Sunday, June 30, 2019

Raidas ke Pad/ Explanation रैदास के पद व्याख्या Sparsh NCERT





ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै ।​



गरीब निवाजु गुसाईआ मेरा माथै छत्रु धरै ॥​



जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै ।​



नीचउ ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै ॥​



नामदेव कबीरू तिलोचनु सधना सैनु तरै ।​



कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै ॥

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अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी ।​



प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी , जाकी अँग-अँग बास समानी ।​



प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा , जैसे चितवत चंद चकोरा ।​



प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती , जाकी जोति बरै दिन राती ।​



प्रभु जी, तुम मोती हम धागा , जैसे सोनहिं मिलत सुहागा ।​



प्रभु जी, तुम तुम स्वामी हम दासा , ऐसी भक्ति करै रैदासा ।​

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Saturday, June 29, 2019

ताज / सुमित्रानंदन पंत /Taaj /Sumitra Nandan Pant

हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन?
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन!
संग-सौध में हो श्रृंगार मरण का शोभन,
नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन?

मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति?


आत्मा का अपमान, प्रेत औ’ छाया से रति!!
प्रेम-अर्चना यही, करें हम मरण को वरण?
स्थापित कर कंकाल, भरें जीवन का प्रांगण?

शव को दें हम रूप, रंग, आदर मानन का
मानव को हम कुत्सित चित्र बना दें शव का?


गत-युग के बहु धर्म-रूढ़ि के ताज मनोहर
मानव के मोहांध हृदय में किए हुए घर!

भूल गये हम जीवन का संदेश अनश्वर,
मृतकों के हैं मृतक, जीवतों का है ईश्वर!

Published in October 1935

Friday, June 28, 2019

पदबन्ध और उपवाक्य में अन्तर


पदबन्ध और उपवाक्य में अन्तर

उपवाक्य (Clause) भी पदबन्ध (Phrase) की तरह पदों का समूह है,
 लेकिन इससे केवल आंशिक भाव प्रकट होता है, पूरा नहीं।

पदबन्ध में क्रिया नहीं होती, उपवाक्य में क्रिया रहती है; जैसे-'ज्योंही उसने बुलाया , त्योंही मैं आ गया ।'

 यहाँ 'ज्यों ही उसने बुलाया ' एक उपवाक्य है, जिससे पूर्ण अर्थ की प्रतीति नहीं होती।

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पदबंध ( Phrase)

 पदबंध ( Phrase)
 
 
शब्द: एक या एक से अधिक वर्णों से बनी स्वतंत्र सार्थक ध्वनि को शब्द कहते हैं ।
पद-  वाक्य में प्रयुक्त शब्द पद कहलाता है।

पदबंध दो शब्दों  का संयोजन है  = पद + बंध।

पदबंध- जब दो या अधिक ' पद' नियत क्रम और निश्चित  अर्थ में किसी पद का कार्य करते हैं तो उन्हें पदबंध कहते हैं।
या

कई पदों के योग से बने वाक्यांश को जो एक ही पद का काम करता है, 'पदबंध' कहलाता है है। 


जैसे-

सबसे अधिक अंक पाने  वाला छात्र आ  गया।


उपर्युक्त वाक्यों में रेखांकित वाक्यांश ' पदबंध' है।
 पहले वाक्य के 'सबसे अधिक अंक पाने  वाला छात्र में 6 पद हैं , किन्तु वे मिलकर एक ही पद अर्थात संज्ञा का कार्य कर रहे हैं।

इस प्रकार रचना की दृष्टि से पदबन्ध में तीन बातें आवश्यक हैं- 

  1. इसमें एक से अधिक पद होते हैं। 
  2.  ये पद इस तरह से सम्बद्ध होते हैं कि उनसे एक इकाई बन जाती है। 
  3. पदबन्ध किसी वाक्य का अंश होता है।

पदबंध के भेद
मुख्य पद के आधार पर पदबंध के पाँच प्रकार होते हैं-
(1) संज्ञा  पदबंध
(2) विशेषण  पदबंध
(3) सर्वनाम पदबंध
(4) क्रिया पदबंध 
(5) क्रिया  विशेषण पदबन्ध या अव्यय  पदबंध 

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(1) संज्ञा पदबंध- जब कोई पदसमूह वाक्य में संज्ञा का कार्य करता है तो उसे संज्ञा पदबंध कहते हैं; जैसे-


  •   घर  के पीछे खड़ा पेड़ गिर गया ।
  •    परिश्रम करने वाला मोहन परीक्षा में उत्तीर्ण होगा ।




(2) विशेषण पदबंध
 जब कोई पदसमूह किसी संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता का बोध कराता है, तो वह विशेषण पदबंध कहलाता है; जैसे-
रीनेश  बहुत नेक, ईमानदार तथा परिश्रमी बालक है ।



(3) सर्वनाम पदबंध
जब कोई पदसमूह वाक्य में सर्वनाम का कार्य करता है, उसे सर्वनाम पदबंध कहते हैं; जैसे-

 कक्षा में शोर मचाने वाले तुम आज क्यों चुप हो ?
शरारत करने वाले छात्रों में से कुछ चुप हो गए।



(4) क्रिया पदबंध 
 जब एक से अधिक क्रिया पद मिलकर एक इकाई के रूप में क्रिया का कार्य संपन्न करते हैं , वे क्रिया पदबंध कहलाते हैं ,जैसे-
बालक  दूध पीकर सो गया



(5) क्रियाविशेषण पदबन्ध या अव्यय  पदबंध  
 
वाक्य में क्रिया-विशेषण के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले एकाधिक पदों के समूह को क्रिया  विशेषण पदबन्ध या अव्यय पदबंध भी कहते हैं। ये पदबंध वाक्य में क्रिया विशेषण या अव्यय का कार्य करते  हैं। 
वह पदबंध जो वाक्य में अव्यय का कार्य करे, अव्यय पदबंध कहलाता है।
इस पदबंध का अंतिम शब्द अव्यय होता है।
 जैसे -

  सुबह से शाम तक वह बैठा रहा।

  वह बहुत देर तक तुम्हारी प्रतीक्षा करता रहा

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तत्सम शब्द / तद्भव शब्द

तत्सम शब्द (Tatsam Shabd) :
तत्सम–तत्  +सम
 [अर्थ  है ज्यों का त्यों।]
 जिन शब्दों को संस्कृत से बिना किसी परिवर्तन के ले लिया जाता है उन्हें तत्सम शब्द कहते हैं। इनमें ध्वनि परिवर्तन नहीं होता है।

जैसे :- अतः ,क्रमशः ,अर्थात ,कक्ष  आदि।

तत्सम शब्द के प्रकार – 

परम्परागत तत्सम शब्द – जो शब्द संस्कृत साहित्य में उपलब्ध है , जिसका प्रचलन संस्कृत भाषा में है | ऐसे शब्दों को परम्परागत तत्सम शब्द कहते हैं ।

निर्मित तत्सम शब्द – निर्मित तत्सम शब्द उस शब्द को कहते है,जो शब्द संस्कृत साहित्य में नहीं है परंतु संस्कृत शब्दों के समान शब्द निर्मित कर लिये जाते है।

तद्भव शब्द (Tadbhav Shabd) :

'तद्भव' (तत् + भव) शब्द का अर्थ --- 'उससे होना' अर्थात् संस्कृत शब्दों से विकृत होकर (परिवर्तित होकर) बने शब्द।
संस्कृत के जो शब्द प्राकृत, अपभ्रंश, पुरानी हिन्दी आदि से गुजरने के कारण आज परिवर्तित रूप में मिलते हैं, वे तद्भव शब्द कहलाते हैं।
या
समय और परिस्थिति की वजह से तत्सम शब्दों में जो परिवर्तन होने के कारण बने शब्द  हैं उन्हें तद्भव शब्द कहते हैं।

तत्सम  पहचानने के सरल संकेत :-

  •  तत्सम शब्दों के पीछे ‘ क्ष ‘ वर्ण का प्रयोग होता है ।
  • तत्सम शब्दों में ‘ श्र ‘ का प्रयोग होता है [और तद्भव शब्दों में ‘ स ‘ का प्रयोग हो जाता है।]
  • तत्सम शब्दों में ‘ श ‘ का प्रयोग होता है [और तद्भव शब्दों में ‘ स ‘ का प्रयोग हो जाता है।]
  •  तत्सम शब्दों में विसर्ग का प्रयोग मिलता है ।
  •  तत्सम शब्दों में ‘ ष ‘ वर्ण का प्रयोग होता है।
  • तत्सम शब्दों में ‘ ऋ ‘ की मात्रा का प्रयोग होता है।
  •  तत्सम शब्दों में ‘ व ‘ का प्रयोग होता है [और उसके  तद्भव शब्दों में ‘ ब ‘ का प्रयोग होता है।]
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तत्सम       तद्भव 
उज्ज्वल उजला
कर्पूर कपूर
संध्या साँझ
हस्त          हाथ
अग्नि        आग
अंध        अंधा
अश्रु        आँसू
अर्ध         आधा
अक्षर अच्छर
अष्ट          आठ
अमूल्य अमोल
अमृत अमीय
अक्षि          आँख

ऐसे ही ढेरों शब्द हैं जिनके लिए आप व्याकरण की पुस्तक देखें .
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युग्म शब्द /श्रुतिसमभिन्नार्थक' शब्द



युग्म-शब्द की परिभाषा-- 
हिंदी के अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनका उच्चारण प्रायः समान होता हैं। किंतु उनके अर्थ भिन्न होते है। इन्हे 'युग्म शब्द' कहते हैं।
या
जो उच्चारण की दृष्टि से असमान होते हुए भी समान होने का भ्रम पैदा करते हैं, युग्म शब्द अथवा 'श्रुतिसमभिन्नार्थक' शब्द कहलाते हैं।

इनके प्रयोग में बहुत सावधानी का प्रयोग करना पड़ता है क्योंकि ये शब्द सुनने में एक समान लगते हैं जबकि इनके अर्थ बिलकुल अलग होते हैं।
गलती से भी अगर आप ऐसे किसी गलत शब्द का प्रयोग कर दें तो  अर्थ बिलकुल बदल जाता है।
जैसे कुल ..कूल


[श्रुतिसमभिन्नार्थक का अर्थ ही है- सुनने में समान; परन्तु भिन्न/अलग अर्थवाले।]
उदाहरण --

  •  सास=पति या पत्नी की माँ. /साँस=नाक या मुँह से हवा लेना 
  • विस्मित – चकित,     विस्मृत – भूला हुआ.
  • ग्रह =सूर्य, चन्द्र, आदि    
  • गृह =घर
  • जलज  ==कमल
  • जलद = बादल
  • तरणि  =सूर्य की किरणें     
  • तरणी =नाव   
  • अविराम बिना रुके
  • अभिराम मनोरम
  • कपट छल
  • कपाट किवाड़
  •  पवन वायु
  • पावन पवित्र
  • परिमाण नाप तौल
  • परिणाम नतीजा
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Harishankar Parsay हरिशंकर परसाई परिचय Sahityik Parichay



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Wednesday, June 26, 2019

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ! --- महादेवी वर्मा

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ!

नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में,
प्रलय में मेरा पता पदचिन्ह जीवन में,
शाप हूँ जो बन गया वरदान बन्धन में,
कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ!

नयन में जिसके जलद वह तुषित चातक हूँ,
शलभ जिसके प्राण में वह ठिठुर दीपक हूँ,
फूल को उर में छिपाये विकल बुलबुल हूँ,
एक हो कर दूर तन से छाँह वह चल हूँ;
दूर तुमसे हूँ अखण्ड सुहागिनी भी हूँ!

आग हूँ जिससे ढुलकते बिन्दु हिमजल के,
शून्य हूँ जिसको बिछे हैं पाँवड़े पल के,
पुलक हूँ वह जो पला है कठिन प्रस्तर में,
हूँ वही प्रतिबिम्ब जो आधार के उर में;
नील घन भी हूँ सुनहली दामिनी भी हूँ!

नाश भी हूँ मैं अनन्त विकास का क्रम भी,
त्याग का दिन भी चरम आसक्ति का तम भी
तार भी आघात भी झंकार की गति भी
पात्र भी मधु भी मधुप भी मधुर विस्मृत भी हूँ;
अधर भी हूँ और स्मित की चाँदनी भी हूँ!
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मैं नीर भरी दुःख की बदली - महादेवी वर्मा

मैं नीर भरी दुःख की बदली
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मैं नीर भरी दुख की बदली!

स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली!

मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।

मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!

पथ को न मलिन करता आना
पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!

विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!

फिर विकल हैं प्राण मेरे --- महादेवी वर्मा

फिर विकल हैं प्राण मेरे
--- महादेवी वर्मा
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फिर विकल हैं प्राण मेरे!
तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूँ उस ओर क्या है!
जा रहे जिस पंथ से युग कल्प उसका छोर क्या है?
क्यों मुझे प्राचीर बन कर
आज मेरे श्वास घेरे!

सिन्धु की नि:सीमता पर लघु लहर का लास कैसा?
दीप लघु शिर पर धरे आलोक का आकाश कैसा?
दे रही मेरी चिरन्तनता
क्षणों के साथ फेरे!

बिम्बग्राहकता कणों को, शलभ को चिर साधना दी,
पुलक से नभ भर धरा को कल्पनामय वेदना दी,
मत कहो हे विश्व! ‘झूठे’
हैं अतुल वरदान तेरे’!

नभ डुबा पाया न अपनी बाढ़ में भी क्षुद्र तारे;
ढूँढने करुणा मृदुल घन चीर कर तूफान हारे;
अन्त के तम में बुझे क्यों
आदि के अरमान मेरे!
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यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो! महादेवी वर्मा

यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो!
- महादेवी वर्मा
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यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो
रजत शंख घड़ियाल स्वर्ण वंशी-वीणा-स्वर,
गये आरती वेला को शत-शत लय से भर,
जब था कल कंठो का मेला,
विहंसे उपल तिमिर था खेला,
अब मन्दिर में इष्ट अकेला,
इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!

चरणों से चिन्हित अलिन्द की भूमि सुनहली,
प्रणत शिरों के अंक लिये चन्दन की दहली,
झर सुमन बिखरे अक्षत सित,
धूप-अर्घ्य नैवेदय अपरिमित
तम में सब होंगे अन्तर्हित,
सबकी अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो!

पल के मनके फेर पुजारी विश्व सो गया,
प्रतिध्वनि का इतिहास प्रस्तरों बीच खो गया,
सांसों की समाधि सा जीवन,
मसि-सागर का पंथ गया बन
रुका मुखर कण-कण स्पंदन,
इस ज्वाला में प्राण-रूप फिर से ढलने दो!

झंझा है दिग्भ्रान्त रात की मूर्छा गहरी
आज पुजारी बने, ज्योति का यह लघु प्रहरी,
जब तक लौटे दिन की हलचल,
तब तक यह जागेगा प्रतिपल,
रेखाओं में भर आभा-जल
दूत सांझ का इसे प्रभाती तक चलने दो!
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खुरदरे पैर / khudare Pair/Nagarjun/ नागार्जुन

खुब गए
दूधिया निगाहों में
फटी बिवाइयोंवाले खुरदरे पैर

धँस गए
कुसुम-कोमल मन में
गुट्ठल घट्ठोंवाले कुलिश-कठोर पैर

दे रहे थे गति
रबड़-विहीन ठूँठ पैडलों को
चला रहे थे
एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन चक्र
कर रहे थे मात त्रिविक्रम वामन के पुराने पैरों को
नाप रहे थे धरती का अनहद फासला
घण्टों के हिसाब से ढोये जा रहे थे !

देर तक टकराए
उस दिन इन आँखों से वे पैर
भूल नहीं पाऊंगा फटी बिवाइयाँ
खुब गईं दूधिया निगाहों में
धँस गईं कुसुम-कोमल मन में


(Published in 1961)

कालिदास! सच-सच बतलाना-- नागार्जुन / kalidas sach sach batlana/ Nagarjun

कालिदास
कालिदास! सच-सच बतलाना
इन्दुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोये थे ?
कालिदास! सच-सच बतलाना |
शिवजी की तीसरी आँख से,
निकली हुई महाज्वाला में,
घृतमिश्रित सूखी समिधा-सम
कामदेव जब भस्म हो गया,
रति का क्रंदन सुन आँसू से
तुमने ही तो दृग धोये थे -
कालिदास! सच-सच बतलाना
रति रोयी या तुम रोये थे ?

वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन-घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा,
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
चित्रकूट के सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके ही द्वारा संदेशा,
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़नेवाले -
कालिदास! सच-सच बतलाना
पर पीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थक कर औ चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर! तुम कब तक सोये थे?
रोया यक्ष कि तुम रोये थे?
कालिदास! सच-सच बतलाना |
- नागार्जुन

आज थका हिय-हारिल मेरा! --अज्ञेय

आज थका हिय-हारिल मेरा! ----- अज्ञेय

इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा?
शुभे! तुम्हारी स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा!

दृढ़ डैनों के मार थपेड़े अखिल व्योम को वश में करता,
तुझे देखने की आशा से अपने प्राणों में बल भरता,

ऊषा से ही उड़ता आया, पर न मिल सकी तेरी झाँकी
साँझ समय थक चला विकल मेरे प्राणों का हारिल-पाखी

तृषित, श्रांत, तम-भ्रांत और निर्मम झंझा-झोंकों से ताड़ित-
दरस प्यास है असह, वही पर किए हुए उस को अनुप्राणित!

गा उठते हैं, 'आओ आओ!' केकी प्रिय घन को पुकार कर
स्वागत की उत्कंठा में वे हो उठते उद्भ्रांत नृत्य पर!

चातक-तापस तरु पर बैठा स्वाति-बूँद में ध्यान रमाये,
स्वप्न तृप्ति का देखा करता 'पी! पी! पी!' की टेर लगाये;

हारिल को यह सह्य नहीं है- वह पौरुष का मदमाता है :
इस जड़ धरती को ठुकरा कर उषा-समय वह उड़ जाता है।

'बैठो, रहो, पुकारो-गाओ, मेरा वैसा धर्म नहीं है;
मैं हारिल हूँ, बैठे रहना मेरे कुल का कर्म नहीं है।

तुम प्रिय की अनुकंपा माँगो, मैं माँगूँ अपना समकक्षी
साथ-साथ उड़ सकने वाला एकमात्र वह कंचन-पक्षी!'

यों कहता उड़ जाता हारिल ले कर निज भुज-बल का संबल
किंतु अंत संध्या आती है- आखिर भुज-बल है कितना बल?

कोई गाता, किंतु सदा मिट्टी से बँधा-बँधा रहता है,
कोई नभ-चारी, पर पीड़ा भी चुप हो कर ही सहता है;

चातक हैं, केकी हैं, संध्या को निराश हो सो जाते हैं,
हारिल हैं- उड़ते-उड़ते ही अंत गगन में खो जाते हैं।

कोई प्यासा मर जाता है, कोई प्यासा जी लेता है
कोई परे मरण-जीवन से कड़ुवा प्रत्यय पी लेता है।

आज प्राण मेरे प्यासे हैं, आज थका हिय-हारिल मेरा
आज अकेले ही उस को इस अँधियारी संध्या ने घेरा।

मुझे उतरना नहीं भूमि पर तब इस सूने में खोऊँगा
धर्म नहीं है मेरे कुल का- थक कर भी मैं क्यों रोऊँगा?

पर प्रिय! अंत समय में क्या तुम इतना मुझे दिलासा दोगे-
जिस सूने में मैं लुट चला, कहीं उसी में तुम भी होगे?

इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा?
शुभे! तुम्हारी स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा।

अंत: सलिला /antah salila


अंतःसलिला        ---अज्ञेय

अंत: सलिला

रेत का विस्तार

नदी जिस में खो गयी

कृश-धार :

झरा मेरे आंसुओं का भार

-मेरा दुःख-धन,

मेरे समीप अगाध पारावार –

उस ने सोख सहसा लिया

जैसे लूट ट ले बटमार।

और फिर अक्षितिज

लहरीला मगर  बेट्ट

सूखी रेत का विस्तार –
नदी जिस में खो गयी
कृश-धार
किन्तु जब-जब जहाँ भी जिस ने कुरेदा
नमी पायी : और खोदा –
हुआ रस-संचार :
रिसता हुआ गड्ढा भर गया।
यों अनजान पा पंथ
जो भी क्लांत आया, रुका ले कर आस,
स्वल्पायास से ही शांत
अपनी प्यास
इस से कर गया :
खींच लंबी साँस
पार उतर गया।
अरे, अंत: सलिल है रेत :
अनगिनत पैरों तले रौंदी हुई अविराम फिर भी घाव अपने आप भरती,

पड़ी सहज ही,

धूसर-गौर,

निरीह और उदार!
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 (1959 ,आँगन के पार द्वार )
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Tuesday, June 25, 2019

मोचीराम -धूमिल / mochiram-Dhumil

 
राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।

और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है।

यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है:
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है।

‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ-भीतर से
एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो
अपनी जाति पर थूकते हो।’
आप यकीन करें,उस समय
मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को
बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।

एक जूता और है जिससे पैर को
‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो
घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ
…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ ‘नट’ जाता है
शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है।

मगर इसका मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह
भाष़ा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिये लटकाता है
सच कहता हूँ-उस समय
राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है
और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
शिकार है
जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।

संध्या के बाद --सुमित्रानंदन पंत/sandhya ke baad /sumitranandan Pant


संध्या के बाद
--सुमित्रानंदन पंत
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सिमटा पंख साँझ की लाली
जा बैठी अब तरु शिखरों पर,
ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख
झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर।
ज्योति स्तंभ सा धँस सरिता में
सूर्य क्षितिज पर होता ओझल,
बृहद्‌ जिह्म विश्लथ कैंचुल सा
लगता चितकबरा गंगाजल।

धूपछाँह के रँग की रेती
अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित,
नील लहरियों में लोड़ित
पीला जल रजत जलद से बिम्बित।
सिकता, सलिल, समीर सदा से
स्नेह पाश में बँधे समुज्वल,
अनिल पिघल कर सलिल,
सलिल ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल!

शंख घंट बजते मंदिर में,
लहरों में होता लय-कंपन,
दीप शिखा सा ज्वलित कलश
नभ में उठकर करता नीरांजन।
तट पर बगुलों सी वृद्धाएँ,
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य गति अंतर रोदन।

दूर, तमस रेखाओं सी,
उड़ते पंखों की गति सी चित्रित
सोन खगों की पाँति
आर्द्र ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरित।
स्वर्ण चूर्ण सी उड़ती गोरज
किरणों की बादल सी जल कर,
सनन् तीर सा जाता नभ में
ज्योतित पंखों कंठो का स्वर।

लौटे खग, गाएँ घर लौटीं,
लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर,
छिपे गृहों में म्लान चराचर,
छाया भी हो गई अगोचर।
लौट पैंठ से व्यापारी भी
जाते घर, उस पार नाव पर,
ऊँटों, घोड़ों के सँग बैठे
ख़ाली बोरों पर, हुक्क़ा भर।

जाड़ों की सूनी द्वाभा में
झूल रही निशि छाया गहरी,
डूब रहे निष्प्रभ विषाद में
खेत, बाग़, गृह, तरु, तट, लहरी।
बिरहा गाते गाड़ी वाले,
भूँक भूँक कर लड़ते कूकर,
हुआ हुआ करते सियार
देते विषण्ण निशि बेला को स्वर!

माली की मँड़ई से उठ,
नभ-के-नीचे-नभ-सी धूमाली
मंद पवन में तिरती
नीली रेशम की सी हलकी जाली।
बत्ती जला दुकानों में
बैठे सब क़स्बे के व्यापारी,
मौन मंद आभा में
हिम की ऊँघ रही लंबी अँधियारी।

धुँआ अधिक देती है
टिन की ढिबरी, कम करती उजियाला,
मन से कढ़ अवसाद श्रांति
आँखों के आगे बुनती जाला।
छोटी सी बस्ती के भीतर
लेन देन के थोथे सपने
दीपक के मंडल में मिलकर
मँडराते घिर सुख दुख अपने।

कँप कँप उठते लौ के सँग
कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों
गोपन मन को दे दी हो भाषा।
लीन हो गई क्षण में बस्ती,
मिट्टी खपरे के घर आँगन,
भूल गए लाला अपनी सुधि,
भूल गया सब ब्याज, मूलधन!

सकुची सी परचून किराने की ढेरी
लग रहीं तुच्छतर,
इस नीरव प्रदोष में आकुल
उमड़ रहा अंतर जग बाहर!
अनुभव करता लाला का मन
छोटी हस्ती का सस्तापन,
जाग उठा उसमें मानव,
औ’ असफल जीवन का उत्पीड़न।

दैन्य दुःख अपमान ग्लानि
चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
बिना आय की क्लांति बन रही
उसके जीवन की परिभाषा।
जड़ अनाज के ढेर सदृश ही
वह दिन भर बैठा गद्दी पर
बात बात पर झूठ बोलता
कौड़ी की स्पर्धा में मर मर।

फिर भी क्या कुटुंब पलता है?
रहते स्वच्छ सुघर सब परिजन?
बना पारहा वह पक्का घर?
मन में सुख है? जुटता है धन?
खिसक गई कंधो से कथड़ी,
ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
सोच रहा बस्ती का बनिया
घोर विवशता का निज कारण!

शहरी बनियों सा वह भी उठ
क्यों बन जाता नहीं महाजन?
रोक दिए हैं किसने उसकी
जीवन उन्नति के सब साधन?
यह क्या संभव नहीं,
व्यवस्था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
कर्म और गुण के समान ही
सकल आय व्यय का हो वितरण?

घुसे घरौंदों में मिट्टी के
अपनी अपनी सोच रहे जन,
क्या ऐसा कुछ नहीं,
फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
मिलकर जन निर्माण करें जग,
मिलकर भोग करें जीवन का,
जन विमुक्त हों जन शोषण से,
हो समाज अधिकारी धन का?

दरिद्रता पापों की जननी,
मिटें जनों के पाप, ताप, भय,
सुंदर हों अधिवास, वसन, तन,
पशु पर फिर मानव की हो जय?
व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी
दोषी जन के दुःख क्लेश की,
जन का श्रम जन में बँट जाए,
प्रजा सुखी हो देश देश की!

टूट गया वह स्वप्न वणिक का,
आई जब बुढ़िया बेचारी
आध पाव आटा लेने,--
लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
चीख़ उठा घुघ्घू डालों में,
लोगों ने पट दिए द्वार पर,
निगल रहा बस्ती को धीरे
गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!

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हस्तक्षेप - श्रीकांत वर्मा -shrikant verma -hastakshep

हस्तक्षेप 
श्रीकांत वर्मा 



कोई छींकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की शांति
भंग न हो जाय,
मगध को बनाए रखना है, तो,
मगध में शांति
रहनी ही चाहिए

मगध है, तो शांति है
कोई चीखता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की व्यवस्था में
दखल न पड़ जाय
मगध में व्यवस्था रहनी ही चाहिए

मगध में न रही
तो कहाँ रहेगी?

क्या कहेंगे लोग?

लोगों का क्या?
लोग तो यह भी कहते हैं
मगध अब कहने को मगध है,
रहने को नहीं

कोई टोकता तक नहीं
इस डर से

कि मगध में
टोकने का रिवाज न बन जाय
एक बार शुरू होने पर

कहीं नहीं रुकता हस्तक्षेप -
वैसे तो मगधनिवासियो
कितना भी कतराओ
तुम बच नहीं सकते हस्तक्षेप से -
जब कोई नहीं करता
तब नगर के बीच से गुजरता हुआ
मुर्दा
यह प्रश्न कर हस्तक्षेप करता है -
मनुष्य क्यों मरता है?

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बादल को घिरते देखा है /नागार्जुन/ badal ko ghirte dekha hai Vyakhya


 
 
बादल को घिरते देखा है 
नागार्जुन
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अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
दुर्गम बर्फानी घाटी में
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

कहाँ गय धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।

शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कनन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।
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[युगधारा में संकलित (१९५३)]

नींद उचट जाती है / नरेंद्र शर्मा /अंतरा ncert

 नींद उचट जाती है
-नरेंद्र शर्मा



जब-तब नींद उचट जाती है
पर क्‍या नींद उचट जाने से
रात किसी की कट जाती है?

देख-देख दु:स्‍वप्‍न भयंकर,
चौंक-चौंक उठता हूँ डरकर;
पर भीतर के दु:स्‍वप्‍नों से
अधिक भयावह है तम बाहर!
आती नहीं उषा, बस केवल
आने की आहट आती है!

देख अँधेरा नयन दूखते,
दुश्चिंता में प्राण सूखते!
सन्‍नाटा गहरा हो जाता,
जब-जब श्‍वन श्रृगाल भूँकते!
भीत भवना, भोर सुनहली
नयनों के न निकट लाती है!

मन होता है फिर सो जाऊँ,
गहरी निद्रा में खो जाऊँ;
जब तक रात रहे धरती पर,
चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ!
उस करवट अकुलाहट थी, पर
नींद न इस करवट आती है!

करवट नहीं बदलता है तम,
मन उतावलेपन में अक्षम!
जगते अपलक नयन बावले,
थिर न पुतलियाँ, निमिष गए थम!
साँस आस में अटकी, मन को
आस रात भर भटकाती है!

जागृति नहीं अनिद्रा मेंरी,
नहीं गई भव-निशा अँधेरी!
अंधकार केंद्रित धरती पर,
देती रही ज्‍योति च‍कफेरी!
अंतर्यानों के आगे से
शिला न तम की हट पाती है!

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सब आँखों के आँसू उजले/महादेवी वर्मा /sab aankhon ke aansu ujale vyakhya


सब आँखों के आँसू उजले
सबके सपनों में सत्य पला!

जिसने उसको ज्वाला सौंपी
उसने इसमें मकरन्द भरा,
आलोक लुटाता वह घुल-घुल
देता झर यह सौरभ बिखरा!
दोनों संगी, पथ एक, किन्तु कब दीप खिला कब फूल जला?

वह अचल धरा को भेंट रहा
शत-शत निर्झर में हो चंचल,
चिर परिधि बना भू को घेरे
इसका नित उर्म्मिल करुणा-जल!
सागर उर पाषाण हुआ कब गिरि ने निर्मम तन बदला?

नभ-तारक-सा खंडित पुलकित
यह सुर-धारा को चूम रहा,
वह अंगारों का मधु-रस पी
केशर-किरणों-सा झूम रहा!
अनमोल बना रहने को कब टूटा कंचन, हीरक पिघला!

नीलम मरकत के सम्पुट दो
जिनमें बनता जीवन-मोती,
इसमें ढलते सब रंग-रूप
उसकी आभा स्पन्दन होती!
जो नभ में विद्युत्-मेघ बना वह रज में अंकुर हो निकला!

संसृति के प्रति पग में मेरी
साँसों का नव अंकन चुन लो,
मेरे बनने-मिटने में नित
अपनी साधों के क्षण गिन लो!
जलते-खिलते-बढ़ते जग में घुलमिल एकाकी प्राण चला!
सपने सपने में सत्य ढला!

जाग तुझको दूर जाना - महादेवी_वर्मा Jag tujhko duur jana Vyakhya sahit



जाग तुझको दूर जाना - महादेवी वर्मा
चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!

अचल हिमगिरि के हॄदय में आज चाहे कम्प हो ले!
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;
आज पी आलोक को ड़ोले तिमिर की घोर छाया
जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश पथ पर चिन्ह अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!

बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल दे दल ओस गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लिये कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!

वज्र का उर एक छोटे अश्रु कण में धो गलाया,
दे किसे जीवन-सुधा दो घँट मदिरा माँग लाया!
सो गई आँधी मलय की बात का उपधान ले क्या?
विश्व का अभिशाप क्या अब नींद बनकर पास आया?
अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
जाग तुझको दूर जाना!

कह न ठंढी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी;
हार भी तेरी बनेगी माननी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियां बिछाना!
जाग तुझको दूर जाना!

Monday, June 24, 2019

भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है /भारतेंदु हरिश्चंद्र

भारतेंदु हरिश्चंद्र का बलिया व्याख्यान (सन १८८४, बलिया का ददरी मेला)


भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है
भारतेंदु हरिश्चंद्र

आज बड़े आनंद का दिन है कि छोटे से नगर बलिया में हम इतने मनुष्यों को एक बड़े उत्साह से एक स्थान पर देखते हैं। इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाए वही बहुत है। बनारस ऐसे-ऐसे बड़े नगरों में जब कुछ नहीं होता तो हम यह न कहेंगे कि बलिया में जो कुछ हमने देखा वह बहुत ही प्रशंसा के योग्य है। इस उत्साह का मूल कारण जो हमने खोजा तो प्रगट हो गया कि इस देश के भाग्य से आजकल यहाँ सारा समाज ही एकत्र है। राबर्ट साहब बहादुर ऐसे कलेक्टर जहाँ हो वहाँ क्यों न ऐसा समाज हो। जिस देश और काल में ईश्वर ने अकबर को उत्पन्न किया था उसी में अबुलफजल, बीरबल,टोडरमल को भी उत्पन्न किया। यहाँ राबर्ट साहब अकबर हैं जो मुंशी चतुर्भुज सहाय, मुंशी बिहारीलाल साहब आदि अबुलफजल और टोडरमल हैं। हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी है। यद्यपि फर्स्ट क्लास, सैकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी है पर बिना इंजिन सब नहीं चल सकती वैसी ही हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह दीजिए 'का चुप साधि रहा बलवाना' फिर देखिए हनुमानजी को अपना बल कैसा याद आता है। सो बल कौन याद दिलावे। हिंदुस्तानी राजे-महाराजे, नवाब, रईस या हाकिम। राजे-महाराजों को अपनी पूजा, भोजन, झूठी गप से छुट्टी नहीं। हाकिमों को कुछ तो सरकारी काम घेरे रहता है कुछ बाल-घुड़दौड़, थियेटर में समय लगा। कुछ समय बचा भी तो उनको क्या गरह है कि हम गरीब, गंदे, काले आदमियों से मिल कर अपना अनमोल समय खोवें। बस यही मसल रही -

"तुम्हें गैरों से कब फुरसत, हम अपने गम से कब खाली।
चलो बस हो चुका मिलना न हम खाली न तुम खाली॥"

तीन मेंढ़क एक के ऊपर एक बैठे थे। ऊपर वाले ने कहा, 'जौक शौक', बीच वाल बोला, 'गम सम',सब के नीचे वाला पुकारा, 'गए हम'। सो हिंदुस्तान की प्रजा की दशा यही है 'गए हम'। पहले भी जब आर्य लोग हिंदुस्तान में आकर बसे थे राजा और ब्राह्मणों के जिम्मे यह काम था कि देश में नाना प्रकार की विद्या और नीति फैलावें और अब भी ये लोग चाहें तो हिंदुस्तान प्रतिदिन क्या प्रतिछिन बढ़े। पर इन्हीं लोगों को निकम्मेपन ने घेर रखा है। 'बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः समर दूषिताः' हम नहीं समझते कि इनको लाज भी क्यों नहीं आती कि उस समय में जबकि इनके पुरुखों के पास कोई भी सामान नहीं था तब उन लोगों ने जंगल में पत्ते और मिट्टी की कुटियों में बैठ कर बाँस की नालियों से जो तारा, ग्रह आदि बेध कर के उनकी गति लिखी है वह ऐसी ठीक है कि सोलह लाख रुपए की लागत से विलायत में जो दूरबीन बनी है उनसे उन ग्रहों को वेध करने में भी ठीक वही गति आती है और अब आज इस काल में हम लोगों की अंग्रेजी विद्या के और जनता की उन्नति से लाखों पुस्तकें और हजारों यंत्र तैयार हैं जब हम लोग निरी चुंगी की कतवार फेंकने की गाड़ी बन रहे हैं। यह समय ऐसा है कि उन्नति की मानो घुड़दौड़ हो रही है। अमेरिकन, ‍‍अंग्रेज, फरांसीस आदि तुरकी-ताजी सब सरपट्ट दौड़े जाते हैं। सब के जी में यही है कि पाला हमी पहले छू लें। उस समय हिंदू का टियावाड़ी खाली खड़े-खड़े टाप से मिट्टी खोदते हैं। इनको औरों को जाने दीजिए जापानी टट्टुओं को हाँफते हुए दौड़ते देख कर के भी लाज नहीं आती। यह समय ऐसा है कि जो पीछे रह जाएगा फिर कोटि उपाय किए भी आगे न बढ़ सकेगा। लूट की इस बरसात में भी जिस के सिर पर कम्बख्ती का छाता और आँखों में मूर्खता की पट्टी बँधी रहे उन पर ईश्वर का कोप ही कहना चाहिए।

मुझको मेरे मित्रों ने कहा था कि तुम इस विषय पर आज कुछ कहो कि हिंदुस्तान की कैसे उन्नति हो सकती है। भला इस विषय पर मैं और क्या कहूँ भागवत में एक श्लोक है - "नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारं मयाsनुकूलेन तपः स्वतेरितं पुमान भवाब्धि न तरेत स आत्महा।" भगवान कहते हैं कि पहले तो मनुष्य जन्म ही दुर्लभ है सो मिला और उस पर गुरु की कृपा और उस पर मेरी अनुकूलता। इतना सामान पाकर भी मनुष्य इस संसार सागर के पार न जाए उसको आत्महत्यारा कहना चाहिए, वही दशा इस समय हिंदुस्तान की है। अंग्रेजों के राज्य में सब प्रकार का सामान पाकर, अवसर पा कर भी हम लोग जो इस समय उन्नति न करें तो हमारे केवल अभाग्य और परमेश्वर का कोप ही है। सास और अनुमोदन से एकांत रात में सूने रंग महल में जाकर भी बहुत दिनों से प्राण से प्यारे परदेसी पति से मिल कर छाती ठंडी करने की इच्छा भी उसका लाज से मुँह भी न देखे और बोले भी न तो उसका अभाग्य ही है। वह तो कल परदेस चला जाएगा। वैसे ही अंग्रेजों के राज्य में भी जो हम मेंढ़क, काठ के उल्लू, पिंजड़े के गंगाराम ही रहें तो फिर हमारी कमबख्त कमबख्ती फिर कमबख्ती ही है। बहुत लोग यह कहेंगे कि हमको पेट के धंधे के मारे छुट्टी ही नहीं रहती, बाबा, हम क्या उन्नति करें। तुम्हारा पेट भरा है तुम को दून की सूझती है। उसने एक हाथ से अपना पेट भरा दूसरे हाथ से उन्नति के काँटों को साफ किया। क्या इंग्लैंड में किसान, खेत वाले, गाड़ीवान, मजदूर, कोचवान आदि नहीं हैं? किसी देश में भी सभी पेट भरे हुए नहीं होते, किंतु वे लोग जहाँ खेत जोतते-बाते हैं वहीं उसके साथ यह भी सोचते हैं कि ऐसी कौन नई कल व मसाला बनावें जिससे इस खेत में आगे से दून अनाज उपजे। विलायत में गाड़ी के कोचवान भी अखबार पढ़ते हैं। जब मालिक उतरकर किसी दोस्त के यहाँ गया उसी समय कोचवान ने गद्दी के नीचे से अखबार निकाला। यहाँ उतनी देर कोचवान हुक्का पिएगा या गप्प करेगा। सो गप्प भी निकम्मी। वहाँ के लोग गप्प ही में देश के प्रबंध छाँटते हैं। सिद्धांत यह कि वहाँ के लोगों का यह सिद्धांत है कि एक छिन भी व्यर्थ न जाए। उसके बदले यहाँ के लोगों को जितना निकम्मापन हो उतना ही बड़ा अमीर समझा जाता है। आलस्य यहाँ इतनी बढ़ गई कि मलूकदास ने दोहा ही बना डाला -

"अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
दास मलूका कहि गए सबके दाता राम॥"

चारों ओर आँख उठाकर देखिए तो बिना काम करने वालों की ही चारों ओर बढ़ती है। रोजगार कहीं कुछ भी नहीं है अमीरों, मुसाहिबी, दल्लालों या अमीरों के नौजवान लड़कों को खराब करना या किसी की जमा मार लेना इनके सिवा बतलाइए और कौन रोजगार है जिससे कुछ रुपया मिले। चारों ओर दरिद्रता की आग लगी हुई है किसी ने बहुत ठीक कहा है कि दरिद्र कुटुंबी इस तरह अपनी इज्जत को बचाता फिरता है जैसे लाजवंती बहू फटें कपड़ों में अपने अंग को छिपाए जाती है। वही दशा हिंदुस्तान की है। मुर्दम-शुमारी का रिपोर्ट देखने से स्पष्ट होता है कि मनुष्य दिन-दिन यहाँ बढ़ते जाते हैं और रुपया दिन-दिन कमती होता जाता है। सो अब बिना ऐसा उपाय किए काम नहीं चलेगा कि रुपया भी बढ़े और वह रुपया बिना बुद्धि के न बढ़ेगा। भाइयों, राजा-महाराजों का मुँह मत देखो। मत यह आशा रखो कि पंडित जी कथा में ऐसा उपाय बतलाएँगे कि देश का रुपया और बुद्धि बढ़े। तुम आप ही कमर कसो, आलस छोड़ो, कब तक अपने को जंगली, हूस, मूर्ख, बोदे, डरपोक पुकरवाओगे। दौड़ो इस घुड़दौड़ में, जो पीछे पड़े तो फिर कहीं ठिकाना नहीं है। 'फिर कब-कब राम जनकपुर एहै' अब की जो पीछे पड़े तो फिर रसातल ही पहुँचोगे। जब पृथ्वीराज को कैद कर के गोर ले गए तो शहाबुद्दीन के भाई गयासुद्दीन से किसी ने कहा कि वह शब्दबेधी बाण बहुत अच्छा मारता है। एक दिन सभी नियत हुई और सात लोहे के तावे बाण से फोड़ने को रखे गए। पृथ्वीराज को लोगों ने पहिले से ही अंधा कर दिया था। संकेत यह हुआ कि जब गयासुद्दीन 'हूँ' करे तब वह तावे पर बाण मारे। चंद कवि भी उसके साथ कैदी था। यह सामान देख कर उसने यह दोहा पढ़ा -

"अब की चढ़ी कमान को जाने फिर कब चढ़े।
जिन चूके चहुआज इक्के मारय इक्क सर।"

उसका संकेत समझ कर जब गयासुद्दीन ने 'हूँ' किया तो पृथ्वीराज ने उसी को बाण मार दिया। वही बात अब है। 'अब की चढ़ी' इस समय में सरकार का राज्य पाकर और उन्नति का इतना सामान पाकर भी तुम लोग अपने को न सुधारों तो तुम्हीं रहो और वह सुधारना भी ऐसा होना चाहिए कि सब बात में उन्नति हो। धर्म में, घर के काम में, बाहर के काम में, रोजगार में, शिष्टाचार में, चाल चलन में, शरीर में,बल में, समाज में, युवा में, वृद्ध में, स्त्री में, पुरुष में, अमीर में, गरीब में, भारतवर्ष की सब आस्था, सब जाति,सब देश में उन्नति करो। सब ऐसी बातों को छोड़ो जो तुम्हारे इस पथ के कंटक हों। चाहे तुम्हें लोग निकम्मा कहें या नंगा कहें, कृस्तान कहें या भ्रष्ट कहें तुम केवल अपने देश की दीन दशा को देखो और उनकी बात मत सुनो। अपमान पुरस्कृत्य मानं कृत्वा तु पृष्ठतः स्वकार्य साधयेत धीमान कार्यध्वंसो हि मूर्खता। जो लोग अपने को देश-हितैषी मानते हों वह अपने सुख को होम करके, अपने धन और मान का बलिदान करके कमर कस के उठो। देखा-देखी थोड़े दिन में सब हो जाएगा। अपनी खराबियों के मूल कारणों को खोजो। कोई धर्म की आड़ में, कोई सुख की आड़ में छिपे हैं। उन चोरों को वहाँ-वहाँ से पकड़ कर लाओ। उनको बाँध-बाँध कर कैद करो। हम इससे बढ़कर क्या कहें कि जैसे तुम्हारे घर में कोई पुरुष व्याभिचार करने आवे तो जिस क्रोध से उसको पकड़कर मारोगे और जहाँ तक तुम्हारे में शक्ति होगी उसका सत्यानाश करोगे उसी तरह इस समय जो-जो बातें तुम्हारे उन्नति पथ की काँटा हों उनकी जड़ खोद कर फेंक दो। कुछ मत डरो। जब तक सौ, दो सौ मनुष्य बदनाम न होंगे, जात से बाहर न निकाले जाएँगे , दरिद्र न हो जाएँगे , कैद न होंगे वरंच जान से न मारे जाएँगे तब तक कोई देश न सुधरेगा।

अब यह प्रश्न होगा कि भई हम तो जानते ही नहीं कि उन्नति और सुधारना किस चिड़िया का नाम है। किस को अच्छा समझे। क्या लें क्या छोड़ें तो कुछ बातें जो इस शीघ्रता से मेरे ध्यान में आती हैं उनको मैं कहता हूँ सुनो -

सब सुन्नियों का मूल धर्म है। इससे सबसे पहले धर्म की ही उन्नति करनी उचित है। देखो अंग्रेजों की धर्मनीति राजनीति परस्पर मिली है इससे उनकी दिन-दिन कैसी उन्नति हुई है। उनको जाने दो अपने ही यहाँ देखो। तुम्हारे धर्म की आड़ में नाना प्रकार की नीति समाजगठन वैद्यक आदि भरे हुए हैं। दो-एक मिसाल सुनो तुम्हारा बलिया के मेला का यहीं स्थान क्यों चुना गया है जिसमें जो लोग कभी आपस में नहीं मिलते। दस-दस, पाँच-पाँच कोस से ले लोग एक जगह एकत्र होकर आपस में मिलें। एक दूसरे का दुःख-सुख जानें। गृहस्थी के काम की वह चीजें जो गाँव में नहीं मिलतीं यहाँ से ले जाएँ। एकादशी का व्रत क्यों रखा है? जिसमें महिने में दो-एक उपवास से शरीर शुद्ध हो जाए। गंगाजी नहाने जाते हैं तो पहले पानी सिर पर चढ़ा कर तब पैर पर डालने का विधान क्यों है? जिससे तलुए से गरमी सिर पर चढ़कर विकार न उत्पन्न करे। दीवाली इसी हेतु है कि इसी बहाने सालभर में एक बार तो सफाई हो जाए। होली इसी हेतु है कि बसंत की बिगड़ी हवा स्थान-स्थान पर अग्नि जलने से स्वच्छ हो जाए। यही तिहवार ही तुम्हारी म्युनिसिपालिटी है। ऐसे ही सब पर्व, सब तीर्थ, व्रत आदि में कोई हीकमत है। उन लोगों ने धर्मनीति और समाजनीति को दूध पानी की भाँति मिला दिया है। खराबी जो बीच में हुई वह यह है कि उन लोगों ने ये धर्म क्यों मानने लिखे थे। इसका लोगों ने मतलब नहीं समझा और इन बातों को वास्तविक धर्म मान लिया। भाइयों, वास्तविक धर्म तो केवल परमेश्वर के चरणकमल का भजन है। ये सब तो समाज धर्म है। जो देश काल के अनुसार शोधे और बदले जा सकते हैं। दूसरी खराबी यह हुई कि उन्हीं महात्मा बुद्धिमान ऋषियों के वंश के लोगों ने अपने बाप-दादों का मतलब न समझकर बहुत से नए-नए धर्म बना कर शास्त्रों में धर दिए बस सभी तिथि व्रत और सभी स्थान तीर्थ हो गए। सो इन बातों को अब एक बार आँख खोल कर देख और समझ लीजिए कि फलानी बात उन बुद्धिमान ऋषियों ने क्यों बनाई और उनमें देश और काल के अनुकूल और उपकारी हों उनका ग्रहण कीजिए। बहुत-सी बातें जो समाज विरुद्ध मानी जाती हैं किंतु धर्मशास्त्रों में जिनका विधान है उनको मत चलाइए। जैसा जहाज का सफर, विधवा-विवाह आदि। लड़कों की छोटेपन ही में शादी करके उनका बल,बीरज, आयुष्य सब मत घटाइए। आप उनके माँ-बाप हैं या शत्रु हैं। वीर्य उनके शरीर में पुष्ट होने दीजिए। नोन, तेल लकड़ी की फिक्र करने की बुद्धि सीख लेने दीजिए तब उनका पैर काठ में डालिए। कुलीन प्रथा,बहु विवाह आदि को दूर कीजिए। लड़कियों को भी पढ़ाइए किंतु इस चाल में नहीं जैसे आजकल पढ़ाई जाती है जिससे उपकार के बदले बुराई होती है ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल-धर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें। वैष्णव, शास्त्र इत्यादि नाना प्रकार के लोग आपस में बैर छोड़ दें यह समय इन झगड़ों का नहीं। हिंदू, जैन, मुसलमान सब आपस में मिलिए जाति में कोई चाहे ऊँचा हो, चाहे नीचा हो सबका आदर कीजिए। जो जिस योग्य हो उसे वैसा मानिए,छोटी जाति के लोगों का तिरस्कार करके उनका जी मत तोड़िए। सब लोग आपस में मिलिए। मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस हिंदुस्तान में बस कर वे लोग हिंदुओं को नीचा समझना छोड़ दें। ठीक भाइयों की भाँति हिंदुओं से बरताव करें। ऐसी बात जो हिंदुओं का जी दुखाने वाली हो न करें। घर में आग लगे सब जिठानी, द्यौरानी को आपस का डाह छोड़ कर एकसाथ वह आग बुझानी चाहिए। जो बात हिंदुओं का नहीं मयस्सर है वह धर्म के प्रभाव से मुसलमानों को सहज प्राप्त है। उनके जाति नहीं, खाने-पीने में चौका-चूल्हा नहीं, विलायत जाने में रोक-टोक नहीं, फिर भी बड़े ही सोच की बात है कि मुसलमानों ने अभी तक अपनी दशा कुछ नहीं सुधारी। अभी तक बहुतों को यही ज्ञात है कि दिल्ली,लखनऊ की बादशाहत कायम है। यारो, वे दिन गए। अब आलस, हठधरमी यह सब छोड़ो। चलो हिंदुओं के साथ तुम भी दौड़ो एक-एक-दो होंगे। पुरानी बातें दूर करो। मीर हसन और इंदरसभा पढ़ा कर छोटेपन ही से लड़कों का सत्यानाश मत करो। होश संभाला नहीं कि पढ़ी पारसी, चुस्त कपड़ा पहनना और गजल गुनगुनाए -

"शौक तिल्फी से मुझे गुल की जो दीदार का था।
न किया हमने गुलिस्ताँ का सबक याद कभी॥"

भला सोचो कि इस हालत में बड़े होने पर वे लड़के क्यों न बिगड़ेंगे। अपने लड़कों को ऐसी किताबें छूने भी मत दो। अच्छी से अच्छी उनको तालीम दो। पैंशन और वजीफे या नौकरी का भरोसा छोड़ो। लड़कों को रोजगार सिखलाओ। विलायत भेजो। छोटेपन से मेहनत करने की आदत दिलाओ। सौ-सौ महलों के लाड़-प्यार, दुनिया से बेखबर रहने की राह मत दिखलाओ।

भाई हिंदुओं, तुम भी मतमतांतरों का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जप करो। जो हिंदुस्तान में रहे चाहे किसी जाति, किसी रंग का क्यों न हो वह हिंदू है। हिंदू की सहायता करो। बंगाली, मरट्ठा, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन, ब्राह्मणों, मुसलमानों सब एक का हाथ एक पकड़ो। कारीगरी जिससे तुम्हारे यहाँ बढ़े तुम्हारा रुपया तुम्हारे ही देश में रहे वह करो। देखा जैसे हजार धारा होकर गंगा समुद्र में मिली है वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरह से इंग्लैंड, फरांसीस, जर्मनी, अमेरिका को जाती है। दीआसलाई ऐसी तुच्छ वस्तु भी वहीं से आती है। जरा अपने ही को देखो। तुम जिस मारकीन की धोती पहने हो वह अमेरिका की बनी है। जिस लकलाट का तुम्हारा अंगा है वह इंग्लैंड का है। फरांसीस की बनी कंघी से तुम सिर झारते हो और जर्मनी की बनी चरबी की बत्ती तुम्हारे सामने जल रही है। यह तो वही मसल हुई एक बेफिकरे मंगती का कपड़ा पहिन कर किसी महफिल में गए। कपड़े को पहिचान कर एक ने कहा - अजी अंगा तो फलाने का हे, दूसरा बोला अजी टोपी भी फलाने की है तो उन्होंने हँस कर जवाब दिया कि घर की तो मूछें ही मूछें हैं। हाय अफसोस तुम ऐसे हो गए कि अपने निज की काम के वस्तु भी नहीं बना सकते। भइयों अब तो नींद से जागो। अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो। जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताब पढ़ो। वैसे ही खेल खेलो। वैसा बातचीत करो। परदेसी वस्तु और परदेसी भाषा का भरोसा मत रखो अपने में अपनी भाषा में उन्नति करो।

ज्योतिबा फुले-सुधा अरोड़ा Jyotiba Fule - Sudha Arora

सुधा अरोड़ा मूलत: कथाकार हैं।
उनके यहाँ स्त्री विमर्श का. रूप आक्रामक न होकर सहज और संयत है। सामाजिक और. मानवीय सरोकारों को वे रोचक ढंग से विश्लेषित करती हैं।


 ज्योतिबा फुले-सुधा अरोड़ा Jyotiba Fule - Sudha Arora

Sudha Arora Parichay

सुधा अरोड़ा
[परिचय]

जन्म -  4 अक्तूबर 1946, लाहौर (पाकिस्तान) में

शिक्षा - कलकत्ता विश्वविधालय से हुई।
 कलकत्ता विश्वविधालय में सन् 1969 से 1971 तक अध्यापन कार्य ।
भाषा : हिंदी
विधाएँ : कहानी, उपन्यास, स्त्री विमर्श, कविता


मुख्य कृतियाँ

कहानी संग्रह :
 बगैर तराशे हुए, युद्धविराम, महानगर की मैथिली, काला शुक्रवार, कांसे का गिलास, रहोगी तुम वही, एक औरत : तीन बटा चार, 21 श्रेष्‍ठ कहानियाँ, मेरी प्रिय कथाएँ, 10 प्रतिनिधि कहानियाँ

उपन्यास : यहीं कहीं था घर

आलेख (स्त्री विमर्श) : आम औरत : जि़ंदा सवाल, एक औरत की नोटबुक

संपादन : औरत की कहानी, मन्नू भंडारी : सृजन के शिखर, मन्नू भंडारी का रचनात्‍मक अवदान, दहलीज को लांघते हुए और पंखों की उड़ान (भारतीय महिला कलाकारों के आत्मकथ्यों के दो संकलन)

कविता संग्रह : रचेंगे हम साझा इतिहास, कम से कम एक दरवाजा
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कहानी संग्रह
बगैर तराशे हुए (1967)
युद्ध विराम (1977)
महानगर की मैथिली (1987)
काला शुक्रवार (2004)
काँसे का गिलास (2005)
रहोगी तुम वही (2007)
एक औरत:तीन बटा चार (2011)
21 श्रेष्‍ठ कहानियां (2009)
मेरी प्रिय कथाएं (2012)
10 प्रतिनिधि कहानियां (2012)
अन्‍नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी (2014)
बुत जब बोलते हैं (2015) उपन्यास
यहीं कहीं था घर  (2010) आलेख:स्त्री विमर्श
आम औरत:जि़न्दा सवाल (स्त्री विमर्श) (2008)
एक औरत की नोटबुक (स्त्री विमर्श) (2015) कविता संकलन
रचेंगे हम साझा इतिहास,
कम से कम एक दरवाज़ा (2015)
एकांकी 
ऑड मैन आउट उर्फ बिरादरी बाहर (2011) संपादन
औरत की कहानी (2008)
मन्नू भंडारी:सृजन के शिखर,
भारतीय महिला कलाकारों के आत्मकथ्यों के दो संकलन --
'दहलीज़ को लांघते हुए' और 'पंखों की उड़ान '
उर्दू में कहानी संग्रह
‘रहोगी तुम वही’ मराठी में आलेखों का संग्रह
'उंबरठ्रयाच्या अल्याड पल्याड' . मराठी में कहानी संग्रह
मैथिलीची गोष्ट
कोलकाता दूरदर्शन के लिए इस्मत चुगताई , महाश्वेता देवी , भीष्‍म साहनी , मन्नू भंडारी , राजेंद्र यादव आदि कई प्रमुख रचनाकारों का साक्षात्कार
बवंडर फिल्‍म का पटकथा लेखन . स्तंभ लेखन
1977-78 में पाक्षिक 'सारिका' में 'आम आदमी : जिन्दा सवाल' ,
1997 में ‘दैनिक जनसत्‍ता' में साप्ताहिक कॉलम 'वामा' ,
सन् 2004 से 2008 तक मासिक पत्रि‍का 'कथादेश' में 'औरत की दुनिया' तथा
सन् 2013 में ‘राख में दबी चिनगारी’ स्तंभ लेखन !
इतिहास दोहराता है, युद्धविराम, दहलीज पर संवाद, जानकीनामा कई कहानियों पर लघु फिल्में निर्मित.
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सम्मान/पुरस्कार 
उ.प्र. हिन्दी संस्थान (1978)
भारत निर्माण (2008) ,
प्रियदर्शिनी अकादमी (2010)
वीमेंस अचीवर अवॉर्ड (2011)
महाराष्‍ट़ हिन्दी साहित्य अकादमी (2012)
केंद्रीय हिंदी निदेशालय पुरस्कार (2013)
वागमणि सम्मान (2014)
मुंशी  प्रेमचंद कथा सम्मान (2014)
मीरा स्मृति सम्मान (2016)


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खानाबदोश Khanabadosh ( कहानी)

खानाबदोश’ कहानी में  समाज की निम्नलिखित समस्याओं को रेखांकित किया गया है-


  • मज़दूरों का शोषण तथा नरकीय जीवन।
  • स्त्रियों का शोषण।
  • किसानों का जीविका चलाने के लिए गाँवों से पलायन।
  • जातिवाद तथा भेदभाव भरा जीवन।



ओमप्रकाश वाल्मीकि OMprakash Valmiki

वर्तमान दलित साहित्य के प्रतिनिधि रचनाकारों में से एक हैं।

जन्म : 30 जून 1950, बरला, मुजफ्फरनगर (उत्तरप्रदेश)

भाषा : हिंदी
एम. ए तक शिक्षा
विधाएँ : कहानी, कविता


मुख्य कृतियाँ
जूठन (1997, आत्मकथा),
सलाम (2000)¸ घुसपैठिए (2004) (दोनों कहानी-संग्रह),
 दलित साहित्य का सौंदर्य-शास्त्र (2001, आलोचना), सफ़ाई देवता (2009, वाल्मीकि समाज का इतिहास) ।

सदियों का संताप , बस्स, बहुत हो चुका, अब और नहीं (कविता-संग्रह) ।

सम्मान
कथाक्रम सम्मान, न्यू इंडिया बुक प्राइज, साहित्य भूषण

निधन
17 नवंबर 2013, देहरादून

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गूँगे (कहानी ) रांगेय राघव /Gunge - Rangey Raghav

शकुतंला क्या नहीं जानती?’

‘कौन? शकुंतला! कुछ भी नहीं जानती।’

‘क्यों साहब? क्या नहीं जानती? ऐसा क्या काम है जो वह नहीं कर सकती?’

‘वह उस गूँगे को नहीं बुला सकती।’

‘अच्छा बुला दिया तो?’

‘बुला दिया!’

बालिका ने एक बार कहनेवाली की ओर द्वेष से देखा और चिल्ला उठी -- दूं दे!

गूँगे ने नहीं सुना। तमाम स्त्रियां खिलखिलाकार हंस पड़ीं। बालिका ने मुंह छिपा लिया।

जन्म से वज्र बहरा होने के कारण वह गूंगा है। उसने अपने कानों पर हाथ रखकर इशारा किया। सब लोगों को उसमें दिलस्पी पैदा हो गई, जैसे तोते को राम-राम कहते सुनकर उसके प्रति हृदय में एक आनंद-मिश्रित कुतूहल उत्पन्न हो जाता है।

चमेली ने अंगुलियों से इंगित किया-फिर?

मुंह के आगे इशारा करके गूँगे ने बताया-भाग गई। कौन? फिर समझ में आया। जब छोटा ही था तब ‘मां’ जो घूंघट काढ़ती थी, छोड़ गई। क्योंकि ‘बाप’, अर्थात् बड़ी-बड़ी मूंछें, मर गया था। और फिर उसे पाला है-किसने? यह तो समझ में नहीं आया, पर वे लोग मारते बहुत हैं।

करुणा ने सबको घेर लिया। वह बोलने की कितनी जबर्दस्त कोशिश करता है! लेकिन नतीजा कुछ नहीं, वह केवल कर्कश कांय-कांय का ढेर अस्फुट ध्वनियों का वमन, जैसे आदिम मानव अभी भाषा बनाने में जी-जान से लड़ रहा हो।

चमेली ने पहली बार अनुभव किया कि यदि गले में काकल तनिक ठीक नहीं हो तो मनुष्य क्या से क्या हो जाता है। कैसी यातना है कि वह अपने हृदय को उगल देना चाहता है किंतु उगल नहीं पाता।

सुशीला ने आगे बढ़कर इशारा किया -- मुंह खोल! और गूँगे ने मुँह खोल दिया। लेकिन उसमें कुछ दिखाई नहीं दिया। पूछा, गले में कौआ है? गूंगा समझ गया। इशारे से ही बता दिया-किसी ने बचपन में गला साफ करने की कोशिश में काट दिया। और वह ऐसे बोलता है जैसे घायल पशु कराह उठता है, शिकायत करता है, जैसे कुत्ता चिल्ला रहा हो और कभी-कभी उसके स्वर में ज्वालामुखी के विस्फोट की-सी भयानकता थपेड़े मार उठती है। वह जानता है कि वह सुन नहीं सकता। और बताकर मुस्कराता है। वह जानता है कि उसकी बोली को कोई नहीं समझता फिर भी बोलता है।

सुशीला ने कहा, ‘इशारे गजब के करता है। अक्ल बहुत तेज है।’ पूछा-खाता क्या है, कहां से मिलता है?

वह कहानी ऐसी है जिसे सुनकर सब स्तब्ध बैठे हैं। हलवाई के यहां रात-भर लड्डू बनाए हैं; कड़ाही मांजी है, नौकरी की है, कपड़े धोए हैं, सबके इशारे हैं, लेकिन-

गूँगे का स्वर चीत्कार में परिणत हो गया है। सीने पर हाथ मारकर इशारा किया-हाथ फैलाकर कभी नहीं मांगा, भीख नहीं लेता; भुजाओं पर हाथ रखकर इशारा किया -- मेहनत का खाता हूं, और पेट बजाकर दिखाया, इसके लिए, इसके लिए...

अनाथाश्रम के बच्चों को देखकर चमेली रोती थी। आज भी उसकी आंखों में पानी आ गया। वह सदा से ही कोमल है। सुशीला से बोली-इसे नौकर भी तो नहीं रखा जा सकता।

पर गूंगा उस समय समझ रहा था। वह दूध ले आता है। कच्चा मंगाना हो थन काढ़ने का इशारा कीजिए, औटा हुआ मंगाना हो, हलवाई जैसे एक बर्तन से दूध दूसरे बर्तन में उठाकर डालता है, वैसी बात कहिए। साग मंगाना हो गोल-गोल कीजिए या लंबी उंगली दिखाकर समझाइए...और भी...और भी... और चमेली ने इशारा किया-हमारे यहां रहेगा?

गूँगे ने स्वीकार तो किया किंतु हाथ से इशारा किया -- क्या देगी? खाना?

‘हां’, चमेली ने सिर हिलाया।

‘कुछ पैसे?’

चार उंगलियां दिखा दीं। गूँगे ने सीने पर हाथ मारकर जैसे कहा -- तैयार हैं। चार रुपए।

सुशीला ने कहा -- पछताओगी। भला यह क्या काम करेगा?

‘मुझे तो दया आती है बेचारे पर’, चमेली ने उत्तर दिया -- न हो बच्चों की तबीयत बहलेगी।

घर पर बुआ मारती थी, फूफा मारता था, क्योंकि उन्होंने उसे पाला था। वे चाहते थे कि बाजार में पल्लेदारी करे, बारह-चैदह आने कमा कर लाए और उन्हें दे दे, बदले में वे उसके सामने बाजरे और चने की रोटियां डाल दें। अब गूंगा घर भी नहीं जाता। यहीं काम करता है। बच्चे चिढ़ाते हैं। कभी नाराज नहीं होता। चमेली के पति सीधे-सादे आदमी हैं। पल जाएगा बेचारा, किंतु वे जानते हैं कि मनुष्य की करुणा की भावना उसके भीतर गूँगेपन की प्रतिच्छाया है, जब वह बहुत कुछ करना चाहता है, किंतु कर नहीं पाता। इसी तरह दिन बीत रहे हैं।

चमेली ने पुकारा -गूँगे ?

किंतु कोई उत्तर नहीं आया, उठकर ढूंढा -- कुछ पता नहीं लगा।

बसंता ने कहा -- मुझे तो कुछ नहीं मालूम।

‘भाग गया होगा’, पति को उदासीन स्वर सुनाई दिया। सचमुच वह भाग गया था। कुछ भी समझ में नहीं आया। चुपचाप जाकर खाना पकाने लगी। क्यों भाग गया! नाली का कीड़ा? वह छत उठाकर सिर पर रख दी, फिर भी मन नहीं भरा। दुनिया हंसती है, हमारे घर को अब अजायबघर का नाम मिल गया है...किसलिए...

जब बच्चे, और वह भी खाकर उठ गए तो चमेली बची रोटियां कटोरदान में रखकर उठने लगी। एकाएक द्वार पर कोई छाया हिल उठी। वह गूंगा था। हाथ से इशारा किया-भूखा हूं।

‘काम तो करता नहीं, भिखारी।’ फेंक दी उसकी ओर रोटियां। रोष से पीठ मोड़कर खड़ी हो गई। किंतु गूंगा खड़ा रहा। रोटियां छुईं तक नहीं। देर तक दोनों चुप रहे। फिर न जाने क्यों गूँगे ने रोटियां उठा लीं और खाने लगा। चमेली ने गिलासों में दूध भर दिया। देखा, गूँगा खा चुका है। उठी और हाथ में चिमटा लेकर उसके पास खड़ी हो गई।

‘कहां गया था?’ चमेली ने कठोर स्वर से पूछा।

कोई उत्तर नहीं मिला। अपराधी की भांति सिर झुक गया। सड़ से एक चिमटा उसकी पीठ पर जड़ दिया। किंतु गूंगा रोया नहीं। वह अपने अपराध को जानता था। चमेली की आंखों में से दो बूंदें जमीन पर टपक गईं। तब गूँगा भी रो दिया।

और फिर यह भी होने लगा कि गूंगा जब चाहे भाग जाता, फिर लौट आता। उसे जगह-जगह नौकरी करके भाग जाने की आदत पड़ गई थी। और चमेली सोचती कि उसने उस दिन भीख ली थी या ममता की ठोकर को निस्संकोच स्वीकार कर लिया था?

बसंता ने कसकर गूँगे को चपत जड़ दी। गूँगे का हाथ और न जाने क्यों अपने आप रुक गया। उसकी आंखों में पानी भर आया और वह रोने लगा। उसका रुदन इतना कर्कश था कि चमेली को चूल्हा छोड़कर उठ आना पड़ा। गूँगा उसे देखकर इशारों से कुछ समझाने लगा। देर तक चमेली उससे पूछती रही। उसकी समझ में इतना ही आया कि खेलते-खेलते बसंता ने उसे मार दिया था।

बसंता ने कहा -- अम्मां! यह मुझे मारना चाहता था।

‘क्यों रे?’ चमेली ने गूँगे की ओर देखकर कहा। वह इस समय भी नहीं भूली की गूँगा कुछ सुन नहीं सकता। लेकिन गूँगा भाव-भंगिमा से समझ गया। उसने चमेली का हाथ पकड़ लिया। एक क्षण को चमेली को लगा जैसे उसी के पुत्र ने आज उसका हाथ पकड़ लिया था। एकाएक घृणा से उसने हाथ छुड़ा लिया। पुत्र के प्रति मंगलकामना ने उसे ऐसा करने को मजबूर कर दिया।

कहीं उसका भी बेटा गूँगा होता, वह भी ऐसे ही दुख उठाता। वह कुछ भी नहीं सोच सकी। एक बार फिर गूँगे के प्रति हृदय में ममता भर आई। वह लौटकर चूल्हें पर जा बैठी, जिसमें अंदर आग थी, लेकिन उसी आग से वह सब पक रहा था जिससे सबसे भयानक आग बुझती है-पेट की आग, जिसके कारण आदमी गुलाम हो जाता है। उसे अनुभव हुआ कि गूंगे में बसंता से कहीं अधिक शारीरिक बल था। कभी भी गूँगे की भांति शक्ति से बसंता ने उसका हाथ नहीं पकड़ा था। लेकिन फिर भी गूँगे ने अपना उठा हाथ बसंता पर नहीं चलाया।

रोटी जल रही थी। झट से पलट दी। वह पक रही थी; इसीसे बसंता बसंता है...गूँगा गूँगा है...

चमेली को विस्मय हुआ। गूँगा शायद यह समझता है कि बसंता मालिक का बेटा है, उस पर हाथ नहीं चला सकता। मन ही मन थोड़ा विक्षोभ भी हुआ, किंतु पुत्र की ममता ने इस विषय पर चादर डाल दी। और फिर याद आया, उसने उसका हाथ पकड़ा था। शायद इसीलिए कि उसे बसंता को दंड देना ही चाहिए, यह उसको अधिकार है...।

किंतु वह तब समझ नहीं सकी, और उसने सुना गूँगा कभी-कभी कराह उठता था। चमेली उठकर बाहर गई। कुछ सोचकर रसोई में लौट आई और रात की बासी रोटी लेकर निकली।

‘गूँगे!’ उसने पुकारा।

कान के न जाने किस पर्दे में कोई चेतना है कि गूँगा उसकी आवाज को कभी अनुसना नहीं कर सकता; वह आया। उसकी आँखों में पानी भरा था। जैसे उनमें एक शिकायत थी, पक्षपात के प्रति तिरस्कार था। चमेली को लगा कि लड़का बहुत तेज है। बरबस ही उसके होठों पर मुस्कान छा गई। कहा, ‘ले खा ले।’-और हाथ बढ़ा दिया।

गूँगा इस स्वर की, इस सबकी उपेक्षा नहीं कर सकता। वह हँस पड़ा। अगर उसका रोना एक अजीब दर्दनाक आवाज थी तो यह हँसना और कुछ नहीं-एक अचानक गुर्राहट-सी चमेली के कानों में बज उठी। उस अमानवीय स्वर को सुनकर वह भीतर ही भीतर काँप उठी। यह उसने क्या किया था? उसने एक पशु पाला था, जिसके हृदय में मनुष्यों की-सी वेदना थी। घृणा से विक्षुब्ध होकर चमेली ने कहा, ‘क्यों रे तूने चोरी की है?’

गूँगा चुप हो गया। उसने अपना सिर झुका लिया। चमेली एक बार क्रोध से काँप उठी, देर तक उसकी ओर घूरती रही। सोचा, ‘मारने से यह ठीक नहीं हो सकता। अपराध को स्वीकार कराके दंड दे देना ही शायद कुछ असर करे। और फिर कौन मेरा अपना है। रहना हो तो ठीक से रहे, नहीं तो फिर जाकर सड़क पर कुत्तों की तरह जूठन पर जिंदगी बिताए, दर-दर अपमानित और लांछित...।’

आगे बढ़कर गूँगे का हाथ पकड़ लिया और द्वार की ओर इशारा करके दिखाया, ‘निकल जा!’

गूँगा जैसे समझा नहीं। बड़ी-बड़ी आंखों को फाड़े देखता रहा। कुछ कहने को शायद एक बार होठ भी खुले, किंतु कोई स्वर नहीं निकला। चमेली वैसे ही कठोर रही। अबके मुंह से भी साथ-साथ, ‘जाओ निकल जाओ। ढंग से काम नहीं करना है, तो तुम्हारा यहां कोई काम नहीं। नौकर की तरह रहना है, रहो, नहीं बाहर जाओ। यहां तुम्हारे नखरे कोई नहीं उठा सकता। किसी को भी इतनी फुर्सत नहीं है। समझे?’

और फिर चमेली आवेश में आकर चिल्ला उठी, ‘मक्कार, बदमाश! पहले कहता था, भीख नहीं मांगता, और सबसे भीख मांगता है। रोज-रोज भाग जाता है, पत्ते चाटने की आदत पड़ गई है। कुत्ते की दुम क्या कभी सीधी होगी? नहीं। नहीं रखना है हमें, जा, तू इसी वक्त निकल जा...।’

किंतु वह क्षोभ, वह क्रोध, सब उसके सामने निष्फल हो गए, जैसे मंदिर की मूर्ति कोई उत्तर नहीं देती, वैसे ही उसने भी कुछ नहीं कहा। केवल इतना समझ सका कि मालकिन नाराज है और निकल जाने को कह रही है। इसी पर उसे अचरज और अविश्वास हो रहा है।

चमेली अपने-आप लज्जित हो गई। कैसी मूर्खा है वह! बहरे से जाने क्या-क्या कह रही थी? वह क्या कुछ सुनता है?

हाथ पकड़कर जोर से एक झटका दिया और उसे दरवाजे के बाहर धकेलकर निकाल दिया। गूंगा धीरे-धीरे चला गया। चमेली देखती रही।

करीब घंटे भर बाद शकुन्तला और बसंता दोनों चिल्ला उठे, ‘अम्मा! अम्मा!!’

‘क्या है?’ चमेली ने ऊपर ही से पूछा।

‘गूंगा...’ बसंता ने कहा। किंतु कहने के पहले ही नीचे उतरकर देखा, ‘गूंगा खून से भीग रहा था। उसका सिर फट गया था। वह सड़क के लड़कों से पिटकर आया था, क्योंकि गूंगा होने के नाते वह उनसे दबना नहीं चाहता था...दरवाजे की दहलीज पर सिर रखकर वह कुत्ते की तरह चिल्ला रहा था...।

और चमेली चुपचाप देखती रही, देखती रही कि इस मूक अवसाद में युगों का हाहाकार भरकर गूंज रहा है।

और गूँगे...अनेक-अनेक हो, संसार में भिन्न-भिन्न रूपों में छा गए हैं, जो कहना चाहते हैं, पर कह नहीं पाते। जिनके हृदय की प्रतिहिंसा न्याय और अन्याय को परख कर भी अत्याचार को चुनौती नहीं दे सकती, क्योंकि बोलने के लिए स्वर होकर भी-स्वर में अर्थ नहीं है, क्योंकि वे असमर्थ हैं।

और चमेली सोचती है, आज दिन ऐसा कौन है जो गूँगा नहीं है। किसका हृदय समाज, राष्ट्र, धर्म और व्यक्ति के प्रति विद्वेष से, घृणा से नहीं छटपटाता, किंतु फिर भी कृत्रिम सुख की छलना अपने जालों में उसे नहीं फांस देती-क्योंकि वह स्नेह चाहता है, समानता चाहता है!
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टार्च बेचने वाले [श्री हरिशंकर परसाई] Torch bechne wale

टार्च बेचने वाले - हरिशंकर परसाई


वह पहले चौराहों पर बिजली के टार्च बेचा करता था । बीच में कुछ दिन वह नहीं दिखा । कल फिर दिखा । मगर इस बार उसने दाढी बढा ली थी और लंबा कुरता पहन रखा था ।
मैंने पूछा, '' कहाँ रहे? और यह दाढी क्यों बढा रखी है? ''
उसने जवाब दिया, '' बाहर गया था । ''

दाढीवाले सवाल का उसने जवाब यह दिया कि दाढी पर हाथ फेरने लगा । मैंने कहा, '' आज तुम टार्च नहीं बेच रहे हो? ''
उसने कहा, '' वह काम बंद कर दिया । अब तो आत्मा के भीतर टार्च जल उठा है । ये ' सूरजछाप ' टार्च अब व्यर्थ मालूम होते हैं । ''

मैंने कहा, '' तुम शायद संन्यास ले रहे हो । जिसकी आत्मा में प्रकाश फैल जाता है, वह इसी तरह हरामखोरी पर उतर आता है । किससे दीक्षा ले आए? ''

मेरी बात से उसे पीडा हुई । उसने कहा, '' ऐसे कठोर वचन मत बोलिए । आत्मा सबकी एक है । मेरी आत्मा को चोट पहुँचाकर आप अपनी ही आत्मा को घायल कर रहे हैं । ''

मैंने कहा, '' यह सब तो ठीक है । मगर यह बताओ कि तुम एकाएक ऐसे कैसे हो गए? क्या बीवी ने तुम्हें त्याग दिया? क्या उधार मिलना बंद हो गया? क्या
हूकारों ने ज्यादा तंग करना शुरू कर दिया? क्या चोरी के मामले में फँस गए हो? आखिर बाहर का टार्च भीतर आत्मा में कैसे घुस गया? ''

उसने कहा, '' आपके सब अंदाज गलत हैं । ऐसा कुछ नहीं हुआ । एक घटना हो गई है, जिसने जीवन बदल दिया । उसे मैं गुप्त रखना चाहता हूँ । पर क्योंकि मैं आज ही यहाँ से दूर जा रहा हूँ, इसलिए आपको सारा किस्सा सुना देता हूँ । '' उसने बयान शुरू किया पाँच साल पहले की बात है । मैं अपने एक दोस्त के साथ हताश एक जगह बैठा था । हमारे सामने आसमान को छूता हुआ एक सवाल खड़ा था । वह सवाल था - ' पैसा कैसे पैदा करें?' हम दोनों ने उस सवाल की एक-एक टाँग पकड़ी और उसे हटाने की कोशिश करने लगे । हमें पसीना आ गया, पर सवाल हिला भी नहीं । दोस्त ने कहा - '' यार, इस सवाल के पाँव जमीन में गहरे गड़े हैं । यह उखडेगा नहीं । इसे टाल जाएँ । ''
हमने दूसरी तरफ मुँह कर लिया । पर वह सवाल फिर हमारे सामने आकर खडा हो गया । तब मैंने कहा - '' यार, यह सवाल टलेगा नहीं । चलो, इसे हल ही कर दें । पैसा पैदा करने के लिए कुछ काम- धंधा करें । हम इसी वक्त अलग- अलग दिशाओं में अपनी- अपनी किस्मत आजमाने निकल पड़े । पाँच साल बाद ठीक इसी तारीख को इसी वक्त हम यहाँ मिलें । ''
दोस्त ने कहा - '' यार, साथ ही क्यों न चलें? ''
मैंने कहा - '' नहीं । किस्मत आजमानेवालों की जितनी पुरानी कथाएँ मैंने पढ़ी हैं, सबमें वे अलग अलग दिशा में जाते हैं । साथ जाने में किस्मतों के टकराकर टूटने का डर रहता है । ''

तो साहब, हम अलग-अलग चल पडे । मैंने टार्च बेचने का धंधा शुरू कर दिया । चौराहे पर या मैदान में लोगों को इकु कर लेता और बहुत नाटकीय ढंग से कहता - '' आजकल सब जगह अँधेरा छाया रहता है । रातें बेहद काली होती हैं। अपना ही हाथ नहीं सूझता । आदमी को रास्ता नहीं दिखता । वह भटक जाता है । उसके पाँव काँटों से बिंध जाते हैं, वह गिरता है और उसके घुटने लहूलुहान हो जाते हैं। उसके आसपास भयानक अँधेराहै । शेर और चीते चारों तरफ धूम रहे हैं, साँप जमीन पर रेंग रहे हैं । अँधेरा सबको निगल रहा है । अँधेरा घर में भी है । आदमी रात को पेशाब करने उठता है और साँप पर उसका पाँव पड़ जाता है । साँप उसे डँस लेता है और वह मर जाता है । '' आपने तो देखा ही है साहब, कि लोग मेरी बातें सुनकर कैसे डर जाते थे । भरदोपहर में वे अँधेरे के डर से काँपने लगते थे । आदमी को डराना कितना आसान है!
लोग डर जाते, तब मैं कहता - '' भाइयों, यह सही है कि अँधेरा है, मगर प्रकाश भी है । वही प्रकाश मैं आपको देने आया हूँ । हमारी ' सूरज छाप ' टार्च में वह प्रकाश है, जो अंधकार को दूर भगा देता है । इसी वक्त ' सूरज छाप ' टार्च खरीदो और अँधेरे को दूर करो । जिन भाइयों को चाहिए, हाथ ऊँचा करें । ''

साहब, मेरे टार्च बिक जाते और मैं मजे में जिंदगी गुजरने लगा ।
वायदे के मुताबिक ठीक पाँच साल बाद मैं उस जगह पहुँचा, जहाँ मुझे दोस्त से मिलना था । वहाँ दिन भर मैंने उसकी राह देखी, वह नहीं आया । क्या हुआ? क्या वह भूल गया? या अब वह इस असार संसार में ही नहीं है?मैं उसे ढूंढ़ने निकल पडा ।
एक शाम जब मैं एक शहर की सडक पर चला जा रहा था, मैंने देखा कि पास के मैदान में खुब रोशनी है और एक तरफ मंच सजा है । लाउडस्पीकर लगे हैं । मैदान में हजारों नर-नारी श्रद्धा से झुके बैठे हैं । मंच पर सुंदर रेशमी वस्त्रों से सजे एक भव्य पुरुष बैठे हैं । वे खुब पुष्ट हैं, सँवारी हुई लंबी दाढी है और पीठ पर लहराते लंबे केश हैं ।
मैं भीड के एक कोने में जाकर बैठ गया ।
भव्य पुरुष फिल्मों के संत लग रहे थे । उन्होंने गुरुगभीर वाणी में प्रवचन शुरू किया । वे इस तरह बोल रहे थे जैसे आकाश के किसी कोने से कोई रहस्यमय संदेश उनके कान में सुनाई पड़ रहा है जिसे वे भाषण दे रहे हैं ।
वे कह रहे थे - '' मैं आज मनुष्य को एक घने अंधकार में देख रहा हूँ । उसके भीतर कुछ बुझ गया है । यह युग ही अंधकारमय है । यह सर्वग्राही अंधकार संपूर्ण विश्व को अपने उदर में छिपाए है । आज मनुष्य इस अंधकार से घबरा उठा है । वहपथभ्रष्ट हो गया है । आज आत्मा में भी अंधकार है । अंतर की आँखें ज्योतिहीन हो गई हैं । वे उसे भेद नहीं पातीं । मानव- आत्मा अंधकार में घुटती है । मैं देख रहा हूँ, मनुष्य की आत्मा भय और पीड़ा से त्रस्त है । ''
इसी तरह वे बोलते गए और लोग स्तव्य सुनते गए ।
मुझे हँसी छूट रही थी । एकदो बार दबातेदबाते भी हँसी फूट गई और पास के श्रोताओं ने मुझे डाँटा ।
भव्य पुरुष प्रवचन के अंत पर पहुँचते हुए कहने लगे - '' भाइयों और बहनों, डरो मत । जहाँ अंधकार है, वहीं प्रकाश है । अंधकार में प्रकाश की किरण है, जैसे प्रकाश में अंधकार की किंचित कालिमा है । प्रकाश भी है । प्रकाश बाहर नहीं है, उसे अंतर में खोजो । अंतर में बुझी उस ज्योति को जगाओ । मैं तुम सबका उस ज्योति को जगाने के लिए आहान करता हूँ । मैं तुम्हारे भीतर वही शाश्वत ज्योति को जगाना चाहता हूँ । हमारे ' साधना मंदिर ' में आकर उस ज्योति को अपने भीतर जगाओ । '' साहब, अब तो मैं खिलखिलाकर हँस पडा । पास के लोगों ने मुझे धक्का देकर भगा दिया । मैं मंच के पास जाकर खडा हो गया ।
भव्य पुरुष मंच से उतरकर कार पर चढ रहे थे । मैंने उन्हें ध्यान से पास से देखा । उनकी दाढी बढी हुई थी, इसलिए मैं थोडा झिझका । पर मेरी तो दाढी नहीं थी । मैं तो उसी मौलिक रूप में था । उन्होंने मुझे पहचान लिया । बोले - '' अरे तुम! '' मैं पहचानकर बोलने ही वाला था कि उन्होंने मुझे हाथ पकड़कर कार में बिठा लिया । मैं फिर कुछ बोलने लगा तो उन्होंने कहा - '' बँगले तक कोई बातचीत नहीं होगी । वहीं ज्ञानचर्चा होगी । ''
मुझे याद आ गया कि वहाँ ड्राइवर है ।
बँगले पर पहुँचकर मैंने उसका ठाठ देखा । उस वैभव को देखकर मैं थोडा झिझका, पर तुरंत ही मैंने अपने उस दोस्त से खुलकर बातें शुरू कर दीं ।
मैंने कहा - '' यार, तू तो बिलकुल बदल गया । ''
उसने गंभीरता से कहा - '' परिवर्तन जीवन का अनंत क्रम है । ''
मैंने कहा - '' साले, फिलासफी मत बघार यह बता कि तूने इतनी दौलत कैसे कमा ली पाँच सालों में? ''
उसने पूछा - '' तुम इन सालों में क्या करते रहे? ''
मैंने कहा '' मैं तो धूममूमकर टार्च बेचता रहा । सच बता, क्या तू भी टार्च का व्यापारी है? ''
उसने कहा - '' तुझे क्या ऐसा ही लगता है? क्यों लगता है? ''
मैंने उसे बताया कि जो बातें मैं कहता हूँ; वही तू कह रहा था मैं सीधे ढंग से कहता हूँ, तू उन्हीं बातों को रहस्यमय ढंग से कहता है । अँधेरे का डर दिखाकर लोगों को टार्च बेचता हूँ । तू भी अभी लोगों को अँधेरे का डर दिखा रहा था, तू भी जरूर टार्च बेचता है ।
उसने कहा - '' तुम मुझे नहीं जानते, मैं टार्च क्यों बेचूगा! मैं साधु, दार्शनिक और संत कहलाता हूँ । ''
मैंने कहा '' तुम कुछ भी कहलाओ, बेचते तुम टार्च हो । तुम्हारे और मेरे प्रवचन एक जैसे हैं । चाहे कोई दार्शनिक बने, संत बने या साधु बने, अगर वह लोगों को अँधेरे का डर दिखाता है, तो जरूर अपनी कंपनी का टार्च बेचना चाहता है । तुम जैसे लोगों के लिए हमेशा ही अंधकार छाया रहता है । बताओ, तुम्हारे जैसे किसी आदमी ने हजारों में कभी भी यह कहा है कि आज दुनिया में प्रकाश फैला है? कभी नहीं कहा । क्यों? इसलिए कि उन्हें अपनी कंपनी का टार्च बेचना है । मैं खुद भरदोपहर में लोगों से कहता हूँ कि अंधकार छाया है । बता किस कंपनी का टार्च बेचता है? ''

मेरी बातों ने उसे ठिकाने पर ला दिया था । उसने सहज ढंग से कहा - '' तेरी बात ठीक ही है । मेरी कंपनी नयी नहीं है, सनातन है । ''
मैंने पूछा - '' कहाँ है तेरी दुकान? नमूने के लिए एकाध टार्च तो दिखा । ' सूरज छाप ' टार्च से बहुत ज्यादा बिक्री है उसकी ।

उसने कहा - '' उस टार्च की कोई दुकान बाजार में नहीं है । वह बहुत सूक्ष्म है । मगर कीमत उसकी बहुत मिल जाती है । तू एक-दो दिन रह, तो मैं तुझे सब समझा देता हूँ । ''
'' तो साहब मैं दो दिन उसके पास रहा । तीसरे दिन ' सूरज छाप ' टार्च की पेटी को नदी में फेंककर नया काम शुरू कर दिया । ''
वह अपनी दाढी पर हाथ फेरने लगा । बोला - '' बस, एक महीने की देर और है। '' मैंने पूछा -' तो अब कौन-सा धंधा करोगे? ''
उसने कहा - '' धंधा वही करूँगा, यानी टार्च बेचूँगा । बस कंपनी बदल रहा हूँ । ''
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Class 11 Hindi Antra NCERT अंतरा पुस्तक पाठ( 2021-22)हिन्दी ऐच्छिक

 

प्लेलिस्ट
 
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Abhivyakti Madhyam के पाठ भी प्लेलिस्ट में हैं .
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NCERT Antral Hindi Class 11

1अंडे के छिलके  Ande Ke Chilke
  2 Hussain ki kahani apni zubani(Read online/Lesson only )
  3 आवारा मसीहा Awara masiha Audio (Here Read online Lesson)
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