ईदगाह रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है,
पत्नी (कहानी ) |Patni | Jainendra Kumar |
इस कहानी में लेखक चुपके से स्त्री के मन में गहरी पैठ बनाते हुए उसकी दमित आकांक्षाओं और क्षत-विक्षत सपनों को सतह पर लाते हैंI
यांत्रिक भाव से जीती सुनंदा.मन में उठती टीस और उसके अरमान सबका गला घोंटने को मजबूर ..कभी यूँ भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती है कि पति का जी दुखाने के लिए उसकी उपस्थिति का नोटिस न लेकर ’कठोरतापूर्वक शून्य को ही देखती रहती’ है......तो पति कालिंदीचरण में जागता है पुरुष का अहं भाव तो दूसरी और अपने मान की रक्षा की मूक मिन्नतें भी सुनन्दा से करता है! पढ़िए जैनेन्द्र कुमार की कालजयी रचना ...
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Video prepared and presented by Alpana Verma
हिंदी माध्यम से सिविल परीक्षा देने वाले विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम वालों से अपेक्षाकृत अधिक मेहनत करते हैं लेकिन सफल नहीं हो पाते...कोचिंग ज्वाइन करते हैं लेकिन तब भी सफलता नहीं मिलती...ऐसा क्यों होता है ? सिविल परीक्षा /संघ लोक सेवा आयोग ( UPSC) देने वाले विद्यार्थियों के लिए डॉ.के. सिद्दार्थ के सुझाव ,उनकी कुछ बातें सुनकर आपको ताव आ सकता है कि ऐसा उन्होंने क्यों कहा.....लेकिन बहुत ध्यान से विचार करिए ,उनके कहने में काफी हद तक सत्यता है और विडियो के आखिर में उन्होंने काफी सुझाव दिए हैं उनको नोट करें और अपनी तैयारी को बेहतर बनाएँI शुभकामनाएँ! https://youtu.be/SEW-Rj-WVXk
The play 'The Book That Saved The Earth' by Claire Boiko is set in Mars in the 25th century. It is full of imagination. The characters like Think-Tank, Noodle, Oop , Omega etc. play as the Martian living beings, The story is set in the distant 25th Century where a historian is narrating a tale of past glories. The play tells us in detail as to how the book successfully saved the earth from Martian invasion.
UGC-NET परीक्षा देने वाले परीक्षार्थी अपनी परीक्षा सम्बन्धित जानकारी के लिए NTA की वेबसाइट पर देखें I यह लिंक है जहाँ आप जान सकते हैं कि प्रश्न कैसे आएँगे और कम्प्यूटर पर परीक्षा कैसे देनी होगीI
इसके साथ ही आप स्वमूल्यांकन हेतु mock test भी दे सकते हैं😊🌟 Good luck! :
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Entire syllabus for 2022 Subject Hindi
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UGC NET Paper-I Syllabus 2022 In Hindi
इकाई- I: हिंदी भाषा और उसका विकास
हिंदी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: प्राचीन भारतीय आर्य भाषाएं, मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएं- पाली, प्राकृत- शौरसेनी, अर्धमगधी, मागधी, अपभ्रंश और उनकी विशेषताएं, अपभ्रंश अवहठ और पुरानी हिंदी का संबंध, आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं और उनका वर्गीकरण, हिंदी का भौगोलिक विस्तार: हिंदी की उपभाषाएं, पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी, बिहारी तथा पहाड़ी वर्ग और उसकी बोलियां, खड़ीबोली, ब्रज और अवधी की विशेषताएं, हिंदी के विविध रूप: हिंदी, उर्दू, दक्खिनी, हिंदुस्तानी, हिन्दी का भाषिक स्वरूप: हिंदी की स्वनिम व्यवस्था- खंड्य और खंड्येतर, हिंदी ध्वनियों के वर्गीकरण का आधार, हिंदी शब्द-रचना- उपसर्ग, प्रत्यय, समास, हिंदी की रूप-रचना- लिंग, वचन और कारक व्यवस्था के संदर्भ में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया-रूप, हिंदी-वाक्य-रचना, हिंदी भाषा-प्रयोग के विविध रूप: बोली, मानक भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा, संचार माध्यम और हिंदी, कंप्यूटर और हिंदी, हिंदी की संवैधानिक स्थिति, देवनागरी लिपि: विशेषताएं और मानकीकरण
इकाई- II: हिंदी साहित्य का इतिहास
हिंदी साहित्येतिहास दर्शन, हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की पद्धतियाँ, हिंदी साहित्य का काल-विभाजन और नामकरण, आदिकाल की विशेषताएं एवं साहित्यिक प्रवृत्तियां, रासो-साहित्य, आदिकालीन हिंदी का जैन साहित्य, सिद्ध और नाथ साहित्य, अमीर खुसरो की हिन्दी कविता, विद्यापति और उनकी पदावली तथा लौकिक साहित्य भक्तिकाल भक्ति-आंदोलन के उदय के सामाजिक-सांस्कृतिक कारण, भक्ति-आंदोलन का अखिल भारतीय स्वरूप और उसका अंतःप्रादेशिक वैशिष्ठ्य, भक्ति-काव्य की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, आलवार संत, भक्ति-काव्य के प्रमुख संप्रदाय और उनका वैचारिक आधार, निर्गुण-सगुण कवि और उनका काव्य रीतिकाल
सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, रीतिककाल की प्रमुख प्रवृत्तियां (रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त), रीतिकाल के प्रमुख कवि और उनका काव्य आधुनिक काल
हिंदी गद्य का उद्भव और विकास, भारतेंदु पूर्व इन हिंदी गद्य, 1857 की क्रांति और सांस्कृतिक पुनर्जागरण, भारतेंदु और उनका युग, पत्रकारिता का आरंभ और 19वीं शताब्दी की हिंदी पत्रकारिता, आधुनिकता की अवधारणा द्विवेदी युग: महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनका युग, हिंदी नवजागरण और सरस्वती, राष्ट्रीय काव्य-धारा के प्रमुख कवि, स्वच्छंदतावाद और उनके प्रमुख कवि छायावाद: छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषताएं, छायावाद के प्रमुख कवि प्रगतिवाद की अवधारणा, प्रगतिवादी काव्य और उनके प्रमुख कवि, प्रयोगवाद और नई कविता, नई कविता के कवि समकालीन कविता (वर्ष 2000 तक), समकालीन साहित्यिक पत्रकारिता हिंदी साहित्य की गद्य विधाएं
हिंदी उपन्यास: भारतीय उपन्यास की अवधारणा, प्रेमचंद पूर्व उपन्यास, प्रेमचंद और उनका युग, प्रेमचंद के परवर्ती उपन्यासकार (वर्ष 2000 तक) हिंदी कहानी हिंदी: कहानी का उद्भव और विकास, 20वीं सदी की हिंदी कहानी और प्रमुख कहानी-आन्दोलन एवं प्रमुख कहानीकार हिंदी नाटक: हिंदी नाटक और रंगमंच, विकास के चरण, भारतेंदु युग, प्रसाद युग, प्रसादोत्तर युग, स्वातंत्र्योत्तर युग, साठोत्तर युग और नया नाटक, प्रमुख नाट्यकृतियां, प्रमुख नाटककार (वर्ष 2000 तक) हिंदी एकांकी: हिंदी रंगमंच और विकास के चरण, हिंदी का लोक रंगमंच, नुक्कड़ नाटक हिंदी निबंध: हिंदी निबंध का उद्भव और विकास, हिंदी निबंध के प्रकार और प्रमुख निबंधकार हिंदी आलोचना: हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास, समकालीन हिंदी आलोचना एवं उसके विविध प्रकार, प्रमुख आलोचक हिंदी की अन्य गद्य विधाएं: रेखाचित्र, संस्मरण, यात्रा-साहित्य, आत्मकथा, जीवनी और रिपोर्ताज, डायरी हिंदी का प्रवासी साहित्य: अवधारणा एवं प्रमुख साहित्यकार
इकाई- III: साहित्यशास्त्र
भारतीय काव्यशास्त्र- काव्य के लक्षण, काव्य हेतु और काव्य प्रयोजन, प्रमुख संप्रदाय और सिद्धांत– रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति और औचित्य, रस निष्पत्ति, साधारणीकरण, शब्दशक्ति, काव्यगुण, काव्य दोष पश्चात काव्यशास्त्र- प्लेटो के काव्य सिद्धांत, अरस्तू: अनुकरण सिद्धांत, त्रासदी विवेचन, विरेचन सिद्धांत, वर्ड्सवर्थ का काव्य भाषा सिद्धांत, कॉलरिज: कल्पना और फैंटेसी, टी. एस. इलियट: निर्वैक्तिकता का सिद्धांत, परंपरा की अवधारणा, आई.ए. रिचर्ड्स: मूल्य सिद्धांत, संप्रेषण सिद्धांत तथा काव्य-भाषा सिद्धांत, रूसी रूपवाद, नई समीक्षा, मिथक, फ़न्तासी, कल्पना, प्रतीक, बिंब।
इकाई- IV: वैचारिक पृष्ठभूमि
भारतीय नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन की वैचारिक पृष्ठभूमि, हिंदी नवजागरण, खड़ीबोली आंदोलन, फोर्ट विलियम कॉलेज, भारतेंदु और हिंदी नवजागरण, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, गांधी दर्शन, अंबेडकर दर्शन, लोहिया दर्शन, मार्क्सवाद, मनोविश्लेषणवाद, अस्तित्ववाद, उत्तर आधुनिकतावाद, अस्मितामूलक विमर्श (दलित, स्त्री, आदिवासी एवं अल्पसंख्यक)
इकाई- V: हिंदी कविता
पृथ्वीराज रासो- रेवा तट अमीर खुसरो- खुसरो की पहेलियां और मुकरियां विद्यापति की पदावली (सं. डॉ. नगेंद्र झा)- पद संख्या 1 से 25 कबीर- (सं. हजारी प्रसाद द्विवेदी)- पद संख्या 160 से 209 जायसी ग्रंथावली (सं. रामचंद्र शुक्ल) नागमती वियोग खंड सूरदास- भ्रमरगीत सार (सं. रामचंद्र शुक्ल)- पद संख्या 21 से 70 तुलसीदास- रामचरितमानस (उत्तरकांड) बिहारी सतसई (सं. जगन्नाथदास रत्नाकर)- दोहा संख्या 1 से 50 घनानंद कवित्त (सं. विश्वनाथ मिश्र)- कवित्त संख्या 1 से 30 मीरा (सं. विश्वनाथ त्रिपाठी)- प्रारंभ से 20 पद अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध- प्रियप्रवास मैथिलीशरण गुप्त- भारत भारती, साकेत (नवम् सर्ग) जयशंकर प्रसाद- आंसू, कामायनी (श्रद्धा, लज्जा और इड़ा सर्ग) निराला- जूही की कली, जागो फिर एक बार, सरोज स्मृति, राम की शक्ति पूजा, कुकुरमुत्ता, बांधो न नाव इस ठांव बंधु सुमित्रानंदन पंत- परिवर्तन, प्रथम रश्मि महादेवी वर्मा- बीन भी हूं मैं तुम्हारी रागिनी भी हूं, मैं नीर भरी दुख की बदली, फिर विकल हैं प्राण मेरे, यह मंदिर का दीप, द्रुत झरो जगत् के जीर्ण पत्र रामधारी सिंह दिनकर- उर्वशी (तृतीय अंक), रश्मिरथी नागार्जुन- कालिदास, बादल को घिरते देखा है, अकाल और उसके बाद, खुरदरे पैर, शासन की बंदूक़, मनुष्य हूं सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय- कलगी बाजरे की, यह दीप अकेला, हरी घास पर क्षण भर, असाध्यवीणा, कितनी नावों में कितनी बार भवानी प्रसाद मिश्र- गीतफ़रोश, सतपुड़ा के जंगल मुक्तिबोध- भूल ग़लती, ब्रह्मराक्षस, अंधेरे में धूमिल- नक्सलबाड़ी, मोचीराम, अकाल-दर्शन, रोटी और संसद
राजेंद्र बाला घोष (बंग महिला)- चंद्रदेव से मेरी बातें, दुलाईवाली माधव सप्रे- एक टोकरी भर मिट्टी सुभद्रा कुमारी चौहान- राही प्रेमचन्द- ईदगाह, दुनिया का अनमोल रतन राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह- कानों में कंगना चंद्रधर शर्मा गुलेरी- उसने कहा था जयशंकर प्रसाद- आकाशदीप जैनेंद्र- अपना अपना भाग्य फणीश्वर नाथ रेणु- तीसरी क़सम, लाल पान की बेगम अज्ञेय- गैंग्रीन शेखर जोशी- कोसी का घटवार भीष्म साहनी- अमृतसर आ गया है, चीफ की दावत कृष्णा सोबती- सिक्का बदल गया हरिशंकर परसाई- इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर ज्ञानरंजन- पिता कमलेश्वर- राजा निरबंसिया निर्मल वर्मा- परिन्दे
इकाई-VIII: हिंदी नाटक
भारतेंदु- अंधेर नगरी, भारत दुर्दशा जयशंकर प्रसाद- चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी धर्मवीर भारती- अंधायुग लक्ष्मीनारायण लाल- सिंदूर की होली मोहन राकेश- आधे अधूरे, आषाढ़ का एक दिन हबीब तनवीर- आगरा बाज़ार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना- बकरी शंकरशेष- एक और द्रोणाचार्य उपेंद्रनाथ अश्क- अंजू देवी मन्नू भंडारी- महाभोज
इकाई-IX: हिंदी निबंध
भारतेंदु- दिल्ली दरबार दर्पण, भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है प्रताप नारायण मिश्र- शिवमूर्ति बालकृष्ण गुप्त- शिव शंभू के चिट्ठे रामचंद्र शुक्ल- कविता क्या है हजारी प्रसाद द्विवेदी- नाखून क्यों बढ़ते हैं विद्यानिवास मिश्र- मेरे राम का मुकुट भीग रहा है अध्यापक पूर्णसिंह- मज़दूरी और प्रेम कुबेरनाथ राय- उत्तराफाल्गुनी के आसपास विवेकी राय- उठ जाग मुसाफिर नामवर सिंह- संस्कृति और सौंदर्य
इकाई- X: आत्मकथा, जीवनी तथा अन्य गद्य विधाएं
रामवृक्ष बेनीपुरी- माटी की मूरतें महादेवी वर्मा- ठकुरी बाबा तुलसीराम- मुर्दहिया शिवरानी देवी- प्रेमचंद घर में मन्नू भंडारी- एक कहानी यह भी विष्णु प्रभाकर- आवारा मसीहा हरिवंश राय बच्चन- क्या भूलूं क्या याद करूं रमणिका गुप्ता- आपहुदरी हरिशंकर परसाई- भोलाराम का जीव कृष्ण चंदर- जामुन का पेड़ दिनकर- संस्कृति के चार अध्याय मुक्तिबोध- एक साहित्यिक की डायरी राहुल सांकृत्यायन- मेरी तिब्बत यात्रा अज्ञेय- अरे यायावर रहेगा याद
छिटक रही है चाँदनी, मदमाती उन्मादिनी
कलगी-मौर सजाव ले कास हुए हैं बावले
पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गई फलाँगती-
सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती!
कुहरा झीना और महीन, झर-झर पड़े अकासनीम
उजली-लालिम मालती गंध के डोरे डालती,
मन में दुबकी है हुलास ज्यों परछाईं हो चोर की-
तेरी बाट अगोरते ये आँखें हुईं चकोर की!
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भोर का बावरा अहेरी
पहले बिछाता है आलोक की
लाल-लाल कनियाँ
पर जब खींचता है जाल को
बाँध लेता है सभी को साथ :
छोटी-छोटी चिड़ियाँ, मँझोले परेवे, बड़े-बड़े-पंखी
डैनों वाले डील वाले डौल के बेडौल
उड़ने जहाज,
कलस-तिसूल वाले मंदिर-शिखर से ले
तारघर की नाटी मोटी चिपटी गोल धुस्सों वाली उपयोग-सुंदरी
बेपनाह काया को :
गोधूली की धूल को, मोटरों के धुएँ को भी
पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक-खची तन्वि रूप-रेखा को
और दूर कचरा जलाने वाली कल की उद्दंड चिमनियों को, जो
धुआँ यों उगलती हैं मानो उसी मात्र से अहेरी को हरा देंगी!
बावरे अहेरी रे
कुछ भी अवध्य नहीं तुझे, सब आखेट है :
एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को
दुबकी ही छोड़ कर क्या तू चला जाएगा?
ले, मैं खोल देता हूँ कपाट सारे
मेरे इस खँडर की शिरा-शिरा छेद दे आलोक की अनी से अपनी,
गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर दे :
विफल दिनों की तू कलौंस पर माँज जा
मेरी आँखें आँज जा
कि तुझे देखूँ
देखूँ और मन में कृतज्ञता उमड़ आए
पहनूँ सिरोपे से ये कनक-तार तेरे-
बावरे अहेरी।
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बन्दी!'' ''क्या है? सोने दो।'' ''मुक्त होना चाहते हो?'' ''अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।'' ''फिर अवसर न मिलेगा।'' ''बड़ा शीत है, कहीं से एक कम्बल डालकर कोई शीत से मुक्त करता।'' ''आँधी की सम्भावना है। यही अवसर है। आज मेरे बन्धन शिथिल हैं।''.......
कथाकार सूर्यबाला का पहला कहानी-संग्रह 'एक इंद्रधनुष: जुबेदा के नाम'है.
जन्म =२५ अक्टूबर , ११४३ (वाराणसी)।
शिक्षा : एमए., पी-एचडी., (काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी)।
समकालीन कथा साहित्य में सूर्यबाला का लेखन अपनी विशिष्ट भूमिका और महत्त्व रखता है।
समाज, जीवन, परंपरा, आधुनिकता एवं उनसे जुड़ी समस्याओं को लेखिका एक खुली, मुक्त और नितांत अपनी दृष्टि से देखने की कोशिश करती हैं।
प्रकाशित कृतियाँ : 'मेरे संधि-पत्र', 'सुबह के इंतजार तक', 'अग्निपंखी', 'यामिनी-कथा', 'दीक्षांत' (उपन्यास);'एक इंद्रधनुष', 'दिशाहीन', 'थाली भर चाँद', 'मुंडेर पर', 'गृह-प्रवेश', 'साँझवाती', 'कात्यायनी संवाद', 'इक्कीस कहानियों', 'पांच लंबी कहानियाँ', 'सिस्टर! प्लीज आप जाना नहीं', 'मानुस-गंध' (कथा-संग्रह); 'अजगर करे न चाकरी', 'धृतराष्ट्र टाइम्स', 'देशसेवा के अखाड़े में' (हास्य-व्यंग्य); 'झगड़ा निपयरक दफ्तर' ( बालोपयोगी)।
टी.वी. धारावाहिकों के माध्यम से अनेक कहानियों, उपन्यासों तथा हास्य-व्यंग्यपरक रचनाओं का रूपांतर प्रस्तुत, जिनमें 'पलाश के फूल', 'न किन्नी न', 'सौदागर', 'एक इंद्रधनुष: जुबेदा के नाम', 'सबको पता है', 'रेस', 'निर्वासित' आदि प्रमुख हैं।
सम्मान : प्रियदर्शिनी पुरस्कार, घनश्याम दास सराफ़ पुरस्कार
हरी घास पर क्षण भर --सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'
आओ बैठें
इसी ढाल की हरी घास पर।
माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है,
और घास तो अधुनातन मानव-मन की भावना की तरह
सदा बिछी है-हरी, न्यौतती, कोई आ कर रौंदे।
आओ, बैठो।
तनिक और सट कर, कि हमारे बीच स्नेह-भर का व्यवधान रहे,
बस,
नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की।
चाहे बोलो, चाहे धीरे-धीरे बोलो, स्वगत गुनगुनाओ,
चाहे चुप रह जाओ-
हो प्रकृतस्थ : तनो मत कटी-छँटी उस बाड़ सरीखी,
नमो, खुल खिलो, सहज मिलो
अंत:स्मित, अंत:संयत हरी घास-सी।
क्षण-भर भुला सकें हम
नगरी की बेचैन बुदकती गड्ड-मड्ड अकुलाहट-
और न मानें उसे पलायन;
क्षण-भर देख सकें आकाश, धरा, दूर्वा, मेघाली,
पौधे, लता दोलती, फूल, झरे पत्ते, तितली-भुनगे,
फुनगी पर पूँछ उठा कर इतराती छोटी-सी चिड़िया-
और न सहसा चोर कह उठे मन में-
प्रकृतिवाद है स्खलन
क्योंकि युग जनवादी है।
क्षण-भर हम न रहें रह कर भी :
सुनें गूँज भीतर के सूने सन्नाटे में
किसी दूर सागर की लोल लहर की
जिस की छाती की हम दोनों छोटी-सी सिहरन हैं-
जैसे सीपी सदा सुना करती है।
क्षण-भर लय हों-मैं भी, तुम भी,
और न सिमटें सोच कि हम ने
अपने से भी बड़ा किसी भी अपर को क्यों माना!
क्षण-भर अनायास हम याद करें :
तिरती नाव नदी में,
धूल-भरे पथ पर असाढ़ की भभक, झील में साथ तैरना,
हँसी अकारण खड़े महा-वट की छाया में,
वदन घाम से लाल, स्वेद से जमी अलक-लट,
चीड़ों का वन, साथ-साथ दुलकी चलते दो घोड़े,
गीली हवा नदी की, फूले नथुने, भर्रायी सीटी स्टीमर की,
खंडहर, ग्रथित अँगुलियाँ, बाँसे का मधु,
डाकिये के पैरों की चाँप
अधजानी बबूल की धूल मिली-सी गंध,
झरा रेशम शिरीष का, कविता के पद,
मसजिद के गुम्बद के पीछे सूर्य डूबता धीरे-धीरे,
झरने के चमकीले पत्थर, मोर-मोरनी, घुँघरू,
संथाली झूमुर का लंबा कसक-भरा आलाप,
रेल का आह की तरह धीरे-धीरे खिंचना, लहरें,
आँधी-पानी,
नदी किनारे की रेती पर बित्ते-भर की छाँह झाड़ की
अँगुल-अँगुल नाप-नाप कर तोड़े तिनकों का समूह,
लू,
मौन।
याद कर सकें अनायास : और न मानें
हम अतीत के शरणार्थी हैं;
स्मरण हमारा-जीवन के अनुभव का प्रत्यवलोकन-
हमें न हीन बनावे प्रत्यभिमुख होने के पाप-बोध से।
आओ बैठो : क्षण-भर :
यह क्षण हमें मिला है नहीं नगर-सेठों की फैयाज़ी से।
हमें मिला है यह अपने जीवन की निधि से ब्याज सरीखा।
आओ बैठो : क्षण-भर तुम्हें निहारूँ।
अपनी जानी एक-एक रेखा पहचानूँ
चेहरे की, आँखों की-अंतर्मन की
और-हमारी साझे की अनगिन स्मृतियों की :
तुम्हें निहारूँ,
झिझक न हो कि निरखना दबी वासना की विकृति है!
धीरे-धीरे
धुँधले में चेहरे की रेखाएँ मिट जाएँ-
केवल नेत्र जगें : उतनी ही धीरे
हरी घास की पत्ती-पत्ती भी मिट जावे लिपट झाड़ियों के पैरों में
और झाड़ियाँ भी घुल जावें क्षिति-रेखा के मसृण ध्वांत में;
केवल बना रहे विस्तार-हमारा बोध
मुक्ति का,
सीमाहीन खुलेपन का ही।
चलो, उठें अब,
अब तक हम थे बंधु सैर को आए-
(देखे हैं क्या कभी घास पर लोट-पोट होते सतभैये शोर मचाते?)
और रहे बैठे तो लोग कहेंगे
धुँधले में दुबके प्रेमी बैठे हैं।
-वह हम हों भी तो यह हरी घास ही जाने :
(जिस के खुले निमंत्रण के बल जग ने सदा उसे रौंदा है और वह नहीं बोली),
नहीं सुनें हम वह नगरी के नागरिकों से
जिन की भाषा में अतिशय चिकनाई है साबुन की
किंतु नहीं है करुणा
कितनी नावों में कितनी बार
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--सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'
कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति!
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत—
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार...
और कितनी बार कितने जगमग जहाज़
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश—
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य—तथ्य—
सत्य नहीं, अंतहीन सच्चाइयाँ...
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त—
कितनी बार!
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हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरी बाजरे की।
अगर मैं तुमको ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद् के भोर की नीहार न्हायी कुँई।
टटकी कली चंपे की, वगैरह, तो
नहीं, कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गए हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच।
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :
तुम्हारे रूप के, तुम हो, निकट हो, इसी जादू के
निजी किस सहज गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूँ-
अगर मैं यह कहूँ-
बिछली घास हो तुम
लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की?
आज हम शहरातियों को
पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फूल-से
सृष्टि के विस्तार का, ऐश्वर्य का, औदार्य का
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है
या शरद् की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती
कलगी अकेली
बाजरे की।
और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूँ
यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट जाता है
और मैं एकांत होता हूँ समर्पित।
शब्द जादू हैं-
मगर क्या यह समर्पण कुछ नहीं है
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लाल पान की बेगम /Laal paan ki bagum/पूरी कहानी
फणीश्वरनाथ 'रेणु'/कहानी और उसके महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर चर्चा
इस मुहल्ले में लाल पान की बेगम बसती है! नहीं जानती, दोपहर-दिन और इस मुहल्ले में लाल पान की बेगम बसती है! नहीं जानती, दोपहर-दिन और चौपहर-रात बिजली की बत्ती भक्-भक् कर जलती है!' भक्-भक् बिजली-बत्ती की बात सुन कर न जाने क्यों सभी खिलखिला कर हँस पड़ी।
----------- स्त्री सशक्तिकरण की मिसाल प्रस्तुतु करती हुई कहानी -स्त्री अपनी जिंदगी को अपनी शर्तो पर जीना चाहती है। वह आत्मसम्मान चाहती है ...क्या बिरजू कीमं की लालसा पूरी हो सकी?
लेखक: सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" प्रस्तुति : अल्पना वर्मा
गैंग्रीन / रोज़ .....दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था।
मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक से मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, ‘‘आ जाओ!’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।
भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, ‘वे यहाँ नहीं है?’’
‘‘अभी आये नहीं, दफ़्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।’’
‘‘कब के गये हुए हैं?’’
‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं।’’
‘‘मैं ‘हूँ’ कर पूछने को हुआ, ‘‘और तुम इतनी देर क्या करती हो?’’ पर फिर सोचा, ‘आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं हैं। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा।
मालती एक पंखा उठा लायी, और मुझे हवा करने लगी। मैंने आपत्ति करते हुए कहा, ‘‘नहीं, मुझे नहीं चाहिए।’’ पर वह नहीं मानी, बोली,‘‘वाह! चाहिए कैसे नहीं? इतनी धूप में तो आये हो। यहाँ तो।’’
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Video prepared and presented by Alpana Verma
*लेखक की प्रतिनिधि कहानियों में से एक है,इस कहानी में गर्मी बेचैनी के प्रतीक के रूप में उभरी है। यह कहानी पिता -विरोधी कहानी नहीं है क्योंकि इस में पारिवारिक नींव के रूप में रक्षक पिता की भूमिका का भी उल्लेख किया है .
पिता-पुत्र के सम्बन्धों में द्वंद्व की सृष्टि पुत्र द्वारा पिता के लिए सुविधाएँ जुटाने के प्रयासों के प्रति पिता की उदासीनता और अरुचि से होती है और यहीं आकर कहानी की अंतर्वस्तु खुलती है ,दो पीढ़ियों के मध्य टकराव के साथ ही उन बीच के भावनात्मक लगाव को काहनी साथ ले कर चलती है यही इस कहानी की बड़ी विशेषता है ।