कबीर के पद की व्याख्या| Antra |Class 11 Hindi
बालम, आवो हमारे गेह रे। संत कबीर दास
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अरे इन दोहुन राह न पाई।
हिन्दू अपनी करे बड़ाई गागर छूवन न देई।
बेस्या के पायन-तर सोवै यह देखो हिंदुआई।
मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी-मुर्गा खाई।
खाला केरी बेटी ब्याहै घरहिं में करै सगाई।
बाहर से एक मुर्दा लाए धोय-धाय चढ़वाई।
सब सखियाँ मिलि जेंवन बैठीं घर-भर करै बड़ाई।
हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।
कहैं कबीर सुनों भाई साधो कौन राह हैं जाई।।
इस पद में कबीर ने व्यंग्य शैली को अपनाया है। विभिन्न उदाहरणों द्वारा उन्होंने हिन्दुओं तथा मुस्लमानों के धार्मिक आंडबरों पर करारा व्यंग्य किया है। दोनों के बीच की लड़ाई को भी दर्शाया है|उनकेसमयमें हिन्दू और मुस्लिम समाज में अत्यधिक भेद भाव था। जहाँ ब्राह्मण स्वयं को पवित्र एवं श्रेष्ठ मानने में गर्व महसूस करते थे वहीं मुसलमान भी स्वयं को अपने धर्म के प्रति अत्यंत कट्टर और शक्तिशाली समझते थे।एक ओर जहाँ हिंदू मुसलमानों को म्लेच्छ समझते थे तो मुसलमान उन्हें काफिर मानते थे।
'अरे इन दोहुन राह न पाई’ पंक्ति में हिन्दुओं और मुस्लिमों पर कटाक्ष करते हुए कहा है कि इन दोनों धर्मो को मानने वाले भटके हुए हैं, वे आंडबरों में उलझे हुए हैं।
कबीर कहते हैं कि हिन्दू किसी को अपने पानी के बर्तनों को हाथ नहीं लगाने देते। यही लोगरात को वैश्या के चरणों के दास बने रहते हैं। अतः इनका शुद्धता का दंभ भरना बेकार है। मुस्लिम के बारे में कहते हैं कि वे जीव हत्या करते हैं। उसका मांस मिल-जुलकर खाते हैं। यह कहाँ की भक्ति है। ये अपनी मौसी की बेटी से शादी कर लेते हैं और घर में सगाई कर लेते हैं ।बाहर से मरा हुआ जीव लाकर उसे धोकर पकाने के लिए चढ़ाया जाता हैै। इसके बाद घर के सभी सदस्य, संबंधी आदि उसको जीमने अर्थात् खाने के लिए बैठते है और पूरे घर में [इस घृणित]काम की प्रशंसा की जाती है।इस तरह वे इन दोनों की विशेषताओं का वर्णन करके उन पर व्यंग्य करते हैं।
आशय यह है कि दोनों ही धर्मों में विभिन्न प्रकार के आडंबर विद्यमान है। दोनों स्वयं को श्रेष्ठ बताते हैं और आपस में लड़ते हैं। देखा जाए, तो दोनों ही व्यर्थ में समय गँवा रहे हैं।कबीर कहते हैं कि सभी धर्म अपने को श्रेष्ठ बताते हैं ,ऐसे में मनुष्य भटक जाता है और इसी दुविधा में फंसा रहता है कि कौन सी राह सही है और वह किस राह को अपनाए।
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