Dear CBSE students, NCERT has provided audio books for almost all the classes(Primary , grade 1 to grade 12) ..
Please refer them ,take help for reading.Many of you may not be knowing about it.Make use of them to learn better.
क्या आपको पुस्तक के वाचन में सहायता चाहिए?
NCERT ने इस लिंक पर कक्षा १ से १२ तक की कई पुस्तकों की ऑडियो उपलब्ध की हुई है ,
गाड़ी ठसाठस भरी थी. स्टेशन पर तीर्थयात्रियों का उफान सा उमड़ रहा था. एक तो माघ की पुण्यतिथि में अर्द्ध कुंभ का मेला, उस पर प्रयाग का स्टेशन. मैंने रिजर्वेशन स्लिप में अपना नाम ढूँढा और बड़ी तसल्ली से अन्य तीन नामों की सूची देखी. चलिए, तीनों महिलाएँ ही थीं. पुरुष सहयात्रियों के नासिकागर्जन से तो छुट्टी मिली. दो महिलाएँ आ चुकी थीं,एक जैसा कि मैंने नाम से अनुमान लगा लिया था कि महाराष्ट्री थी और दूसरी पंजाबी. तीसरी मैं थी और चौथी अभी आई नहीं थी. मैं एक ही दिन के लिए बाहर जा रही थी, इसी से एक छोटा बटुआ ही साथ में था.
आसपास बिखरे दोनों महिलाओं के भारी भरकम सूटकेस, स्टील के बक्स और मेरू पर्वत से ऊँचे ठंसे कसे होल्डाल देखकर मैंने अपने को बहुत हल्का-फुल्का अनुभव किया. वैसे भी मैं सोचती हूँ, बक्स होल्डालहीन यात्रा में जो सुख है, वह अन्य किसी में नहीं. चटपट चढ़े और खटखट उतर गये. न कुलियों के हथेली पर धरे द्रव्य को अवज्ञापूर्ण दृष्टि से देखकर ‘ये क्या दे रही हैं, साहब’ कहने का भय, न सहयात्रियों के उपालंभ की चिंता. मेरे साथ की महाराष्ट्री महिला ने अपने वृहदाकार स्टील के बक्स एक के ऊपर एक चुनकर पिरामिड से सजा दिए थे. लगता था, वह प्रत्येक वस्तु के लिए स्थान और प्रत्येक स्थान के लिए वस्तु की उपादेयता में विश्वास रखती थी. वह स्वयं बड़ी शालीनता से लेटकर एक सीध में दो तकिये लगाये एक मराठी पत्रिका पढ़ने में तल्लीन थी. दूसरी पंजाबी महिला के पास एक सूटकेस, टोकरी और बिस्तरा ही था, पर तीनों बेतरतीबी से बिखरे पड़े थे. उनका एक सुराहीदान, जिसकी एक टाँग, अधिकांश सुराहीदानों की भाँति कुछ छोटी थी, बार-बार लुढ़ककर उनको परेशान किये जा रहा था.
वे बेचारी चश्मा उतारकर रखतीं, हाथ की जासूसी अंग्रेजी पुस्तक, जिसे पढ़ने में उन्हें पर्याप्त रस आ रहा था, औंधी कर बर्थ पर टिकातीं, झुँझलाकर सुराहीदान ठिकाने से लगाकर जैसे ही हाथ की पुस्तक के रस की डुबकी लगातीं कि सुराहीदान फिर लुढ़क जाता. मुझे उनकी उलझन देखकर बड़ी हँसी आ रही थी, वैसे मैं उनकी परेशानी काफी हद तक दूर कर सकती थी, क्योंकि सुराहीदान मेरे पास ही धरा था. मैं उसकी लँगड़ी टाँग को अपने बर्थ से टिकाकर लुढ़कने से रोक सकती थी. पर सुराही को ऐसी बेतुकी काठ की सवारी में साथ लेकर चलनेवालों से मुझे कभी सहानुभूति नहीं रहती.
पंजाबी महिला संभवत: किसी मीटिंग में भाग लेने जा रही थीं, क्योंकि उनके साथ एक मोटी सी फाइल भी चल रही थी, जिसे खोल वो बीच-बीच में हिल हिलकर कुछ आंकड़ों को पहाड़ों की भाँति रटने लगती और फिर बंद कर उपन्यास पढ़ने लगतीं. उनकी सलवार, कमीज, दुपट्टा, यहाँ तक कि रुमाल भी खद्दर का था और शायद उसी के संघर्ष से उनकी लाल नाक का सिरा और भी अबीरी लग रहा था. उनके चेहरे पर रोब था, किंतु लावण्य नहीं. रंग गोरा था, किंतु खाल में हाथ की बुनी खादी सा ही खुरदरापन था. ठुड्डी पर एक बड़े से तिल पर दो-तीन लंबे बाल लटक रहे थे, जिन्हें वे उँगली में लपेटती छल्ले सा घूमा रही थीं.
या वे प्रौढ़ा कुमारी थीं, या विधवा, क्योंकि चेहरे पर एक अजीब रीतापन था. जीवन के उल्लास की एक आध रेखा मुझे ढूँढने से भी नहीं मिली. जासूसी पुस्तक को थामने वाली उनके हाथों की बनावट मर्दानी और पकड़ मजबूत थी. ये वे हाथ नहीं हो सकते, मैं मन में सोच रही थी, जो बच्चों को मीठी लोरी की थपकनें देकर सुलाते हैं. पति की कमीज के बटन टाँकते हैं, या चिमटा सँडसी पकड़ते हैं. ये वे हाथ नहीं हैं, जिनकी हस्तरेखाओं को उनकी कर्मरेखाएँ धूल-कालिख की दरारों से मलिन कर देती हैं.
मेरा अनुमान ठीक था, स्वयं ही उन्होंने अपना परिचय दे दिया. वे पंजाब के एक विस्थापित स्त्रियों के लिए बनाये गये आश्रम की संचालिका थीं. हाल ही में विदेश से लौटी थीं और लखनऊ की किसी समाज-कल्याण गोष्ठी में भाग लेने जा रही थीं. समाज-सेविकाओं में उनका नाम अग्रणी था.
महाराष्ट्री महिला के परिचय का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था. उस स्वल्प भाषिणी सुंदरी प्रौढ़ा ने हममें से किसी को भी मैत्री का हाथ बढ़ाकर प्रोत्साहित नहीं किया. हाथ की मराठी पत्रिका को पढ़ती वे कभी स्वयं ही मुस्कराती जा रही थीं और कभी गहरी उदासी से गर्दन मोड़ ले रही थीं. स्पष्ट था कि किसी कुशल मराठी कथा लेखक की सिद्ध कलम का जादू उन्हें कठपुतली-सी नचा रहा था. वे हमारे डिब्बे में होकर भी नहीं थीं. उनके गोरे रंग पर उनकी लाल शोलापुरी साड़ी लपटें सी मार रही थी. गोल परिपाटी से बाँधा गया जूड़ा एड़ी चुंबी केशराशि के मूलधन का परिचय दे रहा था. कानों में सात मोतियों के वर्तुलाकार कर्णफूल थे और गले में था दुहरी लड़ का मंगलसूत्र, जिसे वे अभ्यासवश बार-बार दाँतों में दबा ले रही थीं. उनके सामान पर संभवत: उनके पति के नाम का लेबल लगा था- मेजर जनरल विनोलकर और वे वास्तव में थीं भी मेजर जनरल की ही पत्नी होने के योग्य. पूरे चेहरे में दोनों आँखें ही सबसे ज्वलंत आभूषण थीं. वे कुछ भी नहीं बोल रही थीं, पर वे बड़ी-बड़ी आँखें निरंतर हँसती-मुस्कराती, परिचय देती, मजाक उड़ाती जा रही थी. कभी वे मुझे देखतीं, कभी उस पंजाबी महिला को, पर आँखें चार होते ही बड़ी अवज्ञा से दृष्टि फेर मंगलसूत्र दाँतों में दबा पत्रिका पढ़ने लगतीं.
गाड़ी ने सीटी दी और ठीक इसी समय हमारे साथ की चौथी महिला ने डिब्बे में प्रवेश किया. गाड़ी मानो उन्हीं के लिए रुकी थी, डाँट-डपट की फुफकारें छोड़ती गाड़ी चली और उसी धक्के के साथ ये महिला फद्द से सीट पर लुढ़क पड़ीं. उनके हाथ में बेंत से बनी एक छोटी सी टोकरी थी और काँख में चौकोर बटुआ दबा था. ‘ओह! लगता था, गाड़ी छूट ही जाएगी. बाप रे बाप! कैसी दौड़ लगानी पड़ी.’ मैं उन्हें देखती ही रह गयी. समाज सेविका ने जासूसी उपन्यास बंद कर दिया,मराठी मोनालिसा ने चश्मा उतारकर हाथ में ले लिया और बैठ गयी.
हम तीनों की ही दृष्टि उस चौथी पर आबद्ध हो गयी. दोष हमारा नहीं था, वह चीज ही देखने लायक थी.
हमारा घूरना उन्होंने भाँप लिया, “केम बेन, बहुत लंबी हूँ न मैं.” वह हँसी, “छह फुट साढ़े दस इंच टु बी एग्जैक्ट, शायद भारत की सबसे लंबी नारी. चलिए, यह अच्छा है कि इस डिब्बे में आज हम चारों महिलाएँ ही हैं, नहीं तो मुए पुरुष भी मुझे घूरते.” फिर वे दनादन हमारा इंटरव्यू लेने लगीं. पहला प्रहार मुझ पर ही हुआ. समाज-सेविका ने ठक-ठक कर रूखे उत्तरों के दो-तीन चाँटे धर दिये.
महाराष्ट्री महिला ने ‘हिंदी नहीं जानता’ कह पीठ फेर ली, तो उस महिला ने त्रुटिहीन अंग्रेजी का धाराप्रवाह भाषण झाड़ दिया, “मुझे मदालसा कहते हैं. मदालसा सिंघानिया. कल ही प्रिटोरिया से आई हूँ, अपने पति की मृत देह लेने.” मैं चौंक गयी. समाज-सेविका ने अपने रूखे व्यवहार पर लज्जित होकर, चट आगे बढ़कर उसके दोनों हाथ थाम लिए, “अरे राम राम, कोई दुर्घटना हो गई थी क्या?” उन्होंने बड़े दर्द से पूछा.
मदालसा की वेशभूषा में सद्य वैधव्य का कहीं कोई चिह्न नहीं था. वे लंबी होने पर भी पठानिन सी गठे कसे शरीर की लावण्यमयी गतयौवना थीं. उनके बाल किसी दामी सैलून में कटे सँवरे लग रहे थे. अपनी धानी रेशमी साड़ी को वे हाफ पैंट की भाँति ऊपर चढ़ा, दोनों पैरों की पालथी मार, आराम से जम गईं.
“असल में पिछले वर्ष, एक पर्वतारोही दल के साथ मेरे पति भारत आए थे, वहीं एक एवलैंश (तूफान) के नीचे दबकर उनकी मृत्यु हो गई.”
“च्च च्च च्च, तो क्या मृत देह अब मिली? मैंने पूछा.
“हाँ, भारत सरकार ने मुझे सूचित किया, तो भागती आई. बर्फ में दबी देह, सुना ज्यों की त्यों मिली है. मेरे बुने स्वेटर का, जिसे इन्होंने पहना था, एक फंदा भी नहीं टूटा.”
मृत पति की स्मृति ने उन्हें भाव विभोर कर दिया. बटुए से मर्दाना रूमाल निकाल, वे कभी आँखें पोंछने लगीं, कभी अपनी सूपनखा सी लंबी नाक. बेचारी करतीं भी क्या! कोई भी जनाना रूमाल उस नाक का अस्तित्व नहीं सँभाल सकता था.
अचानक हम तीनों को, बेचारी मदालसा का एक वर्ष पुराना वैधव्य, एक दम ताजा लगने लगा.
“तो क्या अब आप अपने “हसबैंड’ का ‘डेड बॉडी’ लेकर प्रिटोरिया ‘फ्लाई’ करेगा?” महाराष्ट्री महिला ने पूछा.
“नहीं बेन” मदालसा सीट पर लेट गयी,तो लगा एक लंबे खजूर का कटा पेड़ ढह गया.
एक लंबी साँस खींचकर उन्होंने कहा, “मैं असल में सती होने भारत आई हूँ.” हम तीनों को ए साथ अपने इस उत्तर का क्लोरोफॉर्म सुँघा, सती ने एकदम आँखें मूँद ली, जैसे वह चाह रही थी कि अब हम उन्हें शांति से पड़े रहने दें.
ऐसा भी भला किसी ने सुना था इस युग में! सुस्पष्ट उच्चारण में अँग्रेजी बोलने वाली, छह फुट साढ़े दस इंच की यह काया, कल बर्फ में दबी पति की एक साल बासी लाश को छाती से लगा, जल भुनकर राख हो जायगी.
“नहीं, आपको ऐसी मूर्खता करने का कोई अधिकार नहीं है. यह एक अपराध है, क्या आप यह नहीं जानतीं?” खादीधारी महिला उठकर मदालसा के सिरहाने बैठी, उसे गंभीर भाषण की गोलाबारी झाड़ने लगी, जैसे चिता सचमुच प्रज्वलित हो चुकी है और सती लपटों में कूदने को तत्पर है. ‘भावावेश के दुर्बल क्षणों में नारी कभी बड़ा बचपना कर बैठती है, इसका मुझे व्यापक अनुभव है. अभी हाल ही में मेरे आश्रम की दो युवतियाँ ऐसी मूर्खता कर बैठीं. मुझे ही देखिये, भारत विभाजन के समय मेरे पति की हत्या कर दी गई,पर मैं क्या सती हो गयी? सिली सेंटिमेंट! यदि मैं भी उस दिन आपकी भाँति सती हो जाती, तो आज यह देह दीन-दुखियों के काम आ सकती थी? पहले मॉडल जेल की अध्यक्षा रही और अब गिरी बहनों के आश्रम की देखरेख करती हूँ.”
“ना बेन, ना”, मदालसा ने करवट बदली, “मैं तो सती होने ही भारत आयी हूँ. हाय मेरा नीलरतन, नीलू डार्लिंग!” कह वह फिर मर्दाने रूमाल में मुँह छिपाकर सिसकने लगीं.
“आप चाहें तो मैं आपके साथ चल सकती हूँ. आपके पति के अंतिम संस्कार में आपकी सहायता कर आपको अपने आश्रम में ले चलूँगी.” समाज-सेविका ने अपने उदार प्रस्ताव का चुग्गा डालकर मदालसा को रिझाने की चेष्टा की.
मदालसा बड़ी उदासी से हँसी, “धन्यवाद बेन, पर ब्रह्मा भी अब मुझे अपने निश्चय से नहीं डिगा सकते. यह रोग हमारे खानदान में चला आया है. मेरी परनानी तो राजा राममोहन राय और सर विलियम बेंटिक को भी घिस्सा देकर सती हो गयी थीं. और नानी के लिए तो लोग कहते हैं कि नानाजी की मृत देह गोद में लेकर चिता में बैठते ही, स्वयं चिता धू धू कर जल उठी थी. फिर मेरी माँ और अब मैं.”
“खैर हटाइये भी, पता नहीं किस धुन में आकर आप लोगों से कह गयी. ‘आई शुड नॉट हैव टोल्ड यू.’(मुझे आपसे नहीं कहना चाहिए था.) चलिए, हाथ-मुँह धोकर खाना खा लिया जाय. क्यों, क्या ख्याल है?” उन्होंने अपनी कदली स्तंभ सी जंघाओं पर दोनों हाथों से त्रिताल का टुकड़ा सा बजाया.
हम तीनों को एक बार फिर आश्चर्य उदधि में गोता लगाने को छोड़, वे टोकरी से एक स्वच्छ तौलिया, साबुन निकाल गुसलखाने में घुस गयीं.
उनके जाते ही हम तीनों परम मैत्री की एक डोर में गुँथ गये.
“अजीब औरत है! क्या आप सोचती हैं यह सचमुच सती होने जा रही है?” मैंने मराठी महिला से पूछा.
“देखिए, मरने वाला कभी ढिंढोरा पीटकर नहीं मरता.” वह हँसकर बोली, “हमको तो इसका यह स्क्रू ढीला लगता है.” उन्होंने अपने माथे की ओर अँगुली घुमाई, “इस जमाने में ऐसे सती-फती कोई नहीं होती.”
“क्षमा कीजिएगा”, खादीधारी महिला बड़ी गंभीरता से बोली, “मुझे औरतों का अनुभव आ दोनों से अधिक है. मैं ऐसी भावुक प्रकृति की भोली औरतों को चेहरा देखते ही पहचान लेती हूँ. आँखें नहीं देखी आपने? कितनी निष्पाप, पवित्र और उदार हैं. मुझे पक्का विश्वास है कि पति की मृत देह देखते ही यह वही मूर्खता कर बैठेगी, जिसका यह खुलेआम ऐलान कर रही है. लगता है मुझे अपना प्रोग्राम कैंसिल कर, इसके साथ जा पुलिस को खबर देनी होगी. तभी इसे बचाया जा सकता है.”
इतने ही में मदालसा, हाथ मुँह धोकर ताजा चेहरा लिए आ गयी. मेल गाड़ी वन, ग्राम, नदी, नाले, पुल कूदती-फाँदती सर्राटे से भागी जा रही थी. मदालसा ने अपनी टोकरी खोलकर नाश्तादान निकाल लिया. जैसे खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग पकड़ता है, ऐसे ही एक यात्री को खाते देख दूसरे सहयात्री को भी भूख लग आती है. क्षणभर में सती प्रथा पर चल रही बहस, कपूर धुएँ की भाँति उड़ गयी और चटाचट नाश्तेदान खुलने लगे.
“आइये न, एक साथ बैठकर खाया जाय.” मदालसा ने कहा और बड़े यत्न से, स्वच्छ नैपकिन बिछा, छोटे-छोटे स्टील के कटोरदान सजाने लगी.
“धन्यवाद!” मैंने कहा, “पर हमारे साथ भी तो खाना है. इसे कौन खाएगा?”
“वाह जी वाह, उसे हम खाएँगी. ईश्वर ने यह छह फुट साढ़े दस इंच का दुर्ग आखिर बनाया किसलिए है?” उनकी भुवनमोहिनी हँसी ने हमें पराजित कर दिया. वैसे भी हम तीनों ने, एक दूसरी को काकदृष्टि से, सती के घृत पकवान को आँखों ही आँखों में घूरते चखते पकड़ भी लिया था. सुनहरी मोयनदार कचौड़ियाँ थीं, मसालों की गहरी पर्त में डूबी सब्जियाँ थीं,रायता था, चटनी थी– और थे ठाँस – ठाँसकर बाँधे गये, मेवा जड़े बूँदी के लड्डू!
“यह तो सफर का खाना नहीं, अच्छा खासा विवाह भोज है.” समाज-सेविका की आँखों से लार टपक रही थी, “बड़ा हैवी खाना लेकर चली हैं आप!” उन्होंने कहा और कचौड़ियों पर टूट पड़ीं.
हम तीनों के पास, भारतीय रेल यात्रियों के साथ युग युगांतर से चली आ रही वही पूरी तरकारी और आम के अचार की फाँकें थीं. अपना खाना खाया ही किसने! मदालसा के स्वादिष्ट भोजन को चटखारे ले लेकर हम तीनों ने साफ कर दिया,उधर वे अकेली ही हम तीनों के नाश्तादानों को जीभ से चाट गयीं थीं. विधाता ने सचमुच ही उनके शरीर के दुर्ग में असीम गोला-बारूद भरने के लिए अनेक कोष्ठ-प्रकोष्ठों की रचना की थी. महातृप्ति के कई तार और मंद्र सप्तक के डकार लेकर, हाथ-मुँह धो मदालसा ने टोकरी में से एक मस्जिद के गुंबद के आकार का पानदान निकाला.
“यह मेरे नीलू ने मुझे बगदाद से लाकर भेंट किया था. उसे पान बेहद पसंद थे, इसी से एक ढोली मघई पान और यह पानदान लेकर ही कल चिता में उतरूँगी.” इसी शहीदाना अदा से, हम तीनों को घायल कर उन्होंने केवड़ा, इलायची और मैनपुरी सुपारी से ठँसा बीड़ा थमाया.
सती प्रथा पर फिर जोरदार बहस छिड़ गयी–”हाय, मेरे अंतिम सफर की प्यारी साथिनों, तुम अब हमें नहीं रोक सकती.” मदालसा लेट गयी और बड़ी सधी आवाज में गाने लगी, “न जाणयू जानकी नाथे सवारे शू थवानू छे”, “समझी इसका अर्थ” उन्होंने हँसकर मुझसे पूछा, “जानकीनाथ भी यह नहीं जान सके थे कि सुबह क्या होगा.”
अब मुझे लगता है, उस गुजराती पद की व्याख्या उन्होंने संभवत: हमारे ही हित में की थी. “चलो जी, अब सो जाओ सब. आज इस पृथ्वी पर मेरी यह अंतिम निद्रा है बेन, बहस व्यर्थ है. चलो गुड नाइट और बहुत प्यारे-प्यारे सपने दिखें तुम तीनों को.” सचमुच ही उसकी शुभकामनाओं ने जादू का असर किया. ऐसी नींद तो पहले कभी आई ही नहीं थी! और सपने?
कभी लगता — जगमगाते आभूषणों के ढेर में गोते खा रही हूँ, हीरे के हारों से गर्दन टूटी जा रही है, बाजूबंद-अँगुठियों के भार से हड्डियाँ खिसकी जा रही हैं. और साड़ियाँ? क्या-क्या रंग हैं! कैसा चिकना रेशम! साड़ियों के विशाल उदधि में रंगीन कीमती साड़ियों की तरंगें रह रहकर उठ रही हैं. इससे प्यारे सपने और क्या दिख सकते थे? पर सपनों का अंत भी समुद्र के ज्वार भाटे की ही भाँति हुआ– वास्तविकता की अंतिम तरंग ने पटाक से हम तीनों को धोबीपछाड़ दी, आँखें खोली तो सती गायब थी.
“हाय मेरे स्टील का बक्स!” मिसेज वनोलकर बर्थ से उतरते ही लड़खड़ा गईं, “उसमें तो मेरे विवाह का जड़ाऊ सेट था. लगता है वह सती की बच्ची हमें कुछ विष खिला गयी. सिर फटा जा रहा है.” उनका गला भर्रा गया. हाँ, ठीक ही तो कह रही थी, मुझे कोई जैसे सावन के झूले की ऊँची ऊँची पेंगें दे रहा था, पूरा डिब्बा गोल-गोल घूम रहा था. पंखे के चारों ओर बल्ब, बल्ब के चारों ओर छत और छत के इर्दगिर्द कई रेशमी साड़ियाँ और भारी-भारी आभूषण पहने स्वयं मैं लट्टू सी घूम रही थी. कभी जी में आ रहा था जोर-जोर से हँसूँ, कभी दहाड़े मारकर, रोने को तड़प रही थी. बहुत पहले एक बार भाभी ने भंग खिलाकर ऐसी ही अवस्था कर दी थी.
सुना गया है कि कुकुरमुत्तों को पीसकर बनाया गया विष भी ऐसे ही मीठे सपने दिखाता है. उनको खाते ही गहरी नींद आ जाती है, जो कभी-कभी दिनों तक नहीं टूटती.
मीठे सपने दिखा सजग मनुष्य को अर्द्धविक्षिप्त सा कर देने वाला यह अवश्य वही विष होगा. समाज-सेविका दोनों हाथों से सिर थामे बिलख रही थी, “हाय, मैं तो लुट गयी! मेरे सूटकेस में आश्रम का दस हजार रुपया था.”
और मैं? सहसा गोल-गोल घूमते रेल के डिब्बे में गोल घूमते मेरे दिमाग ने मुझे सूचित किया, “तुम्हारा बटुआ ले गयी है, बटुआ!”
और ले भी क्या जाती! सामान तो कुछ था नहीं. पचपन रुपये और एक फर्स्ट क्लास का वापसी टिकट. सती की चिता में, मैं यही सामान्य सी घृताहुति दे पाई. चेन खींचकर गाड़ी रोकी गयी. सचमुच ही समाज-सेविका को पुलिस को खबर देनी पड़ी, पर सती को बचाने नहीं, पकड़वाने के लिए. वह मिल जाती तो शायद, हम तीनों स्वयं उसकी चिता चुनकर उसे झोंक देतीं. पर कहना व्यर्थ है, आज तक पुलिस उस सती मैया के फूल नहीं चुन पाई. ---------------------------
रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुरा नामक गाँव में ठहर जाने का निश्चय किया। उसकी पत्नी को बुखार हो आया था, रकम पास में थी, और बैलगाड़ी किराए पर करने में खर्च ज्यादा पड़ता, इसलिए रज्जब ने उस रात आराम कर लेना ही ठीक समझा।
परंतु ठहरता कहाँ? जात छिपाने से काम नहीं चल सकता था। उसकी पत्नी नाक और कानों में चाँदी की बालियाँ डाले थी, और पैजामा पहने थी। इसके सिवा गाँव के बहुत से लोग उसको पहचानते भी थे। वह उस गाँव के बहुत-से कर्मण्य और अकर्मण्य ढोर खरीद कर ले जा चुका था।
अपने व्यवहारियों से उसने रात भर के बसेरे के लायक स्थान की याचना की। किसी ने भी मंजूर न किया। उन लोगों ने अपने ढोर रज्जब को अलग-अलग और लुके-छुपे बेचे थे। ठहरने में तुरंत ही तरह-तरह की खबरें फैलती, इसलिए सबों ने इन्कार कर दिया।
गाँव में एक गरीब ठाकुर रहता था। थोड़ी-सी जमीन थी, जिसको किसान जोते हुए थे। जिसका हल-बैल कुछ भी न था। लेकिन अपने किसानों से दो-तीन साल का पेशगी लगान वसूल कर लेने में ठाकुर को किसी विशेष बाधा का सामना नहीं करना पड़ता था। छोटा-सा मकान था, परंतु उसके गाँववाले गढ़ी के आदरव्यंजक शब्द से पुकारा करते, और ठाकुर को डरके मारे 'राजा' शब्द संबोधन करते थे।
शामत का मारा रज्जब इसी ठाकुर के दरवाजे पर अपनी ज्वरग्रस्त पत्नी को ले कर पहुँचा।
ठाकुर पौर में बैठा हुक्का पी रहा था। रज्जब ने बाहर से ही सलाम कर के कहा 'दाऊजू, एक बिनती है।'
ठाकुर ने बिना एक रत्ती-भर इधर-उधर हिले-डुले पूछा - "क्या?"
रज्जब बोला - "दूर से आ रहा हूँ। बहुत थका हुआ हुँ। मेरी औरत को जोर से बुखार आ गया है। जाड़े में बाहर रहने से न जाने इसकी क्या हालत हो जायगी, इसलिए रात भर के लिए कहीं दो हाथ जगह दे दी जाय।"
"कौन लोग हो?" ठाकुर ने प्रश्न किया।
"हूँ तो कसाई।" रज्जब ने सीधा उत्तर दिया। चेहरे पर उसके बहुत गिड़गिड़ाहट थी।
ठाकुर की बड़ी-बड़ी आँखों में कठोरता छा गई। बोला - "जानता है, यह किसका घर है? यहाँ तक आने की हिम्मत कैसे की तूने?"
रज्जब ने आशा-भरे स्वर में कहा - "यह राजा का घर है, इसलिए शरण में आया हुआ है।"
तुरंत ठाकुर की आँखों की कठोरता गायब हो गई। जरा नरम स्वर में बोला - "किसी ने तुमको बसेरा नहीं दिया?"
"नहीं महाराज," रज्जब ने उत्तर दिया - "बहुत कोशिश की, परंतु मेरे खोटे पेशे के कारण कोई सीधा नहीं हुआ।" वह दरवाजे के बाहर ही एक कोने से चिपट कर बैठ गया। पीछे उसकी पत्नी कराहती, काँपती हुई गठरी-सी बन कर सिमट गई।
ठाकुर ने कहा- "तुम अपनी चिलम लिए हो?"
"हाँ, सरकार।" रज्जब ने उत्तर दिया।
ठाकुर बोला- "तब भीतर आ जाओ, और तमाखू अपनी चिलम से पी लो। अपनी औरत को भीतर कर लो। हमारी पौर के एक कोने में पड़े रहना।
जब वह दोनों भीतर आ गए, तो ठाकुर ने पूछा - "तुम कब यहाँ से उठ कर चले जाओगे?" जवाब मिला- "अँधेरे में ही महाराज। खाने के लिए रोटियाँ बाँधे हूँ इसलिए पकाने की जरूरत न पड़ेगी।"
"तुम्हारा नाम?"
"रज्जब।"
थोड़ी देर बाद ठाकुर ने रज्जब से पूछा - "कहाँ से आ रहे हो?" रज्जब ने स्थान का नाम बतलाया।
"वहाँ किसलिए गए थे?"
"अपने रोजगार के लिए।"
"काम तुम्हारा बहुत बुरा है।"
"क्या करूँ, पेट के लिए करना ही पड़ता है। परमात्मा ने जिसके लिए जो रोजगार नियत किया है, वहीं उसको करना पड़ता है।"
"क्या नफा हुआ?" प्रश्न करने में ठाकुर को जरा संकोच हुआ, और प्रश्न का उत्तर देने में रज्जब को उससे बढ़ कर।
रज्जब ने जवाब दिया- "महाराज, पेट के लायक कुछ मिल गया है। यों ही।" ठाकुर ने इस पर कोई जिद नहीं की।
रज्जब एक क्षण बाद बोला- "बड़े भोर उठ कर चला जाऊँगा। तब तक घर के लोगों की तबीयत भी अच्छी हो जायगी।"
इसके बाद दिन भर के थके हुए पति-पत्नी सो गए। काफी रात गए कुछ लोगों ने एक बँधे इशारे से ठाकुर को बाहर बुलाया। एक फटी-सी रजाई ओढ़े ठाकुर बाहर निकल आया।
आगंतुकों में से एक ने धीरे से कहा - "दाऊजू, आज तो खाली हाथ लौटे हैं। कल संध्या का सगुन बैठा है।"
ठाकुर ने कहा - "आज जरूरत थी। खैर, कल देखा जायगा। क्या कोई उपाय किया था?"
"हाँ", आगंतुक बोला - "एक कसाई रुपए की मोट बाँधे इसी ओर आया है। परंतु हम लोग जरा देर में पहुँचे। वह खिसक गया। कल देखेंगे। जरा जल्दी।"
ठाकुर ने घृणा-सूचक स्वर में कहा - "कसाई का पैसा न छुएँगे।"
"क्यों?"
"बुरी कमाई है।"
"उसके रुपए पर कसाई थोड़े लिखा है।"
"परंतु उसके व्यवसाय से वह रुपया दूषित हो गया है।"
"रुपया तो दूसरों का ही है। कसाई के हाथ आने से रुपया कसाई नहीं हुया।"
"मेरा मन नहीं मानता, वह अशुद्ध है।"
"हम अपनी तलवार से उसको शुद्ध कर लेंगे।"
ज्यादा बहस नहीं हुई। ठाकुर ने सोच कर अपने साथियों को बाहर का बाहर ही टाल दिया।
भीतर देखा कसाई सो रहा था, और उसकी पत्नी भी। ठाकुर भी सो गया।
सबेरा हो गया, परंतु रज्जब न जा सका। उसकी पत्नी का बुखार तो हल्का हो गया था, परंतु शरीर भर में पीड़ा थी, और वह एक कदम भी नहीं चल सकती थी।
ठाकुर उसे वहीं ठहरा हुआ देख कर कुपित हो गया। रज्जब से बोला - "मैंने खूब मेहमान इकट्ठे किए हैं। गाँव भर थोड़ी देर में तुम लोगों को मेरी पौर में टिका हुआ देख कर तरह-तरह की बकवास करेगा। तुम बाहर जाओ इसी समय।"
रज्जब ने बहुत विनती की, परंतु ठाकुर न माना। यद्यपि गाँव-भर उसके दबदबे को मानता था, परंतु अव्यक्त लोकमत का दबदबा उसके भी मन पर था। इसलिए रज्जब गाँव के बाहर सपत्नीक, एक पेड़ के नीचे जा बैठा, और हिंदू मात्र को मन-ही-मन कोसने लगा।
उसे आशा थी कि पहर - आध पहर में उसकी पत्नी की तबीयत इतनी स्वस्थ हो जायगी कि वह पैदल यात्रा कर सकेगी। परंतु ऐसा न हुआ, तब उसने एक गाड़ी किराए पर कर लेने का निर्णय किया।
मुश्किल से एक चमार काफी किराया ले कर ललितपुर गाड़ी ले जाने के लिए राजी हुआ। इतने में दोपहर हो गई। उसकी पत्नी को जोर का बुखार हो आया। वह जाड़े के मारे थर-थर काँप रही थीं, इतनी कि रज्जब की हिम्मत उसी समय ले जाने की न पड़ी। गाड़ी में अधिक हवा लगने के भय से रज्जब ने उस समय तक के लिए यात्रा को स्थगित कर दिया, जब तक कि उस बेचारी की कम से कम कँपकँपी बंद न हो जाय।
घंटे-डेढ़-घंटे बाद उसकी कँपकँपी बंद तो हो गई, परंतु ज्वर बहुत तेज हो गया। रज्जब ने अपनी पत्नी को गाड़ी में डाल दिया और गाड़ीवान से जल्दी चलने को कहा।
गाड़ीवान बोला - "दिन भर तो यहीं लगा दिया। अब जल्दी चलने को कहते हो।"
रज्जब ने मिठास के स्वर में उससे फिर जल्दी करने के लिए कहा।
वह बोला - "इतने किराए में काम नहीं चलेगा, अपना रुपया वापस लो। मैं तो घर जाता हूँ।"
रज्जब ने दाँत पीसे। कुछ क्षण चुप रहा। सचेत हो कर कहने लगा - "भाई, आफत सबके ऊपर आती है। मनुष्य मनुष्य को सहारा देता है, जानवर तो देते नहीं। तुम्हारे भी बाल-बच्चे हैं। कुछ दया के साथ काम लो।"
कसाई को दया पर व्याख्यान देते सुन कर गाड़ीवान को हँसी आ गई। उसको टस से मस न होता देख कर रज्जब ने और पैसे दिए। तब उसने गाड़ी हाँकी।
पाँच-छ: मील चले के बाद संध्या हो गई। गाँव कोई पास में न था। रज्जब की गाड़ी धीरे-धीरे चली जा रही थी। उसकी पत्नी बुखार में बेहोश-सी थी। रज्जब ने अपनी कमर टटोली, रकम सुरक्षित बँधी पड़ी थी।
रज्जब को स्मरण हो आया कि पत्नी के बुखार के कारण अंटी का कुछ बोझ कम कर देना पड़ा है - और स्मरण हो आया गाड़ीवान का वह हठ, जिसके कारण उसको कुछ पैसे व्यर्थ ही दे देने पड़े थे। उसको गाड़ीवान पर क्रोध था, परंतु उसको प्रकट करने की उस समय उसके मन में इच्छा न थी।
बातचीत करके रास्ता काटने की कामना से उसने वार्तालाप आरंभ किया -
"गाँव तो यहाँ से दूर मिलेगा।"
"बहुत दूर, वहीं ठहरेंगे।"
"किसके यहाँ?"
"किसी के यहाँ भी नहीं। पेड़ के नीचे। कल सबेरे ललितपुर चलेंगे।"
................................
"कल को फिर पैसा माँग उठना।"
"कैसे माँग उठूँगा? किराया ले चुका हूँ। अब फिर कैसे माँगूँगा?"
"जैसे आज गाँव में हठ करके माँगा था। बेटा, ललितपुर होता, तो बतला देता !"
"क्या बतला देते? क्या सेंत-मेंत गाड़ी में बैठना चाहते थे?"
"क्यों बे, क्या रुपया दे कर भी सेंत-मेंत का बैठना कहाता है? जानता है, मेरा नाम रज्जब है। अगर बीच में गड़बड़ करेगा, तो नालायक को यहीं छुरे से काट कर फेंक दूँगा और गाड़ी ले कर ललितपुर चल दूँगा।"
रज्जब क्रोध को प्रकट नहीं करना चाहता था, परंतु शायद अकारण ही वह भली भाँति प्रकट हो गया।
गाड़ीवान ने इधर-उधर देखा। अँधेरा हो गया था। चारों ओर सुनसान था। आस-पास झाड़ी खड़ी थी। ऐसा जान पड़ता था, कहीं से कोई अब निकला और अब निकला। रज्जब की बात सुन कर उसकी हड्डी काँप गई। ऐसा जान पड़ा, मानों पसलियों को उसकी ठंडी छूरी छू रही है।
गाड़ीवान चुपचाप बैलों को हाँकने लगा। उसने सोचा - गाँव आते ही गाड़ी छोड़ कर नीचे खड़ा हो जाऊँगा, और हल्ला-गुल्ला करके गाँववालों की मदद से अपना पीछा रज्जब से छुड़ाऊँगा। रुपए-पैसे भली ही वापस कर दूँगा, परंतु और आगे न जाऊँगा। कहीं सचमुच मार्ग में मार डाले !
गाड़ी थोड़ी दूर और चली होगी कि बैल ठिठक कर खड़े हो गए। रज्जब सामने न देख रहा था, इललिए जरा कड़क कर गाड़ीवान से बोला - "क्यों बे बदमाश, सो गया क्या?"
अधिक कड़क के साथ सामने रास्ते पर खड़ी हुई एक टुकड़ी में से किसी के कठोर कंठ से निकला, "खबरदार, जो आगे बढ़ा।"
रज्जब ने सामने देखा कि चार-पाँच आदमी बड़े-बड़े लठ बाँध कर न जाने कहाँ से आ गए हैं। उनमें तुरंत ही एक ने बैलों की जुआरी पर एक लठ पटका और दो दाएँ-बाएँ आ कर रज्जब पर आक्रमण करने को तैयार हो गए।
गाड़ीवान गाड़ी छोड़ कर नीचे जा खड़ा हुआ। बोला - "मालिक, मैं तो गाड़ीवान हूँ। मुझसे कोई सरोकार नहीं।"
"यह कौन है?" एक ने गरज कर पूछा।
गाड़ीवान की घिग्घी बँध गई। कोई उत्तर न दे सका।
रज्जब ने कमर की गाँठ को एक हाथ से सँभालते हुए बहुत ही नम्र स्वर में कहा - "मैं बहुत गरीब आदमी हूँ। मेरे पास कुछ नहीं है। मेरी औरत गाड़ी में बीमार पड़ी है। मुझे जाने दीजिए।"
उन लोगों में से एक ने रज्जब के सिर पर लाठी उबारी। गाड़ीवान खिसकना चाहता था कि दूसरे ने उसको पकड़ लिया।
अब उसका मुँह खुला। बोला - "महाराज, मुझको छोड़ दो। मैं तो किराए से गाड़ी लिए जा रहा हूँ। गाँठ में खाने के लिए तीन-चार आने पैसे ही हैं।"
"और यह कौन है? बतला।" उन लोगों में से एक ने पुछा।
गाड़ीवान ने तुरंत उत्तर दिया - "ललितपुर का एक कसाई।"
रज्जब के सिर पर जो लाठी उबारी गई थी, वह वहीं रह गई। लाठीवाले के मुँह से निकला - "तुम कसाई हो? सच बताओ !"
"हाँ, महाराज!" रज्जब ने सहसा उत्तर दिया - "मैं बहुत गरीब हुँ। हाथ जोड़ता हूँ मत सताओ। मेरी औरत बहुत बीमार है।"
औरत जोर से कराही ।
लाठीवाले उस आदमी ने अपने एक साथी से कान में कहा - "इसका नाम रज्जब है। छोड़ो। चलें यहाँ से।"
उसने न माना। बोला- "इसका खोपड़ा चकनाचुर करो दाऊजू, यदि वैसे न माने तो। असाई-कसाई हम कुछ नहीं मानते।"
"छोड़ना ही पड़ेगा," उसने कहा - "इस पर हाथ नहीं पसारेंगे और न इसका पैसा छुएँगे।"
दूसरा बोला- "क्या कसाई होने के डर से दाऊजू, आज तुम्हारी बुद्धि पर पत्थर पड़ गए हैं। मैं देखता हूँ!" और उसने तुरंत लाठी का एक सिरा रज्जब की छाती में अड़ा कर तुरंत रुपया-पैसा निकाल देने का हुक्म दिया। नीचे खड़े उस व्यक्ति ने जरा तीव्र स्वर में कहा - "नीचे उतर आओ। उससे मत बोलो। उसकी औरत बीमार है।"
"हो, मेरी बला से," गाड़ी में चढ़े हुए लठैत ने उत्तर दिया - "मैं कसाइयों की दवा हूँ।" और उसने रज्जब को फिर धमकी दी।
नीचे खड़े हुए उस व्यक्ति ने कहा - "खबरदार, जो उसे छुआ। नीचे उतरो, नहीं तो तुम्हारा सिर चकनाचूर किए देता हूँ। वह मेरी शरण आया था।"
गाड़ीवाला लठैत झख-सी मार कर नीचे उतर आया।
नीचेवाले व्यक्ति ने कहा - "सब लोग अपने-अपने घर जाओ। राहगीरों को तंग मत करो।" फिर गाड़ीवान से बोला - "जा रे, हाँक ले जा गाड़ी। ठिकाने तक पहुँच आना, तब लौटना, नहीं तो अपनी खैर मत समझियो। और, तुम दोनों में से किसी ने भी कभी, इस बात की चर्चा कहीं की, तो भूसी की आग में जला कर खाक कर दूँगा।"
गाड़ीवान गाड़ी ले कर बढ़ गया। उन लोगों में से जिस आदमी ने गाड़ी पर चढ़ कर रज्जब के सिर पर लाठी तानी थी, उसने क्षुब्ध स्वर में कहा - "दाऊजू, आगे से कभी आपके साथ न आऊँगा।"
दाऊजू ने कहा - "न आना। मैं अकेले ही बहुत कर गुजरता हूँ। परंतु बुंदेला शरणागत के साथ घात नहीं करता, इस बात को गाँठ बाँध लेना।" ==============
Chapter 1 हम पंछी उन्मुक्त गगन के Chapter 2 दादी माँ Chapter 3 हिमालय की बेटियाँ
Chapter 4 कठपुतली Chapter 5 मिठाईवाला Chapter 6 रक्त और हमारा शरीर Chapter 7 पापा खो गए Chapter 8 शाम एक किशान Chapter 9 चिड़िया की बच्ची Chapter 10 अपूर्व अनुभव Chapter 11 रहीम की दोहे Chapter 12 कंचा Chapter 13 एक तिनका Chapter 14 खानपान की बदलती तस्वीर Chapter 15 नीलकंठ Chapter 16 भोर और बरखा Chapter 17 वीर कुवर सिंह Chapter 18 संघर्ष के कराण मैं तुनुकमिजाज हो गया धनराज Chapter 19 आश्रम का अनुमानित व्यय Chapter 20 विप्लव गायन
बाबू चैतन्यदास ने अर्थशास्त्र खूब पढ़ा था, और केवल पढ़ा ही नहीं था, उसका यथायोग्य व्यवहार भी वे करते थे। वे वकील थे, दो-तीन गांवों में उनकी जमींदारी भी थी, बैंक में भी कुछ रुपये थे। यह सब उसी अर्थशास्त्र के ज्ञान का फल था। जब कोई खर्च सामने आता तब उनके मन में स्वभावतः: प्रश्न होता था - इससे स्वयं मेरा उपकार होगा या किसी अन्य पुरुष का? यदि दो में से किसी का कुछ भी उपकार न होता तो वे बड़ी निर्दयता से उस खर्च का गला दबा देते थे। ‘व्यर्थ' को वे विष के समाने समझते थे। अर्थशास्त्र के सिद्धांत उनके जीवन-स्तम्भ हो गये थे।
बाबू साहब के दो पुत्र थे। बड़े का नाम प्रभुदास था, छोटे का शिवदास। दोनों कालेज में पढ़ते थे। उनमें केवल एक श्रेणी का अन्तर था। दोनों ही चतुर, होनहार युवक थे। किन्तु प्रभुदास पर पिता का स्नेह अधिक था। उसमें सदुत्साह की मात्रा अधिक थी और पिता को उसकी जात से बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं। वे उसे विद्योन्नति के लिए इंग्लैण्ड भेजना चाहते थे। उसे बैरिस्टर बनाना उनके जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा थी।
२
किन्तु कुछ ऐसा संयोग हुआ कि प्रभुदास को बी०ए० की परीक्षा के बाद ज्वर आने लगा। डाक्टरों की दवा होने लगी। एक मास तक नित्य डॉक्टर साहब आते रहे, पर ज्वर में कमी न हुई दूसरे डॉक्टर का इलाज होने लगा, पर उससे भी कुछ लाभ न हुआ। प्रभुदास दिनों दिन क्षीण होता चला जाता था। उठने-बैठने की शक्ति न थी यहां तक कि परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने का शुभ-संवाद सुनकर भी उसके चेहरे पर हर्ष का कोई चिह्न न दिखाई दिया। वह सदैव गहरी चिन्ता में डूबा रहाता था । उसे अपना जीवन बोझ सा जान पड़ने लगा था। एक रोज चैतन्यदास ने डॉक्टर साहब से पूछा यह क्या बात है कि दो महीने हो गये और अभी तक दवा का कोई असर नहीं हुआ ?
डाक्टर साहब ने सन्देह जनक उत्तर दिया- मैं आपको संशय में नहीं डालना चाहता। मेरा अनुमान है कि यह टयुबरक्युलासिस(TB)है ।
चैतन्यदास ने व्यग्र होकर कहा - तपेदिक ?
डॉक्टर - जी, हाँ ! उसके सभी लक्षण दिखायी देते हैं ।
चैतन्यदास ने अविश्वास के भाव से कहा मानों उन्हें विस्मयकारी बात सुन पड़ी हो -तपेदिक हो गया !
डॉक्टर ने खेद प्रकट करते हुए कहा- यह रोग बहुत ही गुप्त रीति से शरीर में प्रवश करता है।
चैतन्यदास - मेरे खानदान में तो यह रोग किसी को न था।
डॉक्टर - सम्भव है, मित्रों से इसके जर्म (कीटाणु ) मिले हो।
चैतन्यदास कई मिनट तक सोचने के बाद बोले- अब क्या करना चाहिए ।
डॉक्टर -दवा करते रहिये । अभी फेफड़ों तक असर नहीं हुआ है इनके अच्छे होने की आशा है ।
चैतन्यदास - आपके विचार में कब तक दवा का असर होगा?
डॉक्टर - निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता । लेकिन तीन चार महीने में वे स्वस्थ हो जाएँगे । जाड़ों में इस रोग का जोर कम हो जाया करता है ।
चैतन्यदास - अच्छे हो जाने पर ये पढ़ने में परिश्रम कर सकेंगे ?
डॉक्टर - मानसिक परिश्रम के योग्य तो ये शायद ही हो सकें।
चैतन्यदास - किसी सेनेटोरियम (पहाड़ी स्वास्थ्यालय) में भेज दूँ तो कैसा हो?
डॉक्टर - बहुत ही उत्तम ।
चैतन्यदास तब ये पूर्णरीति से स्वस्थ हो जाएँगे?
डॉक्टर - हो सकते है, लेकिन इस रोग को दबा रखने के लिए इनका मानसिक परिश्रम से बचना ही अच्छा है।
चैतन्यदास नैराश्य भाव से बोले - तब तो इनका जीवन ही नष्ट हो गया।
3
गर्मी बीत गयी। बरसात के दिन आये, प्रभुदास की दशा दिनों दिन बिगड़ती गई। वह पड़े-पड़े बहुधा इस रोग पर की गई बड़े- बड़े डाक्टरों की व्याख्याएँ पढ़ा करता था। उनके अनुभवों से अपनी अवस्था की तुलना किया करता था। उनके अनुभवों से अपनी अवस्था की तुलना किया करता। पहले कुछ दिनों तक तो वह अस्थिर-चित सा हो गया था। दो-चार दिन भी दशा संभली रहती तो पुस्तकें देखने लगता और विलायत यात्रा की चर्चा करता । दो चार दिन भी ज्वर का प्रकोप बढ़ जाता तो जीवन से निराश हो जाता । किन्तु कई मास के पश्चात जब उसे विश्वास हो गया कि इस रोग से मुक्त होना कठिन है तब उसने जीवन की भी चिन्ता छोड़ दी पथ्यापथ्य का विचार न करता , घरवालों की निगाह बचाकर औषधियाँ जमीन पर गिरा देता मित्रों के साथ बैठकर जी बहलाता। यदि कोई उससे स्वास्थ्य के विषय में कुछ पूछता तो चिढ़कर मुँह मोड़ लेता । उसके भावों में एक शान्तिमय उदासीनता आ गई थी, और बातों में एक दार्शनिक मर्मज्ञता पाई जाती थी । वह लोक रीति और सामाजिक प्रथाओं पर बड़ी निर्भीकता से आलोचनाएँ किया करता । यद्यपि बाबू चैतन्यदास के मन में रह-रहकर शंका उठा करती थी कि जब परिणाम विदित ही है तब इस प्रकार धन का अपव्यय करने से क्या लाभ तथापि वे कुछ तो पुत्र-प्रेम और कुछ लोक-मत के भय से धैर्य के साथ दवा-दर्पन करते जाते थे ।
जाड़े का मौसम था। चैतन्यदास पुत्र के सिरहाने बैठे हुए डॉक्टर साहब की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देख रहे थे। जब डॉक्टर साहब टेम्परेचर लेकर (थर्मामीटर लगाकर ) कुर्सी पर बैठे तब चैतन्यदास ने पूछा- अब तो जाड़ा आ गया। आपको कुछ अन्तर मालूम होता है ?
डॉक्टर - बिलकुल नहीं , बल्कि रोग और भी दुस्साध्य होता जाता है।
चैतन्यदास ने कठोर स्वर में पूछा - तब आप लोग क्यो मुझे इस भ्रम में डाले हुए थे कि जाड़े में अच्छे हो जाएँगे ? इस प्रकार दूसरों की सरलता का उपयोग करना अपना मतलब साधने का साधन हो तो हो इसे सज्जनता कदापि नहीं कह सकते।
डॉक्टर ने नम्रता से कहा- ऐसी दशाओं में हम केवल अनुमान कर सकते है और अनुमान सदैव सत्य नहीं होते। आपको जेरबारी अवश्य हुई पर मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मेरी इच्छा आपको भ्रम में डालने के नहीं थी ।
शिवादास बड़े दिन की छुटिटयों में आया हुआ था, इसी समय वह कमरे में आ गया और डॉक्टर साहब से बोला - आप पिता जी की कठिनाइयों का स्वयं अनुमान कर सकते हैं । अगर उनकी बात नागवार लगी तो उन्हें क्षमा कीजिएगा। चैतन्यदास ने छोटे पुत्र की ओर वात्सल्य की दृष्टि से देखकर कहा-तुम्हें यहां आने की जरूरत थी? मैं तुमसे कितनी बार कह चुका हूँ कि यहाँ मत आया करो । लेकिन तुमको सबर ही नहीं होता ।
शिवादास ने लज्जित होकर कहा- मैं अभी चला जाता हूँ। आप नाराज न हों । मैं केवल डॉक्टर साहब से यह पूछना चाहता था कि भाई साहब के लिए अब क्या करना चाहिए ।
डॉक्टर साहब ने कहा- अब केवल एक ही साधन और है इन्हें इटली के किसी सेनेटारियम में भेज देना चाहिये ।
चैतन्यदास ने सजग होकर पूछा- कितना खर्च होगा?
‘ज्यादा से ज्यादा तीन हजार । साल भर रहना होगा?'
-निश्चय है कि वहां से अच्छे होकर आंवेंगे?
-जी नहीं, यहाँ तो यह भयंकर रोग है साधारण बीमारियों में भी कोई बात निश्चय रुप से नहीं कही जा सकती ।‘
-इतना खर्च करने पर भी वहाँ से ज्यों के त्यों लौट आये तो?
-तो ईश्वर की इच्छा। आपको यह तसकीन हो जाएगी कि इनके लिए मैं जो कुछ कर सकता था। कर दिया ।
4
आधी रात तक घर में प्रभुदास को इटली भेजने के प्रस्ताव पर वाद-विवाद होता रहा। चैतन्यदास का कथन था कि एक संदिग्ध फल के लिए तीन हजार का खर्च उठाना बुद्धिमत्ता के प्रतिकूल है। शिवदास उनसे सहमत था । किन्तु उसकी माता इस प्रस्ताव का बड़ी दृढ़ता के साथ विरोध कर रही थी। अंत में माता के धिक्कारो का यह फल हुआ कि शिवदास लज्जित होकर उसके पक्ष में हो गया बाबू साहब अकेले रह गये । तपेश्वरी ने तर्क से काम लिया । पति के सद्भावों को प्रज्वलित करने की चेष्टा की ।धन की नश्वरता की लोकोक्तियाँ कहीं इन शस्त्रों से विजय लाभ न हुआ तो अश्रु वर्षा करने लगी । बाबू साहब जल-बिन्दुओं क इस प्रहार के सामने न ठहर सके । इन शब्दों में हार स्वीकार की- अच्छा भाई रोओ मत। जो कुछ कहती हो वही होगा।
तपेश्वरी - तो कब ?
‘रुपये हाथ में आने दो ।'
‘तो यह क्यों नहीं कहते कि भेजना ही नहीं चाहते?'
भेजना चाहता हूँ किन्तु अभी हाथ खाली हैं। क्या तुम नहीं जानतीं?'
‘बैक में तो रुपये है? जायदाद तो है? दो-तीन हजार का प्रबन्ध करना ऐसा क्या कठिन है?'
चैतन्यदास ने पत्नी को ऐसी दृष्टि से देखा मानो उसे खा जाएँगे और एक क्षण के बाद बोले - बिलकुल बच्चों की सी बातें करती हो। इटली में कोई संजीवनी नहीं रक्खी हुई है जो तुरन्त चमत्कार दिखायेगी । जब वहाँ भी केवल प्रारब्ध ही की परीक्षा करनी है तो सावधानी से कर लेंगे । पूर्व पुरुषो की संचित जायदाद और रखे हुए रुपये मैं अनिश्चित हित की आशा पर बलिदान नहीं कर सकता।
तपेश्वरी ने डरते - डरते कहा- आखिर, आधा हिस्सा तो प्रभुदास का भी है? बाबू साहब तिरस्कार करते हुए बोले - आधा नहीं, उसको मैं अपना सर्वस्व दे देता, जब उससे कुछ आशा होती, वह खानदान की मर्यादा और ऐश्वर्य बढ़ाता और इस लगाये हुए धन के फलस्वरूप कुछ कर दिखाता । मैं केवल भावुकता के फेर में पड़कर धन का ह्रास नहीं कर सकता ।
तपेश्वरी अवाक रह गयी। जीतकर भी उसकी हार हुई ।
इस प्रस्ताव के छ: महीने बाद शिवदास बी.ए पास हो गया। बाबू चैतन्यदास ने अपनी जमींदरी के दो आने बन्धक रखकर कानून पढ़ने के निमित्त उसे इंग्लैड भेजा । उसे बम्बई तक खुद पहुँचाने गये ।वहाँ से लौटे तो उनके अतं: करण में सदिच्छायों से परिमित लाभ होने की आशा थी उनके लौटने के एक सप्ताह पीछे अभागा प्रभुदास अपनी उच्च अभिलाषाओं को लिये हुए परलोक सिधारा ।
5
चैतन्यदास मणिकर्णिका घाट पर अपने सम्बन्धियों के साथ बैठे चिता - ज्वाला की ओर देख रहे थे । उनके नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित हो रही थी । पुत्र-प्रेम एक क्षण के लिए अर्थ-सिद्धांत पर गालिब हो गया था। उस विरक्तावस्था में उनके मन में यह कल्पना उठ रही थी । सम्भव है, इटली जाकर प्रभुदास स्वस्थ हो जाता । हाय! मैंने तीन हजार का मुँह देखा और पुत्र रत्न को हाथ से खो दिया। यह कल्पना प्रतिक्षण सजग होती थी और उनको ग्लानि, शोक और पश्चात्ताप के बाणों से बेध रही थी । रह -रहकर उनके हृदय में वेदना की शूल-सी उठती थी । उनके अन्तर की ज्वाला उस चिता -ज्वाला से कम दग्धकारिणी न थी। अकस्मात उनके कानों में शहनाइयों की आवाज आयी। उन्होंने आँख ऊपर उठाई तो मनुष्यों का एक समूह एक अर्थी के साथ आता हुआ दिखाई दिया। वे सब के सब ढोल बजाते, गाते, पुष्प आदि की वर्षा करते चले आते थे । घाट पर पहुँचकर उन्होंने अर्थी उतारी और चिता बनाने लगे । उनमें से एक युवक आकर चैतन्यदास के पास खड़ा हो गया। बाबू साहब ने पूछा -किस मुहल्ले में रहते हो?
युवक ने जवाब दिया- हमारा घर देहात में है । कल शाम को चले थे । ये हमारे बाप थे । हम लोग यहाँ कम आते हैं, पर दादा की अन्तिम इच्छा थी कि हमें मणिकर्णिका घाट पर ले जाना ।
चैतन्यदास -ये सब आदमी तुम्हारे साथ हैं ?
युवक -हाँ, और लोग पीछे आते है । कई सौ आदमी साथ आये है। यहाँ तक आने में सैकड़ों उठ गये पर सोचता हूँ कि बूढे पिता की मुक्ति तो बन गई । धन और है किसलिए ?
चैतन्यदास- उन्हें क्या बीमारी थी ?
युवक ने बड़ी सरलता से कहा, मानो वह अपने किसी निजी सम्बन्धी से बात कर रहा हो। ‘बीमारी का किसी को कुछ पता नहीं चला। हरदम ज्वर चढ़ा रहता था। सूखकर कांटा हो गये थे । चित्रकूट हरिद्वार प्रयाग सभी स्थानों में ले लेकर घूमे । वैद्यों ने जो कुछ कहा उसमें कोई कसर नहीं की।
इतने में युवक का एक और साथी आ गया। और बोला -साहब, मुँह देखा बात नहीं, नारायण लड़का दे तो ऐसा दे । इसने रुपयों को ठीकरे समझा ।
घर की सारी पूंजी पिता की दवा -दारु में स्वाहा कर दी । थोड़ी सी जमीन तक बेच दी पर काल-बलि के सामने आदमी का क्या बस है।
युवक ने गदगद स्वर से कहा - भैया, रुपया पैसा हाथ का मैल है। कहाँआता है, कहाँ जाता है, मुनष्य नहीं मिलता। जिन्दगानी है तो कमा खाऊंगा। पर मन में यह लालसा तो नहीं रह गयी कि हाय! यह नहीं किया, उस वैद्य के पास नहीं गया, नहीं तो शायद बच जाते। हम तो कहते है कि कोई हमारा सारा घर- द्वार लिखा ले केवल दादा को एक बोल बुला दे । इसी माया-मोह का नाम जिन्दगानी हैं , नहीं तो इसमें क्या रक्खा है? धन से प्यारी जान, जान से प्यारा ईमान । बाबू साहब आपसे सच कहता हूँ अगर दादा के लिए अपने बस की कोई बात उठा रखता तो आज रोते न बनता । अपना ही चित्त अपने को धिक्कारता । नहीं तो मुझे इस घड़ी ऐसा जान पड़ता है कि मेरा उद्धार एक भारी ऋण से हो गया। उनकी आत्मा सुख और शान्ति से रहेगी तो मेरा सब तरह कल्याण ही होगा।
बाबू चैतन्यदास सिर झुकाए ये बातें सुन रहे थे । एक-एक शब्द उनके हृदय में शूल के समान चुभता था। इस उदारता के प्रकाश में उन्हें अपनी हृदय-हीनता, अपनी आत्म-शून्यता अपनी भौतिकता अत्यन्त भयंकर दिखायी देती थी । उनके चित्त पर इस घटना का कितना प्रभाव पड़ा यह इसी से अनुमान किया जा सकता हैं कि प्रभुदास के अन्त्येष्टि संस्कार में उन्होंने हजारों रुपये खर्च कर डाले उनके सन्तप्त हृदय की शान्ति के लिए अब एकमात्र यही उपाय रह गया था।
6.प्रो. जी. सुंदर रेड्डी भाषा और आधुनिकता 7.हरिशंकर परसाई निंदा रस
8.मोहन राकेश आखिरी चट्टान
काव्य खण्ड कवि का नाम शीर्षक का नाम 1.भारतेंदु हरिश्चंद्र प्रेम-माधुरी, यमुना-छवि 2.जगन्नाथ ‘रत्नाकर’ उद्धव –प्रसंग, गंगावतरण 3.अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध पवन दूतिका 4 मैथिलीशरण गुप्त कैकेयी का अनुताप गीत 5 जयशंकर प्रसाद गीत , श्रद्धा-मनु 6 सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’बादल- राग, Badal Rag bhaag 2 सन्ध्या-सुंदरी 7 सुमित्रानन्द पन्त नौका विहार, परिवर्तन, बापू के प्रति 8 महादेवी वर्मा गीत जाग तुझको दूर जाना , मैं नीर भरी दुःख की बदली , 9 रामधारी सिंह’दिनकर’ पुरुरवा , उर्वशी, अभिनव-मनुष्य 10 ’अज्ञेय’ मैंने आहुति बनकर देखा, हिरोशिमा विविधा 11 नरेंद्र शर्मा मधु की एक बूँद 12 भवानीप्रसाद मिश्र बूँद टपकी एक नभ से 13 गजानन माधव मुक्तिबोध मुझे कदम-कदम पर 14 गिरिजाकुमार माथुर चित्रमय धरती 15 धर्मवीर भारती साँझ के बादल कथा साहित्य कहानीकार कहानी 1. भीष्म साहनी खून का रिश्ता 2.फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ पंचलाईट 3. शिवानी लाटी 4 अमरकांत बहादुर 5 शिवप्रसाद सिंह कर्मनाशा की हार
नाटक
नाटककार का नाम नाटक का नाम 1.विष्णु प्रभाकर कुहासा और किरण [मेरठ, मुरादाबाद, सुल्तानपुर,रायबरेली, बदायूँ, गाजियाबाद, पीलीभीत,लखीमपुर-खीरी,आजमगढ,झाँसी,बलिया,मऊ जनपदों के लिए अधिकृत] 2.हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ आन का मान [वाराणसी, इटावा, एटा, फर्रुखाबाद, लखनऊ, बरेली, उन्नाव,शाहजहाँपुर, हमीरपुर जनपदों के लिए अधिकृत ] 3.पं.लक्ष्मीनारायण मिश्र गरुड.ध्वज [जौनपुर, गोरखपुर, गोंडा, बहराइच, प्रतापगढ, फैजाबाद, आगरा, फिरोजाबाद, बिजनौर,सीतापुर, ललितपुर,फतेहपुर और महराजगंज जनपदों के लिए अधिकृत] 4.डा. गंगासहाय ‘प्रेमी’ सूत-पूत्र [गाजीपुर, मैनपुरी, बाराबंकी, सहारनपुर,मुजफ्फरनगर, हरदोई, अलीगढ, जालौन, और इलाहाबाद जनपदों के लिए अधिकृत] 5.व्यथित हृदय राजमुकुट [कानपुर, मथुरा, बस्ती, बुलंद्शहर, मिर्जापुर, रामपुर, कानपुर देहात, बाँदा, सिद्धार्थनगर , देवरिया और सोनभद्र जनपदों के लिए अधिकृत] खण्ड काव्य कवि का नाम खण्ड काव्य का नाम 1.सुमित्रानंदन पंत मुक्तियज्ञ [जौनपुर, फैजाबाद, कानपुर, मुरादाबाद, एटा, ललितपुर तथा कानपुर देहात जनपदों के लिए अधिकृत] 2.द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी सत्य की जीत [लखनऊ, रामपुर, इटावा,झांसी, बलिया, पीलीभीत, बीजनौर, प्रतापगढ तथा बदायूँ जनपदों के लिए] 3.रामधारी सिंह दिनकर रश्मिरथी [बुलंदशहर,मथुरा,मुजफ्फरनगर,उन्नाव, वाराणसी , फतेहपुर तथा देवरिया जनपदों के लिए] 4.गुलाब खन्डेलवाल आलोक-वृत्त [सहारनपुर,अलीगढ, इलाहाबाद,सीतापुर, फर्रुखाबाद, मैनपुरी, सोनभद्र,तथा मिर्जापुर जनपदों के लिए] 5.रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ त्यागपथी [गाजीपुर, सुल्तानपुर, फिरोजाबाद, आगरा, लखीमपुर-खीरी,गोरखपुर, बरेली, जालौन, गोंडा, शाहजहांपुर,बाराबंकी और महराजगंज जनपदों के लिए] 6.डा. शिवबालक शुक्ल श्रवण कुमार [मेरठ, आज़मगढ,बहराइच गाजियाबाद, हमीरपुर, मऊ, हरदोई, बांदा, रायबरेली, बस्ती, तथा सिद्धार्थनगर जनपदों के लिए]