Saturday, December 28, 2019

Kaise banti hai kavita कैसे बनती है कविता


कैसे बनती है कविता/कविता के घटक क्या हैं?
'प्ले विथ थे वर्ड्स ' किसने कहा और क्यों? 
जानिए कविता में शब्दों का क्या महत्व है?

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Thursday, December 19, 2019

व्रत - भंग -जयशंकर प्रसाद

ऐश्वर्य के दर्प की कहानी है या दरिद्रता के गर्व की ..



कपिंजल/नंदन /राधा और पाटलिपुत्र का सेठ कलश


 व्रत - भंग
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      -जयशंकर प्रसाद

तो तुम न मानोगे?

नहीं, अब हम लोगों के बीच इतनी बड़ी खाई है, जो कदापि नहीं पट सकती!

इतने दिनों का स्नेह?

ऊँह! कुछ भी नहीं। उस दिन की बात आजीवन भुलाई नहीं जा सकती, नंदन! अब मेरे लिए तुम्हारा और तुम्हारे लिए मेरा कोई अस्तित्व नहीं। वह अतीत के स्मरण, स्वप्न हैं, समझे?

यदि न्याय नहीं कर सकते, तो दया करो, मित्र! हम लोग गुरुकुल में....

हाँ-हाँ, मैं जानता हूँ, तुम मुझे दरिद्र युवक समझ कर मेरे ऊपर कृपा रखते थे, किन्तु उसमें कितना तीक्ष्ण अपमान था, उसका मुझे अब अनुभव हुआ।

उस ब्रह्म बेला में ऊषा का अरुण आलोक भागीरथी की लहरों के साथ तरल होता रहता, हम लोग कितने अनुराग से स्नान करने जाते थे। सच कहना, क्या वैसी मधुरिमा हम लोगों के स्वच्छ हृदयों में न थी?

रही होगी-पर अब, उस मर्मघाती अपमान के बाद! मैं खड़ा रह गया, तुम स्वर्ण-रथ पर चढक़र चले गये; एक बार भी नहीं पूछा। तुम कदाचित् जानते होगे नंदन कि कंगाल के मन में प्रलोभन के प्रति कितना विद्वेष है? क्योंकि वह उससे सदैव छल करता है-ठुकराता है। मैं अपनी उस बात को दुहराता हूँ कि हम लोगों का अब उस रूप में कोई अस्तित्व नहीं।

वही सही कपिञ्जल! हम लोगों का पूर्व अस्तित्व कुछ नहीं, तो क्या हम लोग वैसे ही निर्मल होकर एक नवीन मैत्री के लिए हाथ नहीं बढ़ा सकते? मैं आज प्रार्थी हूँ।

मैं उस प्रार्थना की उपेक्षा करता हूँ। तुम्हारे पास ऐश्वर्य का दर्प है, तो अकिञ्चता उससे कहीं अधिक गर्व रखती है!

तुम बहुत कटु हो गये हो इस समय। अच्छा, फिर कभी...

न अभी, न फिर कभी। मैं दरिद्रता को भी दिखला दूँगा कि मैं क्या हूँ। इस पाखण्ड-संसार में भूखा रहूँगा, परन्तु किसी के सामने सिर न झुकाऊँगा। हो सकेगा तो संसार को बाध्य करूँगा झुकने के लिए।

कपिञ्जल चला गया। नंदन हतबुद्धि होकर लौट आया। उस रात को उसे नींद न आई।

उक्त घटना को बरसों बीत गये। पाटलीपुत्र के धनकुबेर कलश का कुमार नंदन धीरे-धीरे उस घटना को भूल चला। ऐश्वर्य का मदिरा-विलास किसे स्थिर रहने देता है! उसने यौवन के संसार में बड़ी-बड़ी आशाएँ लेकर पदार्पण किया था। नंदन तब भी मित्र से वञ्चित होकर जीवन को अधिक चतुर न बना सका।

राधा, तू कैसी पगली है? तूने कलश की पुत्र-वधू बनने का निश्चय किया है, आश्चर्य!

हाँ महादेवी, जब गुरुजनों की आज्ञा है, तब उसे तो मानना ही पड़ेगा।

मैं रोक सकती हूँ। मूर्ख नंदन! कितना असंगत चुनाव है! राधा, मुझे दया आती है।

किसी अन्य प्रकार से गुरुजनों की इच्छा को टाल देना यह मेरी धारणा के प्रतिकूल है, महादेवी! नंदन की मूर्खता सरलता का सत्यरूप है। मुझे वह अरुचिकर नहीं। मैं उस निर्मल-हृदय की देख-रेख कर सकूँ, तो यह मेरे मनोरंजन का ही विषय होगा।

मगध की महादेवी ने हँसी से कुमारी के इस साहस का अभिनंदन करते हुए कहा। तेरी जैसी इच्छा, तू स्वयं भोगेगी।

माधवी-कुञ्ज से वह विरक्त होकर उठ गई। उन्हें राधा पर कन्या के समान ही स्नेह था।

दिन स्थिर हो चुका था। स्वयं मगध-नरेश की उपस्थिति में महाश्रेष्ठि धनञ्जय की कन्या का ब्याह कलश के पुत्र से हो गया, अद्‌भुत वह समारोह था। रत्नों के आभूषण तथा स्वर्ण-पात्रों के अतिरिक्त मगध-सम्राट् ने राधा की प्रिय वस्तु अमूल्य मणि-निर्मित दीपाधार भी दहेज में दे दिया। उस उत्सव की बड़ाई, पान-भोजन आमोद-प्रमोद का विभवशाली चारु चयन कुसुमपुर के नागरिकों को बहुत दिन तक गल्प करने का एक प्रधान उपकरण था।

राधा कलश की पुत्रवधू हुई।

राधा के नवीन उपवन के सौध-मंदिर में अगरु, कस्तूरी और केशर की चहल-पहल, पुष्प-मालाओं का दोनों सन्ध्या में नवीन आयोजन और दीपावली में वीणा, वंशी और मृदंग की स्निग्ध गम्भीर ध्वनि बिखरती रहती। नंदन अपने सुकोमल आसन पर लेटा हुआ राधा का अनिन्द्य सौन्दर्य एकटक चुपचाप देखा करता। उस सुसज्जित कोष्ठ में मणि-निर्मित दीपाधार की यन्त्र-मयी नर्तकी अपने नूपुरों की झंकार से नंदन और राधा के लिए एक क्रीड़ा और कुतूहल का सृजन करती रहती। नंदन कभी राधा के खिसकते हुए उत्तरीय को सँभाल देता। राधा हँसकर कहती-

बड़ा कष्ट हुआ।

नंदन कहता-देखो, तुम अपने प्रसाधन ही में पसीने-पसीने हो जाती हो, तुम्हें विश्राम की आवश्यकता है।

राधा गर्व से मुस्करा देती। कितना सुहाग था उसका अपने सरल पति पर और कितना अभिमान था अपने विश्वास पर! एक सुखमय स्वप्न चल रहा था।

कलश-धन का उपासक सेठ अपनी विभूति के लिए सदैव सशंक रहता। उसे राजकीय संरक्षण तो था ही, दैवी रक्षा से भी अपने को सम्पन्न रखना चाहता था। इस कारण उसे एक नंगे साधु पर अत्यन्त भक्ति थी, जो कुछ ही दिनों से उस नगर के उपकण्ठ में आकर रहने लगा था।

उसने एक दिन कहा-सब लोग दर्शन करने चलेंगे।

उपहार के थाल प्रस्तुत होने लगे। दिव्य रथों पर बैठकर सब साधु-दर्शन के लिए चले। वह भागीरथी-तट का एक कानन था, जहाँ कलश का बनवाया हुआ कुटीर था।

सब लोग अनुचरों के साथ रथ छोड़कर भक्तिपूर्ण हृदय से साधु के समीप पहुँचे। परन्तु राधा ने जब दूर ही से देखा कि वह साधु नग्न है, तो वह रथ की ओर लौट पड़ी। कलश ने उसे बुलाया; पर राधा न आई। नंदन कभी राधा को देखता और कभी अपने पिता को। साधु खीलों के समान फूट पड़ा। दाँत किटकिटा कर उसने कहा-यह तुम्हारी पुत्र-वधू कुलक्षणा है, कलश! तुम इसे हटा दो, नहीं तो तुम्हारा नाश निश्चित है। नंदन दाँतो तले जीभ दबाकर धीरे से बोला-अरे! यह कपिञ्जल ....।

अनागत भविष्य के लिए भयभीत कलश क्षुब्ध हो उठा। वह साधु की पूजा करके लौट आया। राधा अपने नवीन उपवन में उतरी।

कलश ने पूछा-तुमने महापुरुष से क्यों इतना दुर्विनीत व्यवहार किया?

नहीं पिताजी! वह स्वयं दुर्विनीत है। जो स्त्रियों को आते देखकर भी साधारण शिष्टाचार का पालन नहीं कर सकता, वह धार्मिक महात्मा तो कदापि नहीं!

क्या कह रही है! वे एक सिद्ध पुरुष हैं।

सिद्धि यदि इतनी अधम है, धर्म यदि इतना निर्लज्ज है, तो वह स्त्रियों के योग्य नहीं पिताजी! धर्म के रूप में कहीं आप भय की उपासना तो नहीं कर रहे हैं?

तू सचमुच कुलक्षणा है!

इसे तो अन्तर्यामी भगवान् ही जान सकते हैं। मनुष्य इसके लिए अत्यन्त क्षुद्र है। पिताजी आप....

उसे रोककर अत्यन्त क्रोध से कलश ने कहा-तुझे इस घर में रखना अलक्ष्मी को बुलाना है। जा, मेरे भवन से निकल जा।

नंदन सुन रहा था। काठ के पुतले के समान! वह इस विचार का अन्त हो जाना तो चाहता था; पर क्या करे, यह उसकी समझ में न आया। राधा ने देखा, उसका पति कुछ नहीं बोलता, तो अपने गर्व से सिर उठाकर कहा-मैं धनकुबेर की क्रीत दासी नहीं हूँ। मेरे गृहिणीत्व का अधिकार केवल मेरा पदस्खलन ही छीन सकता है। मुझे विश्वास है, मैं अपने आचरण से अब तक इस पद की स्वामिनी हूँ। कोई भी मुझे इससे वञ्चित नहीं कर सकता।

आश्चर्य से देखा नंदन ने और हतबुद्धि होकर सुना कलश ने। दोनों उपवन के बाहर चले गये।

वह उपवन सबसे परित्यक्त और उपेक्षणीय बन गया। भीतर बैठी राधा ने यह सब देखा।

नंदन ने पिता का अनुकरण किया। वह धीरे-धीरे राधा को भूल चला; परन्तु नये ब्याह का नाम लेते ही चौंक पड़ता। उसके मन में धन की ओर वितृष्णा जगी। ऐश्वर्य का यान्त्रिक शासन जीवन को नीरस बनाने लगा। उसके मन की अतृप्ति, विद्रोह करने के लिए सुविधा खोजने लगी।

कलश ने उसके मनोविनोद के लिए नया उपवन बनवाया। नंदन अपनी स्मृतियों का लीला-निकेतन छोड़कर रहने लगा।

राधा के आभूषण बिकते थे और उस सेठ के द्वार की अतिथि-सेवा वैसी ही होती रहती। मुक्त द्वार का अपरिमित व्यय और आभूषणों के विक्रय की आय-कब तक यह युद्ध चले? अब राधा के पास बच गया था वही मणि-निर्मित दीपाधार, जिसे महादेवी ने उसकी क्रीड़ा के लिए बनवाया था।

थोड़ा-सा अन्न अतिथियों के लिए बचा था। राधा दो दिन से उपवास कर रही थी। दासी ने कहा-स्वामिनी! यह कैसे हो सकता है कि आपके सेवक, बिना आपके भोजन किए अन्न ग्रहण करें?

राधा ने कहा-तो, आज यह मणि-दीप बिकेगा। दासी उसे ले आई। वह यन्त्र से बनी हुई रत्न-जटित नर्तकी नाच उठी। उसके नूपुर की झंकार उस दरिद्र भवन में गंूजने लगी। राधा हँसी। उसने कहा-मनुष्य जीवन में इतनी नियमानुकूलता यदि होती?

स्नेह से चूमकर उसे बेचने के लिए अनुचर को दे दिया। पण्य में पहुँचते ही दीपाधार बड़े-बड़े रत्न-वणिकों की दृष्टि का एक कुतूहल बन गया। उस चूड़ामणि का दिव्य आलोक सभी की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न कर देता था। मूल्य की बोली बढऩे लगी। कलश भी पहुँचा। उसने पूछा-यह किसका है? अनुचर ने उत्तर दिया-मेरी स्वामिनी सौभाग्यवती श्रीमती राधा देवी का।

लोभी कलश ने डाँटकर कहा-मेरे घर की वस्तु इस तरह चुराकर तुम लोग बेचने फिर जाओगे, तो बन्दी-गृह में पड़ोगे। भागो।

अमूल्य दीपाधार से वञ्चित सब लोग लौट गये। कलश उसे अपने घर उठवा ले गया।

राधा ने सब सुना-वह कुछ न बोली।

गंगा और शोण में एक साथ ही बाढ़ आई। गाँव-के-गाँव बहने लगे। भीषण हाहाकार मचा। कहाँ ग्रामीणों की असहाय दशा और कहाँ जल की उद्दण्ड बाढ़, कच्चे झोपड़े उस महाजल-व्याल की फूँक से तितर-बितर होने लगे। वृक्षों पर जिसे आश्रय मिला, वही बच सका। नंदन के हृदय ने तीसरा धक्का खाया। नंदन का सत्साहस उत्साहित हुआ। वह अपनी पूरी शक्ति से नावों की सेना बना कर जलप्लावन में डट गया और कलश अपने सात खण्ड के प्रासाद में बैठा यह दृश्य देखता रहा।

रात नावों पर बीतती है और बाँसों के छोटे-छोटे बेड़े पर दिन। नंदन के लिए धूप, वर्षा, शीत कुछ नहीं। अपनी धुन में वह लगा हुआ है। बाढ़-पीड़ितों का झुण्ड सेठ के प्रासाद में हर नाव से उतरने लगा। कलश क्रोध के मारे बिलबिला उठा। उसने आज्ञा दी कि बाढ़-पीड़ित यदि स्वयं नंदन भी हो, तो वह प्रासाद में न आने पावे। घटा घिरी थी, जल बरसता था। कलश अपनी ऊँची अटारी पर बैठा मणि-निर्मित दीपाधार का नृत्य देख रहा था।

नंदन भी उसी नाव पर था, जिस पर चार दुर्बल स्त्रियाँ, तीन शीत से ठिठुरे हुए बच्चे और पाँच जीर्ण पञ्जर वाले वृद्ध थे। उस समय नाव द्वार पर जा लगी। सेठ का प्रासाद गंगा-तट की एक ऊँची चट्टान पर था। वह एक छोटा-सा दुर्ग था। जल अभी द्वार तक ही पहुँच सका था। प्रहरियों ने नाव देखते ही रोका-पीड़ितों को इसमें स्थान नहीं।

नंदन ने पूछा-क्यों?

महाश्रेष्ठि कलश की आज्ञा।

नंदन ने एक क्रोध से उस प्रासाद की ओर देखा और माँझी को नाव लौटाने की आज्ञा दी। माँझी ने पूछा-कहाँ ले चलें? नंदन कुछ न बोला। नाव बाढ़ में चक्कर खाने लगी। सहसा दूर उसे जल-मग्न वृक्षों की चोटियों और पेड़ों के बीच में एक गृह का ऊपरी अंश दिखाई पड़ा। नंदन ने संकेत किया। माँझी उसी ओर नाव खेने लगा।

गृह के नीचे के अंश में जल भर गया था। थोड़ा-सा अन्न और ईंधन ऊपर के भाग में बचा था। राधा उस जल में घिरी हुई अचल थी। छत की मुँडेर पर बैठी वह जलमयी प्रकृति में डूबती हुई सूर्य की अन्तिम किरणों को ध्यान से देख रही थी। दासी ने कहा-स्वामिनी! वह दीपाधार भी गया, अब तो हम लोगों के लिए बहुत थोड़ा अन्न घर में बच रहा है।

देखती नहीं यह प्रलय-सी बाढ़! कितने मर मिटे होंगे। तुम तो पक्की छत पर बैठी अभी यह दृश्य देख रही हो। आज से मैंने अपना अंश छोड़ दिया। तुम लोग जब तक जी सको, जीना।

सहसा नीचे झाँककर राधा ने देखा, एक नाव उसके वातायन से टकरा रही है, और एक युवक उसे वातायन के साथ दृढ़ता के साथ बाँध रहा है।

राधा ने पूछा-कौन है?

नीचे सिर किये नंदन ने कहा-बाढ़-पीड़ित कुछ प्राणियों को क्या आश्रय मिलेगा? अब जल का क्रोध उतर चला है। केवल दो दिन के लिए इतने मरनेवालों को आश्रय चाहिए।

ठहरिये, सीढ़ी लटकाई जाती है।

राधा और दासी तथा अनुचर ने मिलकर सीढ़ी लगाई। नंदन विवर्ण मुख एक-एक को पीठ पर लादकर ऊपर पहुँचाने लगा। जब सब ऊपर आ गये, तो राधा ने आकर कहा-और तो कुछ नहीं है, केवल द्विदलों का जूस इन लोगों के लिए है, ले आऊँ।

नंदन ने सिर उठाकर देखा, राधा। वह बोल उठा-राधा! तुम यहीं हो?

हाँ स्वामी, मैं अपने घर में हूँ। गृहणी का कर्तव्य पालन कर रही हूँ।

पर मैं गृहस्थ का कर्तव्य न पालन कर सका, राधा, पहले मुझे क्षमा करो।

स्वामी, यह अपराध मुझसे न हो सकेगा। उठिए, आज आपकी कर्मण्यता से मेरा ललाट उज्ज्वल हो रहा है। इतना साहस कहाँ छिपा था, नाथ!

दोनों प्रसन्न होकर कर्तव्य में लगे। यथा-सम्भव उन दुखियों की सेवा होने लगी।

एक प्रहर के बाद नंदन ने कहा-मुझे भ्रम हो रहा है कि कोई यहाँ पास ही विपन्न है। राधा! अभी रात अधिक नहीं हुई है, मैं एक बार नाव लेकर जाऊँ?

राधा ने कहा-मैं भी चलूँ?

नंदन ने कहा-गृहणी का काम करो, राधा! कर्तव्य कठोर होता है, भाव-प्रधान नहीं।

नंदन एक माँझी को लेकर चला गया और राधा दीपक जलाकर मुँडेर पर बैठी थी। दासी और दास पीड़ितों की सेवा में लगे थे। बादल खुल गये थे। असंख्य नक्षत्र झलमला कर निकल आये, मेघों के बन्दीगृह से जैसे छुट्टी मिली हो! चन्द्रमा भी धीरे-धीरे उस त्रस्त प्रदेश को भयभीत होकर देख रहा था।

एक घण्टे में नंदन का शब्द सुनाई पड़ा-सीढ़ी।

राधा दीपक दिखला रही थी। और सीढ़ी के सहारे नंदन ऊपर एक भारी बोझ लेकर चढ़ रहा था।

छत पर आकर उसने कहा-एक वस्त्र दो, राधा! राधा ने एक उत्तरीय दिया। वह मुमूर्षु व्यक्ति नग्न था। उसे ढककर नंदन ने थोड़ा सेंक दिया; गर्मी भीतर पहुँचते ही वह हिलने-डोलने लगा। नीचे से माँझी ने कहा-जल बड़े वेग से हट रहा है, नाव ढीली न करूँगा, तो लटक जायगी।

नंदन ने कहा-तुम्हारे लिए भोजन लटकाता हूँ, ले लो। काल-रात्रि बीत गई। नंदन ने प्रभात में आँखें खोलकर देखा कि सब सो रहे हैं और राधा उसके पास बैठी सिर सहला रही है।

इतने में पीछे से लाया हुआ मनुष्य उठा। अपने को अपरिचित स्थान में देखकर वह चिल्ला उठा-मुझे वस्त्र किसने पहनाया, मेरा व्रत किसने भंग किया?

नंदन ने हँसकर कहा-कपिञ्जल! यह राधा का गृह है, तुम्हें उसके आज्ञानुसार यहाँ रहना होगा। छोड़ो पागलपन! चलो, बहुत से प्राणी हम लोगों की सहायता के अधिकारी हैं। कपिञ्जल ने कहा-सो कैसे हो सकता है? तुम्हारा-हमारा संग असम्भव है।

मुझे दण्ड देने के लिए ही तो तुमने यह स्वाँग रचा था। राधा तो उसी दिन से निर्वासित थी और कल से मुझे भी अपने घर में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं। कपिञ्जल! आज तो हम और तुम दोनों बराबर हैं और इतने अधमरों के प्राणों का दायित्व भी हमी लोगों पर है। यह व्रत-भंग नहीं, व्रत का आरम्भ है। चलो, इस दरिद्र कुटुम्ब के लिए अन्न जुटाना होगा।

कपिञ्जल आज्ञाकारी बालक की भाँति सिर झुकाये उठ खड़ा हुआ।
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Wednesday, December 18, 2019

दिल्ली में एक मौत /कमलेश्वर /Dilli mein Ek Maut/Kamleshwar


दिल्ली में एक मौत -कमलेश्वर

 मैं चुपचाप खडा सब देख रहा हूँ और अब न जाने क्यों मुझे मन में लग रहा है कि दीवानचंद की शवयात्रा में कम से कम मुझे तो शामिल हो ही जाना चाहिए था। उनके लडके से मेरी खासी जान-पहचान है और ऐसे मौके पर तो दुश्मन का साथ भी दिया जाता है। सर्दी की वजह से मेरी हिम्मत छूट रही है... पर मन में कहीं शवयात्रा में शामिल होने की बात भीतर ही भीतर कोंच रही है।

Sumitranandan Pant सुमित्रानंदन पन्त परिचय

Sumitranandan Pant सुमित्रानंदन पन्त परिचय
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Balmukund Gupt|बालमुकुन्द गुप्त

Balmukund Gupt|बालमुकुन्द गुप्त


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Harishankar Parsay हरिशंकर परसाई

Harishankar Parsay हरिशंकर परसाई 

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Tuesday, December 10, 2019

ब्रह्मराक्षस- गजानन माधव मुक्तिबोध


 ब्रह्मराक्षस
गजानन माधव मुक्तिबोध


शहर के उस ओर खंडहर की तरफ
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी
ठंडे अँधेरे में
बसी गहराइयाँ जल की...
सीढ़ियाँ डूबी अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में...
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।

बावड़ी को घेर
डालें खूब उलझी हैं,
खड़े हैं मौन औदुंबर।
व शाखों पर
लटकते घुग्घुओं के घोंसले
परित्यक्त भूरे गोल।

विद्युत शत पुण्य का आभास
जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर
हवा में तैर
बनता है गहन संदेह
अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि
दिल में एक खटके सी लगी रहती।

बावड़ी की इन मुँडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक
बैठी है टगर
ले पुष्प तारे-श्वेत

उसके पास
लाल फूलों का लहकता झौंर -
मेरी वह कन्हेर...
वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर
अंधियारा खुला मुँह बावड़ी का
शून्य अंबर ताकता है।

बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य
ब्रह्मराक्षस एक पैठा है,
व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,
हड़बड़ाहट शब्द पागल से।
गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए प्रतिपल
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने -
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे बराबर,
बाँह-छाती-मुँह छपाछप
खूब करते साफ,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!

और... होठों से
अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार,
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,
मस्तक की लकीरें
बुन रहीं
आलोचनाओं के चमकते तार !!
उस अखंड स्नान का पागल प्रवाह...
प्राण में संवेदना है स्याह!!

किंतु, गहरी बावड़ी
की भीतरी दीवार पर
तिरछी गिरी रवि-रश्मि
के उड़ते हुए परमाणु, जब
तल तक पहुँचते हैं कभी
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने
झुककर नमस्ते कर दिया।

पथ भूलकर जब चाँदनी
की किरन टकराए
कहीं दीवार पर,
तब ब्रह्मराक्षस समझता है
वंदना की चाँदनी ने
ज्ञान-गुरु माना उसे।

अति प्रफुल्लित कंटकित तन-मन वही
करता रहा अनुभव कि नभ ने भी
विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!!

और तब दुगुने भयानक ओज से
पहचान वाला मन
सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से
मधुर वैदिक ऋचाओं तक
व तब से आज तक के सूत्र
छंदस्, मंत्र, थियोरम,
सब प्रेमियों तक
कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी
कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गांधी भी
सभी के सिद्ध-अंतों का
नया व्याख्यान करता वह
नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम
प्राक्तन बावड़ी की
उन घनी गहराइयों में शून्य।

...ये गरजती, गूँजती, आंदोलिता
गहराइयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः
उद्भ्रांत शब्दों के नए आवर्त में
हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता,
वह रूप अपने बिंब से भी जूझ
विकृताकार-कृति
है बन रहा
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ

बावड़ी की इन मुँडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं
टगर के पुष्प-तारे श्वेत
                      वे ध्वनियाँ!
सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल
सुनता है उन्हे प्राचीन ओदुंबर
सुन रहा हूँ मैं वही
पागल प्रतीकों में कही जाती हुई
वह ट्रेजिडी
जो बावड़ी में अड़ गई।

x x x

खूब ऊँचा एक जीना साँवला
              उसकी अँधेरी सीढ़ियाँ...
वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।
एक चढ़ना औ' उतरना,
पुनः चढ़ना औ' लुढ़कना,
मोच पैरों में
व छाती पर अनेकों घाव।
बुरे-अच्छे-बीच के संघर्ष
से भी उग्रतर
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर
गहन किंचित सफलता,
अति भव्य असफलता
...अतिरेकवादी पूर्णता
की ये व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं...
ज्यामितिक संगति-गणित
की दृष्टि के कृत
              भव्य नैतिक मान
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान...
...अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना
              कब रहा आसान
मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!

रवि निकलता
लाल चिंता की रुधिर-सरिता
प्रवाहित कर दीवारों पर,
उदित होता चंद्र
व्रण पर बाँध देता
श्वेत-धौली पट्टियाँ
उद्विग्न भालों पर
सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए
अनगिन दशमलव से
दशमलव-बिंदुओं के सर्वतः
पसरे हुए उलझे गणित मैदान में
मारा गया, वह काम आया,
और वह पसरा पड़ा है...
वक्ष-बाँहें खुली फैलीं
एक शोधक की।
व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद-सा,
प्रासाद में जीना
व जीने की अकेली सीढ़ियाँ
चढ़ना बहुत मुश्किल रहा।
वे भाव-संगत तर्क-संगत
कार्य सामंजस्य-योजित
समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ
हम छोड़ दें उसके लिए।
उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन-शोध में
सब पंडितों, सब चिंतकों के पास
वह गुरु प्राप्त करने के लिए
भटका!!

किंतु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
...लाभकारी कार्य में से धन,
व धन में से हृदय-मन,
और, धन-अभिभूत अंतःकरण में से
सत्य की झाईं
निरंतर चिलचिलाती थी।

आत्मचेतस् किंतु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन...
विश्वचेतस् बे-बनाव!!
महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन!
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि
तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य
उसकी महत्ता!
व उस महत्ता का
हम सरीखों के लिए उपयोग,
उस आंतरिकता का बताता मैं महत्व!!

पिस गया वह भीतरी
औ' बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
ऐसी ट्रेजिडी है नीच!!
बावड़ी में वह स्वयं
पागल प्रतीकों में निरंतर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ' मर गया...
वह सघन झाड़ी के कँटीले
तम-विवर में
            मरे पक्षी-सा
            विदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गई
यह क्यों हुआ !
क्यों यह हुआ !!
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक
            पहुँचा सकूँ।
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भूल-गलती - गजानन माधव मुक्तिबोध

 भूल-गलती
 
-गजानन माधव मुक्तिबोध



भूल-गलती
आज बैठी है जिरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के;
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
          सब कतारें
                   बेजुबाँ बेबस सलाम में,
अनगिनत खंभों व मेहराबों-थमे
                           दरबारे आम में।

सामने
बेचैन घावों की अजब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाप उठती है...
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
समूचे जिस्म पर लत्तर
झलकते लाल लंबे दाग
बहते खून के।
वह कैद कर लाया गया ईमान...
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेखौफ नीली बिजलियों को फेंकता
खामोश !!
                        सब खामोश
मनसबदार,
शाइर और सूफी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
                         हैं खामोश !!
नामंजूर,
उसको जिंदगी की शर्म की सी शर्त
नामंजूर
हठ इनकार का सिर तान...खुद-मुख्तार
कोई सोचता उस वक्त -
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो - रेत का-सा ढेर - शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!
(लेकिन, ना
जमाना साँप का काटा)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँख्वार
हाँ खूँख्वार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता
करता हमें वह घेर
बेबुनियाद, बेसिर-पैर...
हम सब कैद हैं उसके चमकते तामझाम में
                               शाही मुकाम में !!

इतने में हमीं में से
अजीब कराह-सा कोई निकल भागा
भरे दरबारे-आम में मैं भी
सँभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तजुर्बों की बुजुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
                      सहमकर रह गये !!

लेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज के उस तरफ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाके में
(सचाई के सुनहले तेज अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!
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नक्सलबाड़ी - 'धूमिल'

नक्सलबाड़ी
-सुदामा पाण्डेय 'धूमिल'


‘सहमति…
नहीं, यह समकालीन शब्द नहीं है
इसे बालिगों के बीच चालू मत करो’
– जंगल से जिरह करने के बाद
उसके साथियों ने उसे समझाया कि भूख
का इलाज नींद के पास है!
मगर इस बात से वह सहमत नहीं था
विरोध के लिए सही शब्द टटोलते हुए
उसने पाया कि वह अपनी ज़ुबान
सहुवाइन की जाँघ पर भूल आया है;
फिर भी हकलाते हुए उसने कहा –
‘मुझे अपनी कविताओं के लिए
दूसरे प्रजातन्त्र की तलाश है’,
सहसा तुम कहोगे और फिर एक दिन –
पेट के इशारे पर
प्रजातन्त्र से बाहर आकर
वाजिब गुस्से के साथ अपने चेहरे से
कूदोगे
और अपने ही घूँसे पर
गिर पड़ोगे।

क्या मैंने गलत कहा? आख़िरकार
इस खाली पेट के सिवा
तुम्हारे पास वह कौन-सी सुरक्षित
जगह है, जहाँ खड़े होकर
तुम अपने दाहिने हाथ की
साज़िश के खिलाफ लड़ोगे?

यह एक खुला हुआ सच है कि आदमी –
दायें हाथ की नैतिकता से
इस कदर मज़बूर होता है
कि तमाम उम्र गुज़र जाती हैं मगर गाँड
सिर्फ बायाँ हाथ धोता है।

और अब तो हवा भी बुझ चुकी है
और सारे इश्तहार उतार लिये गये हैं
जिनमें कल आदमी –
अकाल था। वक्त के
फालतू हिस्सों में
छोड़ी गयी पालतू कहानियाँ
देश-प्रेम के हिज्जे भूल चुकी हैं,
और वह सड़क –
समझौता बन गयी है
जिस पर खड़े होकर
कल तुमने संसद को
बाहर आने के लिए आवाज़ दी थी
नहीं, अब वहाँ कोई नहीं है
मतलब की इबारत से होकर
सब के सब व्यवस्था के पक्ष में
चले गये हैं। लेखपाल की
भाषा के लम्बे सुनसान में
जहाँ पालो और बंजर का फर्क
मिट चुका है चन्द खेत
हथकड़ी पहने खड़े हैं।

और विपक्ष में –
सिर्फ कविता है।
सिर्फ हज्जाम की खुली हुई ‘किसमत’ में एक उस्तुरा –
चमक रहा है।
सिर्फ भंगी का एक झाड़ू हिल रहा है
नागरिकता का हक हलाल करती हुई
गन्दगी के खिलाफ।

और तुम हो, विपक्ष में
बेकारी और नींद से परेशान।

और एक जंगल है –
मतदान के बाद खून में अँधेरा
पछींटता हुआ।
(जंगल मुखबिर है)
उसकी आँखों में
चमकता हुआ भाईचारा
किसी भी रोज़ तुम्हारे चेहरे की हरियाली को
बेमुरव्वत, चाट सकता है।

ख़बरदार!
उसने तुम्हारे परिवार को
नफ़रत के उस मुकाम पर ला खड़ा किया है
कि कल तुम्हारा सबसे छोटा लड़का भी
तुम्हारे पड़ोसी का गला
अचानक,
अपनी स्लेट से काट सकता है।
क्या मैंने गलत कहा?

आख़िरकार… आख़िरकार…
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अकाल-दर्शन -धूमिल

अकाल-दर्शन
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-धूमिल
भूख कौन उपजाता है :
वह इरादा जो तरह देता है
या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर
हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है?

उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर
नहीं दिया।
उसने गलियों और सड़कों और घरों में
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
और हँसने लगा।

मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –
'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं'
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं।

लेकिन यही वे भूलते हैं
दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं
हमारे अपराध फूलते हैं
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
नहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर
'जनता के हित में' स्थानांतरित
हो गया।

मैंने खुद को समझाया – यार!
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
क्यों झिझकते हो?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?
तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।

और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूँ और
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्सा ले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।

मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन...
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अँगुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज़्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं –
'भारतवर्ष नदियों का देश है।'

बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।
यह दूसरी बात है कि इस बार
उन्हें पानी ने मारा है।

मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।
अनाज में छिपे उस आदमी की नीयत
नहीं समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी गिज़ा वसूल करता है –
कभी 'गाय' से
कभी 'हाथ' से

'यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँ
मैं उन्हें समझाता हूँ –
यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।

ले चुपचाप सुनते हैं।
उनकी आँखों में विरक्ति है :
पछतावा है;
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता।
वे इस कदर पस्त हैं :

कि तटस्थ हैं।
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति –
यहाँ के असंग लोगों के लिए
किसी अबोध बच्चे के –
हाथों की जूजी है।
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रोटी और संसद - धूमिल

रोटी और संसद - धूमिल

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।

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गीत फ़रोश - भवानी प्रसाद मिश्र

 गीत फ़रोश 
- भवानी प्रसाद मिश्र

जी हाँ हुज़ूर
मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ
मैं क़िस्म-क़िस्म के
गीत बेचता हूँ

जी, माल देखिए दाम बताऊंगा
बेकाम नहीं है, काम बताऊंगा
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने
यह गीत, सख़्त सर-दर्द भुलाएगा
यह गीत पिया को पास बुलाएगा
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको
पर पीछे-पीछे अक़्ल जगी मुझको
जी, लोगों ने तो बेच दिए ईमान
जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान
मैं सोच-समझकर आख़िर
अपने गीत बेचता हूँ
जी हाँ हुज़ूर
मैं गीत बेचता हूँ

यह गीत सुबह का है, गा कर देखें
यह गीत ग़ज़ब का है, ढहा कर देखें
यह गीत ज़रा सूने में लिखा था
यह गीत वहाँ पूने में लिखा था
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है
यह गीत बढ़ाये से बढ़ जाता है
यह गीत भूख और प्यास भगाता है
जी, यह मसान में भूख जगाता है
यह गीत भुवाली की है हवा हुज़ूर
यह गीत तपेदिक की है दवा हुज़ूर
मैं सीधे-सादे और अटपटे
गीत बेचता हूँ
जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ

जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ
जी, सुनना चाहें आप, तो गाता हूँ
जी, छंद और बे-छंद पसंद करें-
जी, अमर गीत और वे, जो तुरत मरें
न, बुरा मानने की इसमें क्या बात
मैं पास रखे हूँ क़लम और दवात
इनमें से भाए नहीं, नए लिख दूँ
इन दिनों का दुहरा है कवि-धंधा
हैं दोनों चीज़े व्यस्त; क़लम, कंधा
कुछ घंटे लिखने के, कुछ फेरी के
जी, दाम नहीं लूंगा इस देरी के
मैं नए-पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ
जी हाँ, हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ

जी गीत जनम का लिखूँ, मरण का लिखूँ
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरन का लिखूँ
यह गीत रेशमी है, यह खादी का
यह गीत पित्त का है, यह बादी का
कुछ और डिज़ाइन भी हैं, ये इल्मी-
यह लीजे चलती चीज़ नई, फ़िल्मी
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत
यह दुकान से घर जाने का गीत
जी नहीं दिल्लगी की इसमें क्या बात
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत
जी रूठ-रुठ कर मन जाते हैं गीत
जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ
गाहक की मर्ज़ी- अच्छा, जाता हूँ
मैं बिल्क़ुल अंतिम और दिखाता हूँ-
या भीतर जा कर पूछ आइए, आप
है गीत बेचना वैसे बिल्क़ुल पाप
क्या करूँ मगर लाचार हार कर
गीत बेचता हँ
जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ

-भवानी प्रसाद मिश्र

सतपुड़ा के घने जंगल ---भवानीप्रसाद मिश्र

 सतपुड़ा के घने जंगल
 
        सतपुड़ा के घने जंगल।
        नींद मे डूबे हुए से
        ऊँघते अनमने जंगल।

झाड ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मीचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।

                सड़े पत्ते, गले पत्ते,
                हरे पत्ते, जले पत्ते,
                वन्य पथ को ढँक रहे-से
                पंक-दल मे पले पत्ते।
                चलो इन पर चल सको तो,
                दलो इनको दल सको तो,
                ये घिनोने, घने जंगल
                नींद मे डूबे हुए से
                ऊँघते अनमने जंगल।

अटपटी-उलझी लताऐं,
डालियों को खींच खाऐं,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाऐं।
सांप सी काली लताऐं
बला की पाली लताऐं
लताओं के बने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।

                मकड़ियों के जाल मुँह पर,
                और सर के बाल मुँह पर
                मच्छरों के दंश वाले,
                दाग काले-लाल मुँह पर,
                वात- झन्झा वहन करते,
                चलो इतना सहन करते,
                कष्ट से ये सने जंगल,
                नींद मे डूबे हुए से
                ऊँघते अनमने जंगल|

अजगरों से भरे जंगल।
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,
कम्प से कनकने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।

                इन वनों के खूब भीतर,
                चार मुर्गे, चार तीतर
                पाल कर निश्चिन्त बैठे,
                विजनवन के बीच बैठे,
                झोंपडी पर फ़ूंस डाले
                गोंड तगड़े और काले।
                जब कि होली पास आती,
                सरसराती घास गाती,
                और महुए से लपकती,
                मत्त करती बास आती,
                गूंज उठते ढोल इनके,
                गीत इनके, बोल इनके

                सतपुड़ा के घने जंगल
                नींद मे डूबे हुए से
                उँघते अनमने जंगल।

जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्गे और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर।
क्षितिज तक फ़ैला हुआ सा,
मृत्यु तक मैला हुआ सा,
क्षुब्ध, काली लहर वाला
मथित, उत्थित जहर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भु और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल|

                धँसो इनमें डर नहीं है,
                मौत का यह घर नहीं है,
                उतर कर बहते अनेकों,
                कल-कथा कहते अनेकों,
                नदी, निर्झर और नाले,
                इन वनों ने गोद पाले।
                लाख पंछी सौ हिरन-दल,
                चाँद के कितने किरन दल,
                झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,
                खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
                हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
                पूत, पावन, पूर्ण रसमय
                सतपुड़ा के घने जंगल,
                लताओं के बने जंगल।
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शासन की बंदूक – नागार्जुन (कविता )

शासन की बंदूक  [1966 ]
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खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक

उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक

बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक

सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक

जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक

--नागार्जुन
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मनुष्य हूँ – नागार्जुन (कविता )

नहीं कभी क्या मैं थकता हूँ ?
अहोरात्र क्या नील गगन में उड़ सकता हूँ ?
मेरे चित्तकबरे पंखो की भास्वर छाया
क्या न कभी स्तम्भित होती है
हरे धान की स्निग्ध छटा पर ?
-उड़द मूँग की निविड़ जटा पर ?
आखिर मैं तो मनुष्य हूँ—–

उरूरहित सारथि है जिसका
एक मात्र पहिया है जिसमें
सात सात घोड़ो का वह रथ नहीं चाहिए
मुझको नियत दिशा का वह पथ नहीं चाहिए
पृथ्वी ही मेरी माता है
इसे देखकर हरित भारत , मन कैसा प्रमुदित हो जाता है ?
सब है इस पर ,
जीव -जंतु नाना प्रकार के
तृण -तरु लता गुल्म भी बहुविधि
चंद्र सूर्य हैं
ग्रहगण भी हैं

शत -सहस्र संख्या में बिखरे तारे भी हैं
सब है इस पर ,
कालकूट भी यही पड़ा है
अमृतकलश भी यहीं रखा पड़ा है
नीली ग्रीवावाले उस मृत्यंजय का भी बाप यहीं हैं
अमृत -प्राप्ति के हेतु देवगण
नहीं दुबारा
अब ठग सकते
दानव कुल को

मारे गए गुलफ़ाम उर्फ़ तीसरी कसम /Teesari Kasam /Maare gaye gulfam





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Bholaram ka Jeev भोलाराम का जीव पूरी कहानी /प्रश्न उत्तर सहित -Story wit...



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अकाल और उसके बाद-नागार्जुन (कविता )

 अकाल और उसके बाद  
(1952)

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

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कालिदास - नागार्जुन

 कालिदास
कालिदास! सच-सच बतलाना
इन्दुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोये थे ?
कालिदास! सच-सच बतलाना |
शिवजी की तीसरी आँख से,
निकली हुई महाज्वाला में,
घृतमिश्रित सूखी समिधा-सम
कामदेव जब भस्म हो गया,
रति का क्रंदन सुन आँसू से
तुमने ही तो दृग धोये थे -
कालिदास! सच-सच बतलाना
रति रोयी या तुम रोये थे ?

वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन-घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा,
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
चित्रकूट के सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था

जिनके ही द्वारा संदेशा,
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़नेवाले -
कालिदास! सच-सच बतलाना
पर पीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थक कर औ चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर

प्रियवर! तुम कब तक सोये थे?
रोया यक्ष कि तुम रोये थे?
कालिदास! सच-सच बतलाना |
- नागार्जुन

Wednesday, December 4, 2019

उसकी माँ -पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

 उसकी माँ
-पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'
दोपहर को ज़रा आराम करके उठा था। अपने पढ़ने-लिखने के कमरे में खड़ा-खड़ा धीरे-धीरे सिगार पी रहा था और बड़ी-बड़ी अलमारियों में सजे पुस्तकालय की ओर निहार रहा था। किसी महान लेखक की कोई कृति उनमें से निकालकर देखने की बात सोच रहा था। मगर, पुस्तकालय के एक सिरे से लेकर दूसरे तक मुझे महान ही महान नज़र आए। कहीं गेटे, कहीं रूसो, कहीं मेज़िनी, कहीं नीत्शे, कहीं शेक्सपीयर, कहीं टॉलस्टाय, कहीं ह्यूगो, कहीं मोपासाँ, कहीं डिकेंस, सपेंसर, मैकाले, मिल्टन, मोलियर---उफ़! इधर से उधर तक एक-से-एक महान ही तो थे! आखिर मैं किसके साथ चंद मिनट मनबहलाव करूँ, यह निश्चय ही न हो सका, महानों के नाम ही पढ़ते-पढ़ते परेशान सा हो गया।

इतने में मोटर की पों-पों सुनाई पड़ी। खिड़की से झाँका तो सुरमई रंग की कोई 'फिएट' गाड़ी दिखाई पड़ी। मैं सोचने लगा - शायद कोई मित्र पधारे हैं, अच्छा ही है। महानों से जान बची!

जब नौकर ने सलाम कर आनेवाले का कार्ड दिया, तब मैं कुछ घबराया। उसपर शहर के पुलिस सुपरिटेंडेंट का नाम छपा था। ऐसे बेवक़्त ये कैसे आए?

पुलिस-पति भीतर आए। मैंने हाथ मिलाकर, चक्कर खानेवाली एक गद्दीदार कुरसी पर उन्हें आसन दिया। वे व्यापारिक मुसकराहट से लैस होकर बोले, "इस अचानक आगमन के लिए आप मुझे क्षमा करें।"

"आज्ञा हो!" मैंने भी नम्रता से कहा।

उन्होंने पॉकेट से डायरी निकाली, डायरी से एक तसवीर। बोले, "देखिए इसे, जरा बताइए तो, आप पहचानते हैं इसको?"

"हाँ, पहचानता तो हूँ," जरा सहमते हुए मैंने बताया।

"इसके बारे में मुझे आपसे कुछ पूछना है।"

"पूछिए।"

"इसका नाम क्या है?"

"लाल! मैं इसी नाम से बचपन ही से इसे पुकारता आ रहा हूँ। मगर, यह पुकारने का नाम है। एक नाम कोई और है, सो मुझे स्मरण नहीं।"

"कहाँ रहता है यह?" सुपरिटेंडेंट ने मेरी ओर देखकर पूछा।

"मेरे बँगले के ठीक सामने एक दोमंजिला, कच्चा-पक्का घर है, उसी में वह रहता है। वह है और उसकी बूढ़ी माँ।"

"बूढ़ी का नाम क्या है?"

"जानकी।"

"और कोई नहीं है क्या इसके परिवार में? दोनों का पालन-पोषण कौन करता है?"

"सात-आठ वर्ष हुए, लाल के पिता का देहांत हो गया। अब उस परिवार में वह और उसकी माता ही बचे हैं। उसका पिता जब तक जीवित रहा, बराबर मेरी जमींदारी का मुख्य मैनेजर रहा। उसका नाम रामनाथ था। वही मेरे पास कुछ हजार रुपए जमा कर गया था, जिससे अब तक उनका खर्चा चल रहा है। लड़का कॉलेज में पढ़ रहा है। जानकी को आशा है, वह साल-दो साल बाद कमाने और परिवार को सँभालने लगेगा। मगर क्षमा कीजिए, क्या मैं यह पूछ सकता हूँ कि आप उसके बारे में क्यों इतनी पूछताछ कर रहे हैं?"

"यह तो मैं आपको नहीं बता सकता, मगर इतना आप समझ लें, यह सरकारी काम है। इसलिए आज मैंने आपको इतनी तकलीफ़ दी है।"

"अजी, इसमें तकलीफ़ की क्या बात है! हम तो सात पुश्त से सरकार के फ़रमाबरदार हैं। और कुछ आज्ञा---"

"एक बात और---", पुलिस-पति ने गंभीरतापूर्वक धीरे से कहा, "मैं मित्रता से आपसे निवेदन करता हूँ, आप इस परिवार से जरा सावधान और दूर रहें। फिलहाल इससे अधिक मुझे कुछ कहना नहीं।"

"लाल की माँ!" एक दिन जानकी को बुलाकर मैंने समझाया, "तुम्हारा लाल आजकल क्या पाजीपन करता है? तुम उसे केवल प्यार ही करती हो न! हूँ! भोगोगी!"

"क्या है, बाबू?" उसने कहा।

"लाल क्या करता है?"

"मैं तो उसे कोई भी बुरा काम करते नहीं देखती।"

"बिना किए ही तो सरकार किसी के पीछे पड़ती नहीं। हाँ, लाल की माँ! बड़ी धर्मात्मा, विवेकी और न्यायी सरकार है यह। ज़रूर तुम्हारा लाल कुछ करता होगा।"

"माँ! माँ!" पुकारता हुआ उसी समय लाल भी आया - लंबा, सुडौल, सुंदर, तेजस्वी।

"माँ!!" उसने मुझे नमस्कार कर जानकी से कहा, "तू यहाँ भाग आई है। चल तो! मेरे कई सहपाठी वहाँ खड़े हैं, उन्हें चटपट कुछ जलपान करा दे, फिर हम घूमने जाएँगे!"

"अरे!" जानकी के चेहरे की झुर्रियाँ चमकने लगीं, काँपने लगीं, उसे देखकर, "तू आ गया लाल! चलती हूँ, भैया! पर, देख तो, तेरे चाचा क्या शिकायत कर रहे हैं? तू क्या पाजीपना करता है, बेटा?"

"क्या है, चाचा जी?" उसने सविनय, सुमधुर स्वर में मुझसे पूछा, "मैंने क्या अपराध किया है?"

"मैं तुमसे नाराज हूँ लाल!" मैंने गंभीर स्वर में कहा।

"क्यों, चाचा जी?"

"तुम बहुत बुरे होते जा रहे हो, जो सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र करनेवाले के साथी हो। हाँ, तुम हो! देखो लाल की माँ, इसके चेहरे का रंग उड़ गया, यह सोचकर कि यह खबर मुझे कैसे मिली।"

सचमुच एक बार उसका खिला हुआ रंग जरा मुरझा गया, मेरी बातों से! पर तुरंत ही वह सँभला।

"आपने गलत सुना, चाचा जी। मैं किसी षड्यंत्र में नहीं। हाँ, मेरे विचार स्वतंत्र अवश्य हैं, मैं जरूरत-बेजरूरत जिस-तिस के आगे उबल अवश्य उठता हूँ। देश की दुरवस्था पर उबल उठता हूँ, इस पशु-हृदय परतंत्रता पर।"

"तुम्हारी ही बात सही, तुम षड्यंत्र में नहीं, विद्रोह में नहीं, पर यह बक-बक क्यों? इससे फ़ायदा? तुम्हारी इस बक-बक से न तो देश की दुर्दशा दूर होगी और न उसकी पराधीनता। तुम्हारा काम पढ़ना है, पढ़ो। इसके बाद कर्म करना होगा, परिवार और देश की मर्यादा बचानी होगी। तुम पहले अपने घर का उद्धार तो कर लो, तब सरकार के सुधार का विचार करना।"

उसने नम्रता से कहा, "चाचा जी, क्षमा कीजिए। इस विषय में मैं आपसे विवाद नहीं करना चाहता।"

"चाहना होगा, विवाद करना होगा। मैं केवल चाचा जी नहीं, तुम्हारा बहुत कुछ हूँ। तुम्हें देखते ही मेरी आँखों के सामने रामनाथ नाचने लगते हैं, तुम्हारी बूढ़ी माँ घूमने लगती है। भला मैं तुम्हें बेहाथ होने दे सकता हूँ! इस भरोसे मत रहना।"

"इस पराधीनता के विवाद में, चाचा जी, मैं और आप दो भिन्न सिरों पर हैं। आप कट्टर राजभक्त, मैं कट्टर राजविद्रोही। आप पहली बात को उचित समझते हैं - कुछ कारणों से, मैं दूसरी को - दूसरे कारणों से। आप अपना पद छोड़ नहीं सकते - अपनी प्यारी कल्पनाओं के लिए, मैं अपना भी नहीं छोड़ सकता।"

"तुम्हारी कल्पनाएँ क्या हैं, सुनूँ तो! जरा मैं भी जान लूँ कि अबके लड़के कॉलेज की गरदन तक पहुँचते-पहुँचते कैसे-कैसे हवाई किले उठाने के सपने देखने लगते हैं। जरा मैं भी तो सुनूँ, बेटा।"

"मेरी कल्पना यह है कि जो व्यक्ति समाज या राष्ट्र के नाश पर जीता हो, उसका सर्वनाश हो जाए!"

जानकी उठकर बाहर चली, "अरे! तू तो जमकर चाचा से जूझने लगा। वहाँ चार बच्चे बेचारे दरवाजे पर खड़े होंगे। लड़ तू, मैं जाती हूँ।" उसने मुझसे कहा, "समझा दो बाबू, मैं तो आप ही कुछ नहीं समझती, फिर इसे क्या समझाऊँगी!" उसने फिर लाल की ओर देखा, "चाचा जो कहें, मान जा, बेटा। यह तेरे भले ही की कहेंगे।"

वह बेचारी कमर झुकाए, उस साठ बरस की वय में भी घूँघट सँभाले, चली गई। उस दिन उसने मेरी और लाल की बातों की गंभीरता नहीं समझी।

"मेरी कल्पना यह है कि---", उत्तेजित स्वर में लाल ने कहा, "ऐसे दुष्ट, व्यक्ति-नाशक राष्ट्र के सर्वनाश में मेरा भी हाथ हो।"

"तुम्हारे हाथ दुर्बल हैं, उनसे जिनसे तुम पंजा लेने जा रहे हो, चर्र-मर्र हो उठेंगे, नष्ट हो जाएँगे।"

"चाचा जी, नष्ट हो जाना तो यहाँ का नियम है। जो सँवारा गया है, वह बिगड़ेगा ही। हमें दुर्बलता के डर से अपना काम नहीं रोकना चाहिए। कर्म के समय हमारी भुजाएँ दुर्बल नहीं, भगवान की सहस्र भुजाओं की सखियाँ हैं।"

"तो तुम क्या करना चाहते हो?"

"जो भी मुझसे हो सकेगा, करूँगा।"

"षड्यंत्र?"

"जरूरत पड़ी तो जरूर---"

"विद्रोह?"

"हाँ, अवश्य!"

"हत्या?"

"हाँ, हाँ, हाँ!"

"बेटा, तुम्हारा माथा न जाने कौन सी किताब पढ़ते-पढ़ते बिगड़ रहा है। सावधान!"

मेरी धर्मपत्नी और लाल की माँ एक दिन बैठी हुई बातें कर रही थीं कि मैं पहुँच गया। कुछ पूछने के लिए कई दिनों से मैं उसकी तलाश में था।

"क्यों लाल की माँ, लाल के साथ किसके लड़के आते हैं तुम्हारे घर में?"

"मैं क्या जानूँ, बाबू!" उसने सरलता से कहा, "मगर वे सभी मेरे लाल ही की तरह मुझे प्यारे दिखते हैं। सब लापरवाह! वे इतना हँसते, गाते और हो-हल्ला मचाते हैं कि मैं मुग्ध हो जाती हूँ।"

मैंने एक ठंडी साँस ली, "हूँ, ठीक कहती हो। वे बातें कैसी करते हैं, कुछ समझ पाती हो?"

"बाबू, वे लाल की बैठक में बैठते हैं। कभी-कभी जब मैं उन्हें कुछ खिलाने-पिलाने जाती हूँ, तब वे बड़े प्रेम से मुझे 'माँ' कहते हैं। मेरी छाती फूल उठती है---मानो वे मेरे ही बच्चे हैं।"

"हूँ---", मैंने फिर साँस ली।

"एक लड़का उनमें बहुत ही हँसोड़ है। खूब तगड़ा और बली दिखता है। लाल कहता था, वह डंडा लड़ने में, दौड़ने में, घूँसेबाजी में, खाने में, छेड़ खानी करने और हो-हो, हा-हा कर हँसने में समूचे कालेज में फ़र्स्ट है। उसी लड़के ने एक दिन, जब मैं उन्हें हलवा परोस रही थी, मेरे मुँह की ओर देखकर कहा, 'माँ! तू तो ठीक भारत माता-सी लगती है। तू बूढ़ी, वह बूढ़ी। उसका उजला हिमालय है, तेरे केश। हाँ, नक्शे से साबित करता हूँ---तू भारत माता है। सिर तेरा हिमालय---माथे की दोनों गहरी बड़ी रेखाएँ गंगा और यमुना, यह नाक विंध्याचल, ठोढ़ी कन्याकुमारी तथा छोटी बड़ी झुरियाँ-रेखाएँ भिन्न-भिन्न पहाड़ और नदियाँ हैं। जरा पास आ मेरे! तेरे केशों को पीछे से आगे बाएँ कंधे पर लहरा दूँ, वह बर्मा बन जाएगा। बिना उसके भारत माता का श्रृंगार शुद्ध न होगा।"

जानकी उस लड़के की बातें सोच गद्गद हो उठी, "बाबू, ऐसा ढीठ लड़का! सारे बच्चे हँसते रहे और उसने मुझे पकड़, मेरे बालों को बाहर कर अपना बर्मा तैयार कर लिया!"

उसकी सरलता मेरी आँखों में आँसू बनकर छा गई। मैंने पूछा, "लाल की माँ, और भी वे कुछ बातें करते हैं? लड़ने की, झगड़ने की, गोला, गोली या बंदूक की?"

"अरे, बाबू," उसने मुसकराकर कहा, "वे सभी बातें करते हैं। उनकी बातों का कोई मतलब थोड़े ही होता है। सब जवान हैं, लापरवाह हैं। जो मुँह में आता है, बकते हैं। कभी-कभी तो पागलों-सी बातें करते हैं। महीनाभर पहले एक दिन लड़के बहुत उत्तेजित थे। न जाने कहाँ, लड़कों कोसरकार पकड़ रही है। मालूम नहीं, पकड़ती भी है या वे यों ही गप हाँकते थे। मगर उस दिन वे यही बक रहे थे, 'पुलिसवाले केवल संदेह पर भले आदमियों के बच्चों को त्रस देते हैं, मारते हैं, सताते हैं। यह अत्याचारी पुलिस की नीचता है। ऐसी नीच शासन-प्रणाली को स्वीकार करना अपने धर्म को, कर्म को, आत्मा को, परमात्मा को भुलाना है। धीरे-धीरे घुलाना-मिटाना है।'

एक ने उत्तेजित भाव से कहा, 'अजी, ये परदेसी कौन लगते हैं हमारे, जो बरबस राजभक्ति बनाए रखने के लिए हमारी छाती पर तोप का मुँह लगाए अड़े और खड़े हैं। उफ़! इस देश के लोगों के हिये की आँखें मुँद गई हैं। तभी तो इतने जुल्मों पर भी आदमी आदमी से डरता है। ये लोग शरीर की रक्षा के लिए अपनी-अपनी आत्मा की चिता सँवारते फिरते हैं। नाश हो इस परतंत्रवाद का!'

दूसरे ने कहा, 'लोग ज्ञान न पा सकें, इसलिए इस सरकार ने हमारे पढ़ने-लिखने के साधनों को अज्ञान से भर रखा है। लोग वीर और स्वाधीन न हो सकें, इसलिए अपमानजनक और मनुष्यताहीन नीति-मर्दक कानून गढ़े हैं। गरीबों को चूसकर, सेना के नाम पर पले हुए पशुओं को शराब से, कबाब से, मोटा-ताजा रखती है यह सरकार। धीरे-धीरे जोंक की तरह हमारे धर्म, प्राण और धन चूसती चली जा रही है यह शासन-प्रणाली!'

'ऐसे ही अंट-संट ये बातूनी बका करते हैं, बाबू। जभी चार छोकरे जुटे, तभी यही चर्चा। लाल के साथियों का मिजाज भी उसी-सा अल्हड़-बिल्हड़ मुझे मालूम पड़ता है। ये लड़के ज्यों-ज्यों पढ़ते जा रहे हैं, त्यों-त्यों बक-बक में बढ़ते जा रहे हैं।'

"यह बुरा है, लाल की माँ!" मैंने गहरी साँस ली।

जमींदारी के कुछ जरूरी काम से चार-पाँच दिनों के लिए बाहर गया था। लौटने पर बँगले में घुसने के पूर्व लाल के दरवाजे पर नजर पड़ी तो वहाँ एक भयानक सन्नाटा-सा नजर आया - जैसे घर उदास हो, रोता हो।

भीतर आने पर मेरी धर्मपत्नी मेरे सामने उदास मुख खड़ी हो गई।

"तुमने सुना?"

"नहीं तो, कौन सी बात?"
"लाल की माँ पर भयानक विपत्ति टूट पड़ी है।"

मैं कुछ-कुछ समझ गया, फिर भी विस्तृत विवरण जानने को उत्सुक हो उठा, "क्या हुआ? जरा साफ़-साफ़ बताओ।"

"वही हुआ जिसका तुम्हें भय था। कल पुलिस की एक पलटन ने लाल का घर घेर लिया था। बारह घंटे तक तलाशी हुई। लाल, उसके बारह-पंद्रह साथी, सभी पकड़ लिए गए हैं। सबके घरों से भयानक-भयानक चीजें निकली हैं।"

"लाल के यहाँ?"

"उसके यहाँ भी दो पिस्तौल, बहुत से कारतूस और पत्र पाए गए हैं। सुना है, उन पर हत्या, षड्यंत्र, सरकारी राज्य उलटने की चेष्टा आदि अपराध लगाए गए हैं।"

"हूँ," मैंने ठंडी साँस ली, "मैं तो महीनों से चिल्ला रहा था कि वह लौंडा धोखा देगा। अब यह बूढ़ी बेचारी मरी। वह कहाँ है? तलाशी के बाद तुम्हारे पास आई थी?"

"जानकी मेरे पास कहाँ आई! बुलवाने पर भी कल नकार गई। नौकर से कहलाया, 'परांठे बना रही हूँ, हलवा, तरकारी अभी बनाना है, नहीं तो, वे बिल्हड़ बच्चे हवालात में मुरझा न जाएँगे। जेलवाले और उत्साही बच्चों की दुश्मन यह सरकार उन्हें भूखों मार डालेगी। मगर मेरे जीते-जी यह नहीं होने का'।"

"वह पागल है, भोगेगी," मैं दुख से टूटकर चारपाई पर गिर पड़ा। मुझे लाल के कर्मों पर घोर खेद हुआ।

इसके बाद प्रायः एक वर्ष तक वह मुकदमा चला। कोई भी अदालत के कागज उलटकर देख सकता है, सी-आई-डी- ने और उनके प्रमुख सरकारी वकील ने उन लड़कों पर बड़े-बड़े दोषारोपण किए। उन्होंने चारों ओर गुप्त समितियाँ कायम की थीं, खर्चे और प्रचार के लिए डाकेडाले थे, सरकारी अधिकारियों के यहाँ रात में छापा मारकर शस्त्र एकत्र किए थे। उन्होंने न जाने किस पुलिस के दारोगा को मारा था और न जाने कहाँ, न जाने किस पुलिस सुपरिटेंडेंट को। ये सभी बातें सरकार की ओर से प्रमाणित की गईं।

उधर उन लड़कों की पीठ पर कौन था? प्रायः कोई नहीं। सरकार के डर के मारे पहले तो कोई वकील ही उन्हें नहीं मिल रहा था, फिर एक बेचारा मिला भी, तो 'नहीं' का भाई। हाँ, उनकी पैरवी में सबसे अधिक परेशान वह बूढ़ी रहा करती। वह लोटा, थाली, जेवर आदि बेच-बेचकर सुबह-शाम उन बच्चों को भोजन पहुँचाती। फिर वकीलों के यहाँ जाकर दाँत निपोरती, गिड़गिड़ाती, कहती, "सब झूठ है। न जाने कहाँ से पुलिसवालों ने ऐसी-ऐसी चीजें हमारे घरों से पैदा कर दी हैं। वे लड़के केवल बातूनी हैं। हाँ, मैं भगवान का चरण छूकर कह सकती हूँ, तुम जेल में जाकर देख आओ, वकील बाबू। भला, फूल-से बच्चे हत्या कर सकते हैं?" उसका तन सूखकर काँटा हो गया, कमर झुककर धनुष-सी हो गई, आँखें निस्तेज, मगर उन बच्चों के लिए दौड़ना, हाय-हाय करना उसने बंद न किया। कभी-कभी सरकारी नौकर, पुलिस या वार्डन झुँझलाकर उसे झिड़क देते, धकिया देते।

उसको अंत तक यह विश्वास रहा कि यह सब पुलिस की चालबाजी है। अदालत में जब दूध का दूध और पानी का पानी किया जाएगा, तब वे बच्चे जरूर बेदाग छूट जाएँगे। वे फिर उसके घर में लाल के साथ आएँगे। उसे 'माँ' कहकर पुकारेंगे।

मगर उस दिन उसकी कमर टूट गई, जिस दिन ऊँची अदालत ने भी लाल को, उस बंगड़ लठैत को तथा दो और लड़कों को फाँसी और दस को दस वर्ष से सात वर्ष तक की कड़ी सजाएँ सुना दीं।

वह अदालत के बाहर झुकी खड़ी थी। बच्चे बेड़ियाँ बजाते, मस्ती से झूमते बाहर आए। सबसे पहले उस बंगड़ की नजर उसपर पड़ी।

"माँ!" वह मुसकराया, "अरे, हमें तो हलवा खिला-खिलाकर तूने गधे-सा तगड़ा कर दिया है, ऐसा कि फाँसी की रस्सी टूट जाए और हम अमर के अमर बने रहें, मगर तू स्वयं सूखकर काँटा हो गई है। क्यों पगली, तेरे लिए घर में खाना नहीं है क्या?"

"माँ!" उसके लाल ने कहा, "तू भी जल्द वहीं आना जहाँ हम लोग जा रहे हैं। यहाँ से थोड़ी ही देर का रास्ता है, माँ! एक साँस में पहुँचेगी। वहीं हम स्वतंत्रता से मिलेंगे। तेरी गोद में खेलेंगे। तुझे कंधे पर उठाकर इधर से उधर दौड़ते फिरेंगे। समझती है? वहाँ बड़ा आनंद है।"

"आएगी न, माँ?" बंगड़ ने पूछा।

"आएगी न, माँ?" लाल ने पूछा।

"आएगी न, माँ?" फाँसी-दंड प्राप्त दो दूसरे लड़कों ने भी पूछा।

और वह टुकुर-टुकुर उनका मुँह ताकती रही - "तुम कहाँ जाओगे पगलो?"


जब से लाल और उसके साथी पकड़े गए, तब से शहर या मुहल्ले का कोई भी आदमीलाल की माँ से मिलने से डरता था। उसे रास्ते में देखकर जाने-पहचाने बगलें झाँकने लगते। मेरा स्वयं अपार प्रेम था उस बेचारी बूढ़ी पर, मगर मैं भी बराबर दूर ही रहा। कौन अपनी गदरन मुसीबत में डालता, विद्रोही की माँ से संबंध रखकर?

उस दिन ब्यालू करने के बाद कुछ देर के लिए पुस्तकालय वाले कमरे में गया, किसी महान लेखक की कोई महान कृति क्षणभर देखने के लालच से। मैंने मेजिनी की एक जिल्द निकालकर उसे खोला। पहले ही पन्ने पर पेंसिल की लिखावट देखकर चौंका। ध्यान देने पर पता चला, वे लाल के हस्ताक्षर थे। मुझे याद पड़ गई। तीन वर्ष पूर्व उस पुस्तक को मुझसे माँगकर उस लड़के ने पढ़ा था।

एक बार मेरे मन में बड़ा मोह उत्पन्न हुआ उस लड़के के लिए। उसके पिता रामनाथ की दिव्य और स्वर्गीय तसवीर मेरी आँखों के आगे नाच गई। लाल की माँ पर उसके सिद्धांतों, विचारों या आचरणों के कारण जो वज्रपात हुआ था, उसकी एक ठेस मुझे भी, उसके हस्ताक्षर को देखते ही लगी। मेरे मुँह से एक गंभीर, लाचार, दुर्बल साँस निकलकर रह गई।

पर, दूसरे ही क्षण पुलिस सुपरिटेंडेंट का ध्यान आया। उसकी भूरी, डरावनी, अमानवी आँखें मेरी 'आप सुखी तो जग सुखी' आँखों में वैसे ही चमक गईं, जैसे ऊजड़ गाँव के सिवान में कभी-कभी भुतही चिनगारी चमक जाया करती है। उसके रूखे फ़ौलादी हाथ, जिनमें लाल की तसवीर थी, मानो मेरी गरदन चापने लगे। मैं मेज पर से रबर (इरेजर) उठाकर उस पुस्तक पर से उसका नाम उधेड़ने लगा। उसी समय मेरी पत्नी के साथ लाल की माँ वहाँ आई। उसके हाथ में एक पत्र था।

"अरे!" मैं अपने को रोक न सका, "लाल की माँ! तुम तो बिलकुल पीली पड़ गई हो। तुम इस तरह मेरी ओर निहारती हो, मानो कुछ देखती ही नहीं हो। यह हाथ में क्या है?"

उसने चुपचाप पत्र मेरे हाथ में दे दिया। मैंने देखा, उसपर जेल की मुहर थी। सजा सुनाने के बाद वह वहीं भेज दिया गया था, यह मुझे मालूम था। मैं पत्र निकालकर पढ़ने लगा। वह उसकी अंतिम चिट्ठी थी। मैंने कलेजा रूखाकर उसे जोर से पढ़ दिया -

"माँ!

जिस दिन तुम्हें यह पत्र मिलेगा उसके सवेरे मैं बाल अरुण के किरण-रथ पर चढ़कर उस ओर चला जाऊँगा। मैं चाहता तो अंत समय तुमसे मिल सकता था, मगर इससे क्या फ़ायदा! मुझे विश्वास है, तुम मेरी जन्म-जन्मांतर की जननी ही रहोगी। मैं तुमसे दूर कहाँ जा सकता हूँ! माँ! जब तक पवन साँस लेता है, सूर्य चमकता है, समुद्र लहराता है, तब तक कौन मुझे तुम्हारी करुणामयी गोद से दूर खींच सकता है?

दिवाकर थमा रहेगा, अरुण रथ लिए जमा रहेगा! मैं, बंगड़ वह, यह सभी तेरे इंतजार में रहेंगे।

हम मिले थे, मिले हैं, मिलेंगे। हाँ, माँ!

तेरा--- लाल"

काँपते हाथ से पढ़ने के बाद पत्र को मैंने उस भयानक लिफ़ाफ़े में भर दिया। मेरी पत्नी की विकलता हिचकियों पर चढ़कर कमरे को करुणा से कँपाने लगी। मगर, वह जानकी ज्यों-की-त्यों, लकड़ी पर झुकी, पूरी खुली और भावहीन आँखों से मेरी ओर देखती रही, मानो वह उस कमरे में थी ही नहीं।

क्षणभर बाद हाथ बढ़ाकर मौन भाषा में उसने पत्र माँगा। और फिर, बिना कुछ कहे कमरे के फाटक के बाहर हो गई, डुगुर-डुगुर लाठी टेकती हुई। इसके बाद शून्य-सा होकर मैं धम से कुरसी पर गिर पड़ा। माथा चक्कर खाने लगा। उस पाजी लड़के के लिए नहीं, इस सरकार की क्रूरता के लिए भी नहीं, उस बेचारी भोली, बूढ़ी जानकी - लाल की माँ के लिए। आह! वह कैसी स्तब्ध थी। उतनी स्तब्धता किसी दिन प्रकृति को मिलती तो आँधी आ जाती। समुद्र पाता तो बौखला उठता।

जब एक का घंटा बजा, मैं जरा सगबगाया। ऐसा मालूम पड़ने लगा मानो हरारत पैदा हो गई है---माथे में, छाती में, रग-रग में। पत्नी ने आकर कहा, "बैठे ही रहोगे! सोओगे नहीं?" मैंने इशारे से उन्हें जाने का कहा।

फिर मेजिनी की जिल्द पर नजर गई। उसके ऊपर पड़े रबर पर भी। फिर अपने सुखों की, जमींदारी की, धनिक जीवन की और उस पुलिस-अधिकारी की निर्दय, नीरस, निस्सार आँखों की स्मृति कलेजे में कंपन भर गई। फिर रबर उठाकर मैंने उस पाजी का पेंसिल-खचित नाम पुस्तक की छाती पर से मिटा डालना चाहा।
"माँ---"

मुझे सुनाई पड़ा। ऐसा लगा, गोया लाल की माँ कराह रही है। मैं रबर हाथ में लिए, दहलते दिल से, खिड़की की ओर बढ़ा। लाल के घर की ओर कान लगाने पर सुनाई न पड़ा। मैं सोचने लगा, भ्रम होगा। वह अगर कराहती होती तो एकाध आवाज और अवश्य सुनाई पड़ती। वह कराहनेवाली औरत है भी नहीं। रामनाथ के मरने पर भी उस तरह नहीं घिघियाई जैसे साधारण स्त्रियाँ ऐसे अवसरों पर तड़पा करती हैं।
मैं पुनः सोचने लगा। वह उस नालायक के लिए क्या नहीं करती थी! खिलौने की तरह, आराध्य की तरह, उसे दुलराती और सँवारती फिरती थी। पर आह रे छोकरे!

"माँ---"

फिर वही आवाज। जरूर जानकी रो रही है। जरूर वही विकल, व्यथित, विवश बिलख रही है। हाय री माँ! अभागिनी वैसे ही पुकार रही है जैसे वह पाजी गाकर, मचलकर, स्वर को खींचकर उसे पुकारता था।

अँधेरा धूमिल हुआ, फीका पड़ा, मिट चला। उषा पीली हुई, लाल हुई। रवि रथ लेकर वहाँ क्षितिज से उस छोर पर आकर पवित्र मन से खड़ा हो गया। मुझे लाल के पत्र की याद आ गई।

"माँ---"

मानो लाल पुकार रहा था, मानो जानकी प्रतिध्वनि की तरह उसी पुकार को गा रही थी। मेरी छाती धक् धक् करने लगी। मैंने नौकर को पुकारकर कहा, "देखो तो, लाल की माँ क्या कर रही है?"

जब वह लौटकर आया, तब मैं एक बार पुनः मेज और मेजिनी के सामने खड़ा था। हाथ में रबर लिए उसी उद्देश्य से। उसने घबराए स्वर से कहा, "हुजूर, उनकी तो अजीब हालत है। घर में ताला पड़ा है और वे दरवाजे पर पाँव पसारे, हाथ में कोई चिट्ठी लिए, मुँह खोल, मरी बैठी हैं। हाँ सरकार, विश्वास मानिए, वे मर गई हैं। साँस बंद है, आँखें खुलीं---"

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Monday, December 2, 2019

Gulki Banno Part 1, 2-गुलकी बन्नो कहानी / Dharmveer Bharati





Gulki Banno Part 1 लेखक : धर्मवीर भारती
गुलकी बन्नो कहानी भाग १


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दूसरा और अंतिम भाग Part 2  https://youtu.be/dycXR6LIU2w



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Thursday, November 14, 2019

कबीर के दोहों का अर्थ

गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ  पाय।
बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।

अर्थ :कबीरदास जी कहते हैं कि यदि गुरु और भगवान उनके सामने खड़े हों तब  पहले वे गुरु के चरणों में  सिर झुकाएँगे क्योंकि उन्होंने ही ईश्वर के बारे में ज्ञान दिया है।

व्याख्या :  कबीर कहते हैं कि  बिना गुरू के ज्ञान का मिलना असम्भव है। जब तक गुरू की कृपा प्राप्त नहीं होती तब तक मनुष्य अज्ञान रूपी अंधकार में भटकता  रहता है ,उसे अज्ञान के अन्धकार से बाहर लाने वाले,ईश्वर से उसका परिचय कराने और  मोक्ष का  मार्ग दिखाने वाले गुरू ही हैं। बिना गुरू के सत्य एवं असत्य की पहचान  नहीं होती । अतः गुरू की शरण में जाना चाहिए वही सच्ची राह दिखाएँगे।
(to be completed)....

Brahmrakshas ka Shishy Story Narration by Alpana Verma

Tuesday, November 12, 2019

पानी में चंदा और चाँद पर आदमी - जयप्रकाश भारती /Class 10 Hindi

पानी में चंदा और चाँद पर आदमी - जयप्रकाश भारती
दुनिया के सभी भागों में स्त्री - पुरुष और बच्चे रेडियो से कान सटाए बैठे थे , जिनके पास टेलीविज़न थे, वे उसके पर्दे पर आँखें गड़ाए थे। मानवता के सम्पूर्ण इतिहास की सर्वाधिक रोमांचक घटना के एक - एक क्षण के वे भागीदार बन रहे थे--- उत्सुकता और कुतूहल के कारण अपने अस्तित्व से ही बिल्कुल बेखबर हो गए थे। युग - युग से किस देश और जाति ने चन्द्रमा तक पहुँचने के सपने नहीं सँजोए--- आज इस धरा के ही दो मानव उन सपनों को सच कर दिखाने के लिए कृत-संकल्प थे।

सोमवार २१ जुलाई , १९६९ को बहुत सवेरे ईगल नामक चन्द्रयान नील आर्मस्ट्रांग और एडविन एल्ड्रिन को लेकर चन्द्रतल पर उतर गया। चन्द्रयान धूल उड़ाता हुआ चन्द्रमा के जलविहीन 'शान्ति सागर' में उतरा। भारतीय समय के अनुसार एक बजकर सैंतालिस मिनट पर किसी अन्य ग्रह पर मानव पहली बार पहुँचा। असीम अन्तरिक्ष को चीरते हुए पृथ्वी से चार लाख किलोमीटर दूर चन्द्रमा पर पहुँचने में मानव को 102 घंटे 45 मिनट और 42 सेकेण्ड समय लगा।

अपोलो - ११ को कप केनेडी से बुधवार, १६ जुलाई , १९६९ को छोड़ा गया था। इसमें तीन यात्री थे--- कमांडर नील आर्मस्ट्रांग , माइकल कालिन्स और एडविन एल्ड्रिन। चन्द्रमा की कक्षा में चन्द्रयान मूल यान कोलम्बिया से अलग हो गया और फिर चन्द्रतल पर उतर गया। उस समय माइकल कालिन्स मूल यान में ९६ किलोमीटर की ऊँचाई पर निरन्तर चन्द्रमा की परिक्रमा कर रहे थे।

नील आर्मस्ट्रांग ने चन्द्रतल से पृथ्वी वर्णन करते हुए कहा कि यह बहुत बड़ी, चमकीली और सुन्दर (बिग, ब्राइट एन्ड ब्यूटीफुल) दिखाई दे रही है। एल्ड्रिन ने भावविभोर होकर कहा--- सुन्दर दृश्य है , सबकुछ सुन्दर है। उसने कहा कि जहाँ हम उतरे हैं, उससे कुछ ही दूरी पर हमने बैंगनी रंग की चट्टान देखी है। चन्द्रमा की मिट्टी और चट्टानें सूर्य की रोशनी में चमक रही हैं। यही एक भव्य एकान्त स्थान है।

चन्द्रयान ठीक स्थिति में है, यह निरीक्षण करके, कुछ खा-पीकर और सुस्ता लेने के बाद नील आर्मस्ट्रांग चन्द्रयान से बाहर निकले। चन्द्रयान की सीढ़ियों से धीरे - धीरे वह नीचे उतरे। उन्होंने अपना बायाँ पाँव चन्द्रतल पर रखा, जबकि दायाँ पाँव चन्द्रयान पर ही रखा। इस बीच आर्मस्ट्रांग दोनों हाथ से चन्द्रयान को अच्छी तरह पकड़े रहे। उन्हें यह तय कर लेना था कि वैज्ञानिक चन्द्रतल को जैसा समझते रहे हैं, वह उससे एकदम भिन्न तो नहीं है। आश्वस्त होने के बाद वह यान के आस-पास ही कुछ कदम चले। चन्द्रतल पर पाँव रखते हुए उन्होंने कहा, यद्यपि यह मानव  छोटा-सा कदम है, लेकिन मानवता के लिए यह बहुत ऊँची छलाँग है।

अभी तक एल्ड्रिन भले ही भीतर बैठा हो, लेकिन वह निष्क्रिय नहीं था। उसने मूवी कैमरे से आर्मस्ट्रांग के चित्र लेने शुरू कर दिए थे। बीस मिनट बाद ही एडविन एल्ड्रिन भी चन्द्रयान से बाहर निकले। उन्होंने भी चन्द्रतल पर चलकर देखा। तब तक आर्मस्ट्रांग चन्द्रधूल का एक तात्कालिक नमूना जेब में रख चुके थे। अब उन्होंने टेलीविज़न कैमरे को त्रिपाद पर जमा दिया।

अरबों डॉलर खर्च करके मानव चन्द्रतल पर पहुँचा था, उसे अपने सीमित समय में एक - एक क्षण का उपयोग करना था। दोनों चन्द्र - विजेताओं को चन्द्रमा की चट्टानों तथा मिट्टी के नमूने लेने थे। कई तरह के उपकरण भी वहाँ स्थापित करने थे, जो बाद में भी पृथ्वी पर वैज्ञानिक जानकारी भेजते रह सकें।

इन चन्द्र - विजेताओं ने चन्द्रतल पर भूकम्पमापी यंत्र स्थापित किया और लेसर परावर्त्तक रखा। इन्होंने एक धातु - फलक, जिस पर तीनों यात्रियों और अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन के हस्ताक्षर थे, वहाँ रखा। धातु - फलक पर खुदे शब्दों को आर्मस्ट्रांग ने जोर से पढ़ा --- " जुलाई १९६९ में पृथ्वी ग्रह के मानव चन्द्रमा के इस स्थान पर उतरे। हम यहाँ सारी मानव जाति के लिए शान्ति की कामना लेकर आए। "

दोनों चन्द्र-यात्रियों ने अमेरिकी ध्वज चन्द्रतल पर फहरा दिया। वायु न होने के कारण इस ध्वज को इस तरह बनाया गया था कि स्प्रिंग की सहायता से यह फैला हुआ ही रहे। विभिन्न राष्ट्राध्यक्षों के सन्देशों की माइक्रो फिल्म भी उन्होंने चन्द्रतल पर छोड़ दी। दो रूसी अन्तरिक्ष यात्रियों ( यूरी गागरिन और एम. के. मोरोव ) को मरणोपरान्त दिए पदक और तीन अमेरिकी अन्तरिक्ष यात्रियों ( ग्रिसम, व्हाइट और शैफी ) को दिए गए पदकों की अनुकृतियाँ वहाँ रखीं।
अपने व्यस्त कार्यक्रम को पूरा करने में चन्द्र - यात्रियों को थकान हो जानी स्वाभाविक थी, लेकिन फिर भी वे बड़े प्रसन्न थे। आरम्भ में वे बड़ी सावधानी के साथ एक - एक कदम रख रहे थे, लेकिन बाद में वे कंगारूओं की तरह उछल - उछलकर चलते देखे गए।

मानव को चन्द्रमा पर उतारने का यह सर्वप्रथम प्रयास होते हुए भी असाधारण रूप से सफल रहा यद्यपि हर क्षण, हर पग पर खतरे थे। चन्द्रतल पर मानव के पाँव के निशान, उसके द्वारा वैज्ञानिक तथा तकनिकी क्षेत्र में की गई असाधारण प्रगति के प्रतीक हैं। जिस क्षण डगमग - डगमग करते मानव के पग उस धूल - धूसरित अनछुई सतह पर पड़े तो मानो वह हज़ारों - लाखों साल से पालित - पोषित सैकड़ों अन्धविश्वासों तथा कपोल - कल्पनाओं पर पद - प्रहार ही हुआ। कवियों की कल्पना के सलोने चाँद को वैज्ञानिक ने बदसूरत और जीवनहीन करार दे दिया---भला अब चन्द्रमुखी कहलाना किसे रुचिकर लगेगा।

हमारे देश में ही नहीं, संसार की प्रत्येक जाति ने अपनी भाषा में चन्द्रमा के बारे में कहानियाँ गढ़ी हैं और कवियों ने कविताएँ रची हैं। किसी ने उसे रजनीपति माना तो किसी ने उसे रात्रि की देवी कहकर पुकारा। किसी विरहिणी ने उसे अपना दूत बनाया तो किसी ने उसके पीलेपन से क्षुब्ध होकर उसे बूढ़ा और बीमार ही समझ लिया। बालक श्रीराम चन्द्रमा को खिलौना समझकर उसके लिए मचलते हैं तो सूर के श्रीकृष्ण भी उसके लिए हठ करते हैं। बालक को शान्त करने के लिए एक ही उपाय था---चन्द्रमा की छवि को पानी में दिखा देना। लेकिन मानव की प्रगति का चक्र कितना घूम गया है। इस लम्बी विकास - यात्रा को श्रीमती महादेवी वर्मा ने एक ही वाक्य में बाँध दिया है --- " पहले पानी में चंदा को उतारा जाता था और आज चाँद पर मानव पहुँच गया है। "

मानव मन सदा से ही अज्ञात के रहस्यों को खोलने और जानने - समझने को उत्सुक रहा है। जहाँ तक वह नहीं पहुँच सकता था वहाँ वह कल्पना के पंखों पर उड़कर पहुँचा। उसकी अनगढ़ और अविश्वसनीय कथाएँ उसे सत्य के निकट पहुँचाने में प्रेरणा - शक्ति का काम करती रहीं।

अन्तरिक्ष युग का सूत्रपात ४ अक्टूबर, 1956 को हुआ था जब सोवियत संघ ने अपना पहला स्पुतनिक छोड़ा। प्रथम अन्तरिक्ष यात्री बनने का गौरव यूरी गागरिन को प्राप्त हुआ। अन्तरिक्ष युग के आरम्भ के ठीक ११ वर्ष ९ मास १७ दिन बाद चन्द्रतल पर मानव उतर गया।

दिसम्बर १९६८ में पहली बार अपोलो - ८ के तीनों अन्तरिक्ष - यात्री चन्द्रमा के पड़ोस तक पहुँचे थे। बीच की अवधि में रूस और अमेरिका दोनों ही देशों ने अनेक अन्तरिक्ष यान छोड़े। इनमें कुछ स - मानव यान थे और कुछ मानव - रहित। इसे मानव का साहस कहें या दुस्साहस कि उसने अन्तरिक्ष में पहुँचकर यान से बाहर निकल अनन्त अन्तरिक्ष में विचरण भी शुरू कर दिया। अन्तरिक्ष में परिक्रमा करते दो यानों को जोड़ने और एक यान से दूसरे यान में यात्रियों के चले जाने के चमत्कारी करतब भी किए गए। अपोलो - ११ द्वारा चन्द्रविजय से पूर्व मानो अपोलो - १० के द्वारा नाटक का पूर्वाभिनय ही किया गया था। इसके तीन यात्री अन्तरिक्ष यान को चन्द्रमा की कक्षा में ले गए थे। एक यात्री मूल यान को कक्षा में घुमाता रहा था और अन्य दो यात्री चन्द्रयान में बैठकर उसे चन्द्रमा से केवल ९ मील की दूरी तक ले गए थे। इन्होंने चन्द्र - विजेताओं के उतरने के सम्भावित स्थल का अध्ययन किया और अनेक चित्र खींचे थे। चन्द्रयान को मूल यान से जोड़ा और फिर सकुशल पृथ्वी पर लौट आए।

मानव को चन्द्रतल तक ले जाने और लौटा लानेवाले यान के बारे में भला कौन नहीं जानना चाहेगा। अपोलो - यान - सैटर्न - ५ राकेट से प्रक्षेपित किया जाता है। वह विश्व का सबसे शक्तिशाली वाहन है। अन्तरिक्ष यान के तीन भाग होते हैं या इन्हें तीन माड्यूल कह सकते हैं।

कमांड माड्यूल का निर्माण इस दृष्टि से किया जाता है कि वापसी के समय पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करते समय तीव्र ताप और दबावों को सहन कर सके। नियन्त्रण कक्ष, शयनागार, भोजनकक्ष और प्रयोगशाला---इन सब का मिला - जुला रूप ही यह माड्यूल होता है। प्रक्षेपण के समय यदि कोई दुर्घटना हो जाये, तो यात्री अपने बचाव के लिए इसे शेष यान से पृथक् कर सकते हैं। पुन: प्रवेश के लिए बने कमांड कैप्सूल का वजन ५५०० किलोग्राम था। इसमें लगभग साढ़े पाँच घन मीटर खाली स्थान था, जहाँ कि तीनों यात्री अपने सामान्य कार्य सम्पन्न कर सकें। इस स्थान को हम औसत दर्जे की कार जितना मान सकते हैं। कैप्सूल जब तैयार होता है, उस समय इसमें पाँच विद्युत् बैटरियाँ होती हैं और १२ राकेट इंजन जुड़े होते हैं। तीन आदमियों के लिए चौदह दिन की खाद्य सामग्री और पानी के भण्डार एवं मल के निष्कासन की व्यवस्था रहती है। इसमें पैराशूट भी रहते हैं। यात्रियों को बिना चोट पहुँचाए, यह कड़ी - से - कड़ी जमीन पर उतर सकता है।
अन्तरिक्ष यान का दूसरा भाग होता है सर्विस माड्यूल--- यह औसत आकर के ट्रक जितना होता है। इसमें दस लाख किलोमीटर की यात्रा करने के लिए पर्याप्त ईंधन था और १४ दिन तक तीन यात्रियों के साँस लेने लायक प्राण - वायु की व्यवस्था थी। यान को चन्द्र कक्षा में स्थापित करने के लिए उसकी गति कम करनी पड़ती है और सर्विस माड्यूल के शक्तिशाली राकेट मोटर दाग कर ही ऐसा किया जाता है।

चन्द्रयान यानी अपोलो - ११ का ईगल अन्तरिक्ष यान का एक भाग होते हुए भी अपने में पूर्ण था। इसमें दो खंड थे--- अवरोह भाग और आरोह भाग। अवरोह भाग में ८२०० किलो प्राणोदक था, जिससे ४५०० किलो प्रघात के इंजन को चलाया जा सके। चालकों के साँस लेने के लिए ऑक्सीजन गैस, पीने का पानी और चन्द्रतल पर यान को ठंडा रखने की व्यवस्था की गई थी। चन्द्रयान की सभी टाँगें समतल पर टिकनी आवश्यक नहीं, यह आड़ा - तिरछा भी खड़ा हो सकता है। अवरोही भाग में चार रेडियो रिसीवर, ट्रान्समीटर, बैटरियाँ, मूलयान से और पृथ्वी से संचार - व्यवस्था कायम रखने के लिए सात एरियर लगे थे। ईगल के दोनों भाग किसी भी समय अलग किए जा सकते थे। चन्द्रतल से वापसी के समय चन्द्रयान का नीचे का भाग प्रक्षेपण यन्त्र का काम देता है और उसे चन्द्रतल पर ही छोड़ दिया गया।

नील आर्मस्ट्रांग और एडविन एल्ड्रिन ने चन्द्रतल पर २१ घंटे ३६ मिनट बिताए। चन्द्रतल पर इन दो यात्रियों ने पाँवों के ऐसे निशान छोड़े कि जैसे किसी हल चलाए खेत में पड़ जाते हैं। उन्होंने लाखों डालर का सामान भी वहीं छोड़ दिया।

दोनों चन्द्र - विजेताओं ने ऊपरी भाग में उड़ान भरकर चन्द्रकक्ष में परिक्रमा करते हुए मूलयान से अपने यान को जोड़ा। फिर वे दोनों यात्री अपने साथी माइकल कालिन्स से आ मिले। अब चन्द्रयान को अलग कर दिया गया और उसे कक्ष में ही छोड़ दिया गया। इंजन दाग कर यात्री वापसी के लिए पृथ्वी के मार्ग पर बढ़ चले। ये यात्री प्रशान्त महासागर में उतरे।

इन यात्रियों को सीधे चन्द्र प्रयोगशाला में ले जाया गया। कई सप्ताह किसी से मिलने - जुलने नहीं दिया गया। उनके अनुभव रिकार्ड किए गए। वैज्ञानिकों को यह भी जाँच करनी थी कि ये यात्री ऐसे कीटाणु तो अपने साथ नहीं ले आए, जो मानव जाति के लिए घातक हों। इन यात्रियों द्वारा लाई गई धूल और चन्द्र - चट्टानों के नमूनों को अनुसंधान और प्रयोग करने के लिए विभिन्न देशों के विशेषज्ञों को सौंप दिया गया।

अपोलो - ११ की सफलता के पश्चात् अमेरिका ने अपोलो - १२ में भी तीन यात्रियों को चन्द्रतल पर खोज करने के लिए भेजा। इसके बाद अपोलो - १३ की यात्रा दुर्घटनावश बीच में ही स्थगित करनी पड़ी।

अभी चन्द्रमा के लिए अनेक उड़ानें होंगी। दूसरे ग्रहों के लिए मानव - रहित यान छोड़े जा रहे हैं। अन्तरिक्ष में परिक्रमा करनेवाला स्टेशन स्थापित करने की दिशा में तेजी से प्रयत्न किए जा रहे हैं। ऐसा स्टेशन बन जाने पर ब्रह्माण्ड के रहस्यों की पर्तें खोजने में काफी सहायता मिलेगी।

यह पृथ्वी मानव के लिए पालने के समान है। वह हमेशा - हमेशा के लिए इसकी परिधि में बँधा हुआ नहीं रह सकता। अज्ञात की खोज में वह कहाँ तक पहुँचेगा, कौन कह सकता है ?
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Thursday, September 12, 2019

कहाँ तो तय था /साए में धूप /व्याख्या /दुष्यंत कुमार


=Poet : Dushyant Kumar.

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन है कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये
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Sunday, August 11, 2019

Tuesday, August 6, 2019

सुजान भगत /प्रेमचंद /मानसरोवर भाग १

 सुजान भगत

सीधे-सादे किसान धन हाथ आते ही धर्म और कीर्ति की ओर झुकते हैं। दिव्य समाज की भाँति वे पहले अपने भोग-विलास की ओर नहीं दौड़ते। सुजान की खेती में कई साल से कंचन बरस रहा था। मेहनत तो गाँव के सभी किसान करते थे, पर सुजान के चंद्रमा बली थे, ऊसर में भी दाना छींट आता तो कुछ न कुछ पैदा हो जाता था।
तीन वर्ष लगातार ऊख लगती गयी। उधर गुड़ का भाव तेज था। कोई दो-ढाई हजार हाथ में आ गये। बस चित्त की वृत्ति धर्म की ओर झुक पड़ी। साधु-संतों का आदर-सत्कार होने लगा, द्वार पर धूनी जलने लगी, कानूनगो इलाके में आते, तो सुजान महतो के चौपाल में ठहरते। हल्के के हेड कांस्टेबल, थानेदार, शिक्षा-विभाग के अफसर, एक न एक उस चौपाल में पड़ा ही रहता। महतो मारे खुशी के फूले न समाते।

धन्य भाग ! उसके द्वार पर अब इतने बड़े-बड़े हाकिम आ कर ठहरते हैं। जिन हाकिमों के सामने उसका मुँह न खुलता था, उन्हीं की अब 'महतो-महतो' करते जबान सूखती थी। कभी-कभी भजन-भाव हो जाता। एक महात्मा ने डौल अच्छा देखा तो गाँव में आसन जमा दिया। गाँजे और चरस की बहार उड़ने लगी। एक ढोलक आयी, मजीरे मँगाये गये, सत्संग होने लगा। यह सब सुजान के दम का जलूस था। घर में सेरों दूध होता, मगर सुजान के कंठ तले एक बूँद भी जाने की कसम थी। कभी हाकिम लोग चखते, कभी महात्मा लोग। किसान को दूध-घी से क्या मतलब, उसे रोटी और साग चाहिए।

सुजान की नम्रता का अब पारावार न था। सबके सामने सिर झुकाये रहता, कहीं लोग यह न कहने लगें कि धन पा कर उसे घमंड हो गया है। गाँव में कुल तीन कुएँ थे, बहुत-से खेतों में पानी न पहुँचता था, खेती मारी जाती थी। सुजान ने एक पक्का कुआँ बनवा दिया। कुएँ का विवाह हुआ, यज्ञ हुआ, ब्रह्मभोज हुआ। जिस दिन पहली बार पुर चला, सुजान को मानो चारों पदार्थ मिल गये। जो काम गाँव में किसी ने न किया था, वह बाप-दादा के पुण्य-प्रताप से सुजान ने कर दिखाया।
एक दिन गाँव में गया के यात्री आ कर ठहरे। सुजान ही के द्वार पर उनका भोजन बना। सुजान के मन में भी गया करने की बहुत दिनों से इच्छा थी। यह अच्छा अवसर देख कर वह भी चलने को तैयार हो गया। उसकी स्त्री बुलाकी ने कहा -अभी रहने दो, अगले साल चलेंगे। सुजान ने गंभीर भाव से कहा -अगले साल क्या होगा, कौन जानता है। धर्म के काम में मीनमेख निकालना अच्छा नहीं। जिंदगानी का क्या भरोसा ?

बुलाकी , हाथ खाली हो जायगा। सुजान , भगवान् की इच्छा होगी, तो फिर रुपये हो जाएँगे। उनके यहाँ किस बात की कमी है। बुलाकी इसका क्या जवाब देती ? सत्कार्य में बाधा डाल कर अपनी मुक्ति क्यों बिगाड़ती ? प्रात:काल स्त्री और पुरुष गया करने चले। वहाँ से लौटे तो, यज्ञ और ब्रह्मभोज की ठहरी। सारी बिरादरी निमंत्रित हुई, ग्यारह गाँवों में सुपारी बँटी। इस धूमधाम से कार्य हुआ कि चारों ओर वाह-वाह मच गयी। सब यही कहते थे कि भगवान् धन दे, तो दिल भी ऐसा दे। घमंड तो छू नहीं गया, अपने हाथ से पत्तल उठाता फिरता था, कुल का नाम जगा दिया। बेटा हो, तो ऐसा हो। बाप मरा, तो घर में भूनी भाँग भी नहीं थी। अब लक्ष्मी घुटने तोड़ कर आ बैठी हैं।

एक द्वेषी ने कहा -कहीं गड़ा हुआ धन पा गया है। इस पर चारों ओर से उस पर बौछारें पड़ने लगीं , हाँ, तुम्हारे बाप-दादा जो खजाना छोड़ गये थे, यही उसके हाथ लग गया है। अरे भैया, यह धर्म की कमाई है। तुम भी तो छाती फाड़ कर काम करते हो, क्यों ऐसी ऊख नहीं लगती ? क्यों ऐसी फसल नहीं होती ? भगवान् आदमी का दिल देखते हैं। जो खर्च करता है, उसी को देते हैं।

सुजान महतो सुजान भगत हो गये। भगतों के आचार-विचार कुछ और होते हैं। वह बिना स्नान किये कुछ नहीं खाता। गंगा जी अगर घर से दूर हों और वह रोज स्नान करके दोपहर तक घर न लौट सकता हो, तो पर्वों के दिन तो उसे अवश्य ही नहाना चाहिए। भजन-भाव उसके घर अवश्य होना चाहिए। पूजा-अर्चना उसके लिए अनिवार्य है। खान-पान में भी उसे बहुत विचार रखना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह है कि झूठ का त्याग करना पड़ता है। भगत झूठ नहीं बोल सकता। साधारण मनुष्य को अगर झूठ का दंड एक मिले, तो भगत को एक लाख से कम नहीं मिल सकता। अज्ञान की अवस्था में कितने ही अपराध क्षम्य हो जाते हैं।

ज्ञानी के लिए क्षमा नहीं है, प्रायश्चित्ता नहीं है, यदि है तो बहुत ही कठिन। सुजान को भी अब भगतों की मर्यादा को निभाना पड़ा। अब तक उसका जीवन मजूर का जीवन था। उसका कोई आदर्श, कोई मर्यादा उसके सामने न थी। अब उसके जीवन में विचार का उदय हुआ, जहाँ का मार्ग काँटों से भरा हुआ है। स्वार्थ-सेवा ही पहले उसके जीवन का लक्ष्य था, इसी काँटे से वह परिस्थितियों को तौलता था। वह अब उन्हें औचित्य के काँटों पर तौलने लगा। यों कहो कि जड़-जगत् से निकल कर उसने चेतन-जगत् में प्रवेश किया। उसने कुछ लेन-देन करना शुरू किया था पर अब उसे ब्याज लेते हुए आत्मग्लानि-सी होती थी। यहाँ तक कि गउओं को दुहाते समय उसे बछड़ों का ध्यान बना रहता था , कहीं बछड़ा भूखा न रह जाए, नहीं तो उसका रोआँ दुखी होगा।

वह गाँव का मुखिया था, कितने ही मुकदमों में उसने झूठी शहादतें बनवायी थीं, कितनों से डॉड़ ले कर मामले का रफा-दफा करा दिया था। अब इन व्यापारों से उसे घृणा होती थी। झूठ और प्रपंच से कोसों दूर भागता था। पहले उसकी यह चेष्टा होती थी कि मजूरों से जितना काम लिया जा सके लो और मजूरी जितनी कम दी जा सके दो; पर अब उसे मजूर के काम की कम, मजूरी की अधिक चिंता रहती थी , कहीं बेचारे मजूर का रोआँ न दुखी हो जाए।

वह उसका वाक्यांश-सा हो गया था , किसी का रोआँ न दुखी हो जाए। उसके दोनों जवान बेटे बात-बात में उस पर फब्तियाँ कसते, यहाँ तक कि बुलाकी भी अब उसे कोरा भगत समझने लगी थी, जिसे घर के भले-बुरे से कोई प्रयोजन न था। चेतन-जगत् में आ कर सुजान भगत कोरे भगत रह गये। सुजान के हाथों से धीरे-धीरे अधिकार छीने जाने लगे। किस खेत में क्या बोना है, किसको क्या देना है, किसको क्या लेना है, किस भाव क्या चीज बिकी, ऐसी-ऐसी महत्त्वपूर्ण बातों में भी भगत जी की सलाह न ली जाती थी। भगत के पास कोई जाने ही न पाता। दोनों लड़के या स्वयं बुलाकी दूर ही से मामला तय कर लिया करती। गाँव भर में सुजान का मान-सम्मान बढ़ता था, अपने घर में घटता था। लड़के उसका सत्कार अब बहुत करते।

हाथ से चारपाई उठाते देख लपक कर खुद उठा लाते, चिलम न भरने देते, यहाँ तक कि उसकी धोती छाँटने के लिए भी आग्रह करते थे। मगर अधिकार उसके हाथ में न था। वह अब घर का स्वामी नहीं, मंदिर का देवता था। एक दिन बुलाकी ओखली में दाल छाँट रही थी। एक भिखमंगा द्वार पर आ कर चिल्लाने लगा। बुलाकी ने सोचा, दाल छाँट लूँ, तो उसे कुछ दे दूँ। इतने में बड़ा लड़का भोला आकर बोला - अम्माँ, एक महात्मा द्वार पर खड़े गला फाड़ रहे हैं ? कुछ दे दो। नहीं तो उनका रोआँ दुखी हो जायगा।

बुलाकी ने उपेक्षा के भाव से कहा -भगत के पाँव में क्या मेहँदी लगी है, क्यों कुछ ले जा कर नहीं दे देते ? क्या मेरे चार हाथ हैं ? किस-किसका रोआँ सुखी करूँ ? दिन भर तो ताँता लगा रहता है। भोला , चौपट करने पर लगे हुए हैं, और क्या ? अभी महँगू बेंग देने आया था। हिसाब से 7 मन हुए। तौला तो पौने सात मन ही निकले। मैंने कहा -दस सेर और ला, तो आप बैठे-बैठे कहते हैं, अब इतनी दूर कहाँ जायगा। भरपाई लिख दो, नहीं तो उसका रोआँ दुखी होगा। मैंने भरपाई नहीं लिखी। दस सेर बाकी लिख दी।

बुलाकी , बहुत अच्छा किया तुमने, बकने दिया करो। दस-पाँच दफे मुँह की खा जाएगे, तो आप ही बोलना छोड़ देंगे।

भोला , दिन भर एक न एक खुचड़ निकालते रहते हैं। सौ दफे कह दिया कि तुम घर-गृहस्थी के मामले में न बोला करो, पर इनसे बिना बोले रहा ही नहीं जाता।

बुलाकी , मैं जानती कि इनका यह हाल होगा, तो गुरुमंत्र न लेने देती।

भोला , भगत क्या हुए कि दीन-दुनिया दोनों से गये। सारा दिन पूजा-पाठ में ही उड़ जाता है। अभी ऐसे बूढ़े नहीं हो गये कि कोई काम ही न कर सकें।

बुलाकी ने आपत्ति की , भोला, यह तुम्हारा कुन्याय है। फावड़ा, कुदाल अब उनसे नहीं हो सकता, लेकिन कुछ न कुछ तो करते ही रहते हैं। बैलों को सानी-पानी देते हैं, गाय दुहाते हैं और भी जो कुछ हो सकता है, करते हैं।

भिक्षुक अभी तक खड़ा चिल्ला रहा था। सुजान ने जब घर में से किसी को कुछ लाते न देखा, तो उठ कर अंदर गया और कठोर स्वर से बोला – तुम लोगों को कुछ सुनायी नहीं देता कि द्वार पर कौन घंटे भर से खड़ा भीख माँग रहा है। अपना काम तो दिन भर करना ही है, एक छन भगवान् का काम भी तो किया करो।

बुलाकी , तुम तो भगवान् का काम करने को बैठे ही हो, क्या घर भर भगवान् ही का काम करेगा ?

सुजान , कहाँ आटा रखा है, लाओ, मैं ही निकाल कर दे आऊँ। तुम रानी बन कर बैठो।

बुलाकी , आटा मैंने मर-मर कर पीसा है, अनाज दे दो। ऐसे मुड़चिरों के लिए पहर रात से उठ कर चक्की नहीं चलाती हूँ।

सुजान भंडार घर में गये और एक छोटी-सी छबड़ी को जौ से भरे हुए निकले। जौ सेर भर से कम न था। सुजान ने जान-बूझकर, केवल बुलाकी और भोला को चिढ़ाने के लिए, भिक्षा परंपरा का उल्लंघन किया था। तिस पर भी यह दिखाने के लिए कि छबड़ी में बहुत ज्यादा जौ नहीं है, वह उसे चुटकी से पकड़े हुए थे। चुटकी इतना बोझ न सँभाल सकती थी। हाथ काँप रहा था। एक क्षण विलम्ब होने से छबड़ी के हाथ से छूट कर गिर पड़ने की सम्भावना थी। इसलिए वह जल्दी से बाहर निकल जाना चाहते थे। सहसा भोला ने छबड़ी उनके हाथ से छीन ली और त्यौरियाँ बदल कर बोला – सेंत का माल नहीं है, जो लुटाने चले हो। छाती फाड़-फाड़ कर काम करते हैं, तब दाना घर में आता है।

सुजान ने खिसिया कर कहा -मैं भी तो बैठा नहीं रहता।

भोला , भीख, भीख की ही तरह दी जाती है, लुटायी नहीं जाती। हम तो एक वेला खा कर दिन काटते हैं कि पति-पानी बना रहे, और तुम्हें लुटाने की सूझी है। तुम्हें क्या मालूम कि घर में क्या हो रहा है।

सुजान ने इसका कोई जवाब न दिया। बाहर आ कर भिखारी से कह दिया , बाबा, इस समय जाओ, किसी का हाथ खाली नहीं है, और पेड़ के नीचे बैठ कर विचारों में मग्न हो गया। अपने ही घर में उसका यह अनादर ! अभी वह अपाहिज नहीं है; हाथ-पाँव थके नहीं हैं; घर का कुछ न कुछ काम करता ही रहता है। उस पर यह अनादर ! उसी ने घर बनाया, यह सारी विभूति उसी के श्रम का फल है, पर अब इस घर पर उसका कोई अधिकार नहीं रहा। अब वह द्वार का कुत्ता है, पड़ा रहे और घरवाले जो रूखा-सूखादे दें, वह खा कर पेट भर लिया करे। ऐसे जीवन को धिक्कार है। सुजान ऐसे घर में नहीं रह सकता।

संध्या हो गयी थी। भोला का छोटा भाई शंकर नारियल भर कर लाया।

सुजान ने नारियल दीवार से टिका कर रख दिया ! धीरे-धीरे तम्बाकू जल गया। जरा देर में भोला ने द्वार पर चारपाई डाल दी। सुजान पेड़ के नीचे से न उठा।

कुछ देर और गुजारी। भोजन तैयार हुआ। भोला बुलाने आया। सुजान ने कहा -भूख नहीं है। बहुत मनावन करने पर भी न उठा। तब बुलाकी ने आ कर कहा -खाना खाने क्यों नहीं चलते ? जी तो अच्छा है ?

सुजान को सबसे अधिक क्रोध बुलाकी ही पर था। यह भी लड़कों के साथ है ! यह बैठी देखती रही और भोला ने मेरे हाथ से अनाज छीन लिया। इसके मुँह से इतना भी न निकला कि ले जाते हैं, तो ले जाने दो। लड़कों को न मालूम हो कि मैंने कितने श्रम से यह गृहस्थी जोड़ी है, पर यह तो जानती है। दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा। भादों की अँधोरी रात में मड़ैया लगा के जुआर की रखवाली करता था। जेठ-बैसाख की दोपहरी में भी दम न लेता था, और अब मेरा घर पर इतना भी अधिकार नहीं है कि भीख तक न दे सकूँ। माना कि भीख इतनी नहीं दी जाती लेकिन इनको तो चुप रहना चाहिए था, चाहे मैं घर में आग ही क्यों न लगा देता।

कानून से भी तो मेरा कुछ होता है। मैं अपना हिस्सा नहीं खाता, दूसरों को खिला देता हूँ; इसमें किसी के बाप का क्या साझा ? अब इस वक्त मनाने आयी है ! इसे मैंने फूल की छड़ी से भी नहीं छुआ, नहीं तो गाँव में ऐसी कौन औरत है, जिसने खसम की लातें न खायी हों, कभी कड़ी निगाह से देखा तक नहीं। रुपये-पैसे, लेना-देना, सब इसी के हाथ में दे रखा था। अब रुपये जमा कर लिये हैं, तो मुझी से घमंड करती है। अब इसे बेटे प्यारे हैं, मैं तो निखट्टू; लुटाऊ, घर-फूँकू, घोंघा हूँ। मेरी इसे क्या परवाह। तब लड़के न थे, जब बीमार पड़ी थी और मैं गोद में उठा कर बैद के घर ले गया था। आज उसके बेटे हैं और यह उनकी माँ है। मैं तो बाहर का आदमी।

मुझसे घर से मतलब ही क्या। बोला - अब खा-पीकर क्या करूँगा, हल जोतने से रहा, फावड़ा चलाने से रहा। मुझे खिला कर दाने को क्यों खराब करेगी ? रख दो, बेटे दूसरी बार खायँगे।

बुलाकी , तुम तो जरा-जरा-सी बात पर तिनक जाते हो। सच कहा है, बुढ़ापे में आदमी की बुद्धि मारी जाती है। भोला ने इतना तो कहा था कि इतनी भीख मत ले जाओ, या और कुछ ?

सुजान , हाँ बेचारा इतना कह कर रह गया। तुम्हें तो मजा तब आता, जब वह ऊपर से दो-चार डंडे लगा देता। क्यों ? अगर यही अभिलाषा है, तो पूरी कर लो। भोला खा चुका होगा, बुला लाओ। नहीं, भोला को क्यों बुलाती हो, तुम्हीं न जमा दो, दो-चार हाथ। इतनी कसर है, वह भी पूरी हो जाए।

बुलाकी , हाँ, और क्या, यही तो नारी का धरम ही है। अपने भाग सराहो कि मुझ-जैसी सीधी औरत पा ली। जिस बल चाहते हो, बिठाते हो। ऐसी मुँहजोर होती, तो तुम्हारे घर में एक दिन भी निबाह न होता।

सुजान , हाँ, भाई, वह तो मैं ही कह रहा हूँ कि देवी थीं और हो। मैं तब भी राक्षस था और अब भी दैत्य हो गया हूँ ! बेटे कमाऊ हैं, उनकी-सी न कहोगी, तो क्या मेरी-सी कहोगी, मुझसे अब क्या लेना-देना है ?

बुलाकी , तुम झगड़ा करने पर तुले बैठे हो और मैं झगड़ा बचाती हूँ कि चार आदमी हँसेंगे। चल कर खाना खा लो सीधे से, नहीं तो मैं जा कर सो रहूँगी।

सुजान , तुम भूखी क्यों सो रहोगी ? तुम्हारे बेटों की तो कमाई है। हाँ, मैं बाहरी आदमी हूँ।

बुलाकी , बेटे तुम्हारे भी तो हैं।

सुजान , नहीं, मैं ऐसे बेटों से बाज आया। किसी और के बेटे होंगे। मेरे बेटे होते, तो क्या मेरी दुर्गति होती ?

बुलाकी , गालियाँ दोगे तो मैं भी कुछ कह बैठूँगी। सुनती थी, मर्द बड़े समझदार होते हैं, पर तुम सबसे न्यारे हो। आदमी को चाहिए कि जैसा समय देखे वैसा काम करे। अब हमारा और तुम्हारा निबाह इसी में है कि नाम के मालिक बने रहें और वही करें जो लड़कों को अच्छा लगे। मैं यह बात समझ गयी, तुम क्यों नहीं समझ पाते ? जो कमाता है, उसी का घर में राज होता है, यही दुनिया का दस्तूर है। मैं बिना लड़कों से पूछे कोई काम नहीं करती, तुम क्यों अपने मन की करते हो ? इतने दिनों तक तो राज कर लिया, अब क्यों इस माया में पड़े हो ? आधी रोटी खाओ, भगवान् का भजन करो और पड़े रहो। चलो, खाना खा लो।

सुजान , तो अब मैं द्वार का कुत्ता हूँ ?

बुलाकी , बात जो थी, वह मैंने कह दी। अब अपने को जो चाहो समझो।

सुजान न उठे। बुलाकी हार कर चली गयी।

सुजान के सामने अब एक नयी समस्या खड़ी हो गयी थी। वह बहुत दिनों से घर का स्वामी था और अब भी ऐसा ही समझता रहा। परिस्थिति में कितना उलट फेर हो गया था, इसकी उसे खबर न थी। लड़के उसका सेवा-सम्मान करते हैं, यह बात उसे भ्रम में डाले हुए थी। लड़के उसके सामने चिलम नहीं पीते, खाट पर नहीं बैठते, क्या यह सब उसके गृह-स्वामी होने का प्रमाण न था ? पर आज उसे यह ज्ञात हुआ कि यह केवल श्रृद्धा थी, उसके स्वामित्व का प्रमाण नहीं। क्या इस श्रद्धा के बदले वह अपना अधिकार छोड़ सकता था ? कदापि नहीं। अब तक जिस घर में राज किया, उसी घर में पराधीन बन कर वह नहीं रह सकता। उसको  श्रद्धा की चाह नहीं, सेवा की भूख नहीं। उसे अधिकार चाहिए। वह इस घर पर दूसरों का अधिकार नहीं देख सकता। मंदिर का पुजारी बन कर वह नहीं रह सकता।

न-जाने कितनी रात बाकी थी। सुजान ने उठ कर गँड़ासे से बैलों का चारा काटना शुरू किया। सारा गाँव सोता था, पर सुजान करवी काट रहे थे। इतना श्रम उन्होंने अपने जीवन में कभी न किया था। जब से उन्होंने काम करना छोड़ा था, बराबर चारे के लिए हाय-हाय पड़ी रहती थी। शंकर भी काटता था, भोला भी काटता था पर चारा पूरा न पड़ता था। आज वह इन लौंडों को दिखा देंगे, चारा कैसे काटना चाहिए। उनके सामने कटिया का पहाड़ खड़ा हो गया। और टुकड़े कितने महीन और सुडौल थे, मानो साँचे में ढाले गये हों।

मुँह-अँधेरे बुलाकी उठी तो कटिया का ढेर देख कर दंग रह गयी। बोली - क्या भोला आज रात भर कटिया ही काटता रह गया ? कितना कहा कि बेटा, जी से जहान है, पर मानता ही नहीं। रात को सोया ही नहीं।

सुजान भगत ने ताने से कहा -वह सोता ही कब है ? जब देखता हूँ, काम ही करता रहता है। ऐसा कमाऊ संसार में और कौन होगा ?

इतने में भोला आँखे मलता हुआ बाहर निकला। उसे भी यह ढेर देख कर आश्चर्य हुआ। माँ से बोला - क्या शंकर आज बड़ी रात को उठा था, अम्माँ ?

बुलाकी , वह तो पड़ा सो रहा है। मैंने तो समझा, तुमने काटी होगी।
भोला , मैं तो सबेरे उठ ही नहीं पाता। दिन भर चाहे जितना काम कर लूँ, पर रात को मुझसे नहीं उठा जाता।

बुलाकी , तो क्या तुम्हारे दादा ने काटी है ?

भोला , हाँ, मालूम तो होता है। रात भर सोये नहीं। मुझसे कल बड़ी भूल हुई। अरे, वह तो हल ले कर जा रहे हैं ! जान देने पर उतारू हो गये हैं क्या ?

बुलाकी , क्रोधी तो सदा के हैं। अब किसी की सुनेंगे थोड़े ही।

भोला , शंकर को जगा दो, मैं भी जल्दी से मुँह-हाथ धोकर हल ले जाऊँ।

जब और किसानों के साथ भोला हल ले कर खेत में पहुँचा, तो सुजान आधा खेत जोत चुके थे। भोला ने चुपके से काम करना शुरू किया। सुजान से कुछ बोलने की उसकी हिम्मत न पड़ी।

दोपहर हुआ। सभी किसानों ने हल छोड़ दिये। पर सुजान भगत अपने काम में मग्न हैं। भोला थक गया है। उसकी बार-बार इच्छा होती है कि बैलों को खोल दे। मगर डर के मारे कुछ कह नहीं सकता। सबको आश्चर्य हो रहा है कि दादा कैसे इतनी मिहनत कर रहे हैं। आखिर डरते-डरते बोला - दादा, अब तो दोपहर हो गया। हल खोल दें न ?

सुजान , हाँ, खोल दो। तुम बैलों को ले कर चलो, मैं डॉड़ फेंक कर आता हूँ।

भोला , मैं संझा को डॉड़ फेंक दूँगा।

सुजान , तुम क्या फेंक दोगे। देखते नहीं हो, खेत कटोरे की तरह गहरा हो गया है। तभी तो बीच में पानी जम जाता है। इस गोइँड़ के खेत में बीस मन का बीघा होता था। तुम लोगों ने इसका सत्यानाश कर दिया। बैल खोल दिये गये। भोला बैलों को ले कर घर चला, पर सुजान डॉड़ फेंकते रहे। आधा घंटे के बाद डॉड़ फेंक कर वह घर आये। मगर थकान का नाम न था। नहा-खा कर आराम करने के बदले उन्होंने बैलों को सहलाना शुरू किया। उनकी पीठ पर हाथ फेरा, उनके पैर मले, पूँछ सहलायी। बैलों की पूँछें खड़ी थीं। सुजान की गोद में सिर रखे उन्हें अकथनीय सुख मिल रहा था। बहुत दिनों के बाद आज उन्हें यह आनंद प्राप्त हुआ था। उनकी आँखों में कृतज्ञता भरी हुई थी। मानो वे कह रहे थे, हम तुम्हारे साथ रात-दिन काम करने को तैयार हैं।

अन्य कृषकों की भाँति भोला अभी कमर सीधी कर रहा था कि सुजान ने फिर हल उठाया और खेत की ओर चले। दोनों बैल उमंग से भरे दौड़े चले जाते थे, मानों उन्हें स्वयं खेत में पहुँचने की जल्दी थी। भोला ने मड़ैया में लेटे-लेटे पिता को हल लिये जाते देखा, पर उठ न सका। उसकी हिम्मत छूट गयी। उसने कभी इतना परिश्रम न किया था। उसे बनी-बनायी गिरस्ती मिल गयी थी। उसे ज्यों-त्यों चला रहा था। इन दामों वह घर का स्वामी बनने का इच्छुक न था। जवान आदमी को बीस धंधो होते हैं। हँसने-बोलने के लिए, गाने-बजाने के लिए भी तो उसे कुछ समय चाहिए। पड़ोस के गाँव में दंगल हो रहा है। जवान आदमी कैसे अपने को वहाँ जाने से रोकेगा ? किसी गाँव में बारात आयी है, नाच-गाना हो रहा है।

जवान आदमी क्यों उसके आनंद से वंचित रह सकता है ? वृद्धजनों के लिए ये बाधाएँ नहीं। उन्हें न नाच-गाने से मतलब, न खेल-तमाशे से गरज, केवल अपने काम से काम है।

बुलाकी ने कहा -भोला, तुम्हारे दादा हल ले कर गये।

भोला , जाने दो अम्माँ, मुझसे यह नहीं हो सकता।

सुजान भगत के इस नवीन उत्साह पर गाँव में टीकाएँ हुईं , निकल गयी सारी भगती। बना हुआ था। माया में फँसा हुआ है। आदमी काहे को, भूत है।

मगर भगत जी के द्वार पर अब फिर साधु-संत आसन जमाये देखे जाते हैं। उनका आदर-सम्मान होता है। अब की उसकी खेती ने सोना उगल दिया है। बखारी में अनाज रखने की जगह नहीं मिलती। जिस खेत में पाँच मन मुश्किल से होता था, उसी खेत में अबकी दस मन की उपज हुई है। चैत का महीना था। खलिहानों में सतयुग का राज था। जगह-जगह अनाज के ढेर लगे हुए थे। यही समय है, जब कृषकों को भी थोड़ी देर के लिए अपना जीवन सफल मालूम होता है, जब गर्व से उनका हृदय उछलने लगता है। सुजान भगत टोकरे में अनाज भर-भर कर देते थे और दोनों लड़के टोकरे ले कर घर में अनाज रख आते थे। कितने ही भाट और भिक्षुक भगत जी को घेरे हुए थे। उनमें वह भिक्षुक भी था, जो आज से आठ महीने पहले भगत के द्वार से निराश हो कर लौट गया था।

सहसा भगत ने उस भिक्षुक से पूछा-क्यों बाबा, आज कहाँ-कहाँ चक्कर लगा आये ?

भिक्षुक , अभी तो कहीं नहीं गया भगत जी, पहले तुम्हारे ही पास आया हूँ।

भगत , अच्छा, तुम्हारे सामने यह ढेर है। इसमें से जितना अनाज उठा कर ले जा सको, ले जाओ।

भिक्षुक ने क्षुब्ध नेत्रों से ढेर को देख कर कहा -जितना अपने हाथ से उठा कर दे दोगे, उतना ही लूँगा।

भगत , नहीं, तुमसे जितना उठ सके, उठा लो।

भिक्षुक के पास एक चादर थी ! उसने कोई दस सेर अनाज उसमें भरा

और उठाने लगा। संकोच के मारे और अधिक भरने का उसे साहस न हुआ।

भगत उसके मन का भाव समझ कर आश्वासन देते हुए बोले - बस। इतना तो एक बच्चा भी उठा ले जायगा।

भिक्षुक ने भोला की ओर संदिग्धा नेत्रों से देख कर कहा -मेरे लिए इतना ही बहुत है।

भगत , नहीं तुम सकुचाते हो। अभी और भरो।

भिक्षुक ने एक पंसेरी अनाज और भरा, और फिर भोला की ओर सशंक दृष्टि से देखने लगा।

भगत , उसकी ओर क्या देखते हो, बाबा जी ? मैं जो कहता हूँ, वह करो। तुमसे जितना उठाया जा सके, उठा लो।

भिक्षुक डर रहा था कि कहीं उसने अनाज भर लिया और भोला ने गठरी न उठाने दी, तो कितनी भद्द होगी। और भिक्षुकों को हँसने का अवसर मिल जायगा। सब यही कहेंगे कि भिक्षुक कितना लोभी है। उसे और अनाज भरने की हिम्मत न पड़ी।

तब सुजान भगत ने चादर ले कर उसमें अनाज भरा और गठरी बाँध कर बोले - इसे उठा ले जाओ।

भिक्षुक , बाबा, इतना तो मुझसे उठ न सकेगा।

भगत , अरे ! इतना भी न उठ सकेगा ! बहुत होगा तो मन भर। भला जोर तो लगाओ, देखूँ, उठा सकते हो या नहीं।

भिक्षुक ने गठरी को आजमाया। भारी थी। जगह से हिली भी नहीं।

बोला - भगत जी, यह मुझ से न उठ सकेगी !

भगत , अच्छा, बताओ किस गाँव में रहते हो ?

भिक्षुक , बड़ी दूर है भगत जी; अमोला का नाम तो सुना होगा !

भगत , अच्छा, आगे-आगे चलो, मैं पहुँचा दूँगा।

यह कहकर भगत ने जोर लगा कर गठरी उठायी और सिर पर रख कर भिक्षुक के पीछे हो लिये। देखने वाले भगत का यह पौरुष देख कर चकित हो गये। उन्हें क्या मालूम था कि भगत पर इस समय कौन-सा नशा था।

आठ महीने के निरंतर अविरल परिश्रम का आज उन्हें फल मिला था। आज उन्होंने अपना खोया हुआ अधिकार फिर पाया था। वही तलवार, जो केले को भी नहीं काट सकती, सान पर चढ़ कर लोहे को काट देती है। मानव-जीवन में लाग बड़े महत्त्व की वस्तु है। जिसमें लाग है, वह बूढ़ा भी हो तो जवान है। जिसमें लाग नहीं, गैरत नहीं, वह जवान भी मृतक है। सुजान भगत में लाग थी और उसी ने उन्हें अमानुषीय बल प्रदान कर दिया था। चलते समय उन्होंने भोला की ओर सगर्व नेत्रों से देखा और बोले - ये भाट और भिक्षुक खड़े हैं, कोई खाली हाथ न लौटने पाये।

भोला सिर झुकाये खड़ा था, उसे कुछ बोलने का हौसला न हुआ। वृद्ध पिता ने उसे परास्त कर दिया था।
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