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- एक दुनिया समानांतर
Thursday, May 31, 2018
Wednesday, May 30, 2018
Tuesday, May 29, 2018
Apna Apna Bhagya।अपना -अपना भाग्य ।Audio।Jainendra Kumar।
अपना अपना भाग्य : जैनेन्द्र कुमार /साहित्य सागर
--------- Apna Apna Bhagya Story by Jainendra Kumar
Audio File
Video prepared and presented by Alpana Verma
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कहानी का उद्देश्य 1.सामाजिक विषमता का यथार्थ चित्रण करना है । 2.अमीर द्वारा गरीब और लाचार का शोषण दिखाना.
३.अभाव के कारण उपेक्षित जीवन जीने पर मजबूर वर्ग पर पाठकों का ध्यान दिलाना है।
४.समाज के लोगों की दोहरी मानसिकता को उजागर करना है ।
-------- मुख्य पात्र : दस वर्ष का बालक लेखक और उनका मित्र
----------
दोनों मित्र नैनीताल में थे और उस समय वे होटल से निकलकर घूमने के लिए आए थे। शाम का समय था और दोनों निरुद्देश्य घूमने के बाद सड़क के किनारे एक बेंच पर आकर आराम से बैठ गए थे।सर्दी का मौसम था । लेखक कड़ाके की ठंड से बचने के लिए होटल वापस लौट जाना चाहते थे पर उनका मित्र वहाँ से जाने की अपनी इच्छा जाहिर ही नहीं कर रहा था।
लेखक ने देखा कि कुहरे की सफेदी में कुछ ही हाथ की दूरी से एक काली छाया-मूर्ति उनकी तरफ बढ़ रही है, लेखक और उनके मित्र को पहली ही नज़र में ही लग गया कि लड़का बहुत गरीब है क्योंकि लड़का नंगे पैर, नंगे सिर और इतनी सर्दी में सिर्फ एक मैली-सी कमीज़ शरीर पर पहने हुए था। रंग गोरा था फिर भी मैल से काला पड़ गया था। उसके माथे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं।
आगे जानने के लिए कहानी सुनिए जिसमें बेरहम दुनिया ने एक बेसहारा बालक को मौत का उपहार दिया ।
लेखक और उसके मित्र ने भी कोई मदद नहीं की और एक गरीब, बेसहारा और भूखे बालक को ठंड भरी रात में काले चिथड़ों की कमीज़ में मरने के लिए छोड़ दिया।
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पूरी कहानी यहाँ पढ़ सकते हैं-
बहुत कुछ निरुद्देश्य घूम चुकने पर हम सड़क के किनारे की एक बेंच पर बैठ गए। नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी। रूई के रेशे-से भाप-से बादल हमारे सिरों को छू-छूकर बेरोक-टोक घूम रहे थे। हल्के प्रकाश और अंधियारी से रंगकर कभी वे नीले दीखते, कभी सफेद और फिर देर में अरुण पड़ जाते। वे जैसे हमारे साथ खेलना चाह रहे थे।
पीछे हमारे पोलो वाला मैदान फैला था। सामने अंग्रेजों का एक प्रमोदगृह था, जहां सुहावना, रसीला बाजा बज रहा था और पार्श्व में था वही सुरम्य अनुपम नैनीताल।
ताल में किश्तियां अपने सफेद पाल उड़ाती हुई एक-दो अंग्रेज यात्रियों को लेकर, इधर से उधर और उधर से इधर खेल रही थीं। कहीं कुछ अंग्रेज एक-एक देवी सामने प्रतिस्थापित कर, अपनी सुई-सी शक्ल की डोंगियों को, मानो शर्त बांधकर सरपट दौड़ा रहे थे। कहीं किनारे पर कुछ साहब अपनी बंसी डाले, सधैर्य, एकाग्र, एकस्थ, एकनिष्ठ मछली-चिन्तन कर रहे थे। पीछे पोलो-लान में बच्चे किलकारियां मारते हुए हॉकी खेल रहे थे।
शोर, मार-पीट गाली-गलौच भी जैसे खेल का ही अंश था। इस तमाम खेल को उतने क्षणों का उद्देश्य बना, वे बालक अपना सारा मन, सारी देह, समग्र बल और समूची विधा लगाकर मानो खत्म कर देना चाहते थे। उन्हें आगे की चिन्ता न थी, बीते का ख्याल न था। वे शुद्ध तत्काल के प्राणी थे। वे शब्द की सम्पूर्ण सच्चाई के साथ जीवित थे।
सड़क पर से नर-नारियों का अविरल प्रवाह आ रहा था और जा रहा था। उसका न ओर था न छोर। यह प्रवाह कहां जा रहा था, और कहां से आ रहा था, कौन बता सकता है? सब उम्र के, सब तरह के लोग उसमें थे। मानो मनुष्यता के नमूनों का बाजार सजकर सामने से इठलाता निकला चला जा रहा हो।
अधिकार-गर्व में तने अंग्रेज उसमें थे और चिथड़ों से सजे घोड़ों की बाग थामे वे पहाड़ी उसमें थे, जिन्होंने अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को कुचलकर शून्य बना लिया है और जो बड़ी तत्परता से दुम हिलाना सीख गए हैं।
भागते, खेलते, हंसते, शरारत करते लाल-लाल अंग्रेज बच्चे थे और पीली-पीली आंखें फाड़े, पिता की उंगली पकड़कर चलते हुए अपने हिन्दुस्तानी नौनिहाल भी थे। अंग्रेज पिता थे, जो अपने बच्चों के साथ भाग रहे थे, हंस रहे थे और खेल रहे थे। उधर भारतीय पितृदेव भी थे, जो बुजुर्गी को अपने चारों तरफ लपेटे धन-संपन्नता के लक्षणों का प्रर्दशन करते हुए चल रहे थे।
अंग्रेज रमणियां थीं, जो धीरे-धीरे नहीं चलती थीं, तेज चलती थीं। उन्हें न चलने में थकावट आती थी, न हंसने में मौत आती थी। कसरत के नाम पर घोड़े पर भी बैठ सकती थीं और घोड़े के साथ ही साथ, जरा जी होते ही किसी-किसी हिन्दुस्तानी पर कोड़े भी फटकार सकती थीं। वे दो-दो, तीन-तीन, चार-चार की टोलियों में, नि:शंक, निरापद इस प्रवाह में मानो अपने स्थान को जानती हुई, सड़क पर चली जा रही थीं।
उधर हमारी भारत की कुललक्ष्मी, सड़क के बिल्कुल किनारे दामन बचाती और संभालती हुई, साड़ी की कई तहों में सिमट-सिमटकर, लोक-लाज, स्त्रीत्व और भारतीय गरिमा के आदर्श को अपने परिवेष्टनों में छिपाकर सहमी-सहमी धरती में आंख गाड़े, कदम-कदम बढ़ रही थीं।
इसके साथ ही भारतीयता का एक और नमूना था। अपने कालेपन को खुरच-खुरचकर बहा देने की इच्छा करनेवाला अंग्रेजीदां पुरुषोत्तम भी थे, जो नेटिवों को देखकर मुंह फेर लेते थे और अंग्रेज को देखकर आंखे बिछा देते थे और दुम हिलाने लगते थे। वैसे वे अकड़कर चलते थे-मानो भारतभूमि को इसी अकड़ के साथ कुचल-कुचलकर चलने का उन्हें अधिकार मिला है।
घण्टे के घण्टे सरक गए। अंधकार गाढ़ा हो गया। बादल सफेद होकर जम गए। मनुष्यों का वह तांता एक-एक कर क्षीण हो गया। अब इक्का-दुक्का आदमी सड़क पर छतरी लगाकर निकल रहा था। हम वहीं के वहीं बैठे थे। सर्दी-सी मालूम हुई। हमारे ओवरकोट भीग गए थे। पीछे फिरकर देखा। यह लाल बर्फ की चादर की तरह बिल्कुल स्तब्ध और सुन्न पड़ा था।
सब सन्नाटा था। तल्लीलाल की बिजली की रोशनियां दीप-मालिका-सी जगमगा रही थीं। वह जगमगाहट दो मील तक फैले हुए प्रकृति के जलदर्पण पर प्रतिबिम्बित हो रही थी और दर्पण का कांपता हुआ, लहरें लेता हुआ, वह जल प्रतिबिम्बों को सौगुना, हजारगुना करके, उनके प्रकाश को मानो एकत्र और पूंजीभूत करके व्याप्त कर रहा था। पहाड़ों के सिर पर की रोशनाईयां तारों-सी जान पड़ती थीं।
हमारे देखते-देखते एक घने पर्दे ने आकर इन सबको ढक दिया। रोशनियां मानो मर गईं। जगमगाहट लुप्त हो गईं। वे काले-काले भूत-से पहाड़ भी इस सफेद पर्दे के पीछे छिप गए। पास की वस्तु भी न दीखने लगी। मानो यह घनीभूत प्रलय था। सब कुछ इस घनी गहरी सफेदी में दब गया। एक शुभ्र महासागर ने फैलकर संस्कृति के सारे अस्तित्व को डुबो दिया। ऊपर-नीचे, चारों तरफ वह निर्भेद्य, सफेद शून्यता ही फैली हुई थी।
ऐसा घना कुहरा हमने कभी न देखा था। वह टप-टप टपक रहा था। मार्ग अब बिल्कुल निर्जन-चुप था। वह प्रवाह न जाने किन घोंसलों में जा छिपा था। उस वृहदाकार शुभ्र शून्य में कहीं से, ग्यारह बार टन-टन हो उठा। जैसे कहीं दूर कब्र में से आवाज आ रही हो। हम अपने-अपने होटलों के लिए चल दिए। रास्ते में दो मित्रों का होटल मिला। दोनों वकील मित्र छुट्टी लेकर चले गए। हम दोनों आगे बढ़े। हमारा होटल आगे था।
ताल के किनारे-किनारे हम चले जा रहे थे। हमारे ओवरकोट तर हो गए थे। बारिश नहीं मालूम होती थी, पर वहां तो ऊपर-नीचे हवा से कण-कण में बारिश थी। सर्दी इतनी थी कि सोचा, कोट पर एक कम्बल और होता तो अच्छा होता।
रास्ते में ताल के बिलकुल किनारे पर बेंच पड़ी थी। मैं जी में बेचैन हो रहा था। झटपट होटल पहुंचकर इन भीगे कपड़ों से छुट्टी पा, गरम बिस्तर में छिपकर सोना चाहता था पर साथ के मित्रों की सनक कब उठेगी, कब थमेगी-इसका पता न था। और वह कैसी क्या होगी-इसका भी कुछ अन्दाज न था। उन्होंने कहा-”आओ, जरा यहां बैठें।”
हम उस चूते कुहरे में रात के ठीक एक बजे तालाब के किनारे उस भीगी बर्फ-सी ठंडी हो रही लोहे की बेंच पर बैठ गए।
पांच, दस, पन्द्रह मिनट हो गए। मित्र के उठने का इरादा न मालूम हुआ। मैंने खिसियाकर कहा-
”चलिए भी।”
”अरे जरा बैठो भी।”
हाथ पकड़कर जरा बैठने के लिए जब इस जोर से बैठा लिया गया तो और चारा न रहा- लाचार बैठे रहना पड़ा। सनक से छुटकारा आसान न था, और यह जरा बैठना जरा न था, बहुत था।
चुपचाप बैठे तंग हो रहा था, कुढ़ रहा था कि मित्र अचानक बोले-
”देखो… वह क्या है?”
मैंने देखा-कुहरे की सफेदी में कुछ ही हाथ दूर से एक काली-सी सूरत हमारी तरफ बढ़ी आ रही थी। मैंने कहा- ”होगा कोई।”
तीन गज की दूरी से दीख पड़ा, एक लड़का सिर के बड़े-बड़े बालों को खुजलाता चला आ रहा है। नंगे पैर है, नंगा सिर। एक मैली-सी कमीज लटकाए है। पैर उसके न जाने कहां पड़ रहे हैं, और वह न जाने कहां जा रहा है- कहां जाना चाहता है। उसके कदमों में जैसे कोई न अगला है, न पिछला है, न दायां है, न बायां है।
पास ही चुंगी की लालटेन के छोटे-से प्रकाशवृत्त में देखा-कोई दस बरस का होगा। गोरे रंग का है, पर मैल से काला पड़ गया है। आंखें अच्छी बड़ी पर रूखी हैं। माथा जैसे अभी से झुर्रियां खा गया है। वह हमें न देख पाया। वह जैसे कुछ भी नहीं देख रहा था। न नीचे की धरती, न ऊपर चारों तरफ फैला हुआ कुहरा, न सामने का तालाब और न बाकी दुनिया। वह बस, अपने विकट वर्तमान को देख रहा था।
मित्र ने आवाज दी-”ए!”
उसने जैसे जागकर देखा और पास आ गया।
”तू कहां जा रहा है?”
उसने अपनी सूनी आंखें फाड़ दीं।
”दुनिया सो गई, तू ही क्यों घूम रहा है?”
बालक मौन-मूक, फिर भी बोलता हुआ चेहरा लेकर खड़ा रहा।
”कहां सोएगा?”
”यहीं कहीं।”
”कल कहां सोया था?”
”दुकान पर।”
”आज वहां क्यों नहीं?”
”नौकरी से हटा दिया।”
”क्या नौकरी थी?”
”सब काम। एक रुपया और जूठा खाना!”
”फिर नौकरी करेगा?”
”हां।”
”बाहर चलेगा?”
”हां।”
”आज क्या खाना खाया?”
”कुछ नहीं।”
”अब खाना मिलेगा?”
”नहीं मिलेगा!”
‘यों ही सो जाएगा?”
”हां।”
”कहां।”
”यहीं कहीं।”
”इन्हीं कपड़ों में?”
बालक फिर आंखों से बोलकर मूक खड़ा रहा। आंखें मानो बोलती थीं-यह भी कैसा मूर्ख प्रश्न!
”मां-बाप हैं?”
”हैं।”
”कहां?”
”पन्द्रह कोस दूर गांव में।”
”तू भाग आया?”
”हां!”
”क्यों?”
”मेरे कई छोटे भाई-बहिन हैं-सो भाग आया वहां काम नहीं, रोटी नहीं। बाप भूखा रहता था और मारता था मां भूखी रहती थी और रोती थी। सो भाग आया। एक साथी और था। उसी गांव का। मुझसे बड़ा था। दोनों साथ यहां आए। वह अब नहीं हैं।,
”कहां गया?”
”मर गया।”
”मर गया।”
”मर गया?”
”हां, साहब ने मारा, मर गया।”
”अच्छा, हमारे साथ चल।”
वह साथ चल दिया। लौटकर हम वकील दोस्तों के होटल में पहुंचे।
”वकील साहब!”
वकील लोग होटल के ऊपर के कमरे से उतरकर आए। कश्मीरी दोशाला लेपेटे थे, मोजे-चढ़े पैरों में चप्पल थी। स्वर में हल्की-सी झुंझलाहट थी, कुछ लापरवाही थी।
”आ-हा फिर आप! कहिए।”
”आपको नौकर की जरूरत थी न? देखिए, यह लड़का है।”
”कहां से ले आए? इसे आप जानते हैं?”
”जानता हूं-यह बेईमान नहीं हो सकता।”
”अजी, ये पहाड़ी बड़े शैतान होते हैं। बच्चे-बच्चे में गुल छिपे रहते हैं। आप भी क्या अजीब हैं। उठा लाए कहीं से-लो जी, यह नौकर लो।”
”मानिए तो, यह लड़का अच्छा निकलेगा।”
”आप भी… जी, बस खूब है। ऐरे-गैरे को नौकर बना लिया जाए, अगले दिन वह न जाने क्या-क्या लेकर चम्पत हो जाए!”
”आप मानते ही नहीं, मैं क्या करूं?’
”मानें क्या, खाक? आप भी… जी अच्छा मजाक करते हैं।… अच्छा, अब हम सोने जाते हैं।” और वे चार रुपये रोज के किराये वाले कमरे में सजी मसहरी पर सोने झटपट चले गए।
वकील साहब के चले जाने पर, होटल के बाहर आकर मित्र ने अपनी जेब में हाथ डालकर कुछ टटोला। पर झट कुछ निराश भाव से हाथ बाहर कर मेरी ओर देखने लगे।
”क्या है?”
”इसे खाने के लिए कुछ-देना चाहता था” अंग्रेजी में मित्र ने कहा-”मगर, दस-दस के नोट हैं।”
”नोट ही शायद मेरे पास हैं, देखूं?”
सचमुच मेरे पाकिट में भी नोट ही थे। हम फिर अंग्रेजी में बोलने लगे। लड़के के दांत बीच-बीच में कटकटा उठते थे। कड़ाके की सर्दी थी।
मित्र ने पूछा-”तब?”
मैंने कहा-”दस का नोट ही दे दो।” सकपकाकर मित्र मेरा मुंह देखने लगे-”अरे यार! बजट बिगड़ जाएगा। हृदय में जितनी दया है, पास में उतने पैसे तो नहीं हैं।”
”तो जाने दो, यह दया ही इस जमाने में बहुत है।” मैंने कहा। मित्र चुप रहे। जैसे कुछ सोचते रहे। फिर लड़के से बोले-”अब आज तो कुछ नहीं हो सकता। कल मिलना। वह ‘होटल डी पब’ जानता है? वहीं कल दस बजे मिलेगा?”
”हां, कुछ काम देंगे हुजूर?”
”हां, हां, ढूंढ दूंगा।”
”तो जाऊं?”
”हां,” ठंडी साँस खींचकर मित्र ने कहा-”कहां सोएगा?”
”यहीं कहीं बेंच पर, पेड़ के नीचे किसी दुकान की भट्ठी में।”
बालक फिर उसी प्रेत-गति से एक ओर बढ़ा और कुहरे में मिल गया। हम भी होटल की ओर बढ़े। हवा तीखी थी-हमारे कोटों को पार कर बदन में तीर-सी लगती थी।
सिकुड़ते हुए मित्र ने कहा-”भयानक शीत है। उसके पास कम-बहुत कम
कपड़े…”
”यह संसार है यार!” मैंने स्वार्थ की फिलासफी सुनाई-”चलो, पहले बिस्तर में गर्म हो लो, फिर किसी और की चिन्ता करना।”
उदास होकर मित्र ने कहा-”स्वार्थ!-जो कहो, लाचारी कहो, निष्ठुरता कहो, या बेहयाई!”
दूसरे दिन नैनीताल- स्वर्ग के किसी काले गुलाम पशु के दुलारे का वह बेटा- वह बालक, निश्चित समय पर हमारे ‘होटल डी पब’ में नहीं आया। हम अपनी नैनीताल की सैर खुशी-खुशी खत्म कर चलने को हुए। उस लड़के की आस लगाते बैठे रहने की जरूरत हमने न समझी।
मोटर में सवार होते ही थे कि यह समाचार मिला कि पिछली रात, एक पहाड़ी बालक सड़क के किनारे, पेड़ के नीचे, ठिठुरकर मर गया!
मरने के लिए उसे वही जगह, वही दस बरस की उम्र और वही काले चिथड़ों की कमीज मिली। आदमियों की दुनिया ने बस यही उपहार उसके पास छोड़ा था।
पर बताने वालों ने बताया कि गरीब के मुंह पर, छाती मुट्ठी और पैरों पर बरफ की हल्की-सी चादर चिपक गई थी। मानो दुनिया की बेहयाई ढकने के लिए प्रकृति ने शव के लिए सफेद और ठण्डे कफन का प्रबन्ध कर दिया था।
सब सुना और सोचा, अपना-अपना भाग्य।
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Monday, May 28, 2018
Success stories |Class 12 Hindi 2018 Exam Result| AVC toppers
Class 12 Hindi, 2018 CBSE Board Exam Result
*You can check here what they said after the exam( before result):https://youtu.be/JUdZ0QokR5g
Be humble, kind and calm!
Do you want to share your success story? Audio and video submissions are also accepted now, Record & Send me through Email: alpver2017@gmail.com
क्या आप परीक्षा के परिणाम या मेरे चैनल से सम्बन्धित अपने ऑडियो या विडियो सन्देश भेजना चाहते हैं तो मोबाइल पर रिकॉर्ड करके मुझे ईमेल करें ,आपके विचार २०१७-१८ ) सत्र के रिपोर्ट कार्ड के साथ यहाँ प्रकाशित कर दिए जाएँगे.
Success stories |Class 12 Hindi 2018 Exam Result| AVC toppers
Video prepared and presented by Alpana Verma
Wednesday, May 23, 2018
हिंदी व्याकरण Hindi Grammar
हिंदी व्याकरण- Hindi Grammar
विषय-सूची - Index
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विषय-सूची - Index
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- कार्यालयी पत्र कैसे लिखें (नमूने सहित )
अन्य पाठ :
Monday, May 14, 2018
कर्मनाशा की हार/
कर्मनाशा की हार
-शिवप्रसाद सिंह
काले सांप का काटा आदमी बच सकता है, हलाहल ज़हर पीने वाले की मौत रुक सकती है, किंतु जिस पौधे को एक बार कर्मनाशा का पानी छू ले, वह फिर हरा नहीं हो सकता. कर्मनाशा के बारे में किनारे के लोगों में एक और विश्वास प्रचलित था कि यदि एक बार नदी बढ़ आये तो बिना मानुस की बलि लिये लौटती नहीं. हालांकि थोड़ी ऊंचाई पर बसे हुए नयी डीह वालों को इसका कोई खौफ न था; इसी से वे बाढ़ के दिनों में, गेरू की तरह फैले हुए अपार जल को देखकर खुशियां मनाते, दो-चार दिन की यह बाढ़ उनके लिए तब्दीली बनकर आती, मुखियाजी के द्वार पर लोग-बाग इकट्ठे होते और कजली-सावन की ताल पर ढोलकें उनकने लगतीं. गांव के दुधमुंहे तक ‘ई बाढ़ी नदिया जिया ले के माने’ का गीत गाते; क्योंकि बाढ़ उनके किसी आदमी का जिया नहीं लेती थी. किंतु पिछले साल अचानक जब नदी का पानी समुद्र के ज्वार की तरह उमड़ता हुआ, नयी डीह से जा टकराया, तो ढोलकें बह चलीं, गीत की कड़ियां मुरझाकर होंठों पे पपड़ी की तरह छा गयीं, सोखा ने जान के बदले जान देकर पूजा की, पांच बकरों की दौरी भेंट हुई, किंतु बढ़ी नदी का हौसला कम न हुआ. एक अंधी लड़की, एक अपाहिज बुढ़िया बाढ़ की भेंट रहीं. नयी डीह वाले कर्मनाशा के इस उग्र रूप से कांप उठे, बूढ़ी औरतों ने कुछ सुराग मिलाया. पूजा-पाठ कराकर लोगों ने पाप-शांति कीI
एक बाढ़ बीती, बरस बीताI
पिछले घाव सूखे न थे कि भादों के दिनों में फिर पानी उमड़ा. बादलों की छांव में सोया गांव भोर की किरण देखकर उठा तो सारा सिचान रक्त की तरह लाल पानी से घिरा था. नयी डीह के वातावरण में हौलदिली छा गयी. गांव ऊंचे अरार पर बसा था, जिस पर नदी की धारा अनवरत टक्कर मार रही थी, बड़े-बड़े पेड़ जड़-मूल के साथ उलटकर नदी के पेट में समा रहे थे, यह बाढ़ न थी, प्रलय का संदेश था, नयी डीह के लोग चूहेदानी में फंसे चूहे की तरह भय से दौड़-धूप कर रहे थे, सबके चेहरे पर मुर्दनी छा गयी थीI
Saturday, May 5, 2018
आनंद | Anand Sarg Part 3 Explanation | Kamayani |कामायनी
आनंद सर्ग की व्याख्या Explanation Part 3|Kamayani | कामायनी
कवि : जयशंकर प्रसाद
Summary available:
1.चिंता Chinta :https://youtu.be/BIcMcJEXIr0
2.आशा Asha:https://youtu.be/scQom9EjQlc
3.श्रद्धा Shraddha :https://youtu.be/7RiQ97oCeNs
4.लज्जा Lajja :https://youtu.be/hGWM9E4eQRg
5.इड़ा Idaa:https://youtu.be/hQSrfC1aroc
6.आनंद Anand:https://youtu.be/QqKez4M71ms
===============================
आनंद सर्ग की व्याख्या Explanation: all parts:
Part 1: https://youtu.be/5RSI4iE54H8
Part 2 :https://youtu.be/N_sXP-Wklz0
Part 3 :https://youtu.be/IqFiJpxdpnQ
Part 4:https://youtu.be/DHunJGYf07E
Part 5:https://youtu.be/xxqzM8u-TBk
Part 6(last):https://youtu.be/mp41sdVsBys
Video lesson prepared and presented by Alpana Verma
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आनंद Anand Sarg Part 2 Explanation | Kamayani |कामायनी
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कवि : जयशंकर प्रसाद
Summary available:
1.चिंता Chinta :https://youtu.be/BIcMcJEXIr0
2.आशा Asha:https://youtu.be/scQom9EjQlc
3.श्रद्धा Shraddha :https://youtu.be/7RiQ97oCeNs
4.लज्जा Lajja :https://youtu.be/hGWM9E4eQRg
5.इड़ा Idaa:https://youtu.be/hQSrfC1aroc
6.आनंद Anand:https://youtu.be/QqKez4M71ms
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आनंद सर्ग की व्याख्या Explanation: all parts:
Part 1: https://youtu.be/5RSI4iE54H8
Part 2 :https://youtu.be/N_sXP-Wklz0
Part 3 :https://youtu.be/IqFiJpxdpnQ
Part 4:https://youtu.be/DHunJGYf07E
Part 5:https://youtu.be/xxqzM8u-TBk
Part 6(last):https://youtu.be/mp41sdVsBys
Video lesson prepared and presented by Alpana Verma
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आनंद | Anand Sarg Part 1 Explanation | Kamayani |कामायनी
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कवि : जयशंकर प्रसाद
Summary available:
1.चिंता Chinta :https://youtu.be/BIcMcJEXIr0
2.आशा Asha:https://youtu.be/scQom9EjQlc
3.श्रद्धा Shraddha :https://youtu.be/7RiQ97oCeNs
4.लज्जा Lajja :https://youtu.be/hGWM9E4eQRg
5.इड़ा Idaa:https://youtu.be/hQSrfC1aroc
6.आनंद Anand:https://youtu.be/QqKez4M71ms
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आनंद सर्ग की व्याख्या Explanation: all parts:
Part 1: https://youtu.be/5RSI4iE54H8
Part 2 :https://youtu.be/N_sXP-Wklz0
Part 3 :https://youtu.be/IqFiJpxdpnQ
Part 4:https://youtu.be/DHunJGYf07E
Part 5:https://youtu.be/xxqzM8u-TBk
Part 6(last):https://youtu.be/mp41sdVsBys
Video lesson prepared and presented by Alpana Verma
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Friday, May 4, 2018
Kamayani | Idaa Sarg Summary |इड़ा सर्ग का सार
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कवि : जयशंकर प्रसाद
Summary available:
1.चिंता Chinta :https://youtu.be/BIcMcJEXIr0
2.आशा Asha:https://youtu.be/scQom9EjQlc
3.श्रद्धा Shraddha :https://youtu.be/7RiQ97oCeNs
4.लज्जा Lajja :https://youtu.be/hGWM9E4eQRg
5.इड़ा Idaa:https://youtu.be/hQSrfC1aroc
6.आनंद Anand:https://youtu.be/QqKez4M71ms
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आनंद सर्ग की व्याख्या Explanation: all parts:
Part 1: https://youtu.be/5RSI4iE54H8
Part 2 :https://youtu.be/N_sXP-Wklz0
Part 3 :https://youtu.be/IqFiJpxdpnQ
Part 4:https://youtu.be/DHunJGYf07E
Part 5:https://youtu.be/xxqzM8u-TBk
Part 6(last):https://youtu.be/mp41sdVsBys
Video lesson prepared and presented by Alpana Verma
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कामायनी के इस सर्ग को पढ़ते हुए आप मेरे द्वारा दिए गए सार को सुनिए :-
"किस गहन गुहा से अति अधीर
झंझा-प्रवाह-सा निकला
यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर
ले साथ विकल परमाणु-पुंज।
नभ, अनिल, अनल,
भयभीत सभी को भय देता।
भय की उपासना में विलीन
प्राणी कटुता को बाँट रहा।
जगती को करता अधिक दीन
निर्माण और प्रतिपद-विनाश में।
दिखलाता अपनी क्षमता
संघर्ष कर रहा-सा सब से।
सब से विराग सब पर ममता
अस्तित्व-चिरंतन-धनु से कब।
यह छूट पड़ा है विषम तीर
किस लक्ष्य भेद को शून्य चीर?
जो अचल हिमानी से रंजित
देखे मैंने वे शैल-श्रृंग।
अपने जड़-गौरव के प्रतीक
उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तुंग।
वसुधा का कर अभिमान भंग
अपनी समाधि में रहे सुखी,
बह जाती हैं नदियाँ अबोध
कुछ स्वेद-बिंदु उसके लेकर,
वह स्मित-नयन गत शोक-क्रोध
स्थिर-मुक्ति, प्रतिष्ठा मैं वैसी
चाहता नहीं इस जीवन की
मैं तो अबाध गति मरुत-सदृश,
हूँ चाह रहा अपने मन की
जो चूम चला जाता अग-जग।
प्रति-पग में कंपन की तरंग
वह ज्वलनशील गतिमय पतंग।
अपनी ज्वाला से कर प्रकाश
जब छोड़ चला आया सुंदर
प्रारंभिक जीवन का निवास
वन, गुहा, कुंज, मरू-अंचल में हूँ
खोज रहा अपना विकास
पागल मैं, किस पर सदय रहा-
क्या मैंने ममता ली न तोड़
किस पर उदारता से रीझा-
किससे न लगा दी कड़ी होड़?
इस विजन प्रांत में बिलख रही
मेरी पुकार उत्तर न मिला
लू-सा झुलसाता दौड़ रहा-
कब मुझसे कोई फूल खिला?
मैं स्वप्न देखत हूँ उजड़ा-
कल्पना लोक में कर निवास
देख कब मैंने कुसुम हास
इस दुखमय जीवन का प्रकाश
नभ-नील लता की डालों में
उलझा अपने सुख से हताश
कलियाँ जिनको मैं समझ रहा
वे काँटे बिखरे आस-पास
कितना बीहड़-पथ चला और
पड़ रहा कहीं थक कर नितांत
उन्मुक्त शिखर हँसते मुझ पर-
रोता मैं निर्वासित अशांत
इस नियति-नटी के अति भीषण
अभिनय की छाया नाच रही
खोखली शून्यता में प्रतिपद-
असफलता अधिक कुलाँच रही
पावस-रजनी में जुगनू गण को
दौड़ पकड़ता मैं निराश
उन ज्योति कणों का कर विनाश
जीवन-निशीथ के अंधकार
तू, नील तुहिन-जल-निधि बन कर
फैला है कितना वार-पार
कितनी चेतनता की किरणें हैं
डूब रहीं ये निर्विकार
कितना मादकतम, निखिल भुवन
भर रहा भूमिका में अबंग
तू, मूर्त्तिमान हो छिप जाता
प्रतिपल के परिवर्त्तन अनंग
ममता की क्षीण अरुण रेख
खिलती है तुझमें ज्योति-कला
जैसे सुहागिनी की ऊर्मिल
अलकों में कुंकुमचूर्ण भला
रे चिरनिवास विश्राम प्राण के
मोह-जलद-छया उदार
मायारानी के केशभार
जीवन-निशीथ के अंधकार
तू घूम रहा अभिलाषा के
नव ज्वलन-धूम-सा दुर्निवार
जिसमें अपूर्ण-लालसा, कसक
चिनगारी-सी उठती पुकार
यौवन मधुवन की कालिंदी
बह रही चूम कर सब दिंगत
मन-शिशु की क्रीड़ा नौकायें
बस दौड़ लगाती हैं अनंत
कुहुकिनि अपलक दृग के अंजन
हँसती तुझमें सुंदर छलना
धूमिल रेखाओं से सजीव
चंचल चित्रों की नव-कलना
इस चिर प्रवास श्यामल पथ में
छायी पिक प्राणों की पुकार-
बन नील प्रतिध्वनि नभ अपार
उजड़ा सूना नगर-प्रांत
जिसमें सुख-दुख की परिभाषा
विध्वस्त शिल्प-सी हो नितांत
निज विकृत वक्र रेखाओं से,
प्राणी का भाग्य बनी अशांत
कितनी सुखमय स्मृतियाँ,
अपूर्णा रूचि बन कर मँडराती विकीर्ण
इन ढेरों में दुखभरी कुरूचि
दब रही अभी बन पात्र जीर्ण
आती दुलार को हिचकी-सी
सूने कोनों में कसक भरी।
इस सूखर तरु पर मनोवृति
आकाश-बेलि सी रही हरी
जीवन-समाधि के खँडहर पर जो
जल उठते दीपक अशांत
फिर बुझ जाते वे स्वयं शांत।
यों सोच रहे मनु पड़े श्रांत
श्रद्धा का सुख साधन निवास
जब छोड़ चले आये प्रशांत
पथ-पथ में भटक अटकते वे
आये इस ऊजड़ नगर-प्रांत
बहती सरस्वती वेग भरी
निस्तब्ध हो रही निशा श्याम
नक्षत्र निरखते निर्मिमेष
वसुधा को वह गति विकल वाम
वृत्रघ्नी का व जनाकीर्ण
उपकूल आज कितना सूना
देवेश इंद्र की विजय-कथा की
स्मृति देती थी दुख दूना
वह पावन सारस्वत प्रदेश
दुस्वप्न देखता पड़ा क्लांत
फैला था चारों ओर ध्वांत।
"जीवन का लेकर नव विचार
जब चला द्वंद्व था असुरों में
प्राणों की पूजा का प्रचार
उस ओर आत्मविश्वास-निरत
सुर-वर्ग कह रहा था पुकार-
मैं स्वयं सतत आराध्य आत्म-
मंगल उपासना में विभोर
उल्लासशीलता मैं शक्ति-केन्द्र,
किसकी खोजूँ फिर शरण और
आनंद-उच्छलित-शक्ति-स्त्रोत
जीवन-विकास वैचित्र्य भरा
अपना नव-नव निर्माण किये
रखता यह विश्व सदैव हरा,
प्राणों के सुख-साधन में ही,
संलग्न असुर करते सुधार
नियमों में बँधते दुर्निवार
था एक पूजता देह दीन
दूसरा अपूर्ण अहंता में
अपने को समझ रहा प्रवीण
दोनों का हठ था दुर्निवार,
दोनों ही थे विश्वास-हीन-
फिर क्यों न तर्क को शस्त्रों से
वे सिद्ध करें-क्यों हि न युद्ध
उनका संघर्ष चला अशांत
वे भाव रहे अब तक विरुद्ध
मुझमें ममत्वमय आत्म-मोह
स्वातंत्र्यमयी उच्छृंखलता
हो प्रलय-भीत तन रक्षा में
पूजन करने की व्याकुलता
वह पूर्व द्वंद्व परिवर्त्तित हो
मुझको बना रहा अधिक दीन-
सचमुच मैं हूँ श्रद्धा-विहीन।"
मनु तुम श्रद्धा को गये भूल
उस पूर्ण आत्म-विश्वासमयी को
उडा़ दिया था समझ तूल
तुमने तो समझा असत् विश्व
जीवन धागे में रहा झूल
जो क्षण बीतें सुख-साधन में
उनको ही वास्तव लिया मान
वासना-तृप्ति ही स्वर्ग बनी,
यह उलटी मति का व्यर्थ-ज्ञान
तुम भूल गये पुरुषत्त्व-मोह में
कुछ सत्ता है नारी की
समरसता है संबंध बनी
अधिकार और अधिकारी की।"
जब गूँजी यह वाणी तीखी
कंपित करती अंबर अकूल
मनु को जैसे चुभ गया शूल।
"यह कौन? अरे वही काम
जिसने इस भ्रम में है डाला
छीना जीवन का सुख-विराम?
प्रत्यक्ष लगा होने अतीत
जिन घड़ियों का अब शेष नाम
वरदान आज उस गतयुग का
कंपित करता है अंतरंग
अभिशाप ताप की ज्वाला से
जल रहा आज मन और अंग-"
बोले मनु-" क्या भ्रांत साधना
में ही अब तक लगा रहा
क्ा तुमने श्रद्धा को पाने
के लिए नहीं सस्नेह कहा?
पाया तो, उसने भी मुझको
दे दिया हृदय निज अमृत-धाम
फिर क्यों न हुआ मैं पूर्ण-काम?"
"मनु उसने त कर दिया दान
वह हृदय प्रणय से पूर्ण सरल
जिसमें जीवन का भरा मान
जिसमें चेतना ही केवल
निज शांत प्रभा से ज्योतिमान
पर तुमने तो पाया सदैव
उसकी सुंदर जड़ देह मात्र
सौंदर्य जलधि से भर लाये
केवल तुम अपना गरल पात्र
तुम अति अबोध, अपनी अपूर्णता को
न स्वयं तुम समझ सके
परिणय जिसको पूरा करता
उससे तुम अपने आप रुके
कुछ मेरा हो' यह राग-भाव
संकुचित पूर्णता है अजान
मानस-जलनिधि का क्षुद्र-यान।
हाँ अब तुम बनने को स्वतंत्र
सब कलुष ढाल कर औरों पर
रखते हो अपना अलग तंत्र
द्वंद्वों का उद्गम तो सदैव
शाश्वत रहता वह एक मंत्र
डाली में कंटक संग कुसुम
खिलते मिलते भी हैं नवीन
अपनी रुचि से तुम बिधे हुए
जिसको चाहे ले रहे बीन
तुमने तो प्राणमयी ज्वाला का
प्रणय-प्रकाश न ग्रहण किया
हाँ, जलन वासना को जीवन
भ्रम तम में पहला स्थान दिया-
अब विकल प्रवर्त्तन हो ऐसा जो
नियति-चक्र का बने यंत्र
हो शाप भरा तव प्रजातंत्र।
यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि
द्वयता मेम लगी निरंतर ही
वर्णों की करति रहे वृष्टि
अनजान समस्यायें गढती
रचती हों अपनी विनिष्टि
कोलाहल कलह अनंत चले,
एकता नष्ट हो बढे भेद
अभिलषित वस्तु तो दूर रहे,
हाँ मिले अनिच्छित दुखद खेद
हृदयों का हो आवरण सदा
अपने वक्षस्थल की जड़ता
पहचान सकेंगे नहीं परस्पर
चले विश्व गिरता पड़ता
सब कुछ भी हो यदि पास भरा
पर दूर रहेगी सदा तुष्टि
दुख देगी यह संकुचित दृष्टि।
अनवरत उठे कितनी उमंग
चुंबित हों आँसू जलधर से
अभिलाषाओं के शैल-श्रृंग
जीवन-नद हाहाकार भरा-
हो उठती पीड़ा की तरंग
लालसा भरे यौवन के दिन
पतझड़ से सूखे जायँ बीत
संदेह नये उत्पन्न रहें
उनसे संतप्त सदा सभीत
फैलेगा स्वजनों का विरोध
बन कर तम वाली श्याम-अमा
दारिद्रय दलित बिलखाती हो यह
शस्यश्यामला प्रकृति-रमा
दुख-नीरद में बन इंद्रधनुष
बदले नर कितने नये रंग-
बन तृष्णा-ज्वाला का पतंग।
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वह प्रेम न रह जाये पुनीत
अपने स्वार्थों से आवृत
हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत
सारी संसृति हो विरह भरी,
गाते ही बीतें करुण गीत
आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो
क्षितिज निराशा सदा रक्त
तुम राग-विराग करो सबसे
अपने को कर शतशः विभक्त
मस्तिष्क हृदय के हो विरुद्ध,
दोनों में हो सद्भाव नहीं
वह चलने को जब कहे कहीं
तब हृदय विकल चल जाय कहीं
रोकर बीते सब वर्त्तमान
क्षण सुंदर अपना हो अतीत
पेंगों में झूलें हार-जीत।
संकुचित असीम अमोघ शक्ति
जीवन को बाधा-मय पथ पर
ले चले मेद से भरी भक्ति
या कभी अपूर्ण अहंता में हो
रागमयी-सी महासक्ति
व्यापकता नियति-प्रेरणा बन
अपनी सीमा में रहे बंद
सर्वज्ञ-ज्ञान का क्षुद्र-अशं
विद्या बनकर कुछ रचे छंद
करत्तृत्व-सकल बनकर आवे
नश्वर-छाया-सी ललित-कला
नित्यता विभाजित हो पल-पल में
काल निरंतर चले ढला
तुम समझ न सको, बुराई से
शुभ-इच्छा की है बड़ी शक्ति
हो विफल तर्क से भरी युक्ति।
जीवन सारा बन जाये युद्ध
उस रक्त, अग्नि की वर्षा में
बह जायँ सभी जो भाव शुद्ध
अपनी शंकाओं से व्याकुल तुम
अपने ही होकर विरूद्ध
अपने को आवृत किये रहो
दिखलाओ निज कृत्रिम स्वरूप
वसुधा के समतल पर उन्नत
चलता फिरता हो दंभ-स्तूप
श्रद्धा इस संसृति की रहस्य-
व्यापक, विशुद्ध, विश्वासमयी
सब कुछ देकर नव-निधि अपनी
तुमसे ही तो वह छली गयी
हो वर्त्तमान से वंचित तुम
अपने भविष्य में रहो रुद्ध
सारा प्रपंच ही हो अशुद्ध।
तुम जरा मरण में चिर अशांत
जिसको अब तक समझे थे
सब जीवन परिवर्त्तन अनंत
अमरत्व, वही भूलेगा तुम
व्याकुल उसको कहो अंत
दुखमय चिर चिंतन के प्रतीक
श्रद्धा-वमचक बनकर अधीर
मानव-संतति ग्रह-रश्मि-रज्जु से
भाग्य बाँध पीटे लकीर
'कल्याण भूमि यह लोक'
यही श्रद्धा-रहस्य जाने न प्रजा।
अतिचारी मिथ्या मान इसे
परलोक-वंचना से भरा जा
आशाओं में अपने निराश
निज बुद्धि विभव से रहे भ्रांत
वह चलता रहे सदैव श्रांत।"
अभिशाप-प्रतिध्वनि हुई लीन
नभ-सागर के अंतस्तल में
जैसे छिप जाता महा मीन
मृदु-मरूत्-लहर में फेनोपम
तारागण झिलमिल हुए दीन
निस्तब्ध मौन था अखिल लोक
तंद्रालस था वह विजन प्रांत
रजनी-तम-पूंजीभूत-सदृश
मनु श्वास ले रहे थे अशांत
वे सोच रहे थे" आज वही
मेरा अदृष्ट बन फिर आया
जिसने डाली थी जीवन पर
पहले अपनी काली छाया
लिख दिया आज उसने भविष्य
यातना चलेगी अंतहीन
अब तो अवशिष्ट उपाय भी न।"
करती सरस्वती मधुर नाद
बहती थी श्यामल घाटी में
निर्लिप्त भाव सी अप्रमाद
सब उपल उपेक्षित पड़े रहे
जैसे वे निष्ठुर जड़ विषाद
वह थी प्रसन्नता की धारा
जिसमें था केवल मधुर गान
थी कर्म-निरंतरता-प्रतीक
चलता था स्ववश अनंत-ज्ञान
हिम-शीतल लहरों का रह-रह
कूलों से टकराते जाना
आलोक अरुण किरणों का उन पर
अपनी छाया बिखराना-
अदभुत था निज-निर्मित-पथ का
वह पथिक चल रहा निर्विवाद
कहता जाता कुछ सुसंवाद।
प्राची में फैला मधुर राग
जिसके मंडल में एक कमल
खिल उठा सुनहला भर पराग
जिसके परिमल से व्याकुल हो
श्यामल कलरव सब उठे जाग
आलोक-रश्मि से बुने उषा-
अंचल में आंदोलन अमंद
करता प्रभात का मधुर पवन
सब ओर वितरने को मरंद
उस रम्य फलक पर नवल चित्र सी
प्रकट हुई सुंदर बाला
वह नयन-महोत्सव की प्रतीक
अम्लान-नलिन की नव-माला
सुषमा का मंडल सुस्मित-सा
बिखरता संसृति पर सुराग
सोया जीवन का तम विराग।
वह विश्व मुकुट सा उज्जवलतम
शशिखंड सदृश था स्पष्ट भाल
दो पद्म-पलाश चषक-से दृग
देते अनुराग विराग ढाल
गुंजरित मधुप से मुकुल सदृश
वह आनन जिसमें भरा गान
वक्षस्थल पर एकत्र धरे
संसृति के सब विज्ञान ज्ञान
था एक हाथ में कर्म-कलश
वसुधा-जीवन-रस-सार लिये
दूसरा विचारों के नभ को था
मधुर अभय अवलंब दिये
त्रिवली थी त्रिगुण-तरंगमयी,
आलोक-वसन लिपटा अराल
चरणों में थी गति भरी ताल।
नीरव थी प्राणों की पुकार
मूर्छित जीवन-सर निस्तरंग
नीहार घिर रहा था अपार
निस्तब्ध अलस बन कर सोयी
चलती न रही चंचल बयार
पीता मन मुकुलित कंज आप
अपनी मधु बूँदे मधुर मौन
निस्वन दिगंत में रहे रुद्ध
सहसा बोले मनु " अरे कौन-
आलोकमयी स्मिति-चेतना
आयी यह हेमवती छाया'
तंद्रा के स्वप्न तिरोहित थे
बिखरी केवल उजली माया
वह स्पर्श-दुलार-पुलक से भर
बीते युग को उठता पुकार
वीचियाँ नाचतीं बार-बार।
प्रतिभा प्रसन्न-मुख सहज खोल
वह बोली-" मैं हूँ इड़ा, कहो
तुम कौन यहाँ पर रहे डोल"
नासिका नुकीली के पतले पुट
फरक रहे कर स्मित अमोल
" मनु मेरा नाम सुनो बाले
मैं विश्व पथिक स रहा क्लेश।"
" स्वागत पर देख रहे हो तुम
यह उजड़ा सारस्वत प्रदेश
भौति हलचल से यह
चंचल हो उठा देश ही था मेरा
इसमें अब तक हूँ पड़ी
इस आशा से आये दिन मेरा।"
" मैं तो आया हूँ- देवि बता दो
जीवन का क्या सहज मोल
भव के भविष्य का द्वार खोल
इस विश्वकुहर में इंद्रजाल
जिसने रच कर फैलाया है
ग्रह, तारा, विद्युत, नखत-माल
सागर की भीषणतम तरंग-सा
खेल रहा वह महाकाल
तब क्या इस वसुधा के
लघु-लघु प्राणी को करने को सभीत
उस निष्ठुर की रचना कठोर
केवल विनाश की रही जीत
तब मूर्ख आज तक क्यों समझे हैं
सृष्टि उसे जो नाशमयी
उसका अधिपति होगा कोई,
जिस तक दुख की न पुकार गयी
सुख नीड़ों को घेरे रहता
अविरत विषाद का चक्रवाल
किसने यह पट है दिया डाल
शनि का सुदूर वह नील लोक
जिसकी छाया-फैला है
ऊपर नीचे यह गगन-शोक
उसके भी परे सुना जाता
कोई प्रकाश का महा ओक
वह एक किरण अपनी देकर
मेरी स्वतंत्रता में सहाय
क्या बन सकता है? नियति-जाल से
मुक्ति-दान का कर उपाय।"
कोई भी हो वह क्या बोले,
पागल बन नर निर्भर न करे
अपनी दुर्बलता बल सम्हाल
गंतव्य मार्ग पर पैर धरे-
मत कर पसार-निज पैरों चल,
चलने की जिसको रहे झोंक
उसको कब कोई सके रोक?
हाँ तुम ही हो अपने सहाय?
जो बुद्धि कहे उसको न मान कर
फिर किसकी नर शरण जाय
जितने विचार संस्कार रहे
उनका न दूसरा है उपाय
यह प्रकृति, परम रमणीय
अखिल-ऐश्वर्य-भरी शोधक विहीन
तुम उसका पटल खोलने में परिकर
कस कर बन कर्मलीन
सबका नियमन शासन करते
बस बढ़ा चलो अपनी क्षमता
तुम ही इसके निर्णायक हो,
हो कहीं विषमता या समता
तुम जड़ा को चैतन्या करो
विज्ञान सहज साधन उपाय
यश अखिल लोक में रहे छाय।"
हँस पड़ा गगन वह शून्य लोक
जिसके भीतर बस कर उजड़े
कितने ही जीवन मरण शोक
कितने हृदयों के मधुर मिलन
क्रंदन करते बन विरह-कोक
ले लिया भार अपने सिर पर
मनु ने यह अपना विषम आज
हँस पड़ी उषा प्राची-नभ में
देखे नर अपना राज-काज
चल पड़ी देखने वह कौतुक
चंचल मलयाचल की बाला
लख लाली प्रकृति कपोलों में
गिरता तारा दल मतवाला
उन्निद्र कमल-कानन में
होती थी मधुपों की नोक-झोंक
वसुधा विस्मृत थी सकल-शोक।
"जीवन निशीथ का अधंकार
भग रहा क्षितिज के अंचल में
मुख आवृत कर तुमको निहार
तुम इड़े उषा-सी आज यहाँ
आयी हो बन कितनी उदार
कलरव कर जाग पड़े
मेरे ये मनोभाव सोये विहंग
हँसती प्रसन्नता चाव भरी
बन कर किरनों की सी तरंग
अवलंब छोड़ कर औरों का
जब बुद्धिवाद को अपनाया
मैं बढा सहज, तो स्वयं
बुद्धि को मानो आज यहाँ पाया
मेरे विकल्प संकल्प बनें,
जीवन ही कर्मों की पुकार
सुख साधन का हो खुला द्वार।"
=======सर्ग समाप्त ======
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