Monday, October 31, 2022

मेरा दुश्मन कहानी /Mera Dushman/ Kahani/ EK duniya Samanantar

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मेरा दुश्मन
लेखक :  कृष्ण बलदेव वैद

वह इस समय दूसरे कमरे में बेहोश पड़ा है। आज मैंने उसकी शराब में कोई चीज मिला दी थी, वह शरबत की तरह गट-गट जाता है, और उस पर कोई ख़ास असर नहीं होता। आँखों में लाल डोरे-से झूलने लगते हैं, माथे की शिकनें पसीने में भीगकर दमक उठती हैं, होंठों का जहर और उजागर हो जाता है, और बस- होशोहवास बदस्तूर क़ायम रहते हैं।

हैरान हूँ कि यह तरकीब मुझे पहले कभी क्यों नहीं सूझी। शायद सूझी भी हो, और मैंने कुछ सोचकर इसे दबा दिया हो। मैं हमेशा कुछ-न-कुछ सोचकर कई बातों को दबा जाता हूँ। आज भी मुझे अन्देशा तो था कि वह पहले ही घूँट में जायका पहचानकर मेरी चोरी पकड़ लेगा। लेकिन गिलास ख़त्म होते-होते उसकी आँखें बुझने लगी थीं और मेरा हौसला बढ़ गया था। जी में आया था कि उसी क्षण उसकी गरदन मरोड़ दूँ, लेकिन फिर नतीजों की कल्पना से दिल दहलकर रह गया था। मैं समझता हूँ कि हर बुज़दिल आदमी की कल्पना बहुत तेज़ होती है, हमेशा उसे हर ख़तरे से बचा ले जाती है। फिर भी हिम्मत बाँधकर मैंने एक बार सीधे उसकी ओर देखा ज़रूर था। इतना भी क्या कम है कि साधारण हालात में मेरी निगाहें सहमी हुई-सी उसके सामने इधर-उधर फड़फड़ाती रहती हैं। साधारण हालात में मेरी स्थिति उसके सामने बहुत असाधारण रहती है।

ख़ैर, अब उसकी आँखें बन्द हो चुकी थीं और सिर झूल रहा था। एक ओर लुढ़ककर गिर जाने से पहले उसकी बाँहें दो लदी हुई ढीली टहनियों की सुस्त-सी उठान के साथ मेरी ओर उठ आई थीं। उसे इस तरह लाचार देखकर भ्रम हुआ था कि वह दम तोड़ रहा है।

लेकिन मैं जानता हूँ कि वह मज़ी किसी भी क्षण उछलकर खड़ा हो सकता है। होश सँभालने पर वह कुछ कहेगा नहीं। उसकी ताक़त उसकी ख़ामोशी में है। बातें वह उस ज़माने में भी बहुत कम किया करता था, लेकिन अब तो जैसे बिलकुल गूँगा हो गया हो। • उसकी गूँगी अवहेलना की कल्पना मात्र से मुझे दहशत हो रही है। कहा न कि मैं एक बुजदिल इनसान हूँ।

वैसे मैं न जाने कैसे समझ बैठा था कि इतने अरसे की अलहदगी के बाद अब मैं उसके आतंक से पूरी तरह आजाद हो चुका हूँ। इसी खुशफ़हमी में शायद उस रोज उसे मैं अपने साथ ले आया था। शायद मन में कहीं उस पर रोब गाँठने, उसे नीचा दिखाने की दुराशा भी रही हो। हो सकता है कि मैंने सोचा हो कि वह मेरी जीती-जागती खूबसूरत बीवी, चहकते – मटकते तन्दुरुस्त बच्चों, और आरास्ता-पैरास्ता आलीशान कोठी को देखकर ख़ुद ही मैदान छोड़कर भाग जाएगा, और हमेशा के लिए मुझे उससे निजात मिल जाएगी। शायद मैं उस पर यह साबित कर दिखाना चाहता था कि उससे पीछा छुड़ा लेने के बाद किस खुशगवाह हद तक मैंने अपनी ज़िन्दगी को सँभाल-सँवार लिया है।

मछलियाँ / कहानी /लेखिका उषा प्रियंवदा / एक दुनिया समानांतर