का शासन था जिनके प्रथम शासक बप्पा रावल थे और अंतिम रावल रतन सिंह थे।
मेवाड़ राज्य के इस शासक को 'विषम घाटी पंचानन'(सकंट काल मे सिंह के समान) के नाम से जाना जाता है, राणा हम्मीर को विषम घाटी पंचानन की संज्ञा राणा कुम्भा ने कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति में दी।
सीसोद गाँव के ठाकुर राणा हम्मीर सिसोदिया वंश के प्रथम शासक थे, तथा इन्हें मेवाड़ का उद्धारक कहा जाता है।
 राणा हम्मीर ,महाराणा अरिसिंह के पुत्र तथा सामंत लक्ष्मणसिंह (लाखा) के पौत्र हैं, जिन्होंने अपनी सैन्य क्षमता के आधार पर मेवाड़ के खैरवाड़ा (उदयपुर) नामक स्थान को मुख्य केंद्र बनाया।
 राजस्थान के इतिहास में राणा हम्मीर ने चित्तौड़ से मुस्लिम सत्ता को उखाड़ने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। मेवाड़ की विषम परिस्थितियों के होते हुए भी इन्होंने चित्तौड़ पर विजयश्री प्राप्त की। इस प्रकार 1326 ई. में राणा हम्मीर को पुनः चित्तौड़ प्राप्त हुआ।
इसी कारण राणा हम्मीर को विषम घाटी पंचानन के नाम से जाना जाता है।

हम्मीर इनके अलावा सिसोदिया राजवंश [जो कि गुहिल वंश की ही एक शाखा है ]के प्रजनक भी बन गए थे, इसके बाद सभी महाराणा सिसोदिया राजवंश के ही रहे।

इन्होंने राजस्थान के चित्तौड़गढ़ ज़िले में स्थित चित्तौड़गढ़ दुर्ग में अन्नपूर्णा माता के मन्दिर का निर्माण भी करवाया था।
 राणा हम्मीर के शासनकाल में दिल्ली के सुल्तान मौहम्मद बिन तुगलक ने मेवाड़ पर आक्रमण किया।
दोनों के बीच सिंगोली नामक स्थान पर युद्ध लड़ा गया जिसे सिंगोली का युद्ध कहा जाता है। जिसमें हम्मीर सिंह ने तुगलक सेना को हराया और मुहम्मद बिन तुगलक को बंदी बना लिया।

वर्तमान में सिंगोली नामक स्थान उदयपुर में स्थित है।
 इस युद्ध के बाद मेवाड़ में राणा हम्मीर के दिन सामान्य रहे तथा 1364 ई. में इनकी मृत्यु हो गयी।
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यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' : परिचय

 

 


 

नाम यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र'

जन्म 1932  बीकानेर, राजस्थान

मृत्यु 3 मार्च, 2009 मृत्यु स्थान जयपुर

कर्म भूमि भारत कर्म-क्षेत्र
उपन्यासकार, नाटककार, कहानीकार

मुख्य रचनाएँ- 'तेरा मेरा उसका सच', 'सन्‍यासी और सुंदरी', 

'हज़ार घोडों पर सवार', 'मेरी प्रेम कहानियां', ‘एक और मुख्यमंत्री’ आदि। 

हिन्दी भाषा में लेखन । 'खून का टीका ' उपन्यास इनका पहल ऐतिहासिक उपन्यास है।

राजस्थानी पुरस्कार-उपाधि साहित्य अकादमी पुरस्कार

 'लाज राखो राणी सती' नामक पहली राजस्‍थानी फ़िल्‍म यादवेन्द्र शर्मा के लेखन का ही परिणाम थी। 'गुलाबडी', 'चकवे की बात' और 'विडम्‍बना' पर भी टेलीफ़िल्‍म का निर्माण हुआ था।

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Saturday, May 7, 2022

पेपरवेट / लेखक :गिरिराज किशोर

 

 

पेपरवेट
लेखक :गिरिराज किशोर


भेड़ों के रेवड़ के पीछे गड़रिये को लाठी लिए चलते देखकर मृणाल बाबू को हँसी आ रही थी। गड़रिया उनको इकट्ठा करने के लिए मुँह से अजीब-अजीब बोलियाँ निकाल रहा था। कभी अपनी लाठी को ज़मीन पर दे मारता था, भेड़ें बेचारी डर के मारे एक-दूसरे से सट जाती थीं।

जमादार (चपरासी) ने आकर बताया, 'हुज़ूर, साहब दफ़्तर आ गए हैं।' हालाँकि वे शिवनाथ बाबू से ही मिलने आए थे, लेकिन इस सूचना ने उन्हें क्षण-भर के लिए अव्यवस्थित कर दिया। तुरंत ही ध्यान आ गया, 'जमादार' उनके चेहरे के बदलते रंगों को बराबर देख रहा है। वे शिवनाथ बाबू के कमरे की तरफ़ तेज़ी से बढ़ गए। कमरे के बाहर 'लुकिंग-ग्लास' लगा हुआ था। एक नज़र उधर डालने पर उन्हें मालूम हुआ, कि वे ख़ामख़ाह परेशान थे कि उनके चेहरे पर घबराहट है। धीरे से पर्दा हटाकर पायदान पर पाँव रगड़े, और खखारते हुए-से अंदर चले गए।

शिवनाथ बाबू फ़ाइलें देखने में व्यस्त थे। उनके काम में व्यवधान न डालने के ख़याल से हाथ जोड़कर चुपचाप कुर्सी पर बैठ गए। बैठने के दो-चार क्षण बाद ही उन्हें ख़याल हुआ, आराम से न बैठकर उठंगे बैठे हैं। इस तरह का बैठना घबराहट का द्योतक है। मृणाल बाबू ने पीठ कुर्सी के तकिये से लगा ली और पाँव फैला दिए। उनके पाँव ऑफ़िस-टेबल के नीचे रखे लकड़ी के खोखले पायदान से टकराए। चेहरा एकदम उतर गया और नज़रें शिवनाथ बाबू के चेहरे की ओर चली गर्इं। शिवनाथ बाबू पर पायदान से पाँव टकराने की उस आवाज़ का कोई असर नहीं हुआ था। वे बदस्तूर अपनी फ़ाइलें देख रहे थे। मृणाल बाबू उनकी कार्य-कुशलता को ग़ौर से देखने का अभिनय करने लगे, जैसे कुछ सीखने का प्रयत्न कर रहे हों।

शिवनाथ बाबू फ़ाइल उठाते, लाल फीता खोलते, फिर 'फ़्लैग' लगे स्थान पर से उलटकर पढ़ने लगते थे। बीच-बीच में पीछे के पृष्ठ भी उलटने की आवश्यकता पड़ जाती थी। पढ़ते समय उनके होंठ भी व्यस्त नज़र आते थे। फिर या तो उस पर कोई नोट लिखकर या प्रश्नचिह्न बनाकर फ़ाइल नीचे डाल देते थे। बहुत ही कम ऐसी फ़ाइलें थीं जिन पर उन्होंने उसी रूप में हस्ताक्षर किए हों। इस क्रिया को देखते रहने के कारण मृणाल बाबू को ऊब आने लगी। अतः इधर-उधर ताक-झाँक करने लगे। चारों तरफ़ से बंद कमरा, जलता हुआ लैंप और लैंप के प्रकाश का फ़ाइलों पर पड़ता घेरा... किसी दार्शनिक के अंतस्तल-सा महसूस हुआ। बाक़ी कमरे में उस प्रकाश का आभास-मात्र था। बैठे-बैठे मृणाल बाबू को एक पुठ में दुखन महसूस होने लगी है, दूसरी पुठ बदल ली।

शिवनाथ बाबू ने फ़ाइलों पर से जब गर्दन उठाई तो मृणाल बाबू सकपका-से गए। शायद उनका ख़याल था शिवनाथ बाबू गर्दन उठाने से पूर्व कोई तो आभास देंगे। ज़बरदस्ती उन्हें अपने होंठों पर मुस्कान लानी पड़ी, उनके सूखे होंठ बोसीदा रबड़ की तरह खिंच गए। शिवनाथ बाबू ने मूँछों की सघनता में छिपी स्वाभाविक मुस्कान के साथ पूछा, 'कहिए, विभाग का काम ठीक चल रहा है?'

मृणाल बाबू वही सब बताने के लिए आए थे। दरअसल शिवनाथ बाबू के विदेश से लौटने के बाद से उन्होंने कई बार उनसे मिलने का प्रयत्न किया था, लेकिन अत्यधिक व्यस्तता के कारण समय नहीं दे पाए थे। विदेश जाते समय शिवनाथ बाबू उन्हें मंत्री पद की शपथ दिलवाकर गए थे। उस समय उनसे यह भी कहा था, 'मैं चाहता हूँ आप अपनी उसी तेज़ी और अक़्लमन्दी का यहाँ भी परिचय दें, आपकी अतिरिक्त तत्परता के कारण ही तो शांतिशरण को त्यागपत्र देना पड़ा था। मैं समझता हूँ...आप उन सब परिस्थितियों को भली प्रकार समझ सकेंगे।' फिर धीरे से मुस्कुराकर पुन: कहा, 'मैं इस बारे में सचेत हूँ...आप जैसे मेहनती और ईमानदार व्यक्ति कम ही हैं...' वे हवाई जहाज़ में बैठ गए थे। लगभग सभी लोग हवाई जहाज़ के उड़ने तक खड़े देखते रहे थे। शिवनाथ बाबू के चले जाने के कई दिन बाद तक उन्हें लगता रहा, पिता जैसे बच्चे को स्कूल में भरती कराकर चला गया है।

मृणाल बाबू ने उनकी उस बात की गिरह बाँध ली और इस बात की पूरी कोशिश की थी कि शिवनाथ बाबू के लौटकर आने तक विभाग को पूरी तरह बदल डालें। हर फ़ाइल को वह स्वयं देखते थे। कोई भी फ़ाइल पंद्रह दिन से अधिक न रुके, इस बात के लिए विभाग को सख़्त आदेश थे।

शिवनाथ बाबू के विदेश से लौटने के बाद उन्होंने इस बात को महसूस किया, कैबिनेट की मीटिंग में उन्होंने सब मंत्रियों के काम की किसी-न-किसी रूप में सराहना की है। मृणाल बाबू के विभाग के बारे में उन्होंने एक शब्द नहीं कहा था। विभाग के काम में भी एक अजीब तरह का परिवर्तन आ रहा था। जो भी फ़ाइल विभाग से माँगी जाती थी, पता चलता था मुख्यमंत्री के पास है। सचिव को पूछते थे, वह भी मुख्यमंत्री के यहाँ गया हुआ होता था। मृणाल बाबू के मन में यह निश्चय हो गया था, सचिव की बदमाशी है। मुख्यमंत्री को बात करनी होगी, तो विभाग के मंत्री को बुलाकर बात करेंगे। वे यह भी सुन चुके थे कि वह व्यक्ति मुख्यमंत्री के मुँह लगा है।

शिवनाथ बाबू ने गर्दन उठाकर कॉल-बेल बजाते हुए उनकी ओर मुख़ातिब होकर कहा 'आपने कुछ बताया नहीं... क्या बात थी?' घंटी सुनकर वही जमादार आ गया। उसने एक नज़र मृणाल पर भी डाली। शिवनाथ बाबू ने मृणाल बाबू की ओर इशारा करते हुए जमादार से कहा, 'ज़रा आपके सचिव... मिस्टर राय से टेलीफ़ोन मिलाओ... हम बात करेंगे।'

उनके बैठे हुए, विभाग के सचिव को बुलाया जाना उन्हें अच्छा नहीं लगा। लेकिन चुप रहे। शिवनाथ बाबू ने अपनी तरफ़ आँखों का इशारा करके 'हूँ' करने पर मृणाल बाबू ने पूछा, 'मिस्टर राय से... कोई विभाग का काम है?' शिवनाथ बाबू कुछ इस तरह अपनी फ़ाइलें देखते रहे, जैसे उन्होंने सुना ही न हो। क्षण-भर के लिए मृणाल बाबू का चेहरा खिसियाना-सा हो गया। कुछ देर के बाद फिर हिम्मत करके बोले, 'इधर मैंने अपने विभाग में... यानी विभाग को काफ़ी समझने की कोशिश की है... कई स्कीमें मेरे दिमाग़ में हैं...'

उनका वाक्य समाप्त होने के बाद शिवनाथ बाबू ने बड़ी-सी 'हूँ' की। मृणाल बाबू समझ नहीं पाए यह 'हूँ' उनकी बात पर की गई है या फ़ाइल देखकर मुँह से निकल गई। फ़ाइल बाँधते हुए वे मुस्कुराए और बोले, 'अच्छा।'

'अच्छा' सुनकर मृणाल बाबू ज़रा उत्साहित हो गए, कहने लगे, 'मिस्टर राय बिल्कुल सहयोग नहीं दे रहे। कोई भी फ़ाइल मेरे सामने नहीं आती। माँगने पर यही उत्तर मिलता है, मुख्यमंत्री के यहाँ गई हुई है। भला आप फ़ाइलें मँगाकर क्या करेंगे? आख़िर आपने ही तो मुझे मंत्री बनाया है... आपका विश्वासपात्र हूँ। लेकिन मिस्टर राय... आप तो जानते ही हैं, बड़े चलते हुए व्यक्ति... फिर रुककर सकुचाते हुए कहा, 'मिस्टर राय समझते हैं, मुझे यह सब आपसे कहते डर लगेगा... नया-नया आदमी हूँ...'

शिवनाथ बाबू को पुनः फ़ाइलों में व्यस्त देखकर मृणाल बाबू को अपने प्रति ज़ियादती-सी होती महसूस हुई। जब जमादार ने आकर बताया कि राय साहब कोठी पर नहीं हैं। मंदिर गए हैं, शिवनाथ बाबू बिना कुछ कहे कुर्सी पर से उठ खड़े हुए। मृणाल बाबू की ओर हाथ जोड़कर बोले, 'अच्छा'...।'

मृणाल बाबू को लगा कि उन्हें कोठी से धक्के देकर निकलवा दिया गया है। तेज़ी के साथ कमरे से बाहर निकल आए। बाहर निकलते ही उनकी नज़र जमादार पर गई। वह बड़े हाव-भाव के साथ उनके ड्राइवर को कुछ बता रहा था। उसके चेहरे पर कुछ इस प्रकार की हँसी थी, जैसे किसी की नक़ल उतारकर मज़ा ले रहा हो। उसका इस तरह करना मृणाल बाबू को अच्छा नहीं लगा। कार में बैठने पर ड्राइवर से पूछा, 'जमादार क्या कह रहा था?'

ड्राइवर इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था। वह घबरा-सा गया और उसके मुँह से निकला, 'जी, कुछ नहीं।'

'कुछ कैसे नहीं...' मृणाल बाबू ने ज़रा सख़्त आवाज़ से उसी का वाक्य दोहराया।

ड्राइवर ने यह कहकर जान बचानी चाही, 'कुछ आपस की ही बातें थीं।' मृणाल बाबू को इस सबसे संतोष नहीं हुआ ज़रा खुलकर पूछा, 'हमारे बारे में कुछ कह रहा था?'

ड्राइवर ने उनकी तरफ़ देखने के लिए ज़रा-सी गर्दन घुमाई, वे पिछली सीट पर बाएँ कोने में थे। सामने ऊपर का शीशा भी दूसरे कोण पर था। ड्राइवर को सामने की तरफ़ ही देखते हुए कहना पड़ा, 'हुज़ूर, और तो कुछ नहीं... बस यही पूछ रहा था, मुख्यमंत्री जी तुम्हारे साहब से क्यों नाराज़ हैं... अभी-अभी तो तुम्हारे साहब मंत्री बने हैं।'

मृणाल बाबू को बड़े ज़ोर से ग़ुस्सा आया। उन्होंने कहना चाहा, शिवनाथ बाबू, मुझसे क्या नाराज़ होगा... मैं ही उससे नाराज़ हूँ...' उन्होने कहा नहीं। केवल आँखें बंद करके पीछे की ओर लुढ़क गए। आँखें बंद कर लेने पर भी उनके मन का आक्रोश कम नहीं हुआ, नाक के नथुने फूल गए और यह सोचने का प्रयत्न करने लगे, घर जाकर त्यागपत्र दे देंगे। मंत्री बनने से पूर्व शिवनाथ बाबू का जो उनके साथ व्यवहार था, अब एकदम उससे भिन्न है। उन्हें एकाएक आभास हुआ, वे आप-ही-आप कुछ बोल रहे हैं। सीधे बैठ गए और ड्राइवर की तरफ़ देखने लगे, उसने देख तो नहीं लिया। लेकिन जब उनकी नज़र सामने वाले शीशे पर पड़ी, तो शीशे का कोण बदला हुआ था। सब स्थितियों उन्हें ऐसी लगी, जैसे बंदी बना दिए गए हों।

आज की परिस्थिति पहले से एकदम भिन्न हो गई थी। जब शिवनाथ बाबू उन्हें मंत्री-पद के लिए आमंत्रित करने गए थे, तो कितने मधुर, स्नेहशील नज़र आ रहे थे। मृणाल बाबू को उनका वह डायलाग शब्दशः याद हो आया, उस समय उनसे कहा गया था, 'मैं जानता हूँ आप स्पष्टवादी और ईमानदार हैं। 'पार्टी-सचेतक के होते हुए भी आपने मेरी सरकार का विरोध किया। शांतिशरण को आपके ही कारण त्यागपत्र देना पड़ गया..' यह कहते हुए वह साधारण-सा हँस दिए थे। फिर गंभीर होकर कहा था, 'यदि मैं चाहता तो आपको पार्टी और सदन से निष्कासित करा सकता था। लेकिन मैं जानता हूँ, अपने विधायकों में आप जैसी सूझ-बूझ वाला व्यक्ति कोई भी नहीं...' शपथ वाले दिन भी राज्यपाल से परिचय कराते समय उन्होंने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। शपथ वाले दिन राजभवन तक ले जाने के लिए मय-पायलेट के अपनी गाड़ी भेजी थी। मृणाल बाबू सोचने लगे, उस समय उनके चेहरे पर बालक जैसी सरलता और निस्पृहता थी, लेकिन आज का चेहरा...

ड्राइवर ने इतनी ज़ोर से ब्रेक लगाया कि मृणाल बाबू को लगा, एक्सीडेंट हो गया है। कोई बकरी का बच्चा कार के नीचे से बच गया था। मृणाल बाबू को बकरी के बच्चे पर बड़ी दया आई।

उनकी कार पोर्टिको में जाकर रुकी, बरांडे में बहुत-से लोग जमा थे। उनका मन हुआ, कार से उतरकर वापस लौट चला जाए। वे लोग पहले रोज़ भी मिल चुके थे। मृणाल बाबू ने उन्हें अगले दिन उत्तर देने का आश्वासन दिया था। उनका ख़याल था कि वे सरकार को उन लोगों की शर्त मानने के लिए रज़ामंद कर लेंगे। एक औद्योगिक बस्ती का मसला था। सरकार जिन झोपड़ियों को लेना चाहती थी, उनमें रहनेवाले मुआवज़े में फैक़्टरी की पक्की नौकरी और रहने के लिए औद्योगिक बस्ती में कम किराये पर घर माँगते थे। सरकार को इस बात पर आपत्ति थी। मात्र मुआवज़ा देकर पीछा छुड़ा लेना चाहती थी। यही मसला शांतिशरण के ज़माने में उठा था, आज भी उसी रूप में मौजूद था। इसी मामले पर बातचीत करने के लिए वे मुख्यमंत्री के पास गए भी थे। प्रतिनिधि-मंडल के चले जाने पर भी उन्होंने सचिव को फ़ोन किया था कि उस मामले की फ़ाइल लेकर चले आए। सचिव ने यह कहकर पीछा छुड़ा लिया था, फ़ाइल मुख्यमंत्री के पास है। मृणाल बाबू को उत्तर सुनकर इतने ज़ोर का ग़ुस्सा आ गया था कि सचिव को फ़ोन पर ही डाँटने लगे थे। कोई भी फ़ाइल बिना उनकी मर्ज़ी के मुख्यमंत्री के पास न भेजी जाए। उनकी इस बात का कोई भी उत्तर देना सचिव ने उचित नहीं समझा था।

लेकिन मुख्यमंत्री के व्यवहार से मृणाल बाबू काफ़ी त्रसित थे। औद्योगिक बस्ती के बारे में बात न कर पाने से व अपने आपको एक बड़ी अजीब स्थिति में फँसा महसूस कर रहे थे। उन्होंने यही निश्चय किया कि उन लोगों को मुख्यमंत्री के पास भेज देना उचित होगा। बिना शिवनाथ बाबू से सलाह किए किसी बात का आश्वासन देने का अर्थ यही था कि वे अपने को भी शांतिशरण वाली उलझन (कन्ट्रॉवर्सी) में डाल लें।

मृणाल बाबू ने जब उन लोगों को मुख्यमंत्री से मिलने का सुझाव दिया तो उनमें से एक विरोधी पार्टी के विधायक और डेपुटेशन के नेता बिगड़ उठे, आप भी शांतिशरण जैसी ही बातें कर रहे हैं। आख़िर विभाग आपके पास है या मुख्यमंत्री के! मुख्यमंत्री कहते हैं, आप लोग शांतिशरण को तो बेईमान और कम-अक़्ल समझते थे। अब तो मैंने विधानसभा के सबसे ईमानदार और आप लोगों के विश्वासपात्र को उसी विभाग का मंत्री बना दिया। अब भी आप मेरे पास ही दौड़ते हैं।...' मृणाल बाबू ख़ामोश-से खड़े रह गए। उनको लगा दरवाज़ा खोलते हुए किवाड़ की चूल निकल गई है। मन हुआ, साफ़ कह दें, मैं तो नाम का मिनिस्टर हूँ... लेकिन सबके सामने अपने मुँह से यह स्वीकार करना उन्हें अपमानजनक-सा लगा। अतः यही उत्तर देना उचित समझा, 'अच्छा, आप निश्चिन्त रहें... अगर मैं कुछ भी कर सकूँगा तो ज़रूर करूँगा...' नमस्कार करके अंदर चले गए।

मृणाल बाबू को ऐसा अनुभव हो रहा था कि उन्हें किसी ख़ासतौर से तैयार की गई स्थिति में फिट कर दिया गया है। एक बार फिर त्यागपत्र देने की बात दिमाग़ में आई। लेकिन...' यह लेकिन उन्हें पहाड़ की ऊँचाई जैसा लगा। वह उस संपूर्ण स्थिति की कल्पना कर गए जो त्यागपत्र देने से उत्पन्न हो सकती है। अगर शिवनाथ बाबू ने उनके लिए किसी भी स्थिति-विशेष का निर्माण किया है तो भी त्यागपत्र देना उन्हीं के पक्ष में होगा। लोग कहेंगे विधान-भवन में तो बड़ा शोर मचाता था...काम करने का वक़्त आया तो दुम कटाकर लॉडा शेर बन गया। इस बात का प्रचार इस रूप में भी किया जा सकता है...'त्यागपत्र माँगा गया है।'
====================till here 14 minutes story recorded
उन्होंने मेज़ पर रखे पेपरवेट को उठा लिया और ज़ोर से घुमाने लगे। अपनी उँगलियों के ज़रा-से 'ट्विस्ट' पर पेपरवेट का घूमते रहना देखकर वे समझ नहीं पाए कि इस क्रिया को क्या संज्ञा दी जाए।

टेलीफ़ोन-एक्सटेंशन मधुमक्खी की तरह भिनभिनाने लगा। उन्हें अपने पी.ए. पर गुस्सा आया, क्यों नहीं उसने मना कर दिया। मुझे सूचित करने की क्या ज़रूरत थी? जब देखिए 'बजर' दबा देता है। लोग समझते है 'मिनिस्टर हूँ... मेरी सिफ़ारिश से न जाने क्या से क्या हो सकता है।' उनका मन हुआ वे रिसीवर को उठाकर बिना सुने ही रख दें। लेकिन चपरासी ने आकर बताया, 'सरकार, पी.ए. साहब ने कहलवाया है, मुख्यमंत्री जी बात करना चाहते है...' रिसीवर उठाना मृणाल बाबू को मनों वज़नी वस्तु उठाने के समान लगा। उधर से शिवनाथ बाबू स्वयं बोल रहे थे। उन्होंने दो ही वाक्य कहे, 'ज़रा चले आइए, ज़रूरी बातें करनी हैं...' रिसीवर रख दिया। स्वर अपेक्षाकृत नरम था।

मृणाल बाबू ने आक्रोश के साथ दोहराया, 'ज़रूरी काम है...'

कमरे से बाहर आए। सामने पी.ए. वाले कमरे में ड्राइवर, चपरासी, शैडो (सुरक्षा-अधिकारी) सब जमा थे, क़हक़हे लगा-लगाकर बातें कर रहे थे। मृणाल बाबु ग़ुस्से से काँप उठे, सीधे पी.ए. के कमरे में पहुँचकर पी.ए. पर बिगड़ने लगे, 'आपको शर्म नहीं आती−इन लोगों के साथ बैठकर हँसी-ठट्ठा करते हैं। अपनी पोज़ीशन का ख़याल रखना चाहिए।' पी.ए. साहब पर डाँट पड़ती देख सब लोग दूसरे दरवाज़े से निकलकर अपनी-अपनी जगह पर पहुँच मुस्तैदी से खड़े हो गए। ड्राइवर कार पोंछने लगा, शैडो बेंच पर जा बैठा, चपरासी अंदर चला गया।

कार चलाते हुए ड्राइवर को बराबर लग रहा था कि अब मृणाल बाबू की डाँट पड़ी। ड्राइवर के बराबर में बैठा शैडो भी थोड़ा आतंकित था। लेकिन मृणाल बाबू का मन शिवनाथ बाबू के कुछ देर पहले वाले व्यवहार को लेकर अत्यधिक त्रसित था। वे सोच रहे थे, अगर शिवनाथ बाबू इस ममय ठीक मूड में होगे तो ज़रूर इस बात को कहेंगे।

मुख्यमंत्री की कोठी पर पहुँचकर वे बरांडे में ही ठिठक गए। पी.ए. तुरंत दौड़ा हुआ आया और बड़े सम्मान के साथ ड्राइंगरूम में ले गया। क्षण-भर को मृणाल बाबू ने इस आवभगत का और सुबह आधा घंटे तक लॉन में टहलने वाली स्थिति के साथ मिलान किया। लेकिन सामने ही दीवान पर शिवनाथ बाबू बाईं कोहनी गाव-तकिये से टिकाए तिरछे बैठे हुए थे। बायाँ घुटना पट लेटा हुआ था और दाहिना घुटना नब्बे डिग्री कोण पर खड़ा था। उन्होंने विस्तृत-सी मुस्कान के साथ कहा, 'आइए।' दाएँ हाथ से सोफ़े की तरफ़ इशारा कर दिया। मृणाल बाबू चुपचाप बैठ गए।

'आपने अभी भोजन तो नहीं किया होगा?' शिवनाथ बाबू ने मुस्कुराते हुए स्नेहपूर्वक पूछा।

'जी नहीं, लौटकर ही करूँगा।'

'आज मेरे साथ ही भोजन कीजिए... जब से विदेश से लौटा हूँ, पल-भर की फ़ुरसत नहीं मिली। सुबह भी आपसे बात नहीं कर पाया। बाद में मुझे बहुत बुरा लगा। दरअसल एक फ़ाइल देखकर मेरा दिमाग़ इतना ख़राब हो गया कि... आप बुरा न मानें। कभी-कभी मानसिक तनाव की स्थिति में बड़ी अजीब-अजीब हरकतें कर बैठता हूँ।' अंतिम वाक्य पर उन्होंने अधिक ज़ोर दिया और मुस्कुराए भी।

मृणाल बाबू को उस समय उनके साथ भोजन करना उचित नहीं लगा। बहाना बना दिया, 'मैंने कुछ लोगों को घर पर आमंत्रित किया है...।'

शिवनाथ बाबू ने और भी सरल होकर कहा, 'ठीक है, आपकी दावत हम पर ड्यू रही।' उस समय उनके चेहरे पर ठीक वैसा ही भाव आ गया था जैसा उस समय था, जब वे उन्हें मंत्री-पद के लिए आमंत्रित करने उनके फ़्लैट पर ही गए थे।

'हाँ, शायद आप राय के बारे में कुछ कह रहे थे सुबह। मैं उसे ख़ूब जानता हूँ...' शिवनाथ बाबू बड़ी ज़ोर से हँस दिए।

'आपने एक कहानी सुनी है—एक चालाक भेड़िया नदी के किनारे बैठा अपनी डींग मार रहा था—'मैंने ख़रबूज़े का पूरा खेत खा डाला। मगरमच्छ को यह बात निहायत बेईमानी की लगी। जब भेड़िया पानी पीने के लिए झुका तो मगरमच्छ ने चट भेड़िये का मुँह पकड़ लिया और बोला, 'निकाल ख़रबूज़े का खेत, अकेला खा गया?'

भेड़िया ज़ोर से हँस दिया और बोला, निकल बे ख़रबूज़े के खेत! पीछे के रास्ते से। मगरमच्छ पीछे की तरफ़ लपका तो भेड़िया ग़ायब था।'

शिवनाथ बाबू द्वारा सुनाई गई इस कहानी पर मृणाल बाबू को हँसी आ गई। लेकिन शिवनाथ बाबू गंभीर होकर बोले, 'आप नए-नए आदमी हैं, धीरे-धीरे समझने की कोशिश कीजिए... आप इन अफ़सरों के रास्ते नहीं जानते...'

अपने लिए नए-नए विशेषण का प्रयोग उन्हें पसंद नहीं आया। दबी आवाज़ में बोले, 'बाबूजी, आख़िर मेरा नयापन कब तक बना रहेगा। आपके अफ़सर भी मुझे नौसिखिया ही समझते है।' कहकर मृणाल बाबू को लगा उन्होंने अपनी बिसात से ज़ियादा बात कह दो है। अतः मुस्कुराकर बात को हल्का करने का प्रयत्न किया।

शिवनाथ बाबू के चेहरे पर सुबह वाली कठोरता फिर उद्भासित हो गई।

'मृणाल बाबू, आपको मैं राजनीतिज्ञ मान बैठा था। लेकिन आप तो भावुक बालक निकले, मिठाई पाकर हँस देते हैं, ज़रा-सी चाट खाकर रोने लगते हैं। राजनीतिज्ञ लोहे के समानधर्मा होते हैं। 'लोहा जब तक ठंडा रहता है चोट करने की स्थिति में रहता है...।'

शिवनाथ बाबू कुछ और भी कहते, परंतु मिस्टर राय के एकाएक अंदर चले आने के कारण ख़ामोश हो गए। मृणाल बाबू को अपने-आपको उस तनाव की स्थिति से वापस लाने में कुछ समय लगा लेकिन वे सोचने लगे, 'मंत्री होकर भी शिवनाथ बाबू से मिलने के लिए मुझे आज्ञा लेनी पड़ती है। मिस्टर राय सचिव होकर भी, अपने मंत्री के बैठे हुए, बे-हिचक चले आते हैं...।'

शिवनाथ बाबू मिस्टर राय को डाँटते हुए बोले, 'मिस्टर राय, मैं आदेशों के पालन को अधिक महत्त्व देता। मेरे द्वारा नियुक्त किया गया सभा-सचिव भी मुख्यमंत्री है। जनता का प्रत्येक प्रतिनिधि सरकार का अभिन्न अंग है। जो शिकायतें मैंने सुनी हैं, भविष्य में उनको दोहराया जाना मुझे पसंद नहीं होगा। शासन के मामले में भी किसी तरह का हस्तक्षेप मेरे लिए असहनीय।

अंतिम वाक्य कहते समय मुख्यमंत्री ने मृणाल बाबू की ओर देख लिया था। कुछ रुककर पुनः कहा, 'जनता के अधिकारों का दायित्व मुख्यमंत्री पर है—वह अपने अधिकारों को ही, मंत्रियों, सचिवों यानी पूरी सरकार से अंगों में आवश्यकतानुसार बाँटता है। लेकिन किसी की भी ज़रा-सी चूक की जवाबदेही मुख्यमंत्री से होती है...।'

शिवनाथ बाबू बोलते-बोलते रुक गए। मृणाल बाबू और मिस्टर राय पर बारी-बारी से नज़र डाली। दोनों नज़रों में अंतर ज़रूर था, परंतु मृणाल बाबू को लगा जैसे मिस्टर राय पर पड़ने वाली डाँट में उनका भी बराबर का हिस्सा है। अंतर उतना ही था कि मिस्टर राय गर्दन झुकाए खड़े थे और मृणाल बाबू उनके बराबर वाले सोफ़े पर बैठे थे।

शिवनाथ बाबू ने मिस्टर राय से उसी टोन मे पूछा, 'आप फ़ाइल लाए?'

मिस्टर राय ने अपनी बग़ल से फ़ाइल निकालकर उनकी ओर सादर बढ़ा दी। हाथ में लेते हुए बिना उसकी ओर देखे मुख्यमंत्री ने कहा, 'अब आप जा सकते हैं, लेकिन मेरी बात का ध्यान रखिए।'

मृणाल बाबू ने देखा, मिस्टर राय ड्राइंगरूम के दरवाज़े से निकलते हुए हल्का-सा मुस्कुराए है। उनके बाहर चले जाने पर शिवनाथ बाबू ने वही फ़ाइल मृणाल बाबू की ओर बढ़ा दी और कहा, 'कल आपको ही विधानसभा में उत्तर देना है।' उनके कथन में आज्ञा का स्वर भी था।

मृणाल बाबू गर्दन नीची करके फ़ाइल को उलट-पुलटकर देखने लगे। उनको लग रहा था कि शिवनाथ बाबू उनके चेहरे पर होने वाली हर प्रतिक्रिया को नोट कर रहे हैं। लेकिन जब शिवनाथ बाबू बोले, 'वैसे तो घर जाकर भी इस फ़ाइल को देखा जा सकता है। पर आप मेरे सामने ही देख लें। मैं अभी बाहर जा रहा हूँ। कल सुबह सीधा विधानसभा पहुँचूँगा—आप भावुक और आदर्शवादी व्यक्ति हैं। कभी बाद में फ़ाइल देखकर आपको लगे, आपके आदर्श टूट रहे हैं— यह सब मैं पसंद नहीं करूँगा।'

मृणाल बाबू को लगा कि दूसरे शब्दों में उनसे भी यह कहा जा रहा है—'मैं आदेशों के पालन को अधिक महत्त्व देता हूँ...।'

शिवनाथ बाबू उठ गए, अंदर जाते हुए पूछा, 'आप समझ गए?'

मृणाल बाबू को नमस्कार करने का अवसर भी नहीं मिल सका।

मृणाल बाबू ने कार में बैठते हुए सोचा—''तनाव की स्थिति में शिवनाथ बाबू अजीब-अजीब हरकतें कर बैठते हैं...।'

घर जाकर जब उन्होंने फ़ाइल खोली, वही औद्योगिक बस्ती वाला मसला था। शब्दों में थोड़े-से परिवर्तन के साथ वही उत्तर लिखा था जो शांतिशरण जी ने विधान-भवन में दिया था।

मृणाल बाबू को लगा, विधानसभा का प्रत्येक सदस्य वही वाक्य दोहरा रहा है जो उन्होंने शांतिशरण के लिए कहा था, 'हड्डी निचोड़ने वाले कुत्ते हमें नहीं चाहिए।'

शिवनाथ बाबू मुस्कुराते हुए कह रहे हैं, 'शांतिशरण तो कम-अक़्ल और बेईमान थे—अब तो विधानसभा का सबसे ईमानदार और आपका विश्वासपात्र मिनिस्टर भी वही बात कह रहा है...।'
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Friday, May 6, 2022

हंसा जाई अकेला [कहानी] --- मार्कण्डेय

 

 हंसा जाई अकेला
[कहानी]
--- मार्कण्डेय

वहाँ तक तो सब साथ थे, लेकिन अब कोई भी दो एक-साथ नहीं रहा। दस-के-दसों अलग खेतों में अपनी पिंडलियाँ खुजलाते, हाँफ रहे थे।

“समझाते-समझाते उमिर बीत गयी, पर यह माटी का माधो ही रह गया। ससुर मिलें, तो कस कर मरम्मत कर दी जाए आज।” बाबा अपने फूटे हुए घुटने से खून पोंछते हुए ठठा कर हँसे।

पास के खेत मे फँसे मगनू सिंह हँसी के मारे लोट-पोट होते हुए उनके पास पहुंचे।

“पकड़ तो नहीं गया ससुरा? बाप रे… भैया, वे सब आ तो नहीं रहे हैं?” और वह लपक कर चार कदम भागे, पर बाबा की अडिगता ने उन्हें रोक लिया। दोनों आदमी चुपचाप इधर-उधर देखने लगे।

सावन-भादों की काली रात, रिम-झिम बूँदें पड़ रही थीं।

“का किया जाय, रास्ता भी तो छूट गया। पता नहीं कहाँ है, हम लोग।”

“किसी मेंड पर चढ़ कर, इधर-उधर देखा जाय। मेरा तो घुटना फूट गया है।”

“बुढ़वा कैसे हुक्का पटक के दौड़ा था।”

“अरे भइया, कुछ न पूछो।” मगनू हो-होकर के हँसने लगे।

इसी बीच गाने की आवाज सुनाई पड़ी-

हंसा जाई अकेला, ई देहिया ना रही।
मल ले, धो ले, नहा ले, खा ले
करना हो सो कर ले, ई देहिया…

दस-एक बीघे के इर्द-गिर्द, अँधेरे और भय में धँसी हुई पूरी मंडली सिमट आयी। चेहरे किसी के नहीं दिखाई पड़े, पर हँसी के मारे सबका पेट फूल रहा था। उसी बीच थूक घोंटने की-सी आवाज करता हुआ, वह आया और जोर से हँसने लगा।

“होई गयी गलती भइया। मैं का जानूँ कि मेहरिया है। समझा, तुम में से कोई रुक गया है।”

मगनू ने कहा, “सरऊ, साँड़ हो रहे हो, अब मरद-मेहरारू में भी तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ता?”

“नाहीं, भाय, जब ठोकर खा कर गिरने को हुये न, मैंने सहारे के लिए उसे पकड़ लिया। फिर जो मालूम हुआ, तो हकबका गया। तभी बुढ़वा ने एक लाठी जमा दी। खैर कहो निकल भागा।” उसने झुक कर अपनी टाँगों पर हाथ फेरा। नीचे से ऊपर तक झरबेरी के काँटे चुभे हुए थे।


 
“ससुरे को बीच में कर लो।” बाबा ने कहा।

मगनू कहने लगे, “चलो मेहरारू तो छू लिया, ससुरे की किस्मत में लिखी तो है नहीं।”

उसे लोग हंसा कहते हैं, काला-चिट्ठा बहुत ही तगड़ा आदमी है। उसके भारी चेहरे में मटर-सी आँखें और आलू-सी नाक, उसके व्यक्तित्व के विस्तार को बहुत सीमित कर देती हैं। सीने पर उगे हुए बाल, किसी भींट पर उगी हुई घास का बोध कराते हैं। घुटने तक की धोती और मारकीन का दुगजी गमछा उसका पहनावा है। वैसे उसके पास एक दोहरा कुर्त्ता भी है, पर वह मोके-झोंके या ठारी के दिनों में ही निकालता है। कुर्त्ता पहन कर निकलने पर, गांव के लड़के उसी तरह उसका पीछा करने लगते हैं, जैसे किसी भालू का नाच दिखाने वाले मदारी का।

“हंसा दादा दुल्हा बने हैं दुलहा।” और नन्हें-नन्हें चूहों की तरह उसके शरीर पर रेंगने लगते हैं। कोई चुटइया उखाड़ता है, तो काई कान में पूरी-की-पूरी अँगुली डाल देता हैं। कोई लकड़ी के टुकड़े से नाक खुजलाने लगता है, तो कोई उसकी बड़ी-बड़ी छातियों को मुँह में लेकर, हंसा माई, हंसा माई, का नारा लगाने लगता है। इसी बीच एक मोटा सोटा आ जाता है, वह हंसा के कंधे से सटा कर लगा दिया जाता है और हंसा दो-एक बार उस पर अँगुलियाँ दौड़ा कर, अलाप भरते-भरते रुक कर कहता है, “बस न।”

लड़के चिल्ला पड़ते हैं, “नहीं, दादा। अब हो जाय।”

कोई पैर से लटक जाता है, तो कोई हाथ से। फिर वह मगन हो कर गाने लगता है, “हंसा जाई अकेला, ई देहिआ ना रही…”

उस दिन बारह बजे रात को गाँव लौट कर, हंसा सीधे बाबा के दालान आया। लालटेन जलायी गयी। हंसा अपनी पिंडलियों में धँसे झरबेरी के काँटों को चुनने लगा। जैसे जाड़े मे चिल्लर पड़ जाते हैं, उसी तरह हंसा की टाँग में काँटे गड़े थे।

बाबा ने कहा, “कहाँ जाएगा ठोंकने-पकाने इतनी रात को, यहीं दो रोटी खा ले।” और झरबेरियों के काँटे देखे, तो उन्हें जैसे आज पहली बार हंसा की भीतरी जिन्दगी की झाँकी दिखाई दी। इतनी खेत-बारी, ऐसा घर-दुआर, पर एक मेहरारू के बिना बिलल्ला की तरह घूमता रहता है। बाबा उठ कर हंसा की पिंडलियों से काँटे बीनने लगे।


 
उसे रतौंधी का रोग है! इसीलिए रात को वह गाँव से बाहर नहीं जाता। वह तो मजगवाँ का दंगल था, जो उसे खींच ले गया। बाबा सरताज हैं पहलवानों के, भला क्यों न जाते। बेर डूबा गयी वहीं, चले तो अँधेरा घिर आया था। पाँच मील का रास्ता था। हंसा दस लोगों की टोली के बीच में चल रहा था। कई बार उसके पाँव लोगों से लड़े, तो लोगों ने गालियाँ दीं और उसे पीछे कर दिया। हंसा गालियों का बुरा नहीं मानता। वह बहुत सारे काम गाली सुनने के लिए ही करता है। गाँव के बूढ़ों-बुजुर्गों की इस दुआ से उसे मोह है।

वह पीछे-पीछे आ रहा था। रास्ते में एक गाँव आया, तो गलियों के घुमाव फिराव में वह जरा पीछे रह गया। एक झोपड़ी के आगे एक बूढ़ा बैठा हुक्की गरमाये था। उसकी जवान बहू किसी काम से बाहर आयी थी, दस आदमियों की लम्बी कतार देख कर बगल में खड़ी हो गयी। फिर हंसा के आगे से वह निकल जाने को हुई, तो संयोग से हंसा के पाँव उससे लड़ गये और अँधेरे मे गिरते-गिरते वह हंसा के बाजुओं में आ गयी। बहू चीख उठी। बूढ़ा हुक्की फेंककर डंडा लिये दौड़ा। लेकिन हंसा निकल गया। दूसरा डंडा उसकी बहू की ही पीठ पर पड़ा। यह गये, वह गये और सारी मण्डली रात के अँधेरे में खो गयी। सबकी आँखें साथ दे रही थीं पर हंसा खाइयों-खंदकों मे गिरता-पड़ता भागता रहा।

बाबा काँटा बीनते जा रहे थे। हंसा अपनी मटर-सी आँखों को बार-बार अपने भालू के-से बालों में धँसाता- हाथ को काँटे मिल जाते, पर आँखें न खोज पातीं। रह-रह कर रास्ते की वह घटना उसके सामने नाच जाती। क्या सोचती होगी बेचारी? और वह बाबा की ओर देखने लगता।

“बड़ी चूक हो गयी, भइया। समझो, निकल भागे किसी तरह नहीं तो जाने का कहती दुनिया? हमें तो यही सोच कर और लाज लग रही थी कि तुम भी साथ थे।”


 
“अरे, यह क्या कहता है, हंसा।”

“यही कि आपके साथ ऐसे लोग रहते हैं। कितना नाव-गाँव है। कितनी हँसाई होती।”

हंसा कभी कोई बात सोचता नहीं पर आज बार-बार उसका दिमाग उलझ जाता था। अगर भइया चाहें… तो…

इसी बीच आजी पूड़ियाँ थाल में परसे बाहर आयी। हंसा हड़बड़ा कर उठ गया। बहुत दिन पर भउजी को देखा था। रात न होती, तो वह बाहर क्यों आती। उसने सलाम किया। थाल थामने ही जा रहा था कि उन्होंने मजाक कर दिया, “कहीं डड़वार डाके रहे का बबुआ, जो काँटा विनाय रहा है।”

“कुछ न कहो भउजी।” हंसा कह ही रहा था कि बाबा बोला उठे, “फँसी गया था हंसवा आज, वह तो खैर मनाओ, बच गया, नहीं वह पड़ती कि याद करता! एक औरत को इसने…!”

“अब हँसी-ठिठोली छोड़ कर, बियाह करो। जब तक देह कड़ी है दुनिया-जहान है, नहीं तो रोटी के भी लाले पड़ जाएँगे! कहते क्यों नहीं अपने भइया से? गूँगे-बहरे, कुत्ते-बिल्ली सबका तो बियाह रचाते रहते हैं, पर तुम्हारा ध्यान नहीं करते। खेत-बारी, जगह, जमीन सब तो है।”

बाबा कुछ नहीं बोले, लगा सेंध पर धरे गये हों। आजी जाने लगी, तो बाबा ने तेल भेजने को कहा।

तेल की कटोरी लेकर हंसा बाबा के पैताने जा बैठा।

“अपने पैरों में लगाओ न हंसा! दरद कम हो जाएगा।”

“गजब कहते हो, भइया। अरे लगाया भी है कभी तेल।” और बाबा की मोटी रान पर झुक गया।

“मनों तेल पी गयीं ये रानें। कितने तो तेल ही लगा कर पहलवान हो गये…” हंसा कहने लगा।

बाबा चुप पड़े रहे। ओरउती से लटकी हुई लालटेन में गुल पड़ गया था, धुएँ से उसका शीशा काला पड़ चुका था और कालिख ऊपर उड़ने लगी थी।

हंसा उठा और बत्ती बुझा कर लेट गया।

भउजी की बात हंसा के कानों में गूँंज रही थी – ‘जब तक देह कड़ी है…’ हंसा ने करवट लेते लेते बूढे़ के डंडे की चोट का हाथ से अंदाज लिया और भुनभुनाने लगा, “जान-बुझकर तो कुछ नहीं किया। हम तो भइया की तरह मेहरारू को आँख उठा कर भी नहीं देखते। यह रतौन्हीं साली जो न कराये।” उसने इधर-उधर आँख चलायी, पर कुछ नहीं- सब मटमैला, धुंध।


 
पाला पड़े चाहे पत्थर; काम से खाली होकर हंसा बाबा के पास जरूर आएगा। कभी देश-विदेश की बात, कभी महाभारत-रामायण की बात। लेकिन ‘गन्ही महत्मा’ की बात में उसे बड़ा मजा आता है। किसी ने उसे समझा दिया है कि गाँधी जी अवतारी पुरूष थे।

उस दिन दालान में कोई नहीं था। शाम का वक्त था। बाबा की चारपाई के पास बोरसी में गोहरी सुलग रही थी। जानवर मन मारे अपनी नाँदों में मुँह गाड़े थे। रिम-झिम पानी बरस रहा था। कलुआ पाँवों से पोली जमीन खोद कर, मुकुड़ी मारे पड़ा था। बीच-बीच में जब कुटकियाँ काटतीं, तो वह कूँ….कूँऽ करके, पाँवों से गर्दन खुजाने लगता। इसी समय एक आदमी पानी से लथ-पथ, कीचड़ में अपनी साईकिल को खींचता आया और जैसे ही साइकिल खड़ी करके दालान में घुसने लगा, हंस ने कहा, “जै हिन्न की, गनेश बाबू।”

“जै हिन्द हंसा भाई, जै हिन्द।”

उसने अपने झोले से नोटिसों का पुलिन्दा निकाल कर, बाबा के आगे रख दिया। हंसा बाबा की गोड़वारी बैठ गया। बाबा नोटिस पढ़ कर बोले, “कैसे होगा, बरखा-बूनी का दिन है।”

हंसा कुछ समझ नहीं सका। जब उसका पेट फूलने लगा, तो वह बोल बैठा, “का है भइया।”

“कोई सुशीला बहिन आज यहां गांधी जी का संदेश सुनाना चाहती हैं। जिला कमेटी का नोटिस है।”

“का लिखा है नोटिस में!” हंसा मुँह बा कर उन्हें देखते हुए बोला, तनी बाँच दो, भइया। गवनई भी न होगी।”

“अरे वही, जागा हो बलमुआ गांधी टोपी वाले…”

हंसा ने खूँटी पर टँगी ढोलक उतारकर गले मे लटका ली और एक ओर पड़े फटहे झंडे को ले कर लाठी में टांग लिया। दो बार ढोलक पीटी। फिर, – जागा हो बलमुआ गन्हीं टोपी वाले आय गइलैं… टोपी वाले आय गइलैं… गा कर, ढोलक पर धड़म्-धड़म् घुम्-घुम्… धढ़म-धड़ाम घुमघुम्…


 
मिनटों में ही पचासों लड़के आ जुटे। चल पड़ा हंसा का जुलूस।

“सुसिल्ला की गवनई, जौने में बीर जवाहिर की कहानी है….”

“दल-के-दल लरिका-बच्चा सब… बोलो, बोलो, गन्हीं बाबा की जय!”

और फिर, जागा हो बलमुआ… और हंसा की ढोलक गमकती रही। क्षण भर में ही जैसे सारे गाँव को हंसा ने जगा दिया हो।

जिधर से देखो, लोग चले आ रहे हैं। लड़के गाँधी बाबा को क्या जानें, उनके लिए तो हंसा ही सब कुछ था। एक उनके आगे झंडा तानकर कहता, “बोलो, हंसा दादा की…!”

कुछ कहते, ‘जै’, और कुछ ‘छै’, फिर जोर की हँसी चारों ओर छा जाती।

कुछ बूढ़े नाक फुलाते हुए, सुरती की नास ले, अपने सुतलियों के ढेरे पर चक्कर दे कर कहते, “मिल गया ससुर को एक काम। गन्ही बाबा का गायक काहे नहीं हो जाता। कौनों कँगरेसी जात-कुजात मेहरारू मिल जाती। गन्ही का कोई विचार थोड़े है, चमार-सियार का छुआ-छिरका तो खाते हैं।”

हंसा को फुरसत नहीं है। बाबू साहब का तकरपोस और बाबू राम का चमकउआ चादर तो आना ही चाहिए।

बाबा चुपचाप बैठे हैं। धीरे-धीरे गाँव सिमटता आ रहा है। दालान भरता जा रहा है। अँधेरे की गाढ़ी चादर फैलती जा रही है। रिम-झिम पानी बरस रहा है। चार लालटेनें जल रही हैं।

“बुला तो लिया पानी-बूनी में। हल्ला भी पूरा मचा दिया। पर ठहरेंगी कहाँ सुशीला? कुछ खाना-पीना…”

“आने पर देख लेंगे। अपना घर तो खाली ही है। खाने की भी चिन्ता न करो। घी है ही, पूड़ी-ऊड़ी बन जाएगी।” कहता हुआ हंसा बाहर निकला।

हंसा सँभाल सँभाल कर चल रहा था – अँधेरे की वहीं धुंध, वही मटमैलापन। आखिर वह क्या करे कि उसे दिखाई पड़ने लगे। वह एक बच्चे की सहायता से किसी तरह बाबू साहब के दलान के सामने पहुँच गया। पहाड़ से तख्त को सिर पर बिड़ई रख, उठा लिया और किसी तरह रेंगता-रेंगता बाबा के दालान आ पहुँचा।

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बाबा बहुत बिगड़े, “ससुरा मरने पर लगा है।”

हंसा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि सुशीला जी आ गयी हैं। वह बाबा के पास बैठ, उनकी बातें बड़े ध्यान-पूर्वक पीने लगा।

सुशीला जी हंसा के ठीक सामने बैठी थीं। लालटेन जल रही थी, पर वह देख नहीं पाता था कि वह कैसी हैं!

– आवाज तो कड़ी है और यह गन्ने के ताजे रस-सी महक कहाँ से आ रही है?

हंसा खो गया। सुशीला का साल भर पहले का गाना, ‘जागा हो बलमुआ गाँधी टोपी वाले आय गइलैं… उसके होठों पर थिरक उठा। साँवला-साँवला-सा रंग था, लम्बा छरहरा बदन, रूखे-रूखे से बाल और तेज आँखे। कैसा अच्छा गाती थी! – हंसा सोचता रहा।

इसी बीच कीर्तन-प्रवचन हो गया। सुशीला जी ने भाषण भी दिया और सारी ग्राम-मंडली, ‘बिन विद्या के भारत देश, दिन-दिन होती है तेरी ख्वारी रे।’ गुनगुनाती वापस जाने लगी। हंसा खोया बैठा रहा। खंजड़ी की डिम्-डिम् और झांझ की झंकार उसके कानों में गूँजती रही। सुशीला का पैना स्वर उसके हृदय को बेधता रहा, और दंगल की शामवाली घटना का भी उसे बार-बार ध्यान आता रहा। – देखो तो इन आँखों की जो न करा दें। – उसकी नसों में रक्त की झनझनाहट भर जाती। एकाएक, ‘गन्ही महात्मा की…’ सुनकर, वह चौंक पड़ा और जोर से चिल्ला पड़ा, ‘जय… जय…’

बहुत रात बीत चुकी है। हंसा के घर में पूड़ियां छानने की तैयारी हो रही है। आटा गूँथा जा रहा है। तरकारी कट रही है। आग जल रही है। पर भीतर के कमरे की भंडरिया से घी कौन निकाले? हंसा वहीं इधर-उधर डोलता है। उसकी आँखें सुशील जी की आवाज का पीछा कर रही हैं। सुशीला जी कभी-कभी संकोच में पड़ती हैं, पर हंसा के चौड़े सीने पर उगे हुए बालों के जंगल में वह खो जाती हैं। कितना पौरूषी आदमी है।

लेकिन हंसा के आगे वह छाया-मात्र हैं, जिसका बस रूप नहीं है आगे, और सब कुछ है। – मीठी-मीठी, थकनभरी आवाज और डाल के ताजे फल जैसी सुगंध। वह बड़ा खुश है। एक औरत के रहने से घर कैसा हो जाता है। कितना अच्छा लगता है।… वह सोच ही रहा है कि घी की माँग होती है। हंसा उठता है। पर चारपाई से ठोकर खा कर गिर पड़ता है। सुशीला जी दौड़ कर उसे उठाती हैं। हंसा मारे लाज के डूब जाता है।


 
धत्, तेरी आँखों की। और वह जल्दी से उठ खड़ा होता है।

सुशीला जी उसका हाथ पकड़े थीं, “चोट तो नहीं आयी।”

घुमची की तरह की आँखें मुलमुला कर हंसा हँसता है। उसके रोएँ भभर आते हैं, उसका कलेजा धड़कने लगता है।

कहार कहता है, “हंसा दादा को रतौन्ही हैं, रतौन्ही।”

“रतौधी! तो बताओ, कहाँ है घी? मैं चलती हूँ, साथ।”

मेनका के कंधे पर विश्वामित्र के उलम्ब बाहु। सावन की अंधियारी और बादलों की रिम-झिम। बीच-बीच में हवा का सर्द झोंका।

दोनों आँगन पार करते बूँदों में भींगते हैं। पीछे से आवाज आती है, “लालटेन दूँ?”

“एक ही तो है। रहने दो, काम चल जाएगा।”

घर की अँधेरी भँडरिया। दोनों भटकते हैं। हंसा कुछ बताता है। सुशीला जी कुछ सुनती हैं। आँख कुछ देखती है। हाथ कुछ टटोलते हैं। बहरहाल, पता नहीं कहाँ क्या है?

अँधेरे में जैसे आँख, तैसे बेआँख। दोनों को सहारा चाहिए। कभी वह लुढ़कता है, कभी वह लुढ़कती हैं और दोनों दृष्टिवान हो जाते हैं- दिव्यदृष्टिवान।

सुबह कुत्तों की झाँव-झाँव के बीच, कारवाँ आगे बढ़ गया। बैलों की घंटियाँ टुनटुनायीं, भुजंगे बोले और बाबा ने उठ कर अपना छप्पन पतरीवाला बाँस का छाता छठाया और ताल की ओर चल पड़े, निरूआही हो रही थी।

रास्ते में मगनू सिंह मिल गये, “लग गयी पार हंसवा की नाव!”

“क्या हुआ?”

“कुछ न पूछो, भइया। तुम्हें खबर ही नहीं, सारे गाँव में रात ही खबर फैल गयी। यह ससुरा दुआरे बैठाने-लायक नहीं है। कहते थे कि कोई राँड़-रेवा मढ़ दो इसके गले। कल रात बाबू साहब के यहां पंचाइत हुई। तय हुआ कि अब सभा-सोसाइटी की चौकी, गाँव में नहीं धरी जाएगी। औरत-सौरत का भासन यहाँ नहीं होने पाएगा। बहू-बेटियों पर खराब असर पड़ता है। बात यह है भइया कि राजा साहब ओट लड़ रहे हैं, कांगरेस के खिलाफ। बाबू साहब उनको ओट दिलाना चाहते हैं। आपके डर से कुछ कह तो सकते न थे। अब मौका मिला है।”

“कैसा मौका?” बाबा झुँझला कर बोले।

अगनू आकर उनके छाते के नीचे खड़े हो गये। बोले, “उलट दिया हंसवा ने कल रात!”

“क्या मतलब?”

“सच मानो, खाना-पीना नहीं हुआ। जब बहुत देर होने लगी, तो बंगा ने लालटेन ले कर देखा, और बाहर निकल कर, सारे गाँव में ढिंढोरा पीट दिया। अभी तो सर-सामान ले कर, घाट तक पहुँचाने गया है।”


 
बाबा चुपचाप आगे बढ़ गये। इस तरह की बात सुन कर बरदाश्त करना उनके लिए कठिन है, पर न जाने क्यों उन्हें हँसी आ रही थी। तभी दूर हंसा की भारी आवाज सुनाई दी?

– जग बेल्हमौलू जुलूम कइलू ननदी… जग…
बरम्हा के मोहलू, बिसुनू के मोहलू
सिव जी के नचिया नचैलू मोरी ननदी… जग….।

बाबा खड़े थे। हंसा धीरे-धीरे पास आ गया। अँधेरा छँट गया था। हंसा डर गया। – कैसे खड़ा हूँ भइया के सामने, कैसे?

कुछ देर दोनों चुप रहे। बाबा ने देखा, हंसा के हाथों में खद्दर के कुछ कपड़े थे, पर उसकी निगाह नीचे जमीन में धँसी थी।

“हंसा!” बाबा बड़ी कड़ी आवाज में बोले, “जहाँ पहुँच गये हो, वहाँ से वापस नहीं आना होगा!”

“भइया, बोटी-बोटी कट जाऊँगा, पर यह कैसे हो सकता है!”

हंसा जाने लगा, तो बाबा ने कहा, “घर जा कर सीधा-समान बाँधे आना। आज मछरी पकड़वाऊँगा, वहीं खावाँ पर बनेगी।”

“अच्छा, भइया!” कह कर हंसा अपनी बटन-सी आँखों को पोंछता हुआ चला गया।

गाँव में चुनाव की धूम मची थी। बाबू साहब बभनौटी के साथ कांग्रेस का विरोध कर रहे थे। उनके पेड़ों पर इश्तिहार टांग दिये जाते, तो उनके आदमी उखाड़ देते। किसान बुलवाये जाते, उन्हें धमकाया जाता। खेत निकाल लेने की, जानवरों को हँकवा देने की बातें कही जातीं और हंसा-सुशीला की कहानी का प्रचार किया जाता, भ्रष्ट हैं सब! इनका कोई दीन-धरम नहीं है! गन्ही तो तेली है।….

और हंसा अब पूरा स्वयंसेवक बन गया है। खद्दर का कुर्ता-धोती और हाथ की लम्बी लाठी में तिरंगा। बगल में बिगुल लटका रहता है और वह बापू के संदेश की परची बाँटता फिरता है।

“बाबू साहब जो कहें मान लो! पूड़ी-मिठाई राजा के तम्मू में खाओं! खरचा खोराक बाबू साहब से लो और मोटर में बैठो! लेकिन कँगरेस का बक्सा याद रखो! वहाँ जा कर, खाना-पीना भूल जाओ? कँगरेस तुम्हारे राज के लिए लड़ती है। बेदखली बंद होगी! छुआछुत बंद होगा। जनता का राज होगा। एक बार बोलो, बोलो गन्हीं महात्मा की जय!… जय…”


 
घर-घर में, कंठ-कंठ में सुशीला के मनोहर गानों की धुनें गूँजने लगीं। गाँव के बच्चे हंसा दादा के पीछे, हाथों में अखबार की रंग कर बनायी झंडियां लिये इधर-से-उधर चक्कर लगाया करते थे।

उन्हीं दिनों गाँव में रामलीला होने को थी। बाबू साहब की पार्टी के राम-लक्ष्मण बने थे। पर रावण बनने वाला कोई नहीं मिलता था। लोग कहते, रावण बनने वाला मर जाता है। कोई तैयार न होता था।

बाबा दशमी के मालिक थे। हंसा कैसे बरदाश्त करता कि लीला खराब हो। ऊपर से सुशीला जी लीला खत्म होने पर भाषण करने वाली थीं। हंसा सोचने लगा, क्या हो? सहसा लड़कों ने तालियाँ बजायीं और हंसा दादा को घेरा लिया। जल्दी-जल्दी काला चोंगा रावण के गले में डाल दिया गया। सिर पर पगड़ी बाँध कर दस मुँह वाला चेहरा हंसा दादा ने पहन लिया। हाथ में तलवार ली और गरज कर बोले, “मैं रावण हूँ कहां है दुष्ट राम?”

एक बच्चे ने अपनी छड़ी में लगा हुआ तिरंगा झट दशानन के सिर पर खोंस दिया और सब लोग जोर से हँसने लगे। उसी भीड़ में से किसी ने चिल्ला कर कहा, “गन्हीं महात्मा की जय…!”


 
रावण भाषण देने लगा, “भाइयों! राम राजा था। देखो, छोटी जात का कोई कभी राम नहीं बनने पाता है। राक्षस सब बनते हैं। बिराहिम, कालू, भुलई, फेद्दर, सभी की पालटी है, हमारी। यह जनता की लड़ाई है। बोल दो धावा।” और हंसा हाथ-पाँव हिलाता आगे को चल पड़ा। पीछे-पीछे सारी राक्षसी सेना। किसानों के बंदर बने लड़के भी अपना चेहरा लगाये, गदा लिये, जनता की पार्टी में शामिल हो गये। राम बेचारे अकेले बैठे रह गये। रामायण बंद हो गयी। तिवारी चिल्लाने लगा, पर कौन सुनता है!

“गन्हीं महतमा की जय! हंसा दादा की जय!”

बाबा हँसी के मारे लोट-पोट हो रहे थे। उनसे कुछ कहते ही नहीं बनता था। राक्षसी सेना के काले रंग में रंगे मुँह और हाथों में तिरंगे झंडे देख कर, लोग राम के लिए खरीदी मालाएँ, हंसा के ही ऊपर फेंकने लगे।

इसी बीच सुशीला जी तीर की तरह भीड़ में घुसीं, “कौन बना है रावण? क्या तिरंगा इसीलिए है?” उन्होंने हाथ से चेहरे को ठेल दिया। सहसा हंसा को देख कर, वह पसीने-पसीने हो गयीं।

“यही स्वयंसेवक हो। बदनाम करते हो झंडे को। बंद करो यह सारा तमाशा, होने दो रामलीला ठीक से।”

सब लोग अपनी जगहों पर लौट गये। बाबा चुपचाप खड़े थे। सुशीला जी अपना झोला सँभाले उनकी बगल आ खड़ी हुईं।

लड़ाई चलती रही। नगाड़े और ढोल बजते रहे। संठे के रँगे हुए तीर छूटते रहे। पर रावण मरे, तो क्यों मरे। चौपाई बार-बार टूटती। व्यास बार-बार कहता, “सो जाओ।” पर कौन सुनता है। हंसा की सेना क्यों हारे?


 
इसी समय लक्ष्मण को जमीन से ठोकर लगी। वह लुढ़क पड़े। उनका मुकुट गिर गया। आगे पीछे दौड़ते-दौड़ते राम को चक्कर आ गया, और उनको उल्टी होने लगी। सारे मेले में शोर मच गया, “जीत गयी जनता की फौज। हंसा दादा की पाल्टी ऐसे ही वोट जीत लेगी।”

इधर दिन रात सुशील जी खँजड़ी बजाती, घूमती रहतीं और रात हंसा के घर लौट आतीं। दूसरे दल के लोगों ने चिट्ठियाँ भिजवायीं। – सुशीला जी को यहाँ से बुला लिया जाए। जनता पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।… चुनाव के दो दिन पहले उन्हें नोटिस मिली कि वह बापू के आदर्शों को तोड़ रही हैं, इसलिए उन्हें काम से अलग किया जाता है। वह हँस पड़ी थी, ईश्वर ने पति से अलग किया और अब बापू के नकली चेले उन्हें जनता से अलग करना चाहते हैं!

उनकी खँजड़ी और जोर से बजने लगी। उनका स्वर और तेज हो गया।

चुनाव के दो दिन रह गये। सुशीला जी बीमार पड़ गयीं। हंसा के घर में उनका डेरा पड़ा था। वह बुखार की जलन सह रही थीं, पर किसी को अपने पास बैठने नहीं देती थीं। रात जब हंसा लौटता, तो वह उससे कहतीं, “तुम सुनाओ अपना भजन।”

हंसा बिना कुछ सोचे-विचारे गाने लगता, ‘हंसा जाई, अकेला, ई देहिया ना रही….’

फिर प्रचार का समाचार ले कर, वह उसके रोयें भरे सीने में मुँह छिपा लेतीं।

चुनाव का दिन आ गया, लेकिन सुशीला जी बिस्तर से नहीं उठीं। किसानों की जय-जयकार करती हुई टोलियाँ गुजरतीं, तो वह अपने बिस्तर में तड़प कर रह जातीं। हंसा उन्हें बहुत रोकता, पर वह उठ कर उनसे मिलतीं। बाबा बहुत समझाते, पर न मानतीं। चुनाव के दिन डोली में उठा कर वह पोलिंग पर ले जायी गयीं। वहीं पेड़ के नीचे बैठे-बैठे उन्हें कई बार चक्कर आया और बेहोश हुईं। ओट पड़ता रहा। किसान राजासाहब के कैम्प में खाना खाते, उनकी मोटर में आते, पर ओट डालते कांग्रेस के बक्स में। उन्हें सुराज मिलेगा, उन्हें आजादी मिलेगी; यही सब सोचते थे।


 
तीसरे पहर जोर की बारिश आयी। सुशीला जी छाया में जाते जाते भीग गयीं। बाबा ने उन्हें डोली में बैठा कर, घर भेज दिया। चुनाव चलता रहा। हंसा भूत की तरह काम में जुटा था। बहुत देर पर कभी उसे सुशीला की याद आती, तो मन को दबा कर फिर परची बाँटने लगता। बहुत कम ओट राजा के बक्से में गिरे। शाम हो गयी।

राजा का तम्बू हारे हुए कर्मचारियों से भर गया। हंसा उन्हें देख कर जाने क्यों क्रोध से जल रहा था। उसे बार-बार सुशीला की याद आ रही थी।

“भइया, कुछ और होना चाहिए।”

“मुझे चले जाने दो, हंसा।”

और पच्चीस-तीस लोग हँसिया ले कर राजा साहब के तम्बू की डोरियों के पास खड़े हो गये। कौन जाने क्यों खड़े हैं! हंसा ने विजय का बिगुल फूँका और सारा तम्बू एक मिनट में जमीन पर था। जोर का शोर मचा। किसानों ने जय-जयकार की, और लोग अपने घरों को वापस चले गये।

सुशीला जो को निमोनिया हो गया। उनकी साँस फँस गयी। बाबा रात-दिन उनके पास बैठे रहे। हंसा ने जमीन-आसमान एक कर दिया, पर फायदा न हुआ। वह बार-बार महात्मा जी का नाम लेतीं, हंसा से उनका भजन सुनतीं और आँखें बन्द कर लेती। चुनाव का नतीजा सुनाया गया, तो नेता लोग मोटर पर चढ़ कर सुशीला जी से माफी माँगने आये। पर सुशीला जी ने मुँह फेर लिया, जैसे वह कहती हों, – ‘मैं तुम्हारे करतब जानती हूँ’। और हंसा उठ कर बाहर चला गया।

अन्त में एक दिन सुशीला जी की साँस बन्द हो गयी। हाय मच गयी। बच्चे फूट-फूट कर रोने लगे। हंसा ने बकरी के लिये पत्ता तोड़ने वाली लग्गी में तिरंगा टाँग कर, हाथों से ऊपर उठा लिया और अपना बिगुल फूँकने लगा। उसकी हँसी लोगों के मन में भय पैदा करने लगी पर वह हँसता रहा।

आज तक, गन्हीं महात्मा, जवाहिरलाल और जनता की फउज, यही तीन शब्द वह जानता है। लड़के अब भी उसे उसी तरह घेरे रहते हैं। पर पहाड़ से तखत को उठा नहीं सकता। हाँ, उठाकर ले जाने वालो को देख कर वह जोर-जोर से हँसता है और घंटों हँसता रहता है।

उसके खेत में घास उगी है। मकान ढह गया है। पर लग्गी में फटहा तिरंगा और सुशील का दिया हुआ बिगुल अब भी टँगा रहता है। कभी-कभी वह गन्दे कागज दिवारों पर सटाता फिरता है और कभी सारे गाँव की गलियाँ साफ कर आता है।

आजादी मिली, तो उसे रुपये मिले। राजनीतिक पीड़ित था, वह। पर वह रूपयों की गड्डी ले कर हँसता रहा, और फिर उन्हें गाँव की दीवारों में एक-एक कर टाँग आया।

दो बार लोग उसे आगरे ले गये। पर कुछ ही दिनों बाद फिर ‘हंसा जाई अकेला’ का स्वर गाँव की फिजाँ में गूँजने लगता।

अब भी कभी-कभी वह आजादी लेने की कसमें खाता है। उसके तमतमाये हुए चेहरे की नसें तन जाती हैं और वह अपना बिगुल फूँकता हुआ, कभी धान के खेतों, कभी ईख और मकई के खेतों की मेड़ों पर घूमता हुआ, गाया करता हैं…

‘हंसा जाई अकेला…’
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