Tuesday, November 1, 2022

दूध और दवा /लेखक : मार्कण्डेय -'एक दुनिया समानांतर' से

लेखक बनने की इच्छा और यथार्थ के अभावों से जूझता कहानी का नायक आदर्श और यथार्थ के द्वन्द्व में फँसा है! काहनी सुनिए या पढिए :-

दूध और दवा


लेखक : मार्कण्डेय


बात बहुत छोटी-सी है, नाजुक और लचीली, पर मौका पाते ही सिर तान लेती है। कोई काम शुरू करने, सोने या पल-भर को आराम से पहले लगता है, कुछ देर इस प्यारी बात के साथ रहना कितना अच्छा है! वैसे मुझे काम करना, करते रहना और करते-करते उसी में खो जाना प्रिय है। इसी की बात भी मैं लोगों से करता हूँ और दूसरों से यही चाहता भी हूं, पर यह सब तभी होता है, जब मेरे चारों ओर लोग होते हैं। ऐसा नहीं कि लोगों में मेरे बीवी-बच्चे शामिल नहीं हैं। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं किसी भीड़ में खड़ा हूँ और असह्य ध्वनियाँ  मेरे कानों के परदे को छेदने लगती हैं। मैं भाग कर अपने कमरे में घुस जाना चाहता हूं, पर उसकी बड़ी-बड़ी, आंसुओं में डूबी हुई आंखें... 'मैं क्या करूं इनका? देखते हो, अब मुन्नी भी दूध के लिए जिद करती है!'... ऐसा नहीं कि बात मेरे मन में गहरे तक नहीं उतरती, मैं तो मुन्नी को स्कूल जाने के लिए एक छोटी मोटर खरीदना चाहता हूं। हल्के, गुलाबी रंग के फ्रॉक में लड़खड़ाती, दौड़ती मुन्नी को देखने की मेरी कैसी विचित्र लालसा है, जो कभी पूरी होती ही नहीं दिखाई देती!


सुबह-सुबह बिस्तर से उठते ही वह जोर-जोर से चीखने लगती है, जब उसकी मांड़े से सूजी आँखें  और भी सूजी होती हैं। कई बार मन में डाक्टर की बात उठती है, डर लगता है, कहीं मुन्नी की मां की पतली, लंबी, किश्ती-सी आंखों का पुराना छेद फिर न खुल जाए और सवेरे-सवेरे डूबने-औराने की मर्मान्तक पीड़ा में मुझे लिखना-पढ़ना छोड़ कर सड़क का चक्कर काटना पड़े! मैं चुपचाप एक निश्चय करके कमरे में चला जाता हूं... पहले डाक्टर का इंतजाम कर के ही उससे चर्चा करूंगा। पर फिर वही नन्ही-सी बात!... तुम्हें खोजने लगता हूं, तुम, जो इस कड़ी जमीन की चुभन से पल-भर को उठा कर मुझे एक सुनहले, झिलमिलाते लोक में खींच ले जाती हो... तुम्हारे सीने के बीच, मुलायम, उजले देह-भाग में मुंह डाल कर पल-भर को सांस लेना कितना अच्छा लगता है मुझे! शायद तुम्हें याद होगा... बात मकड़ी के जाले की तरह तनने लगती है, लेकिन घंटों और घंटों आंखें बंद रखने पर भी शिकार कोई नहीं फंसता और मैं बीवियों और मजदूरों के बारे में सोचने लगता हूं!... आखिर इन दोनों को हरदम शिकायतें क्यों रहती हैं। क्यों इन दोनों के सीने में खारे पानी का इतना विशाल समुद्र फफाया रहता है, मृत्यु की आखिरी कराह की तरह इस समुद्र की लहरें चीख़ती हैं, पर किसी खोखले श्राप की तरह मिथ्या बन कर बिखर जाती हैं। मैं इन विनाशकारी लहरों को दुनिया को निगल जाते देखने के लिए व्याकुल हो उठता हूं, पर हल्की-सी मुस्कुराहट या वह भी नहीं तो बस मुलायम कलाइयों की पकड़ और उस समय कुछ भी और न सुनने की बात... जाने भी दो!... कमर के नीचे नंगी, खुली... मैं इस असामयिक मृत्यु से बचना चाहता हूं, पर कोई चारा नहीं। मुन्नी की मां के जीने का यही सहारा है और मेरे पास उन मृत्यु की घाटियों के सूनेपन को दूर करने का यही उपाय। वह विश्वास नहीं करती, पर मैं सच कहता हूँ कि मुझे इतना बहुत अच्छा लगता है! इसलिए मैं समझ नहीं पाता कि स्त्रियाँ  और मजदूर मालिकों को क्यों ओढ़े हुए हैं, महज इतनी-सी बात के लिए, या मुन्नी की आंखों के मांड़े की दवा या उसके दूध के लिए!