कर्मनाशा की हार
शिवप्रसाद सिंह
वाचन : अल्पना
वर्मा
काले साँप का काटा आदमी बच सकता है, हलाहल ज़हर पीने वाले की मौत रुक सकती
है, किंतु
जिस पौधे को एक बार कर्मनाशा का पानी छू ले, वह फिर हरा नहीं हो सकता। कर्मनाशा के बारे में किनारे के
लोगों में एक और विश्वास प्रचलित था कि यदि एक बार नदी बढ़ आये तो बिना मानुस की
बलि लिये लौटती नहीं। हालांकि थोड़ी ऊंचाई पर बसे हुए नयी डीह वालों को
इसका कोई खौफ न था; इसी से वे बाढ़ के दिनों में, गेरू की तरह फैले हुए अपार जल को देखकर
खुशियां मनाते, दो-चार दिन की यह बाढ़ उनके लिए तब्दीली बनकर आती, मुखियाजी के द्वार पर लोग-बाग इकट्ठे
होते और कजली-सावन की ताल पर ढोलकें उनकने लगतीं। गाँव के दुधमुँहे तक ‘ई बाढ़ी
नदिया जिया ले के माने’ का गीत गाते; क्योंकि बाढ़ उनके किसी आदमी का जिया नहीं लेती
थी। किंतु पिछले साल अचानक जब नदी का पानी समुद्र के ज्वार की तरह उमड़ता हुआ, नयी डीह से जा टकराया, तो ढोलकें बह चलीं, गीत की कड़ियां मुरझाकर होंठों पे
पपड़ी की तरह छा गयीं, सोखा ने जान के बदले जान देकर पूजा की, पाँच बकरों की दौरी भेंट हुई, किंतु बढ़ी नदी का हौसला कम न हुआ। एक
अंधी लड़की, एक अपाहिज बुढ़िया बाढ़ की भेंट रहीं। नयी डीह वाले कर्मनाशा के इस
उग्र रूप से काँप उठे, बूढ़ी औरतों ने कुछ सुराग मिलाया।
पूजा-पाठ कराकर लोगों ने पाप-शांति की।
एक बाढ़ बीती, बरस बीता। पिछले घाव सूखे न थे कि
भादों के दिनों में फिर पानी उमड़ा। बादलों की छाँव में सोया गाँव भोर की किरण देखकर उठा तो सारा
सिचान रक्त की तरह लाल पानी से घिरा था। नयी डीह के वातावरण में हौलदिली छा गयी। गाँव
ऊँचे अरार पर बसा था, जिस पर नदी की धारा अनवरत टक्कर मार रही थी, बड़े-बड़े पेड़ जड़-मूल के साथ उलटकर
नदी के पेट में समा रहे थे, यह बाढ़ न थी, प्रलय का संदेश था, नयी डीह के लोग चूहेदानी में फँसे चूहे
की तरह भय से दौड़-धूप कर रहे थे, सबके चेहरे पर मुर्दनी छा गयी थी।
“कल दीनापुर में कड़ाह चढ़ा था पांड़ेजी,” इंसुर भगत हकलाते हुए बोला।कुएँ की जगत
से बाल्टी का पानी लिये जगेसर पांड़े उतर रहे थे। घबड़ाकर बाल्टी सहित ऊपर से कूद
पड़े।
“क्या कह रहे थे भगत, कड़ाह चढ़ा था, क्या कहा सोखा ने?” चौराहे पर छोटी भीड़ इकट्ठी हो गयी।
भगत अपने शब्दों को चुभलाते हुए बोले, “काशीनाथ की सरन, भाई लोगो, सोखा ने कहा कि इतना पानी गिरेगा कि
तीन घड़े भरे जाएँगे, आदमी-मवेशी की छय होगी, चारों ओर हाहाकार मच जाएगा, परलय होगी।”
“परलय न होगी, तब क्या बरक्कत होगी? हे भगवान, जिस गाँव में ऐसा पाप करम होगा वह
बहेगा नहीं, तब क्या बचेगा?” माथे के लुग्गे को ठीक करती हुई धनेसरा चाची
बोलीं, “मैं
तो कहूँ कि फुलमतिया ऐसी चुप काहे है। राम
रे राम, कुतिया
ने पाप किया, गाँव के सिर बीता। उसकी माई कैसी सतवंती बनती थी। आग लाने गयी तो घर
में जाने नहीं दिया, मैं तो तभी छनगी की हो न हो दाल में कुछ काला है। आग लगे ऐसी कोख में।
तीन दिन की बिटिया और पेट में ऐसी घनघोर दाढ़ी।”
“कुछ साफ़ भी कहोगी भौजी,” बीच में जगेसर पांड़े बोले, “क्या हुआ आखिर?”
“हुआ क्या, फुलमतिया रांड मेमना लेके बैठकी है।
विधवा लड़की बेटा बियाकर सुहागिन बनी है।”
“ऐ कब हुआ” सबकी आँखों में उत्सुकता के फफोले उभर आये। आगत भय से सबकी साँसें
टंगी रह गयीं। तभी मिर्चे की तरह तीखी
आवाज़ में चाची बोलीं, “कोई आज की बात है? तीन दिन से सौरों में बैठी है डाइन।
पाप को छाती से चिपकाये है, यह भी न हुआ कि गर्दन मरोड़कर गड़हे-गुच्ची में
डाल दे।”
लोगों को परलय की सूचना देकर, हवा में उड़ते हुए आँचल को बरजोरी बस में करती चाची दूसरे चौराहे की ओर
बढ़ चलीं। गाँव का सारा आतंक, भय, पाप उनके पीछे कुत्ते की तरह दुम दबाये चले जा
रहे थे। सबकी आँखों में नयी डीह का भविष्य
था, रक्त
की तरह लाल पानी में चूहे की तरह ऊभ-चूभ करते हुए लोग चिल्ला रहे थे, मौत का ऐसा भयंकर स्वप्न भी शायद ही
किसी ने देखा था।
भैरों पांड़े बैसाखी के सहारे अपनी बखरी के
दरवाजे में खड़े बाढ़ के पानी का ज़ोर देख रहे थे, अपार जल में बहते हुए साँप-बिच्छू चले
आ रहे थे। मरे हुए जानवर की पीठ पर बैठा कौआ लहर के धक्के से बिछल जाता, भीगे चूहे पानी से बाहर निकलते तो चील
झपट पड़ते। विचित्र दृश्य है- पांडे न जाने क्यों बुदबुदाए। फिर मिट्टी की बनी
पुरानी बखरी की ओर देखा। पांड़े के दादा ‘देस-दिहात’ के नामी-गिरामी पंडित थे, उनका ऐसा इकबाल था कि कोई किसी को कभी
सताने की हिम्मत नहीं करता था। उनकी बनवायी है यह बखरी। भाग की लेख कौन टारे। दो
पुश्त के अंदर ही सभी कुछ खो गया, मुट्ठी में बंद जुगनू हाथ के बाहर निकल गया और
किसी ने जाना भी नहीं। आज से सोलह साल पहले माँ -बाप एक नन्हा लड़का हाथ में
सौंपकर चले गये, पैर से पंगु भैरों पांड़े अपने दो बरस के छोटे भाई को कंधे से चिपकाये असहाय, निरवलम्ब खड़े रह गये- धन के नाम पर
बाप का कर्ज़ मिला, काम-धाम के लिए दुधमुँहे भाई की देख-रेख, रहने के लिए बखरी जिसे पिछली बाढ़ के
धक्कों ने एकदम जर्जर कर दिया है।
“अब यह भी न बचेगी”- पांड़े के मुँह से
भवितव्य [भविष्य मे निश्चित रूप से होने को हो। ]फूट रहा था जिसकी भयंकरता पर
उन्होंने ज़रा भी ख्याल करना ज़रूरी नहीं समझा। दरारों से भरी दीवारें उनके खुरदरे
हाथों के स्पर्श से पिघल गयीं, वर्षा का पानी पसीज कर हाथों में आंसू की तरह
चिपक गया।
सनसनाती हवा गाँव के इस छोर से उस छोर तक चक्कर
लगा रही थी। विधवा फुलमतिया को बेटा हुआ है, बेटा-
कुतिया के पाप से गाँव तबाह हो रहा है, राम राम ऐसा पाप भैरों पांड़े के कानों
में आवाज़ के स्पर्श से ही भयंकर पीड़ा पैदा हो गयी। बैसाखी उनके शरीर के भार को सम्भाल
न सकी और वे धम्म से चौखट पर बैठ गये। बाजू के धक्के से कुहनी छिल गयी, चिनचिनाती कुहनी का दर्द उनके
रोयें-रोयें में बिंध रहा था, और पांड़े इस पीड़ा को होंठों के बीच दबाने का
प्रयत्न कर रहे थे।
“सब कुछ गया”- वे बुदबुदाए। कर्मनाशा की
बाढ़ उनकी उस जर्जर बखरी को हड़पने नहीं, उनके पितामह की उस अमूल्य प्रतिष्ठा को
हड़पने आयी है, जिसे अपनी इस विपन्न अवस्था में भी पांड़े ने धरती पर नहीं रखा।
दुलार से पली वह प्रतिष्ठा सदा उनके कंधे पर पड़ी रही। “मैं जानता था कि वह छोकरा
इस खानदान का नाश करने आया है”- पांड़े की आँखों में उनके छोटे भाई की तस्वीर नाच उठी। अठारह
वर्ष का छरहरा पानीदार कुलदीप, जिसकी आँखों में भैरों को माँ की छाया तैरती नज़र आती, उसके काले काकुल को देखकर मुखियाजी
कहते कि इस पर भैरों पांड़े के दादा की लौछार पड़ी है। पांड़े हो-हो कर हँस पड़ते।
“जा रे कुलदीप, बरामदे में बैठकर पढ़।” भैरों पांड़े मन में बुदबुदाते- ‘तेरे आँख
में सौ कुंड चालू, हरामी कहीं का, लड़के पर नज़र गड़ाता है, कुछ भी हुआ इसे तो भगवान कसम तेरा गला
घोंट दूंदूँ, बड़ा आया मुखियाजी’, फिर ज़रा बढ़ के बोलते- “क्या लौछार पड़ेगी
मुखियाजी, दादा के पास तो पाँच पछाहीं गाएं थीं, एक से एक, दो धन दुह लें तो पंचसेरी बाल्टी भर
जाती थी। यहाँ तो इस लौंडे को दूध पचता ही
नहीं। फिर साल-बारह महीने हमेशा मिलता भी कहाँ है हम गरीबों को?”
“अब वह पुराने जमाने की बात कहाँ रही पांड़ेजी,” मुखिया कहता है और अपने संकेतों से
शब्दों में मिर्चे की तिताई भरकर चला जाता। काले-काले काकुलों वाला नवजवान कुलदीप
उसे फूटी आँखों नहीं सुहाता, किंतु भैरों पांड़े के डर से वह कुछ कह
न पता।
भैरों पांड़े, दिन-भर बरामदे में बैठकर रुई से बिनौले
निकालते, तूंमते, सूत तैयार करते और अपनी तकली नचा-नचाकर
जनेऊ बनाते, जजमानी चलाते, पत्रा देख देते, सत्यनारायण की कथा बाँच देते, और इससे जो कुछ मिलता, कुलदीप की पढ़ाई और उसके कपड़े-लत्ते
आदि में खर्च हो जाता।
यह सब-कुछ मर-मर कर किया था इसी दिन को- पांड़े
की आँखों में प्यास छा गयी, लड़के ने उन्हें किसी ओर का नहीं रखा।
आज यहाँ आफत मची है, आप पता नहीं कहाँ भाग कर छिपा है।
“राम जाने कैसे हो,” सूखी आँखों से दो बूंदें गिर पड़ीं, “अपने से तो कौर भी नहीं उठा पाता था, भूखा बैठा होगा कहीं, बैठे-मरे हम क्या करें।” पांडे ने
बैसाखी उठायी। बगल की चारपाई तक गये और धम्म से बैठ गये। दोनों हाथों में मुँह
छिपा लिया और चुप लेटे रहे।
पूरबी आकाश पर सूरज दो लट्ठे ऊपर चढ़ आया था।
काले-काले बादलों की दौड़-धूप जारी थी, कभी-कभी हल्की हवा के साथ बूँदें बिखर जातीं। दूर किनारों पर बाढ़ के पानी की
टकराहट हवा में गूँज उठती। भैरों पांड़े उसी तरह चारपाई पर लेटे आँगन की ओर देख रहे थे। बीचोंबीच आँगन के तुलसी-चौरा था जो बरसात के पानी से कटकर
खुरदरा हो गया था। पुराने पौधे के नीचे कई मासूम मरकती पत्तियों वाले छोटे-छोटे
पौधे लहराने लगे थे। वर्षा की बूँदें पुराने पौधे की सख्त पत्तियों पर टकराकर बिखर
जातीं, टूटी
हुई बूंदों की फुहार धीरे-से मासूम पौधों
पर फिसल जातीं, कितने आनंद-मग्न थे वे मासूम पौधे। पांड़े की आँखों के सामने कातिक की वह शाम भी नाच उठी। दो बरस
पहले की बात होगी। शाम के समय जब वे बरामदे में लेटे थे, फुलमत आयी, अपनी बाल्टी माँगने, सुबह भैरों पांड़े ले आये थे किसी काम
से।
“कुलदीप, ज़रा भीतर से बाल्टी दे देना,” कहा था पांड़े ने। सफेद साड़ी में
लिपटी-लिपटाई गुड़िया की तरह फुलमत आंगन में इसी चौरे के पास आकर खड़ी हो गयी थी।
और बाल्टी उठाने के लिए जब कुलदीप झुका था तो फुलमत भी अपने दोनों हाथों से आँचल
का खूंट पकड़कर तुलसीजी की वंदना करने के लिए झुकी थी। कुलदीप के झटके से उठने पर
वह उसकी पीठ से टकरा गयी थी अचानक। तब न जाने क्यों दोनों मुस्करा उठे थे। भैरों
पांड़े क्रोध से तिलमिला गये थे। वे गुस्से के मारे चारपाई से उठे तो देखा कि
कुलदीप बाल्टी लिये खड़ा था और फुलमत तुलसी-चौरे पर सिर रखकर प्रार्थना कर रही थी।
न जाने क्यों, पांड़े की आँखें भर आयीं। बरसात के दिनों के बाद इस खुरदरे चौरे को
उनकी मां पीली मिट्टी के लेवन से सँवार फिर श्वेत बलुई माटी से पोत कर सफेद कर
देतीं। शाम को सूखे हुए चबूतरे पर घी के दीपक जलाकर माथा टेककर वे लड़कों के मंगल
के लिए विनय करतीं। तब वे भी ऐसे ही झुककर आशीर्वाद माँगतीं और पांड़े बगल में
चुपचाप खड़े दियों का जलना देखा करते थे।
पांड़े को सामने खड़ा देख कुलदीप हड़बड़ाया और
फुलमत बाल्टी लेकर चुपचाप बाहर चली गयी। पांड़े के चेहरे पर एक विचित्र भाव था, जिसे सम्भाल सकने की ताकत उन दोनों के
मन में न थी, और दोनों ही भय की कम्पन लिये इधर-उधर भाग खड़े हुए।
बहुत दिनों तक पांड़े के चेहरे पर अवसाद का यह
भाव बना रहा। कुलदीप डर के मारे उनकी ओर देख नहीं पाता, न तो पहले जैसी ज़िद कर सकने को हिम्मत
होती, न हँसी
के कलरव से घर के कोने-कोने को गुंजान बनाने का साहस। पांड़े ने अपने दिल को
समझाया, इसे
लड़कों का क्षणिक खिलवाड़ समझा। सोचा, धरती की छाती बड़ी कड़ी है। ठेस लगते ही सारी
गुलाबी पंखुरियाँबिखर जाएँगी, दोनों को दुनिया का भाव-ताव मालूम हो जाएगा।
पांड़े के रुख से फुलमत भी सशंक हो गयी थी, वह इधर कम आती। कुलदीप के उठने-बैठने, पढ़ने-लिखने पर पांड़े की कड़ी नज़र थी।
वह किताब खोलकर बैठता तो दीये की टेम में श्वेत वत्रों में लिपटी फुलमत खड़ी हो
जाती, पुस्तक
के पन्ने खुले रह जाते और वह एकटक दीये की लौ की ओर देखता रह जाता। पांड़े को उसकी
यह दशा देखकर बड़ा क्रोध आता, पर कुछ कहते नहीं।
“कुलदीप”, एक बार टोक भी दिया था- “क्या देखते
रहते हो इस तरह, तबीयत तो ठीक है न?”
“जी,” इतना ही कहा था कुलदीप ने, और फिर पढ़ने लग गया था। दीये की टेम
कुलदीप के चेहरे पर पड़ रही थी, जिसे पीछे घने अंधकार में लेटे पांड़े क्रोध, मोह और न जाने कितने प्रकार के भावों
के चक्कर में झूल रहे थे। उन्हें फुलमत पर बेहद गुस्सा आता। टीमल मल्लाह की यह
विधवा लड़की मेरा घर चौपट करने पर क्यों तुली है, बाप मरा, पति मरा, अब न जाने क्या करेगी। जाने कौन-सा
मंत्र पढ़ दिया। यह कबूतर की तरह मुँह फुलाये बैठा रहता है। न पढ़ता है, न लिखता है। हँसना, खेलना, खाना सब भूल गया। पांड़े चारपाई से
उतरकर इधर-उधर चक्कर लगाते रहे। पर कुछ निर्णय न कर सके।
समय बीतता गया। कुलदीप भी खुश नज़र आता। हँसता-खेलता।
पांड़े की छाती से चिंता का भारी पत्थर खिसक गया। एक बार फिर उनके चेहरे पर हंसी
की आभा लौटने लगी। रुई-सूत का काम फिर शुरू हुआ। गाँव के दो-चार उठल्ले-निठल्ले
आकर बैठ जाते, दिन गपास्टक में बीत जाता। सुरती मल-मल ताल ठोंकने और पिच्च से थूककर
किसी को गाली देते या निंदा करते। इन सब चीज़ों से वास्ता ना रखते हुए भी पांड़े
सुनते जाते। उनका मन तो चक्कर खाती तकली के साथ ही घूमता रहता, हूं-हां करते जाते और निठल्लों की
बातों में सन्नाटे को किसी तरह झेल ले जाते।
पांड़े उसी चारपाई पर लेटे थे। अंतर इतना ही था
कि दिन थोड़ा और ऊपर चढ़ आया था, लहरों की टकराहट थोड़ी और तेज़ हो गयी थी, रक्त की तरह खौलता हुआ लाल पानी गाँव
के थोड़ा और निकट आ गया था। उनकी नसें किसी तीव्र व्यथा से जल रही थीं। “पांड़े के
वंश में कभी ऐसा नहीं हुआ था”- वे फुसफुसाये। बगल को दीवार में ताखे पर रामायन की
गुटका रखी थी; उन्होंने उठाया, एक जगह लाल निशान लगा था। पिछले दिनों कुलदीप
रात में रामायन पढ़ा करता था। जब से वह गया है आज तक गुटका खुली नहीं। पांड़े के
हाथ कांपे, गुटका उलटकर उनकी छाती पर गिर पड़ी। उठाकर खोला, वही लाल निशान-
वह सीता भा विधि प्रतिकूला ।
मिलइ न पावक मिटइ न सूला ।।
सुनहु विनय नम विटप असोका ।
सत्य नाम करु हरु मम सोका ।।
पांड़े की आँखें भरभरा आयी। झरझर आंसू गिरने
लगे। हिचकी लेकर वे टूट पड़े। “यह चुड़ैल मेरा घर खा गयी”- शब्द फूटे, किंतु भीतर घुमड़कर रह गये। “गाली देने
से ही क्या होगा अब, इतने तक रहता तो कोई बात थी, आज उसे बच्चा हुआ है, कहीं कह दे कि लड़का कुलदीप का है तो
नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता,” पांड़े बडबड़ाये। उन्होंने अपने बालों
को मुट्ठियों से कसकर खींचा, जैसे इनकी जड़ में पीड़ा जम गयी है, खींचने से थोड़ी राहत मिलेगी। वे उठना
चाहते थे, किंतु उठ न सके। आँखों के
सामने चिनगारियां फूटने लगीं। उन्हें आज मालूम हुआ कि वे इतने कमज़ोर हो गये हैं।
कुलदीप के जाने के बाद से आज तक उनका जीवन अव्यवस्था की एक कहानी बनकर रह गया है।
चार-पाँच महीने से कुलदीप भागा है; पहले कई दिनों तक वे ज़रूर बहुत बेचैन थे, किंतु समय ने दुख को भुलाने में मदद की
थी। आज फिर कुलदीप उनकी आँखों के सामने
आकर खड़ा हो गया। बीती घटनाएं एक-एक कर आँखों के सामने नाचने लगीं।
फागुन का आरम्भ था। मुखिया जी की लड़की की शादी
थी। गाँवभर में खुशी छायी रहती, जैसे सबके घर शादी होने वाली हो। शादी के दिन
तो गाँववालों में बनने-संवरने की होड़ लग गयी। सब लोग पट्टी कटा रहे थे, शौकीनों की पट्टी चार-चार अंगुल चौड़ी, छुरे से बनी थी। कुएँ की जगत पर दोपहर
के दो घंटे पहले से भीड़ लगी थी, और अब दो बजने को आये, साबुन लग रही थी, पैरों में जमी मैल सिकड़े से रगड़-रगड़
कर छुड़ायी जा रही थी।
बारात आयी। द्वार-पूजा की शोभा का क्या कहना? बनारस की रंडी नाचने आयी थी।
छैल-छबीलों की भीड़ जम गयी थी। शाम को महफिल जमी। मुखिया जी का दरवाज़ा आदमियों से
खचाखच भरा था। एक ओर गली में सिमटकर औरतें बैठी हुई थीं। गाँव की लड़कियाँ, बूढ़ियाँ और कुछ मनचली बहुएँ। बाई जी
आयी। अपना ताम-झाम फैलाकर बैठ गयी। सारंगी लेकर बूढ़े मियाँ ने किन-किन किया, बाई जी ने अलाप के बाद गाया–
नीच उंच कुछ बूझत नाहीं, मैं हारी समझाव
वे दोनों नैना बड़े बेदरदी दिल में गड़ि गयो
हाव
महफिल से बहुत दूर, गाँव के छोर पर आमों के पेड़ों पर
फागुन के पीले चाँद की छाया फैली थी, जिसके नीचे चितकबरे के चाम की तरह फैली चाँदनी
में एक प्रश्न उठा, “मुखिया जी की महफिल में पतुरिया ने जो गीत गाया था, कितना सही था?”
“कौन-सा गीत?”
“ये दोनों नैना बड़े बेदरदी”
“धत्!”
“उस दिन मैं बड़ी देर तक इंतज़ार करता
रहा!”
“मेरी मां के सिर में दर्द था।”
“कौन है?” ज़ोर की आवाज़ गूँज उठी थी।
पास की गली में एक छाया खो गयी थी।
“कौन है?” फिर आवाज़ आयी थी।
“मैं हूँ कुलदीप!”
“यहाँ क्या कर रहे हो?”
“नदी की ओर चला गया था!”
“इस समय?”
“पेट में दर्द था!”
क्रोध की हालत में भी भैरों पांड़े मुस्करा उठे
थे- झूठे, पेट में दर्द था कि आंख में। कुलदीप का सिर लज्जा से झुक गया था। उसे
लगा जैसे एक क्षण का यह भयप्रद जीवन उसकी आत्मा पर सदा के लिए छा जाएगा। एक क्षण
के लिए बोला हुआ यह झूठ उसके जीवन को झूठा साबित कर देगा। एक क्षण के लिए झुका यह
माथा फिर कभी न उठ सकेगा। वह झूठ के इस पर्दे को फाड़ डालना चाहता था, किंतु “कुलदीप” भैरों पांड़े ने
आहिस्ते-आहिस्ते कहा, “तुम गलत रास्ते पर पांव रख रहे हो, बेटा, तुमने कभी अपने बाप-दादों की इज्जत के
बारे में सोचा है? बड़े पुण्य के बाद इस घर में जन्म मिला है भाई, इसे कभी मत भूलना कि अच्छे घर में जन्म
लेने से कोई बहुत बड़ा नहीं हो जाता, किंतु इस अवसर को गलत कहकर नीचे गिरने से बड़ा
पाप और कोई नहीं है।” कुलदीप को लगा कि तीखे कांटों वाली कोई जीवित मछली उसके गले
में फंस गयी है, गर्दन को चीरती हुई यदि वह निकल जाए तो भी गनीमत, किंतु यह असह्य पीड़ा तो नहीं सही जाती
और न जाने क्यों वह हिचकियों से फूट-फूटकर रो उठा था। भाई के मन की पीड़ा की
कल्पना भी उसके लिए कष्टकर थी, किंतु उसकी आत्मा अपने सम्पूर्ण भाव से जिस
वस्तु को वरेण्य समझती है, उसे वह एकदम ही व्यर्थ कैसे कह दे! जिस छाया
में न जाने क्यों उसे एक अजाने आनंद का अनुभव होता है, उसे कालिख कह सकना उसके वश की बात नहीं
थी, और
इस कष्ट के भार को उसकी आँखें सम्भाल न सकीं। भैरों पांड़े भी भाई से लिपट गये थे।
उसकी पीठ सहला रहे थे और उसे बार-बार चुप हो जाने को कह रहे थे, “यदि कोई देख ले तो,” उनके मन में आया और वे कुलदीप को
जल्दी-जल्दी खींचते हुए एक ओर चले गये।
आंसुओं में जो पश्चाताप उमड़ता है, वह दिल की कलौज को मांज डालता है।
पांड़े ने सोचा था कि कुलदीप अब ठीक रास्ते पर आ जाएगा। उनके वंश की मर्यादा अपमान
के तराजू पर चढ़ने से बच जाएगी, भूखों रहकर भी पांड़े ने इज्जत के जिस बिरवे को
खून से सींचकर तरोताज़ा रखा है, उस पर किसी के व्यंग-कुठार नहीं चलेंगे। किंतु
एक महीना भी नहीं बीता कि कुलदीप फिर उसी रास्ते पर चल पड़ा। छोटे भाई के इस कार्य
को छिपकर देखने की पापाग्नि में भैरों पांड़े अपनी आत्मा को जलते हुए देखते, किंतु वे विवश थे।
चैत के दिनों में गर्मी से जली-तपी कर्मनाशा
किनारे के नीचे सिमट गयी थी। नदी के पेट में दूर तक फैले हुए लाल बालू का मैदान, चांदनी में सीपियों के चमकते हुए
टुकड़े, सामने
के ऊंचे अरार पर घन-पलास के पेड़ों की आरक्त पांतें, बीच में घुग्घू, चारों ओर जल-विहार करने वाले पक्षियों
का स्वर कगार से नदी तीर तक बने हुए छोटे-बड़े पैरों के निशानों की दो पंक्तियां
सिर्फ दो।
“तुम मुझे मझधार में लाकर छोड़ तो नहीं
दोगे!” घुटन और शंका में खोये हुए धीमे स्वर। श्यामा की चीरती दर्द-भरी आवाज़।
एक चुप्पी, फिर हकलाती आवाज़, “मैं अपना प्राण दे सकता हूं, किंतु तुमको… कभी नहीं”।
चांदनी की झीनी परतें सघन होती जा रही थीं, सुनसान किनारे पर भटकी हवा की सनसनाहट
में आवाज़ों का अर्थ खो जाता, कभी हल्के हास्य की नर्म ध्वनि, कभी आक्रोश के बुलबुले, कभी उल्लास तरंग, कभी सिसकियों की सरसराहट।
भैरों पांड़े एक बार चांदनी के इस पवित्र आलोक
में अपनी क्रूरता और निर्ममता पर विचार करने के लिए रुक गये, तो क्या आज तक का उनका सारा प्रयत्न
निष्फल था? क्या वे असाध्य को सम्भव बनाने का ही प्रयत्न करते रहे? एक क्षण के लिए भैरों पांड़े ने सोचा-
काश, फुलमत
अपनी ही जाति की होती! कितना अच्छा होता, यह विधवा न होती। तुलसी चौरे की वंदना
पांड़े के मस्तिष्क में चंदन की सुगंध की तरह छा गयी। उसका रूप, चाल-चलन, संकोच सब-कुछ किसी को भी शोभा देने
लायक था। एक क्षण के लिए उनकी आँखों के
सामने सफेद साड़ी में लिपटी फुलमत की पतली-दुबली काया हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी, जैसे वह आँचल फैलाकर आशीर्वाद माँग रही
हो। भैरों पांड़े विजड़ित खड़े थे, दिग्मूढ़।
“यह असम्भव है!” पांड़े ने बैसाखी
सम्भाली और नीचे की ओर लपके।
“कुलदीप!” बड़ी कर्कश आवाज़ थी पांड़े
की।
दोनों सिर झुकाये सामने खड़े थे, आज पहली बार पाप की साक्षी में दोनों
समवेत दिखाई पड़े थे। पांड़े फिर एक क्षण के लिए चुप हो गये।
“मैं पूछता हूं, यह सब क्या है?” पांड़े चिल्लाये, “इतने निर्लज्ज हो तुम दोनों?” पांड़े बढ़कर सामने आये, फुलमत की ओर मुँह फेरकर बोले, “तू इसकी ज़िंदगी क्यों बिगाड़ना चाहती
है? क्या
तू नहीं जानती कि तू जो चाहती है वह स्वप्न में भी नहीं हो सकता, कभी नहीं!”
फुलमत चुप थी, पांड़े दूने क्रोध-से बोले, “चुप क्यों है चुड़ैल, बोलती क्यों नहीं?”
“मैं क्यों इनकी ज़िंदगी बिगाडूंगी, दादा?”- वह सहसा एकदम निचुड़ गयी, “मैंने तो इन्हें कई बार मना किया।”
“कुलदीप!” पांड़े दहाड़े, “सीधे रास्ते पर आ जाओ, अच्छा होगा। तुमने भैरों का प्यार देखा
है क्रोध नहीं; जिन हाथों से मैंने पाल-पोसकर बड़ा किया है, उसी से तुम्हारा गला घोटते मुझे देर न
लगेगी।”
“दादा!” कुलदीप हकलाया, “हम दोनों।”
“पापी, नीच” भैरों पांड़े के हाथ की पांचो
अंगुलियां कुलदीप के चेहरे पर उभर आयी, “मैं सोचता था तू ठीक हो जाएगा!” पांड़े क्रोध
से कांप रहे थे, “लेकिन नहीं, तू मेरी हत्या करने पर तुल ही गया है।” वे
फुलमत की ओर घूमकर चिल्लाये, “क्या खड़ी है डायन, भाग नहीं तो तेरा गला घोंटकर इसी पानी
में फेंक दूंगा!”
अंधड़ को पीते हुए तृषित सांप जैसा स्वर, “यह सब मैंने किया था।” पांड़े चारपाई
पर घायल सांप की तरह तड़फड़ाते हुए बुदबुदाये। उनकी छाती से सरककर रामायण की गुटका
ज़मीन पर गिर पड़ी और उस पवित्र आराध्य वस्तु को उठाने का उन्हें ध्यान न रहा।
कुलदीप दूसरे ही दिन लापता हो गया। पांड़े अपनी बैसाखी के सहारे दिन भर गाँव-गिरांव
की खाक छानते फिरे, किंतु वह नहीं मिला। थककर, हार कर पांड़े वापस आ गये। बाप-दादों की इज्ज़त
की प्रतीक इतनी विशाल बखरी, जिसकी दीवारें मुँह दबाये शांत, पुजारी के तप की तरह अडिग खड़ी थीं, किंतु कितनी सुनसान, डरावनी, निष्प्राण पिंजर की तरह लगती थीं यह
बखरी। चौखट पर पैर रखते हुए पांड़े की आत्मा कराह उठी- “चला गया!” बैसाखी रखकर
पांड़े आंगन के कोने में बैठ गये- “अब वह कभी नहीं लौटेगा।”
रात में उन्हें बड़ी देर तक नींद नहीं आयी।
कुलदीप को बचपन से लेकर आज तक उन्होंने कभी अपनी आंख की ओट नहीं होने दिया। छुटपन
से लेकर आज तक खिलाया-पिलाया, पाला-पोसा, और आज लड़का दगा देकर निकल गया। पांड़े
अधरों की मेड़ के पीछे बिथा के सैलाब को रोकने का असफल प्रयत्न करते रहे।
भोर होने में देर थी, उनींदी आँखें करुआ रही थीं, किंतु मन की जलन के आगे उस दर्द का मोल।
पांड़े उठकर टहलने लगे। सामने की बंसवार के भीतर से पूरबी क्षितिज पर ललछौहां उजास
फूटने लगा था। गली के मोड़ के कच्चे मकान के भीतर से जांत की घर्र-घर्र गूंज रही
थी। एक घुमड़ता गरगराहट का स्वर, जिसके पीछे जांत वाली के कंठ की व्यथा की एक
सुरीली तान टूट-टूटकर कौंध उठती थी।
मोहे जोगिनी बनाके कहां गइले रे जोगिया
पांड़े एक क्षण अवाक् होकर इस दर्दीले गीत को
सुनते रहे। प्यासे, भूले-भटके, थके हुए स्वर, पांड़े की आत्मा में जैसे समान वेदना
को पहचानकर उतरते चले जा रहे हों। “अब रोने चली है चुड़ैल!” पांड़े पागल की तरह
बड़बड़ाते रहे, “रो-रोकर मर, मैं क्या करूं?”
बाढ़ के लाल पानी में सूरज डूब रहा था, पांड़े बैसाखी के सहारे आकर दरवाजे पर
खड़े हुए नदी की ओर आदमियों की भीड़ खड़ी थी। वे धीरे-धीरे उधर ही बढ़े। सामने
तीन-चार लड़के अरहर की खूंटियां गाड़कर पानी का बढ़ाव नाप रहे थे।
“क्या कर रहा है, छबीला!” पांड़े बलात चेहरे पर
मुस्कराहट का भाव लाकर बोले।
“देखता नहीं लंगड़े, बाढ़ रोक रहे हैं!”
पांड़े मुस्कराये- “जैसा बाप वैसा बेटा। तेरा
बाप भी खूंटिया गाड़ कर कर्मनाशा की बाढ़ को रोकना चाहता है।”
“वह भीड़ कैसी है रे, छबीले?”
“नहीं जानते, फुलमत को नदी में फेंक रहे हैं। उसके
बच्चे को भी। उसने पाप किया है।” छबीला फिर गम्भीर खड़े पांड़े से सटकर बोला-
“क्यों पांड़े चाचा, जान लेकर बाढ़ उतर जाती है न?”
“हां, हां” पांड़े आगे बढ़ा। बोतल की टीप खुल
गयी थी। पांड़े के मन में भयानक प्रेत खड़ा हो गया। “चलो, न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। हूं, चली थी पांड़े के वंश में कालिख पोतने।
अच्छा ही हुआ कि वह छोकरा भी आज नहीं है।”
फुलमत अपने बच्चे को छाती से चिपकाये टूटते हुए
अरार पर एक नीम के तने से सटकर खड़ी थी। उसकी बूढ़ी मां जार-बेजार हो रही थी, किंतु आज जैसे मनुष्य ने पसीजना छोड़
दिया था, अपने-अपने
प्राणों का मोह इन्हें पशु से भी नीचे उतार चुका था, कोई इस अन्याय के विरुद्ध बोलने की
हिम्मत नहीं करता था। कर्मनाशा को प्रणों की बलि चाहिए, बिना प्रणों की बलि लिये बाढ़ नहीं
उतरेगी फिर उसी की बलि क्यों न दी जाय जिसने पाप किया… परसाल जान के बदले जान दी
गयी, पर
कर्मनाशा दो बलि लेकर ही मानी… त्रिशुंक के पाप की लहरें किनारों पर सांस की तरह
फुफकार रही थीं। आज मुखिया का विरोध करने का किसी में साहस न था। उसके नीचता के
कार्यों का ऐसा समर्थन कभी न हुआ था। “पता नहीं, किस बैर का बदला ले रहा है बेचारी से।”
भीड़ में कई इस तरह सोचते, ऐसा तो कभी नहीं हुआ था, किंतु कौन बोले सब मुँह सिये खड़े थे।
“तुम्हारी क्या राय है भैरों पांडे!”
मुखिया बोला, “सारे गाँव ने फैसला कर दिया- एक के पाप के लिए सारे गाँव को मौत के मुँह
में नहीं झोंक सकते। जिसने पाप किया है उसका दंड भी वही भोगे।”
एक वीभत्स सन्नाटा। पांड़े ने आकाश की ओर देखा, आगे बढ़े, फुलमत भय से चिल्ला उठी। पांड़े ने
बच्चे को उसकी गोद से छीन लिया। “मेरी राय पूछते हो मुखिया जी? तो सुनो, कर्मनाशा की बाढ़ दुधमुँहे बच्चे और एक
अबला की बलि देने से नहीं रुकेगी, उसके लिए तुम्हें पसीना बहाकर बांधों को ठीक
करना होगा। कुलदीप कायर हो सकता है, वह अपने बहू-बच्चे को छोड़कर भाग सकता है, किंतु मैं कायर नहीं हूं। मेरे जीते-जी
बच्चे और उसकी मां का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता समझे?”
“तो यह है बूढ़े पांड़े जी की बहू!”
मुखिया व्यंग से बोला, “पाप का फल तो भोगना ही होगा, पांड़े जी, समाज का दंड तो झेलना ही होगा।”
“ज़रूर भोगना होगा, मुखिया जी मैं आपके समाज को कर्मनाशा
से कम नहीं समझता। किंतु, मैं एक-एक के पाप गिनाने लगूं तो यहां खड़े
सारे लोगों को परिवार समेत कर्मनाशा के पेट में जाना पड़ेगा। है कोई तैयार जाने को?”
लोग अवाक् पांड़े को देख रहे थे, जो अपने कंधे से छोटे बच्चे को चिपकाये
अपनी बैसाखी के सहारे खड़े थे। पत्थर की विशाल मूर्ति की तरह उन्नत, प्रशस्त, अटल कर्मनाशा के लाल पानी में सूरज डूब
रहा था।
जिन
उद्धत लहरों की चपेट से बड़े-बड़े विशाल पीपल के पेड़ धराशायी हो गये थे; वे एक टूटे नीम के पेड़ से टकरा रही
थीं, सूखी
जड़ें जैसे सख्त चट्टान की तरह अडिग थीं, लहरें टूट-टूटकर पछाड़ खाकर गिर रही
थीं। शिथिल-थकी पराजित!