Saturday, December 31, 2022

Badalon ke ghere /बादलों के घेरे कहानी/ कृष्णा सोबती /एक दुनिया समानांतर...

 

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 बादलों के घेरे
लेखिका :कृष्णा सोबती

भुवाली की इस छोटी-सी कॉटेज में लेटा-लेटा मैं सामने के पहाड़ देखता हूँ। पानी-भरे, सूखे-सूखे बादलों के घेरे देखता हूँ। बिना आँखों के झटक-झटक जाती धुंध के निष्फल प्रयास देखता हूँ और फिर लेटे-लेटे अपने तन का पतझार देखता हूँ। सामने पहाड़ के रूखे हरियाले में रामगढ़ जाती हुई पगडंडी मेरी बाँह पर उभरी लंबी नस की तरह चमकती है। पहाड़ी हवाएँ मेरी उखड़ी-उखड़ी साँस की तरह कभी तेज़, कभी हौले, इस खिड़की से टकराती हैं; पलंग पर बिछी चद्दर और ऊपर पड़े कंबल से लिपटी मेरी देह चूने की-सी कच्ची तह की तरह घुल-घुल जाती है। और बरसों के ताने-बाने से बुनी मेरे प्राणों की धड़कनें हर क्षण बंद हो जाने के डर में चूक जाती हैं।

मैं लेटा रहता हूँ और सुबह हो जाती है। मैं लेटा रहता हूँ शाम हो जाती है। मैं लेटा रहता हूँ रात झुक जाती है। दरवाज़े और खिड़कियों पर पड़े परदे मेरी ही तरह दिन-रात, सुबह-शाम, अकेले मौन-भाव से लटकते रहते हैं। कोई इन्हें भरे-भरे हाथों से उठाकर कमरे की ओर बढ़ा नहीं आता। कोई इस देहरी पर अनायास मुसकराकर खड़ा नहीं हो जाता। रात, सुबह, शाम बारी-बारी से मेरी शय्या के पास घिर-घिर आते हैं और मैं अपनी इन फीकी आँखों से अँधेरे और उजाले को नहीं, लोहे के पलंग पर पड़े अपने-आपको देखता हूँ, अपने इस छूटते-छूटते तन को देखता हूँ। और देखकर रह जाता हूँ। आज इस तरह जाने के सिवाय कुछ भी मेरे वश में नहीं रह गया। सब अलग जा पड़ा है। अपने कंधों से जुड़ी अपनी बाँहों को देखता हूँ, मेरी बाँहों में लगी वे भरी-भरी बाँहें कहाँ हैं...कहाँ हैं वे सुगंध-भरे केश, जो मेरे वक्ष पर बिछ-बिछ जाते थे? कहाँ हैं वे रस-भरे अधर जो मेरे रस में भीग-भीग जाते थे? सब था, मेरे पास सब था। बस, मैं आज-सा नहीं था। जीने का संग था, सोने का संग था और उठने का संग था। मैं धुले-धुले सिरहाने पर सिर डालकर सोता रहता और कोई हौले से चमककर कहता—उठोगे नहीं...भोर हो गई।

Tuesday, November 1, 2022

दूध और दवा /लेखक : मार्कण्डेय -'एक दुनिया समानांतर' से

लेखक बनने की इच्छा और यथार्थ के अभावों से जूझता कहानी का नायक आदर्श और यथार्थ के द्वन्द्व में फँसा है! काहनी सुनिए या पढिए :-

दूध और दवा


लेखक : मार्कण्डेय


बात बहुत छोटी-सी है, नाजुक और लचीली, पर मौका पाते ही सिर तान लेती है। कोई काम शुरू करने, सोने या पल-भर को आराम से पहले लगता है, कुछ देर इस प्यारी बात के साथ रहना कितना अच्छा है! वैसे मुझे काम करना, करते रहना और करते-करते उसी में खो जाना प्रिय है। इसी की बात भी मैं लोगों से करता हूँ और दूसरों से यही चाहता भी हूं, पर यह सब तभी होता है, जब मेरे चारों ओर लोग होते हैं। ऐसा नहीं कि लोगों में मेरे बीवी-बच्चे शामिल नहीं हैं। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं किसी भीड़ में खड़ा हूँ और असह्य ध्वनियाँ  मेरे कानों के परदे को छेदने लगती हैं। मैं भाग कर अपने कमरे में घुस जाना चाहता हूं, पर उसकी बड़ी-बड़ी, आंसुओं में डूबी हुई आंखें... 'मैं क्या करूं इनका? देखते हो, अब मुन्नी भी दूध के लिए जिद करती है!'... ऐसा नहीं कि बात मेरे मन में गहरे तक नहीं उतरती, मैं तो मुन्नी को स्कूल जाने के लिए एक छोटी मोटर खरीदना चाहता हूं। हल्के, गुलाबी रंग के फ्रॉक में लड़खड़ाती, दौड़ती मुन्नी को देखने की मेरी कैसी विचित्र लालसा है, जो कभी पूरी होती ही नहीं दिखाई देती!


सुबह-सुबह बिस्तर से उठते ही वह जोर-जोर से चीखने लगती है, जब उसकी मांड़े से सूजी आँखें  और भी सूजी होती हैं। कई बार मन में डाक्टर की बात उठती है, डर लगता है, कहीं मुन्नी की मां की पतली, लंबी, किश्ती-सी आंखों का पुराना छेद फिर न खुल जाए और सवेरे-सवेरे डूबने-औराने की मर्मान्तक पीड़ा में मुझे लिखना-पढ़ना छोड़ कर सड़क का चक्कर काटना पड़े! मैं चुपचाप एक निश्चय करके कमरे में चला जाता हूं... पहले डाक्टर का इंतजाम कर के ही उससे चर्चा करूंगा। पर फिर वही नन्ही-सी बात!... तुम्हें खोजने लगता हूं, तुम, जो इस कड़ी जमीन की चुभन से पल-भर को उठा कर मुझे एक सुनहले, झिलमिलाते लोक में खींच ले जाती हो... तुम्हारे सीने के बीच, मुलायम, उजले देह-भाग में मुंह डाल कर पल-भर को सांस लेना कितना अच्छा लगता है मुझे! शायद तुम्हें याद होगा... बात मकड़ी के जाले की तरह तनने लगती है, लेकिन घंटों और घंटों आंखें बंद रखने पर भी शिकार कोई नहीं फंसता और मैं बीवियों और मजदूरों के बारे में सोचने लगता हूं!... आखिर इन दोनों को हरदम शिकायतें क्यों रहती हैं। क्यों इन दोनों के सीने में खारे पानी का इतना विशाल समुद्र फफाया रहता है, मृत्यु की आखिरी कराह की तरह इस समुद्र की लहरें चीख़ती हैं, पर किसी खोखले श्राप की तरह मिथ्या बन कर बिखर जाती हैं। मैं इन विनाशकारी लहरों को दुनिया को निगल जाते देखने के लिए व्याकुल हो उठता हूं, पर हल्की-सी मुस्कुराहट या वह भी नहीं तो बस मुलायम कलाइयों की पकड़ और उस समय कुछ भी और न सुनने की बात... जाने भी दो!... कमर के नीचे नंगी, खुली... मैं इस असामयिक मृत्यु से बचना चाहता हूं, पर कोई चारा नहीं। मुन्नी की मां के जीने का यही सहारा है और मेरे पास उन मृत्यु की घाटियों के सूनेपन को दूर करने का यही उपाय। वह विश्वास नहीं करती, पर मैं सच कहता हूँ कि मुझे इतना बहुत अच्छा लगता है! इसलिए मैं समझ नहीं पाता कि स्त्रियाँ  और मजदूर मालिकों को क्यों ओढ़े हुए हैं, महज इतनी-सी बात के लिए, या मुन्नी की आंखों के मांड़े की दवा या उसके दूध के लिए!
 

Monday, October 31, 2022

मेरा दुश्मन कहानी /Mera Dushman/ Kahani/ EK duniya Samanantar

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मेरा दुश्मन
लेखक :  कृष्ण बलदेव वैद

वह इस समय दूसरे कमरे में बेहोश पड़ा है। आज मैंने उसकी शराब में कोई चीज मिला दी थी, वह शरबत की तरह गट-गट जाता है, और उस पर कोई ख़ास असर नहीं होता। आँखों में लाल डोरे-से झूलने लगते हैं, माथे की शिकनें पसीने में भीगकर दमक उठती हैं, होंठों का जहर और उजागर हो जाता है, और बस- होशोहवास बदस्तूर क़ायम रहते हैं।

हैरान हूँ कि यह तरकीब मुझे पहले कभी क्यों नहीं सूझी। शायद सूझी भी हो, और मैंने कुछ सोचकर इसे दबा दिया हो। मैं हमेशा कुछ-न-कुछ सोचकर कई बातों को दबा जाता हूँ। आज भी मुझे अन्देशा तो था कि वह पहले ही घूँट में जायका पहचानकर मेरी चोरी पकड़ लेगा। लेकिन गिलास ख़त्म होते-होते उसकी आँखें बुझने लगी थीं और मेरा हौसला बढ़ गया था। जी में आया था कि उसी क्षण उसकी गरदन मरोड़ दूँ, लेकिन फिर नतीजों की कल्पना से दिल दहलकर रह गया था। मैं समझता हूँ कि हर बुज़दिल आदमी की कल्पना बहुत तेज़ होती है, हमेशा उसे हर ख़तरे से बचा ले जाती है। फिर भी हिम्मत बाँधकर मैंने एक बार सीधे उसकी ओर देखा ज़रूर था। इतना भी क्या कम है कि साधारण हालात में मेरी निगाहें सहमी हुई-सी उसके सामने इधर-उधर फड़फड़ाती रहती हैं। साधारण हालात में मेरी स्थिति उसके सामने बहुत असाधारण रहती है।

ख़ैर, अब उसकी आँखें बन्द हो चुकी थीं और सिर झूल रहा था। एक ओर लुढ़ककर गिर जाने से पहले उसकी बाँहें दो लदी हुई ढीली टहनियों की सुस्त-सी उठान के साथ मेरी ओर उठ आई थीं। उसे इस तरह लाचार देखकर भ्रम हुआ था कि वह दम तोड़ रहा है।

लेकिन मैं जानता हूँ कि वह मज़ी किसी भी क्षण उछलकर खड़ा हो सकता है। होश सँभालने पर वह कुछ कहेगा नहीं। उसकी ताक़त उसकी ख़ामोशी में है। बातें वह उस ज़माने में भी बहुत कम किया करता था, लेकिन अब तो जैसे बिलकुल गूँगा हो गया हो। • उसकी गूँगी अवहेलना की कल्पना मात्र से मुझे दहशत हो रही है। कहा न कि मैं एक बुजदिल इनसान हूँ।

वैसे मैं न जाने कैसे समझ बैठा था कि इतने अरसे की अलहदगी के बाद अब मैं उसके आतंक से पूरी तरह आजाद हो चुका हूँ। इसी खुशफ़हमी में शायद उस रोज उसे मैं अपने साथ ले आया था। शायद मन में कहीं उस पर रोब गाँठने, उसे नीचा दिखाने की दुराशा भी रही हो। हो सकता है कि मैंने सोचा हो कि वह मेरी जीती-जागती खूबसूरत बीवी, चहकते – मटकते तन्दुरुस्त बच्चों, और आरास्ता-पैरास्ता आलीशान कोठी को देखकर ख़ुद ही मैदान छोड़कर भाग जाएगा, और हमेशा के लिए मुझे उससे निजात मिल जाएगी। शायद मैं उस पर यह साबित कर दिखाना चाहता था कि उससे पीछा छुड़ा लेने के बाद किस खुशगवाह हद तक मैंने अपनी ज़िन्दगी को सँभाल-सँवार लिया है।

मछलियाँ / कहानी /लेखिका उषा प्रियंवदा / एक दुनिया समानांतर

Friday, September 23, 2022

सी बी एस ई Sample Question Papers and Marking Schemes for classes X and XII 2022-23

 सीबीएसई के छात्रों के लिए बोर्ड ने Class 10 & 12 (2022-23)सैम्पल प्रश्न पत्र जारी कर दिए हैं ,कृपया उनकी वेबसाईट से डाउनलोड कर लें। 

The Sample Question Papers and Marking Schemes for classes X and XII 

for the academic session 2022-23 are now available at the following links

https://cbseacademic.nic.in/SQP_CLASSX_2022-23.html

 For class 12 

https://cbseacademic.nic.in/SQP_CLASSXII_2022-23.html

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Thursday, September 1, 2022

भारत दुर्दशा - भारतेंदु हरिश्चंद्र

 Bharatendu Harishchandra 1976 stamp of India.jpg

पहला अंक

मंगलाचरण

जय सतजुग-थापन-करन, नासन म्लेच्छ-आचार।
कठिन धार तरवार कर, कृष्ण कल्कि अवतार ।।
स्थान - बीथी
(एक योगी गाता है)
(लावनी)
रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।। धु्रव ।।
सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो।
सबके पहिले जेहि सभ्य विधाता कीनो ।।
सबके पहिले जो रूप रंग रस भीनो।
सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो ।।
अब सबके पीछे सोई परत लखाई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।
जहँ भए शाक्य हरिचंदरु नहुष ययाती।
जहँ राम युधिष्ठिर बासुदेव सर्याती ।।
जहँ भीम करन अर्जुन की छटा दिखाती।
तहँ रही मूढ़ता कलह अविद्या राती ।।
अब जहँ देखहु दुःखहिं दुःख दिखाई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।
लरि बैदिक जैन डुबाई पुस्तक सारी।
करि कलह बुलाई जवनसैन पुनि भारी ।।
तिन नासी बुधि बल विद्या धन बहु बारी।
छाई अब आलस कुमति कलह अंधियारी ।।
भए अंध पंगु सेब दीन हीन बिलखाई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।
अँगरेजराज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी ।।
ताहू पै महँगी काल रोग बिस्तारी।
दिन दिन दूने दुःख ईस देत हा हा री ।।
सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ।।
(पटीत्तोलन)

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भारतदुर्दशा
दूसरा अंक
स्थान-श्मशान, टूटे-फूटे मंदिर
कौआ, कुत्ता, स्यार घूमते हुए, अस्थि इधर-उधर पड़ी है।
(भारत का प्रवेश)
भारत : हा! यही वही भूमि है जहाँ साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णचंद्र के दूतत्व करने पर भी वीरोत्तम दुर्योधन ने कहा था, ‘सूच्यग्रं नैव दास्यामि बिना युद्धेन केशव’ और आज हम उसी को देखते हैं कि श्मशान हो रही है। अरे यहां की योग्यता, विद्या, सभ्यता, उद्योग, उदारता, धन, बल, मान, दृढ़चित्तता, सत्य सब कहां गए? अरे पामर जयचद्र! तेरे उत्पन्न हुए बिना मेरा क्या डूबा जाता था? हाय! अब मुझे कोई शरण देने वाला नहीं। (रोता है) मातः; राजराजेश्वरि बिजयिनी! मुझे बचाओ। अपनाए की लाज रक्खो। अरे दैव ने सब कुछ मेरा नाश कर दिया पर अभी संतुष्ट नहीं हुआ। हाय! मैंने जाना था कि अँगरेजों के हाथ में आकर हम अपने दुखी मन को पुस्तकों से बहलावेंगे और सुख मानकर जन्म बितावेंगे पर दैव से वह भी न सहा गया। हाय! कोई बचानेवाला नहीं।
(गीत)
कोऊ नहिं पकरत मेरो हाथ।
बीस कोटि सुत होत फिरत मैं हा हा होय अनाथ ।।
जाकी सरन गहत सोई मारत सुनत न कोउ दुखगाथ।
दीन बन्यौ इस सों उन डोलत टकरावत निज माथ ।।
दिन दिन बिपति बढ़त सुख छीजत देत कोऊ नहिं साथ।
सब विधि दुख सागर मैं डूबत धाई उबारौ नाथ ।।
(नेपथ्य में गंभीर और कठोर स्वर से)
अब भी तुझको अपने नाथ का भरोसा है! खड़ा तो रह। अभी मैंने तेरी आशा की जड़ न खोद डाली तो मेरा नाम नहीं।
भारत : (डरता और काँपता हुआ रोकर) अरे यह विकराल वदन कौन मुँह बाए मेरी ओर दौड़ता चला आता है? हाय-हाय इससे वै$से बचेंगे? अरे यह तो मेरा एक ही कौर कर जायेगा! हाय! परमेश्वर बैकुंठ में और राजराजेश्वरी सात समुद्र पार, अब मेरी कौन दशा होगी? हाय अब मेरे प्राण कौन बचावेगा? अब कोई उपाय नहीं। अब मरा, अब मरा। (मूर्छा खाकर गिरता है)
(निर्लज्जता आती है)
निर्लज्जता : मेरे आछत तुमको अपने प्राण की फिक्र। छिः छिः! जीओगे तो भीख माँग खाओगे। प्राण देना तो कायरों का काम है। क्या हुआ जो धनमान सब गया ‘एक जिंदगी हजार नेआमत है।’ (देखकर) अरे सचमुच बेहोश हो गया तो उठा ले चलें। नहीं नहीं मुझसे अकेले न उठेगा। (नेपथ्य की ओर) आशा! आशा! जल्दी आओ।
(आशा आती है)
निर्लज्जता : यह देखो भारत मरता है, जल्दी इसे घर उठा ले चलो।
आशा : मेरे आछत किसी ने भी प्राण दिया है? ले चलो; अभी जिलाती हूँ।
(दोनों उठाकर भारत को ले जाते हैं)

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भारतदुर्दशा
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तीसरा अंक

स्थान-मैदान
(फौज के डेरे दिखाई पड़ते हैं! 'भारतदुर्दैव' आता है)
भारतदुर्दैव : कहाँ गया भारत मूर्ख! जिसको अब भी परमेश्वर और राजराजेश्वरी का भरोसा है? देखो तो अभी इसकी क्या क्या दुर्दशा होती है।
(नाचता और गाता हुआ)
अरे!
उपजा ईश्वर कोप से औ आया भारत बीच।
छार खार सब हिंद करूँ मैं, तो उत्तम नहिं नीच।
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
कौड़ी कौड़ी को करूँ मैं सबको मुहताज।
भूखे प्रान निकालूँ इनका, तो मैं सच्चा राज। मुझे...
काल भी लाऊँ महँगी लाऊँ, और बुलाऊँ रोग।
पानी उलटाकर बरसाऊँ, छाऊँ जग में सोग। मुझे...
फूट बैर औ कलह बुलाऊँ, ल्याऊँ सुस्ती जोर।
घर घर में आलस फैलाऊँ, छाऊँ दुख घनघोर। मुझे...
काफर काला नीच पुकारूँ, तोडूँ पैर औ हाथ।
दूँ इनको संतोष खुशामद, कायरता भी साथ। मुझे...
मरी बुलाऊँ देस उजाडूँ महँगा करके अन्न।
सबके ऊपर टिकस लगाऊ, धन है भुझको धन्न।
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
(नाचता है)
अब भारत कहाँ जाता है, ले लिया है। एक तस्सा बाकी है, अबकी हाथ में वह भी साफ है। भला हमारे बिना और ऐसा कौन कर सकता है कि अँगरेजी अमलदारी में भी हिंदू न सुधरें! लिया भी तो अँगरेजों से औगुन! हा हाहा! कुछ पढ़े लिखे मिलकर देश सुधारा चाहते हैं? हहा हहा! एक चने से भाड़ फोडं़गे। ऐसे लोगों को दमन करने को मैं जिले के हाकिमों को न हुक्म दूँगा कि इनको डिसलायल्टी में पकड़ो और ऐसे लोगों को हर तरह से खारिज करके जितना जो बड़ा मेरा मित्र हो उसको उतना बड़ा मेडल और खिताब दो। हैं! हमारी पालिसी के विरुद्ध उद्योग करते हैं मूर्ख! यह क्यों? मैं अपनी फौज ही भेज के न सब चैपट करता हूँ। (नेपथ्य की ओर देखकर) अरे कोई है? सत्यानाश फौजदार को तो भेजो।
(नेपथ्य में से ‘जो आज्ञा’ का शब्द सुनाई पड़ता है)
देखो मैं क्या करता हूँ। किधर किधर भागेंगे।
(सत्यानाश फौजदार आते हैं)
(नाचता हुआ)
सत्यानाश फौजदार : हमारा नाम है सत्यानास।
धरके हम लाखों ही भेस।
बहुत हमने फैलाए धर्म।
होके जयचंद हमने इक बार।
हलाकू चंगेजो तैमूर।
दुरानी अहमद नादिरसाह।
हैं हममें तीनों कल बल छल।
पिलावैंगे हम खूब शराब।
भारतदुर्दैव : अंहा सत्यानाशजी आए। आओे, देखो अभी फौज को हुक्म दो कि सब लोग मिल के चारों ओर से हिंदुस्तान को घेर लें। जो पहले से घेरे हैं उनके सिवा औरों को भी आज्ञा दो कि बढ़ चलें।
सत्यानाश फौजदार. : महाराज ‘इंद्रजीत सन जो कछु भाखा, सो सब जनु पहिलहिं करि राखा।’ जिनको आज्ञा हो चुकी है वे तो अपना काम कर ही चुके और जिसको जो हुक्म हो, कर दिया जाय।
भारतदुर्दैव : किसने किसने क्या क्या किया है?
सत्यानाश फौजदार. : महाराज! धर्म ने सबके पहिले सेवा की।
रचि बहु बिधि के वाक्य पुरानन माँहि घुसाए।
शैव शाक्त वैष्णव अनेक मत प्रगटि चलाए ।।
जाति अनेकन करी नीच अरु ऊँच बनायो।
खान पान संबंध सबन सों बरजिं छुड़ायो ।।
जन्मपत्रा विधि मिले ब्याह नहिं होन देत अब।
बालकपन में ब्याहि प्रीतिबल नास कियो सब ।।
करि कुलान के बहुत ब्याह बल बीरज मारयो।
बिधवा ब्याह निषेध कियो बिभिचार प्रचारो ।।
रोकि विलायतगमन कूपमंडूक बनायो।
यौवन को संसर्ग छुड़ाई प्रचार घटायो ।।
बहु देवी देवता भूत पे्रतादि पुजाई।
ईश्वर सो सब बिमुख किए हिंदू घबराई ।।
भारतदुर्दैव : आहा! हाहा! शाबाश! शाबाश! हाँ, और भी कुछ धम्र्म ने किया?
सत्यानाश फौजदार. : हाँ महाराज।
अपरस सोल्हा छूत रचि, भोजनप्रीति छुड़ाय।
किए तीन तेरह सबै, चैका चैका छाय ।।
भारतदुर्दैव : और भी कुछ?
सत्यानाश फौजदार. : हाँ।
रचिकै मत वेदांत को, सबको ब्रह्म बनाय।
हिंदुन पुरुषोत्तम कियो, तोरि हाथ अरू पाय ।।
महाराज, वेदांत ने बड़ा ही उपकार किया। सब हिंदू ब्रह्म हो गए। किसी को इतिकत्र्तव्यता बाकी ही न रही। ज्ञानी बनकर ईश्वर से विमुख हुए, रुक्ष हुए, अभिमानी हुए और इसी से स्नेहशून्य हो गए। जब स्नेह ही नहीं तब देशोद्धार का प्रयत्न कहां! बस, जय शंकर की।
सत्यानाश फौजदार. : हाँ महाराज।
भारतदुर्दैव : अच्छा, और किसने किसने क्या किया?
सत्यानाश फौजदार. : महाराज, फिर संतोष ने भी बड़ा काम किया। राजा प्रजा सबको अपना चेला बना लिया। अब हिंदुओं को खाने मात्रा से काम, देश से कुछ काम नहीं। राज न रहा, पेनसन ही सही। रोजगार न रहा, सूद ही सही। वह भी नहीं, तो घर ही का सही, ‘संतोषं परमं सुखं’ रोटी को ही सराह सराह के खाते हैं। उद्यम की ओ देखते ही नहीं। निरुद्यमता ने भी संतोष को बड़ी सहायता दी। इन दोनों को बहादुरी का मेडल जरूर मिले। व्यापार को इन्हीं ने मार गिराया।
भारतदुर्दैव : और किसने क्या किया?
सत्यानाश फौजदार. : फिर महाराज जो धन की सेना बची थी उसको जीतने को भी मैंने बडे़ बांके वीर भेजे। अपव्यय, अदालत, फैशन और सिफारिश इन चारों ने सारी दुश्मन की फौज तितिर बितिर कर दी। अपव्यय ने खूब लूट मचाई। अदालत ने भी अच्छे हाथ साफ किए। फैशन ने तो बिल और टोटल के इतने गोले मारे कि अंटाधार कर दिया और सिफारिश ने भी खूब ही छकाया। पूरब से पश्चिम और पश्चिम से पूरब तक पीछा करके खूब भगाया। तुहफे, घूस और चंदे के ऐसे बम के गोले चलाए कि ‘बम बोल गई बाबा की चारों दिसा’ धूम निकल पड़ी। मोटा भाई बना बनाकर मूँड़ लिया। एक तो खुद ही यह सब पँडिया के ताऊ, उस पर चुटकी बजी, खुशामद हुई, डर दिखाया गया, बराबरी का झगड़ा उठा, धांय धांय गिनी गई1 वर्णमाला कंठ कराई,2 बस हाथी के खाए कैथ हो गए। धन की सेना ऐसी भागी कि कब्रों में भी न बची, समुद्र के पार ही शरण मिली।
भारतदुर्दैव : और भला कुछ लोग छिपाकर भी दुश्मनों की ओर भेजे थे?
सत्यानाश फौजदार. : हाँ, सुनिए। फूट, डाह, लोभ, भेय, उपेक्षा, स्वार्थपरता, पक्षपात, हठ, शोक, अश्रुमार्जन और निर्बलता इन एक दरजन दूती और दूतों को शत्रुओं की फौज में हिला मिलाकर ऐसा पंचामृत बनाया कि सारे शत्रु बिना मारे घंटा पर के गरुड़ हो गए। फिर अंत में भिन्नता गई। इसने ऐसा सबको काई की तरह फाड़ा धर्म, चाल, व्यवहार, खाना, पीना सब एक एक योजन पर अलग अलग कर दिया। अब आवें बचा ऐक्य! देखें आ ही के क्या करते हैं!
भारतदुर्दैव : भला भारत का शस्य नामक फौजदार अभी जीता है कि मर गया? उसकी पलटन कैसी है?
सत्यानाश फौजदार. : महाराज! उसका बल तो आपकी अतिवृष्टि और अनावृष्टि नामक फौजों ने बिलकुल तोड़ दिया। लाही, कीड़े, टिड्डी और पाला इत्यादि सिपाहियों ने खूब ही सहायता की। बीच में नील ने भी नील बनकर अच्छा लंकादहन किया।
भारतदुर्दैव : वाह! वाह! बड़े आनंद की बात सुनाई। तो अच्छा तुम जाओ। कुछ परवाह नहीं, अब ले लिया है। बाकी साकी अभी सपराए डालता हूँ। अब भारत कहाँ जाता है। तुम होशियार रहना और रोग, महर्घ, कर, मद्य, आलस और अंधकार को जरा क्रम से मेरे पास भेज दो।
सत्यानाश फौजदार. : जो आज्ञा।
ख्जाता है,
भारतदुर्दैव : अब उसको कहीं शरण न मिलेगी। धन, बल और विद्या तीनों गई। अब किसके बल कूदेगा?
(जवनिका गिरती है)
भारत -दुर्दशा

चौथा अंक

(कमरा अँगरेजी ढंग से सजा हुआ, मेज, कुरसी लगी हुई। कुरसी पर भारत दुर्दैव बैठा है)
(रोग का प्रवेश)
रोग (गाता हुआ) : जगत् सब मानत मेरी आन।
मेरी ही टट्टी रचि खेलत नित सिकार भगवान ।।
मृत्यु कलंक मिटावत मैं ही मोसम और न आन।
परम पिता हम हीं वैद्यन के अत्तारन के प्रान ।।
मेरा प्रभाव जगत विदित है। कुपथ्य का मित्र और पथ्य का शत्रु मैं ही हूँ। त्रौलोक्य में ऐसा कौन है जिस पर मेरा प्रभुत्व नहीं। नजर, श्राप, प्रेत, टोना, टनमन, देवी, देवता सब मेरे ही नामांतर हैं। मेरी ही बदौलत ओझा, दरसनिए, सयाने, पंडित, सिद्ध लोगों को ठगते हैं। (आतंक से) भला मेरे प्रबल प्रताप को ऐसा कौन है जो निवारण करे। हह! चुंगी की कमेटी सफाई करके मेरा निवारण करना चाहती है, यह नहीं जानती कि जितनी सड़क चैड़ी होगी उतने ही हम भी ‘जस जस सुरसा वदन बढ़ावा, तासु दुगुन कपि रूप दिखावा’। (भारतदुदैव को देखकर) महाराज! क्या आज्ञा है?
भारतदुर्दैव : आज्ञा क्या है, भारत को चारों ओर से घेर लो।
रोग : महाराज! भारत तो अब मेरे प्रवेशमात्रा से मर जायेगा। घेरने को कौन काम है? धन्वंतरि और काशिराज दिवोदास का अब समय नहीं है। और न सुश्रुत, वाग्भट्ट, चरक ही हैं। बैदगी अब केवल जीविका के हेतु बची है। काल के बल से औषधों के गुणों और लोगों की प्रकृति में भी भेद पड़ गया। बस अब हमें कौन जीतेगा और फिर हम ऐसी सेना भेजेंगे जिनका भारतवासियों ने कभी नाम तो सुना ही न होगा; तब भला वे उसका प्रतिकार क्या करेंगे! हम भेजेंगे विस्फोटक, हैजा, डेंगू, अपाप्लेक्सी। भला इनको हिंदू लोग क्या रोकेंगे? ये किधर से चढ़ाई करते हैं और कैसे लड़ते हैं जानेंगे तो हई नहीं, फिर छुट्टी हुई वरंच महाराज, इन्हीं से मारे जायँगे और इन्हीं को देवता करके पूजेंगे, यहाँ तक कि मेरे शत्रु डाक्टर और विद्वान् इसी विस्फोटक के नाश का उपाय टीका लगाना इत्यादि कहेंगे तो भी ये सब उसको शीतला के डर से न मानंगे और उपाय आछत अपने हाथ प्यारे बच्चों की जान लेंगे।
भारतदुर्दैव : तो अच्छा तुम जाओ। महर्घ और टिकस भी यहाँ आते होंगे सो उनको साथ लिए जाओ। अतिवृष्टि, अनावृष्टि की सेना भी वहाँ जा चुकी है। अनक्य और अंधकार की सहायता से तुम्हें कोई भी रोक न सकेगा। यह लो पान का बीड़ा लो। (बीड़ा देता है)
(रोग बीड़ा लेकर प्रणाम करके जाता है)
भारतदुर्दैव : बस, अब कुछ चिंता नहीं, चारों ओर से तो मेरी सेना ने उसको घेर लिया, अब कहाँ बच सकता है।
(आलस्य का प्रवेश1)
आलस्य : हहा! एक पोस्ती ने कहा; पोस्ती ने पी पोस्त नै दिन चले अढ़ाई कोस। दूसरे ने जवाब दिया, अबे वह पोस्ती न होगा डाक का हरकारा होगा। पोस्ती ने जब पोस्त पी तो या कूँड़ी के उस पार या इस पार ठीक है। एक बारी में हमारे दो चेले लेटे थे ओर उसी राह से एक सवार जाता था। पहिले ने पुकारा "भाई सवार, सवार, यह पक्का आम टपक कर मेरी छाती पर पड़ा है, जरा मेरे मुँह में तो डाल।" सवार ने कहा "अजी तुम बड़े आलसी हो। तुम्हारी छाती पर आम पड़ा है सिर्फ हाथ से उठाकर मुँह में डालने में यह आलस है!’’ दूसरा बोला ठीक है साहब, यह बड़ा ही आलसी है। रात भर कुत्ता मेरा मुँह चाटा किया और यह पास ही पड़ा था पर इसने न हाँका।’’ सच है किस जिंदगी के वास्ते तकलीफ उठाना; मजे में हालमस्त पड़े रहना। सुख केवल हम में है ‘आलसी पड़े कुएँ में वहीं चैन है।’
(गाता है)
(गज़ल)
दुनिया में हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा।
मर जाना पै उठके कहीं जाना नहीं अच्छा ।।
बिस्तर प मिस्ले लोथ पडे़ रहना हमेशा।
बंदर की तरह धूम मचाना नहीं अच्छा ।।
"रहने दो जमीं पर मुझे आराम यहीं है।"
छेड़ो न नक्शेपा है मिटाना नहीं अच्छा ।।
उठा करके घर से कौन चले यार के घर तक।
‘‘मौत अच्छी है पर दिल का लगाना नहीं अच्छा ।।"
धोती भी पहिने जब कि कोई गैर पिन्हा दे।
उमरा को हाथ पैर चलाना नहीं अच्छा ।।
सिर भारी चीज है इस तकलीफ हो तो हो।
पर जीभ विचारी को सताना नहीं अच्छा ।।
फाकों से मरिए पर न कोई काम कीजिए।
दुनिया नहीं अच्छी है जमाना नहीं अच्छा ।।
सिजदे से गर बिहिश्त मिले दूर कीजिए।
दोजख ही सही सिर का झुकाना नहीं अच्छा ।।
मिल जाय हिंद खाक में हम काहिलों को क्या।
ऐ मीरे फर्श रंज उठाना नहीं अच्छा ।।
और क्या। काजी जो दुबले क्यों, कहैं शहर के अंदेशे से। अरे ‘कोउ नृप होउ हमें का हानी, चैरि छाँड़ि नहिं होउब रानी।’ आनंद से जन्म बिताना। ‘अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।’ जो पढ़तव्यं सो मरतव्यं, तो न पढतव्यं सो भी मरतव्यं तब फिर दंतकटाकट किं कर्तव्यं?’ भई जात में ब्राह्मण, धर्म में वैरागी, रोजगार में सूद और दिल्लगी में गप सब से अच्छी। घर बैठे जन्म बिताना, न कहीं जाना और न कहीं आना सब खाना, हगना, मूतना, सोना, बात बनाना, तान मारना और मस्त रहना। अमीर के सर पर और क्या सुरखाब का पर होता है, जो कोई काम न करे वही अमीर। ‘तवंगरी बदिलस्त न बमाल।’1 दोई तो मस्त हैं या मालमस्त या हालमस्त
(भारतदुर्दैव को देखकर उसके पास जाकर प्रणाम करके) महाराज! मैं सुख से सोया था कि आपकी आज्ञा पहुँची, ज्यों त्यों कर यहाँ हाजिर हुआ। अब हुक्म?
भारतदुर्दैव : तुम्हारे और साथी सब हिंदुस्तान की ओर भेजे गए हैं।, तुम भी वहीं जाओ और अपनी जोगनिंद्रा से सब को अपने वश में करो।
आलस्य : बहुत अच्छा। (आप ही आप) आह रे बप्पा! अब हिंदुस्तान में जाना पड़ा। तब चलो धीरे-धीरे चलें। हुक्म न मानेंगे तो लोग कहेंगे ‘सर सरबसखाई भोग करि नाना समरभूमि भा दुरलभ प्राना।’ अरे करने को दैव आप ही करेगा, हमारा कौन काम है, पर चलें।
(यही सब बुड़बुडाता हुआ जाता है)
(मदिरा2 आती है)
मदिरा : भगवान् सोम की मैं कन्या हूँ। प्रथम वेदों ने मधु नाम से मुझे आदर दिया। फिर देवताओं की प्रिया होने से मैं सुरा कहलाई और मेरे प्रचार के हेतु श्रौत्रामणि यज्ञ की सृष्टि हुई। स्मृति और पुराणों में भी प्रवृत्ति मेरी नित्य कही गई। तंत्रा तो केवल मेरी ही हेतु बने। संसार में चार मत बहुत प्रबल हैं, हिंदू बौद्ध, मुसलमान और क्रिस्तान। इन चारों में मेरी चार पवित्र प्रेममूर्ति विराजमान हैं। सोमपान, बीराचमन, शराबूनतहूरा और बाप टैजिग वाइन। भला कोई कहे तो इनको अशुद्ध? या जो पशु हैं उन्होंने अशुद्ध कहा ही तो क्या हमारे चाहनेवालों के आगे वे लोग बहुत होंगे तो फी संकड़े दस हांगे, जगत् में तो हम व्याप्त हैं। हमारे चेले लोग सदा यही कहा करते हैं। फिर सरकार के राज्य के तो हम एकमात्रा भूषण हैं।
दूध सुरा दधिहू सुरा, सुरा अन्न धन धाम।
वेद सुरा ईश्वर सुरा, सुरा स्वर्ग को नाम ।।
जाति सुरा विद्या सुरा, बिनु मद रहै न कोय।
सुधरी आजादी सुरा, जगत् सुरामय होय ।।
ब्राह्मण क्षत्री वैश्य अरु, सैयद सेख पठान।
दै बताइ मोहि कौन जो, करत न मदिरा पान ।।
पियत भट्ट के ठट्ट अरु, गुजरातिन के वृंद।
गौतम पियत अनंद सों, पियत अग्र के नंद ।।
होटल में मदिरा पिएँ, चोट लगे नहिं लाज।
लोट लए ठाढे़ रहत, टोटल दैवे काज ।।
कोउ कहत मद नहिं पिएँ, तो कछु लिख्यों न जाय।
कोउ कहत हम मद्य बल, करत वकीली आय ।।
मद्यहि के परभाव सों, रचन अनेकन ग्रंथ।
मद्यहि के परकास सों, लखत धरम को पंथ ।।
मद पी विधिजग को करत, पालत हरि करि पान।
मद्यहि पी कै नाश सब, करत शंभु भगवान् ।।
विष्णु बारूणी, पोर्ट पुरुषोत्तम, मद्य मुरारि।
शांपिन शिव गौड़ी गिरिश, ब्रांड़ी ब्रह्म बिचारि ।।
मेरी तो धन बुद्धि बल, कुल लज्जा पति गेह।
माय बाप सुत धर्म सब, मदिरा ही न सँदेह ।।
सोक हरन आनँद करन, उमगावन सब गात।
हरि मैं तपबिनु लय करनि, केवल मद्य लखात ।।
सरकारहि मंजूर जो मेरा होत उपाय।
तो सब सों बढ़ि मद्य पै देती कर बैठाय ।।
हमहीं कों या राज की, परम निसानी जान।
कीर्ति खंभ सी जग गड़ी, जब लौं थिर सति भान ।।
राजमहल के चिन्ह नहिं, मिलिहैं जग इत कोय।
तबहू बोतल टूक बहु, मिलिहैं कीरति होय ।।
 

हमारी प्रवृत्ति के हेतु कुछ यत्न करने की आवश्यकता नहीं। मनु पुकारते हैं ‘प्रवृत्तिरेषा भूतानां’ और भागवत में कहा है ‘लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्य यास्ति जंतोः।’ उसपर भी वर्तमान समय की सभ्यता की तो मैं मुख्यमूलसूत्रा हूँ।
विषयेंद्रियों के सुखानुभव मेरे कारण द्विगुणित हो जाते हैं। संगीत साहित्य की तो एकमात्रा जननी हूँ। फिर ऐसा कौन है जो मुझसे विमुख हो?
(गाती है)
(राग काफी, धनाश्री का मेल, ताल धमार)
मदवा पीले पागल जीवन बीत्यौ जात।
बिनु मद जगत सार कछु नाहीं मान हमारी बात ।।
पी प्याला छक छक आनँद से नितहि साँझ और प्रात।
झूमत चल डगमगी चाल से मारि लाज को लात ।।
हाथी मच्छड़, सूरज जुगुनू जाके पिए लखात।
ऐसी सिद्धि छोड़ि मन मूरख काहे ठोकर खात ।।
(राजा को देखकर) महाराज! कहिए क्या हुक्म है?
भारतदुर्दैव : हमने बहुत से अपने वीर हिंदुस्तान में भेजे हैं। परंतु मुझको तुमसे जितनी आशा है उतनी और किसी से नहीं है। जरा तुम भी हिंदुस्तान की तरफ जाओ और हिंदुओं से समझो तो।
मदिरा : हिंदुओं के तो मैं मुद्दत से मुँहलगी हँू, अब आपकी आज्ञा से और भी अपना जाल फैलाऊँगी और छोटे बडे़ सबके गले का हार बन जाऊँगी। (जाती है)
(रंगशाला के दीपों में से अनेक बुझा दिए जायँगे)
(अंधकार का प्रवेश)
(आँधी आने की भाँति शब्द सुनाई पड़ता है)
अंधकार : (गाता हुआ स्खलित नृत्य करता है)
(राग काफी)
जै जै कलियुग राज की, जै महामोह महराज की।
अटल छत्र सिर फिरत थाप जग मानत जाके काज की ।।
कलह अविद्या मोह मूढ़ता सवै नास के साज की ।।
हमारा सृष्टि संहार कारक भगवान् तमोगुण जी से जन्म है। चोर, उलूक और लंपटों के हम एकमात्रा जीवन हैं। पर्वतों की गुहा, शोकितों के नेत्रा, मूर्खों के मस्तिष्क और खलों के चित्त में हमारा निवास है। हृदय के और प्रत्यक्ष, चारों नेत्रा हमारे प्रताप से बेकाम हो जाते हैं। हमारे दो स्वरूप हैं, एक आध्यात्मिक और एक आधिभौतिक, जो लोक में अज्ञान और अँधेरे के नाम से प्रसिद्ध हैं। सुनते हैं कि भारतवर्ष में भेजने को मुझे मेरे परम पूज्य मित्र दुर्दैव महाराज ने आज बुलाया है। चलें देखें क्या कहते हैं (आगे बढ़कर) महाराज की जय हो, कहिए क्या अनुमति है?
भारतदुर्दैव : आओ मित्र! तुम्हारे बिना तो सब सूना था। यद्यपि मैंने अपने बहुत से लोग भारत विजय को भेजे हैं पर तुम्हारे बिना सब निर्बल हैं। मुझको तुम्हारा बड़ा भरोसा है, अब तुमको भी वहाँ जाना होगा।
अंधकार : आपके काम के वास्ते भारत क्या वस्तु है, कहिए मैं विलायत जाऊँ।
भारतदुर्दैव : नहीं, विलायत जाने का अभी समय नहीं, अभी वहाँ त्रोता, द्वापर है।
अंधकार : नहीं, मैंने एक बात कही। भला जब तक वहाँ दुष्टा विद्या का प्राबल्य है, मैं वहाँ जाही के क्या करूँगा? गैस और मैगनीशिया से मेरी प्रतिष्ठा भंग न हो जायेगी।
भारतदुर्दैव : हाँ, तो तुम हिंदुस्तान में जाओ और जिसमें हमारा हित हो सो करो। बस ‘बहुत बुझाई तुमहिं का कहऊँ, परम चतुर मैं जानत अहऊँ।’
अंध : बहुत अच्छा, मैं चला। बस जाते ही देखिए क्या करता हूँ। (नेपथ्य में बैतालिक गान और गीत की समाप्ति में क्रम से पूर्ण अंधकार और पटाक्षेप)
निहचै भारत को अब नास।
जब महराज विमुख उनसों तुम निज मति करी प्रकास ।।
अब कहुँ सरन तिन्हैं नहिं मिलिहै ह्नै है सब बल चूर।
बुधि विद्या धन धान सबै अब तिनको मिलिहैं धूर ।।
अब नहिं राम धर्म अर्जुन नहिं शाक्यसिंह अरु व्यास।
करिहै कौन पराक्रम इनमें को दैहे अब आस ।।
सेवाजी रनजीत सिंह हू अब नहिं बाकी जौन।
करिहैं वधू नाम भारत को अब तो नृप मौन ।।
वही उदैपुर जैपुर रीवाँ पन्ना आदिक राज।
परबस भए न सोच सकहिं कुछ करि निज बल बेकाज ।।
अँगरेजहु को राज पाइकै रहे कूढ़ के कूढ़।
स्वारथपर विभिन्न-मति-भूले हिंदू सब ह्नै मूढ़ ।।
जग के देस बढ़त बदि बदि के सब बाजी जेहि काल।
ताहू समय रात इनकी है ऐसे ये बेहाल ।।
छोटे चित अति भीरु बुद्धि मन चंचल बिगत उछाह।
उदर-भरन-रत, ईसबिमुख सब भए प्रजा नरनाह ।।
इनसों कुछ आस नहिं ये तो सब विधि बुधि-बल हीन।
बिना एकता-बुद्धि-कला के भए सबहि बिधि दीन ।।
बोझ लादि कै पैर छानि कै निज सुख करहु प्रहार।
ये रासभ से कुछ नहिं कहिहैं मानहु छमा अगार ।।
हित अनहित पशु पक्षी जाना’ पै ये जानहिं नाहिं।
भूले रहत आपुने रँग मैं फँसे मूढ़ता माहिं ।।
जे न सुनहिं हित, भलो करहिं नहिं तिनसों आसा कौन।
डंका दै निज सैन साजि अब करहु उतै सब गौन ।।
(जवनिका गिरती है)
भारत दुर्दशा
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पांचवां अंक

स्थान-किताबखाना
(सात सभ्यों की एक छोटी सी कमेटी; सभापति चक्करदार टोपी पहने,
चश्मा लगाए, छड़ी लिए; छह सभ्यों में एक बंगाली, एक महाराष्ट्र,
एक अखबार हाथ में लिए एडिटर, एक कवि और दो देशी महाशय)
सभापति : (खड़े होकर) सभ्यगण! आज की कमेटी का मुख्य उदेश्य यह है कि भारतदुर्दैव की, सुुना है कि हम लोगों पर चढ़ाई है। इस हेतु आप लोगों को उचित है कि मिलकर ऐसा उपाय सोचिए कि जिससे हम लोग इस भावी आपत्ति से बचें। जहाँ तक हो सके अपने देश की रक्षा करना ही हम लोगों का मुख्य धर्म है। आशा है कि आप सब लोग अपनी अपनी अनुमति प्रगट करेंगे। (बैठ गए, करतलध्वनि)
बंगाली : (खड़े होकर) सभापति साहब जो बात बोला सो बहुत ठीक है। इसका पेशतर कि भारतदुर्दैव हम लोगों का शिर पर आ पड़े कोई उसके परिहार का उपाय सोचना अत्यंत आवश्यक है किंतु प्रश्न एई है जे हम लोग उसका दमन करने शाकता कि हमारा बोज्र्जोबल के बाहर का बात है। क्यों नहीं शाकता? अलबत्त शकैगा, परंतु जो सब लोग एक मत्त होगा। (करतलध्वनि) देखो हमारा बंगाल में इसका अनेक उपाय साधन होते हैं। ब्रिटिश इंडियन ऐसोशिएशन लीग इत्यादि अनेक शभा भ्री होते हैं। कोई थोड़ा बी बात होता हम लोग मिल के बड़ा गोल करते। गवर्नमेंट तो केवल गोलमाल शे भय खाता। और कोई तरह नहीं शोनता। ओ हुँआ आ अखबार वाला सब एक बार ऐसा शोर करता कि गवेर्नमेंट को अलबत्ता शुनने होता। किंतु हेंयाँ, हम देखते हैं कोई कुछ नहीं बोलता। आज शब आप सभ्य लोग एकत्रा हैं, कुछ उपाय इसका अवश्य सोचना चाहिए। (उपवेशन)।
पहला देशी : (धीरे से) यहीं, मगर जब तक कमेटी में हैं तभी तक। बाहर निकले कि फिर कुछ नहीं।
दूसरा देशी : ख्धीरे से, क्यों भाई साहब; इस कमेटी में आने से कमिश्नर हमारा नाम तो दरबार से खारिज न कर देंगे?
एडिटर : (खडे़ होकर) हम अपने प्राणपण से भारत दुर्दैव को हटाने को तैयार हैं। हमने पहिले भी इस विषय में एक बार अपने पत्रा में लिखा था परंतु यहां तो कोई सुनता ही नहीं। अब जब सिर पर आफत आई सो आप लोग उपाय सोचने लगे। भला अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है जो कुछ सोचना हो जल्द सोचिए। (उपवेशन)
कवि : (खडे़ होकर) मुहम्मदशाह ने भाँड़ों ने दुश्मन को फौज से बचने का एक बहुत उत्तम उपाय कहा था। उन्होंने बतलाया कि नादिरशाह के मुकाबले में फौज न भेजी जाय। जमना किनारे कनात खड़ी कर दी जायँ, कुछ लोग चूड़ी पहने कनात के पीछे खड़े रहें। जब फौज इस पार उतरने लगें, कनात के बाहर हाथ निकालकर उँगली चमकाकर कहें ‘‘मुए इधर न आइयो इधर जनाने हैं’’। बस सब दुश्मन हट जायँगे। यही उपाय भारतदुर्दैव से बचने को क्यों न किया जाय।
बंगाली : (खड़े होकर) अलबत, यह भी एक उपाय है किंतु असभ्यगण आकर जो स्त्री लोगों का विचार न करके सहसा कनात को आक्रमण करेगा तो? (उपवेशन)
एडिटर : (खड़े होकर) हमने एक दूसरा उपाय सोचा है, एडूकेशन की एक सेना बनाई जाय। कमेटी की फौज। अखबारों के शस्त्रा और स्पीचों के गोले मारे जायँ। आप लोग क्या कहते हैं? (उपवेशन)
दूसरा देशी : मगर जो हाकिम लोग इससे नाराज हों तो? (उपवेशन)
बंगाली : हाकिम लोग काहे को नाराज होगा। हम लोग शदा चाहता कि अँगरेजों का राज्य उत्पन्न न हो, हम लोग केवल अपना बचाव करता। (उपवेशन)
महा. : परंतु इसके पूर्व यह होना अवश्य है कि गुप्त रीति से यह बात जाननी कि हाकिम लोग भारतदुर्दैव की सैन्य से मिल तो नहीं जायँगे।
दूसरा देशी : इस बात पर बहस करना ठीक नहीं। नाहक कहीं लेने के देने न पड़ें, अपना काम देखिए (उपवेशन और आप ही आप) हाँ, नहीं तो अभी कल ही झाड़बाजी होय।
महा. : तो सार्वजनिक सभा का स्थापन करना। कपड़ा बीनने की कल मँगानी। हिदुस्तानी कपड़ा पहिनना। यह भी सब उपाय हैं।
दूसरा देशी : (धीरे से)-बनात छोड़कर गंजी पहिरेंगे, हें हें।
एडिटर : परंतु अब समय थोड़ा है जल्दी उपाय सोचना चाहिए।
कवि : अच्छा तो एक उपाय यह सोचो कि सब हिंदू मात्रा अपना फैशन छोड़कर कोट पतलून इत्यादि पहिरें जिसमें सब दुर्दैव की फौज आवे तो हम लोगों को योरोपियन जानकर छोड़ दें।
पहला देशी : पर रंग गोरा कहाँ से लावेंगे?
बंगाली : हमारा देश में भारत उद्धार नामक एक नाटक बना है। उसमें अँगरेजों को निकाल देने का जो उपाय लिखा, सोई हम लोग दुर्दैव का वास्ते काहे न अवलंबन करें। ओ लिखता पाँच जन बंगाली मिल के अँगरेजों को निकाल देगा। उसमें एक तो पिशान लेकर स्वेज का नहर पाट देगा। दूसरा बाँस काट काट के पवरी नामक जलयंत्रा विशेष बनावेगा। तीसरा उस जलयंत्रा से अंगरेजों की आँख में धूर और पानी डालेगा।
महा. : नहीं नहीं, इस व्यर्थ की बात से क्या होना है। ऐसा उपाय करना जिससे फल सिद्धि हो।
पहला देशी : (आप ही आप) हाय! यह कोई नहीं कहता कि सब लोग मिलकर एक चित हो विद्या की उन्नति करो, कला सीखो जिससे वास्तविक कुछ उन्नति हो। क्रमशः सब कुछ हो जायेगा।
एडिटर : आप लोग नाहक इतना सोच करते हैं, हम ऐसे ऐसे आर्टिकिल लिखेंगे कि उसके देखते ही दुर्दैव भागेगा।
कवि : और हम ऐसी ही ऐसी कविता करेंगे।
पहला देशी : पर उनके पढ़ने का और समझने का अभी संस्कार किसको है?
(नेपथ्य में से)
भागना मत, अभी मैं आती हूँ।
(सब डरके चैकन्ने से होकर इधर उधर देखते हैं)
दूसरा देशी : (बहुत डरकर) बाबा रे, जब हम कमेटी में चले थे तब पहिले ही छींक हुई थी। अब क्या करें। (टेबुल के नीचे छिपने का उद्योग करता है)
(डिसलायलटी1 का प्रवेश)
सभापति : (आगे से ले आकर बड़े शिष्टाचार से) आप क्यों यहाँ तशरीफ लाई हैं? कुछ हम लोग सरकार के विरुद्ध किसी प्रकार की सम्मति करने को नहीं एकत्रा हुए हैं। हम लोग अपने देश की भलाई करने को एकत्रा हुए हैं।
डिसलायलटी: नहीं, नहीं, तुम सब सरकार के विरुद्ध एकत्रा हुए हो, हम तुमको पकडे़ंगे।
बंगाली : (आगे बढ़कर क्रोध से) काहे को पकडे़गा, कानून कोई वस्तु नहीं है। सरकार के विरुद्ध कौन बात हम लोग बाला? व्यर्थ का विभीषिका!
डिसलायलटी : हम क्या करें, गवर्नमेंट की पालिसी यही है। कवि वचन सुधा नामक पत्रा में गवर्नमेंट के विरुद्ध कौन बात थी? फिर क्यों उसे पकड़ने को हम भेजे गए? हम लाचार हैं।
दूसरा देशी : (टेबुल के नीचे से रोकर) हम नहीं, हम नहीं, तमाशा देखने आए थे।
महा. : हाय हाय! यहाँ के लोग बड़े भीरु और कापुरूष हैं। इसमें भय की कौन बात है! कानूनी है।
सभापति : तो पकड़ने का आपको किस कानून से अधिकार है?
डिसलायलटी : इँगलिश पालिसी नामक ऐक्ट के हाकिमेच्छा नामक दफा से।
महा. : परंतु तुम?
दूसरा देशी : (रोकर) हाय हाय! भटवा तुम कहता है अब मरे।
महा. : पकड़ नही सकतीं, हमको भी दो हाथ दो पैर है। चलो हम लोग तुम्हारे संग चलते हैं, सवाल जवाब करेंगे।
बंगाली : हाँ चलो, ओ का बात-पकड़ने नहीं शेकता।
सभापति : (स्वगत) चेयरमैन होने से पहिले हमीं को उत्तर देना पडे़गा, इसी से किसी बात में हम अगुआ नहीं होते।
डिसलायलटी : अच्छा चलो। (सब चलने की चेष्टा करते हैं)
(जवनिका गिरती है)
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भारत दुर्दशा

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छठा अंक

स्थान-गंभीर वन का मध्यभाग
(भारत एक वृक्ष के नीचे अचेत पड़ा है)
(भारतभाग्य का प्रवेश)
भारतभाग्य : (गाता हुआ-राग चैती गौरी)
जागो जागो रे भाई।
सोअत निसि बैस गँवाई। जागों जागो रे भाई ।।
निसि की कौन कहै दिन बीत्यो काल राति चलि आई।
देखि परत नहि हित अनहित कछु परे बैरि बस जाई ।।
निज उद्धार पंथ नहिं सूझत सीस धुनत पछिताई।
अबहुँ चेति, पकारि राखो किन जो कुछ बची बड़ाई ।।
फिर पछिताए कुछ नहिं ह्नै है रहि जैहौ मुँह बाई।
जागो जागो रे भाई ।।
(भारत को जगाता है और भारत जब नहीं जागता तब अनेक यत्न से फिर जगाता है, अंत में हारकर उदास होकर)
हाय! भारत को आज क्या हो गया है? क्या निःस्संदेह परमेश्वर इससे ऐसा ही रूठा है? हाय क्या अब भारत के फिर वे दिन न आवेंगे? हाय यह वही भारत है जो किसी समय सारी पृथ्वी का शिरोमणि गिना जाता था?
भारत के भुजबल जग रक्षित।
भारतविद्या लहि जग सिच्छित ।।
भारततेज जगत बिस्तारा।
भारतभय कंपत संसारा ।।
जाके तनिकहिं भौंह हिलाए।
थर थर कंपत नृप डरपाए ।।
जाके जयकी उज्ज्वल गाथा।
गावत सब महि मंगल साथा ।।
भारतकिरिन जगत उँजियारा।
भारतजीव जिअत संसारा ।।
भारतवेद कथा इतिहासा।
भारत वेदप्रथा परकासा ।।
फिनिक मिसिर सीरीय युनाना।
भे पंडित लहि भारत दाना ।।
रह्यौ रुधिर जब आरज सीसा।
ज्वलित अनल समान अवनीसा ।।
साहस बल इन सम कोउ नाहीं।
तबै रह्यौ महिमंडल माहीं ।।
कहा करी तकसीर तिहारी।
रे बिधि रुष्ट याहि की बारी ।।
सबै सुखी जग के नर नारी।
रे विधना भारत हि दुखारी ।।
हाय रोम तू अति बड़भागी।
बर्बर तोहि नास्यों जय लागी ।।
तोड़े कीरतिथंभ अनेकन।
ढाहे गढ़ बहु करि प्रण टेकन ।।
मंदिर महलनि तोरि गिराए।
सबै चिन्ह तुव धूरि मिलाए ।।
कछु न बची तुब भूमि निसानी।
सो बरु मेरे मन अति मानी ।।
भारत भाग न जात निहारे।
थाप्यो पग ता सीस उधारे ।।
तोरो दुर्गन महल ढहायो।
तिनहीं में निज गेह बनायो ।।
ते कलंक सब भारत केरे।
ठाढ़े अजहुँ लखो घनेरे ।।
काशी प्राग अयोध्या नगरी।
दीन रूप सम ठाढी़ सगरी ।।
चंडालहु जेहि निरखि घिनाई।
रही सबै भुव मुँह मसि लाई ।।
हाय पंचनद हा पानीपत।
अजहुँ रहे तुम धरनि बिराजत ।।
हाय चितौर निलज तू भारी।
अजहुँ खरो भारतहि मंझारी ।।
जा दिन तुब अधिकार नसायो।
सो दिन क्यों नहिं धरनि समायो ।।
रह्यो कलंक न भारत नामा।
क्यों रे तू बारानसि धामा ।।
सब तजि कै भजि कै दुखभारो।
अजहुँ बसत करि भुव मुख कारो ।।
अरे अग्रवन तीरथ राजा।
तुमहुँ बचे अबलौं तजि लाजा ।।
पापिनि सरजू नाम धराई।
अजहुँ बहत अवधतट जाई ।।
तुम में जल नहिं जमुना गंगा।
बढ़हु वेग करि तरल तरंगा ।।
धोवहु यह कलंक की रासी।
बोरहु किन झट मथुरा कासी ।।
कुस कन्नौज अंग अरु वंगहि।
बोरहु किन निज कठिन तरंगहि ।।
बोरहु भारत भूमि सबेरे।
मिटै करक जिय की तब मेरे ।।
अहो भयानक भ्राता सागर।
तुम तरंगनिधि अतिबल आगर ।।
बोरे बहु गिरी बन अस्थान।
पै बिसरे भारत हित जाना ।।
बढ़हु न बेगि धाई क्यों भाई।
देहु भारत भुव तुरत डुबाई ।।
घेरि छिपावहु विंध्य हिमालय।
करहु सफल भीतर तुम लय ।।
धोवहु भारत अपजस पंका।
मेटहु भारतभूमि कलंका ।।
हाय! यहीं के लोग किसी काल में जगन्मान्य थे।
जेहि छिन बलभारे हे सबै तेग धारे।
तब सब जग धाई फेरते हे दुहाई ।।
जग सिर पग धारे धावते रोस भारे।
बिपुल अवनि जीती पालते राजनीती ।।
जग इन बल काँपै देखिकै चंड दापै।
सोइ यह पिय मेरे ह्नै रहे आज चेरे ।।
ये कृष्ण बरन जब मधुर तान।
करते अमृतोपम वेद गान ।।
सब मोहन सब नर नारि वृंद।
सुनि मधुर वरन सज्जित सुछंद ।।
जग के सबही जन धारि स्वाद।
सुनते इन्हीं को बीन नाद ।।
इनके गुन होतो सबहि चैन।
इनहीं कुल नारद तानसैन ।।
इनहीं के क्रोध किए प्रकास।
सब काँपत भूमंडल अकास ।।
इन्हीं के हुंकृति शब्द घोर।
गिरि काँपत हे सुनि चारु ओर ।।
जब लेत रहे कर में कृपान।
इनहीं कहँ हो जग तृन समान ।।
सुनि के रनबाजन खेत माहिं।
इनहीं कहँ हो जिय सक नाहिं ।।
याही भुव महँ होत है हीरक आम कपास।
इतही हिमगिरि गंगाजल काव्य गीत परकास ।।
जाबाली जैमिनि गरग पातंजलि सुकदेव।
रहे भारतहि अंक में कबहि सबै भुवदेव ।।
याही भारत मध्य में रहे कृष्ण मुनि व्यास।
जिनके भारतगान सों भारतबदन प्रकास ।।
याही भारत में रहे कपिल सूत दुरवास।
याही भारत में भए शाक्य सिंह संन्यास ।।
याही भारत में भए मनु भृगु आदिक होय।
तब तिनसी जग में रह्यो घृना करत नहि कोय ।।
जास काव्य सों जगत मधि अब ल ऊँचो सीस।
जासु राज बल धर्म की तृषा करहिं अवनीस ।।
साई व्यास अरु राम के बंस सबै संतान।
ये मेरे भारत भरे सोई गुन रूप समान ।।
सोइ बंस रुधिर वही सोई मन बिस्वास।
वही वासना चित वही आसय वही विलास ।।
कोटि कोटि ऋषि पुन्य तन कोटि कोटि अति सूर।
कोटि कोटि बुध मधुर कवि मिले यहाँ की धूर ।।
सोई भारत की आज यह भई दुरदसा हाय।
कहा करे कित जायँ नहिं सूझत कछु उपाय ।।
(भारत को फिर उठाने की अनेक चेष्टा करके उपाय निष्फल होने पर रोकर)


हा! भारतवर्ष को ऐसी मोहनिद्रा ने घेरा है कि अब इसके उठने की आशा नहीं। सच है, जो जान बूझकर सोता है उसे कौन जगा सकेगा? हा दैव! तेरे विचित्रा चरित्रा हैं, जो कल राज करता था वह आज जूते में टाँका उधार लगवाता है। कल जो हाथी पर सवार फिरते थे आज नंगे पाँव बन बन की धूल उड़ाते फिरते हैं। कल जिनके घर लड़के लड़कियों के कोलाहल से कान नहीं दिया जाता था आज उसका नाम लेवा और पानी देवा कोई नहीं बचा और कल जो घर अन्न धन पूत लक्ष्मी हर तरह से भरे थे आज उन घरों में तूने दिया बालनेवाला भी नहीं छोड़ा।
हा! जिस भारतवर्ष का सिर व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, पाणिनि, शाक्यसिंह, बाणभट्ट, प्रभृति कवियों के नाममात्रा से अब भी सारे संसार में ऊँचा है, उस भारत की यह दुर्दशा! जिस भारतवर्ष के राजा चंद्रगुप्त और अशोक का शासन रूम रूस तक माना जाता था, उस भारत की यह दुर्दशा! जिस भारत में राम, युधिष्ठर, नल, हरिश्चंद्र, रंतिदेव, शिवि इत्यादि पवित्र चरित्रा के लोग हो गए हैं उसकी यह दशा! हाय, भारत भैया, उठो! देखो विद्या का सूर्य पश्चिम से उदय हुआ चला आता है। अब सोने का समय नहीं है। अँगरेज का राज्य पाकर भी न जगे तो कब जागोगे। मूर्खों के प्रचंड शासन के दिन गए, अब राजा ने प्रजा का स्वत्व पहिचाना। विद्या की चरचा फैल चली, सबको सब कुछ कहने सुनने का अधिकार मिला, देश विदेश से नई विद्या और कारीगरी आई। तुमको उस पर भी वही सीधी बातें, भाँग के गोले, ग्रामगीत, वही बाल्यविवाह, भूत प्रेत की पूजा जन्मपत्राी की विधि! वही थोड़े में संतोष, गप हाँकने में प्रीती और सत्यानाशी चालें! हाय अब भी भारत की यह दुर्दशा! अरे अब क्या चिता पर सम्हलेगा। भारत भाई! उठो, देखो अब दुख नहीं सहा जाता, अरे कब तक बेसुध रहोगे? उठो, देखो, तुम्हारी संतानों का नाश हो गया। छिन्न-छिन्न होकर सब नरक की यातना भोगते हैं, उस पर भी नहीं चेतते। हाय! मुझसे तो अब यह दशा नहीं देखी जाती। प्यारे जागो। (जगाकर और नाड़ी देखकर) हाय इसे तो बड़ा ही ज्वर चढ़ा है! किसी तरह होश में नहीं आता। हा भारत! तेरी क्या दशा हो गई! हे करुणासागर भगवान् इधर भी दृष्टि कर। हे भगवती राज-राजेश्वरी, इसका हाथ पकड़ो। (रोकर) अरे कोई नहीं जो इस समय अवलंब दे। हा! अब मैं जी के क्या करूँगा! जब भारत ऐसा मेरा मित्र इस दुर्दशा में पड़ा है और उसका उद्धार नहीं कर सकता, तो मेरे जीने पर धिक्कार है! जिस भारत का मेरे साथ अब तक इतना संबध था उसकी ऐसी दशा देखकर भी मैं जीता रहूँ तो बड़ा वृ$तघ्न हूँ! (रोता है) हा विधाता, तुझे यही करना था! (आतंक से) छिः छिः इतना क्लैव्य क्यों? इस समय यह अधीरजपना! बस, अब धैर्य! (कमर से कटार निकालकर) भाई भारत! मैं तुम्हारे ऋण से छूटता हूँ! मुझसे वीरों का कर्म नहीं हो सकता। इसी से कातर की भाँति प्राण देकर उऋण होता हूँ। (ऊपर हाथ उठाकर) हे सव्र्वांतर्यामी! हे परमेश्वर! जन्म-जन्म मुझे भारत सा भाई मिलै। जन्म जन्म गंगा जमुना के किनारे मेरा निवास हो।


(भारत का मुँह चूमकर और गले लगाकर)


भैया, मिल लो, अब मैं बिदा होता हूँ। भैया, हाथ क्यों नहीं उठाते? मैं ऐसा बुरा हो गया कि जन्म भर के वास्ते मैं बिदा होता हूँ तब भी ललककर मुझसे नहीं मिलते। मैं ऐसा ही अभागा हूँ तो ऐसे अभागे जीवन ही से क्या; बस यह लो।
(कटार का छाती में आघात और साथ ही यवनिका पतन)

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Thursday, August 25, 2022

ज़िन्दगी और गुलाब के फूल (कहानी )लेखिका उषा प्रियम्वदा

 ज़िन्दगी और गुलाब के फूल
लेखिका :उषा प्रियम्वदा



सुबोध काफ़ी शाम को घर लौटा। दरवाज़ा खुला था, बरामदे में हल्की रोशनी थी, और चौके में आग की लपटों का प्रकाश था। अपने कमरे में घुसते ही उसे वह ख़ाली-खाली सा लगा। दूसरे क्षण ही वह जान गया कि कमरे का क़ालीन निकाल दिया गया है और किनारे रखी हुई मेज़ भी नहीं है। मेज़ पर काग़ज़ के फूलों का जो गुलदस्ता रहता था, वह कुछ ऐसे कोण से खिड़की पर रखा था कि लगता था, जैसे मेज़ हटाते वक़्त उसे वहाँ वैसे ही रख दिया गया हो।

उसने बहुत कोमलता से गुलदान उठा लिया। काग़ज़ के फूल थे तो क्या, गुलदान तो बहुत बढ़िया कट ग्लास का था। पहले कभी-कभी शोभा अपने बाग़ के गुलाब लगा जाती थी, पर अब तो इधर, कई महीनों से यही बदरंग फूल थे और शायद यही रहेंगे। सुबोध ने फिर खिड़की का गुलदान रखते हुए सोचा, हाँ, यही रहेंगे, क्योंकि शोभा की सगाई हो गई थी, और उसका भावी पति किसी अच्छी नौकरी पर था। सुबोध ने कोट उतारकर खूँटी पर टाँग दिया। …आख़िर कब तक शोभा के पिता उसके लिए अपनी लड़की कुँवारी बैठाए रखते?… सुबोध खिड़की के पार देख रहा था—धूल-भरी साँझ, थके चेहरे, बुझे हए मन…

फिर वह माँ के पास आया। उसकी माँ चौके में चूल्हे के पास बैठी थीं। वह वहीं पीढ़े पर बैठ गया। कुछ देर कोई नहीं बोला। माँ ने दो-एक बार उसे देखा ज़रूर, पर कुछ कहा नहीं, पत्थर की मूर्ति की तरह बैठी रहीं, ऐसी मूर्ति जिसकी केवल आँखें जीवित थीं।

एकाएक सुबोध पूछ बैठा, “अम्माँ, मेरे कमरे का क़ालीन कहाँ गया? धूप में डाला था क्या?”

बाएँ हाथ से धोती का पल्ला सिर पर खींचती हुईं माँ बोलीं, “वृन्दा अपने कमरे में ले गई है। उसकी कुछ सहेलियाँ आज खाने पर आएँगी।”

सुबोध को अपने पर आश्चर्य हुआ कि वह इतनी-सी बात पहले ही क्यों न समझ गया? उसकी सारी चीज़ें वृन्दा के कमरे में जा चुकी थीं, सबसे पहले पढ़ने की मेज़, फिर घड़ी, आराम-कुर्सी और अब क़ालीन और छोटी मेज़ भी। पहले अपनी चीज़ वृन्दा के कमरे में सजी देख उसे कुछ अटपटा लगता था, पर अब वह अभ्यस्त हो गया था यद्यपि उसका पुरुष-हृदय घर में वृन्दा की सत्ता स्वीकार न कर पाता था।

उसे अनमना हो आया देख माँ ने कहा, “तुम्हारे इन्तज़ार में मैंने चाय भी नहीं पी। अब बना रही हूँ, फिर कहीं चले मत जाना।” और पतीली का ढँकना उठाकर देखने लगीं।

सुबोध दोनों हाथों की अँगुलियाँ एक-दूसरे में फँसाए बैठा रहा। उसके कन्धे झुक गए और उसके चेहरे पर विषाद और चिन्ता की रेखाएँ गहरी हो गईं। सशंक नेत्रों से माँ उसे देखती रही। मन-ही-मन कई बातें सोची कहने की, मौन का अन्तराल तोड़ने की, पर न जाने क्यों वाणी न दे सकी। उसकी आँखों के सामने ही सुबोध बदलता जा रहा था। इस समय उसके नेत्र माँ पर अवश्य थे, पर वह उनसे हज़ारों मील दूर था। मौन रहकर जैसे वह अपने अन्दर अपने-आपसे लड़ रहा हो। काश, सुबोध फिर वही छोटा-सा लड़का हो जाता, जिसके त्रास वह अपने स्पर्श से दूर कर देती थी। पर सुबोध जैसे अब उसका बेटा नहीं रहा था, वह एक अनजान, गम्भीर, अपरिचित पुरुष हो गया था, जो दिन-भर भटका करता था, रात को आकर सो रहता था। सुख के दिन उसने भी जाने थे। अच्छी नौकरी थी, शोभा थी। अपने पुराने गहने तुड़ाकर माँ ने कुछ नई चीज़ें बनवा ली थीं, और अब वे नए बुन्दे और बालियाँ, हार और कंगन बक्स में पड़े थे। शोभा की शादी होनेवाली थी और सुबोध बदलता जा रहा था।

दो धुंधली, जलभरी आँखें दो उदास आँखों से मिलीं। उनमें एक मूक अनुनय थी। सुबोध ने माँ के चेहरे को देखा और मुस्करा दिया। शब्द निरर्थक थे, दोनों एक-दूसरे की गोपन व्यथा से परिचित थे। उनमें एक मूक समझौता था। माँ ने इधर बहुत दिनों से सुबोध से नौकरी के विषय में नहीं पूछा था, और सुबोध भी अपने-आप यह प्रसंग न छेड़ना चाहता था।

उसने कहा, “देखो, शायद पानी खौल गया।”

माँ चौंकी, दो बार जल्दी-जल्दी पलक झपकाए। फिर खड़ी होकर अलमारी से चायदानी उठायी। उसे गरम पानी से धोया, बहुत सावधानी से चाय की पत्ती डाली और पानी उँडेला। फिर उस पर टीकौजी लगा दी। वह टीकौजी वृन्दा ने काढ़ी थी और उसकी शादी की आशा में बरसों माँ बक्स में रखे रहीं। अब उसे रोज़ व्यवहार करना माँ की पराजय थी। उससे बड़ी पराजय थी सुबोध की, जो अपनी छोटी बहन की शादी नहीं कर पाया था। टीकौजी पर एक गुलाब का फूल बना था और सुबोध उन गुलाब के फूलों की याद कर रहा था, जो शोभा उसके कमरे में सजा जाती थी, उन बाली और बुन्दों की सोच रहा था, जो शोभा अब नहीं पहनेगी…

दूध गरम कर और प्याला पोंछकर माँ ने चाय सुबोध के आगे रख दी। सुबोध पीढ़े पर पालथी मारकर बैठ गया, और चाय छानने लगा।

माँ अपनी कोठरी में जाकर कुछ खटर-पटर कर रही थी। ज़रा देर में ही एक तश्तरी में चाँदी का वर्क़ लगा हुआ सेब का मुरब्बा लाकर माँ ने उसके सामने रख दिया और बड़े दुलार से कहा, “खा लो!”

अपने विचार पीछे ठेलकर, कुछ सुस्त हो, हँसते हुए सुबोध ने कहा, “अरे अम्माँ! बड़ी ख़ातिर कर रही हो! क्या बात है?”

माँ ने स्नेह-कातर कंठ से कहा, “तुम कभी ठीक वक़्त से आते भी हो! रात को दस-ग्यारह बजे आए। ठंडा-सूखा खा लिया। सुबह देर से उठे, दोपहर को फिर ग़ायब। कब बनाऊँ, कब दूँ?”

यह चर्या तो सुबोध की पहले भी थी। तब वृन्दा और माँ दोनों उसके इन्तज़ार में बैठी रहती थीं। वृन्दा हमेशा बाद में खाती थी। सुबोध की दिनचर्या के ही अनुसार घर के काम होते थे। पर तब वृन्दा नौकरी नहीं करती थी, तब सुबोध बेकार न था। अब खाना वृन्दा की सुविधा के अनुसार बनता था। सुबह उसे जल्दी उठना होता था, इसलिए रात को जल्दी खाकर सो जाती थी। अब सुबोध जब साढ़े आठ पर सोकर उठता तो आधा खाना बन चुकता था। जब नौ बजे वृन्दा खा लेती, तो वह चाय पीता। पहले जब तक वह स्वयं अख़बार न पढ़ लेता था, वृन्दा को अख़बार छूने की हिम्मत न पड़ती थी, क्योंकि वह हमेशा पन्ने ग़लत तरह से लगा देती थी। अब उसे अख़बार लेने वृन्दा के कमरे में जाना पड़ता था और इसीलिए उसने घर पर अख़बार पढ़ना छोड़ दिया था।

जूठे बर्तन समेटते हुए माँ ने कुछ कहना चाहा, पर रुक गई। उसका असमंजस भापकर सुबोध ने पूछा, “क्या है?”

प्याला धोते हुए, मन्द स्वर में माँ ने कहा, “घर में तरकारी कुछ नहीं है।”

सुबोध ने उठकर कील पर टँगा मैला थैला उतार लिया। माँ ने आँचल की गाँठ खोलकर मुड़ा-तुड़ा एक रुपए का नोट उसे थमा दिया और कहा, “ज़रा जल्दी आना! अभी सारी चीज़ें बनाने को पड़ी हैं।”

सुबोध कोट पहने बिना ही बाज़ार चल दिया। यह पतलून वह काफ़ी दिनों से पहन रहा था। कमीज़ के फटे हुए कफ़ और कॉलर काफ़ी गन्दे थे, पर उसने परवाह नहीं की। पर दोनों हाथों से थैले का मुँह पकड़कर उसमें गन्दी तराजू से मिट्टी लगे आलू डलवाते हुए सुबोध को एक झटका-सा लगा। उसके पास ही किसी का पहाड़ी नौकर भाव पूछ रहा था। उसके चीकट बालों से माथे पर तेल बह रहा था, मुँह से बीड़ी का कड़वा धुआँ निकल रहा था। वह भी थैला लिए था और तरकारी लेने आया था। सुबोध अचानक ही सोच उठा कि वह कहाँ से कहाँ आ पहुँचा है! अपने अफ़सर की अपमानजनक बात सुनकर तो उसने अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए इस्तीफ़ा दे दिया था, लेकिन अब कहाँ है वह आत्म-सम्मान? छोटी बहन पर भार बनकर पड़ा हुआ है। उसे देखकर माँ मन-ही-मन घुलती रहती है। ज़िन्दगी ने उसे भी गुलाब के फूल दिए थे, लेकिन उसने स्वयं ही उन्हें ठुकरा दिया और अब शोभा भी…

हाथ झाड़कर सुबोध ने पैसे दिए और चल पड़ा। इस सबके बावजूद उसके अन्दर एक तुष्टि का हल्का-सा आलोक था कि इस्तीफ़ा देकर उसने ठीक ही किया। उसके जैसा स्वाभिमानी व्यक्ति अपमान का कड़वा घूँट कैसे पी लेता? स्वाभिमान? सुबोध के होंठ एक कड़वी मुस्कान से खिंच उठे। वाह रे स्वाभिमानी! उसने अपने आप से कहा।

उसे वह सब बातें स्पष्ट होकर फिर याद आ गईं, वे बातें जो रह-रहकर टीस उठती थीं। सुबोध स्मृति का एलबम खोलने लगा। हर चित्र स्पष्ट था।

नौकरी छोड़कर वह कुछ महीने घर नहीं लौटा, वहीं दूसरी नौकरी खोजता रहा और जब लौटा तो उसने घर का चित्र ही बदला हुआ पाया। उसकी अनुपस्थिति में वृन्दा ने उसकी मेज़ ले ली थी और उसके लौटने पर वृन्दा ने अवज्ञा से कहा था, “दादा, आप क्या करेंगे मेज़ का? मुझे काम पड़ेगा।”

सुबोध कुछ तीखी-सी बात कहते-कहते रुक गया। कई साल में घिसट-घिसटकर बी.ए., एल.टी. कर लेने और मास्टरनी बन जाने से ही जैसे वृन्दा का मेज़ पर हक़ हो गया हो! कोई अध्यापिका होने से ही पुस्तकों का प्रेमी नहीं हो जाता।

सुबोध की उस मेज़ पर अब जूड़े के काँटे, नेलपॉलिश की शीशी और गर्द-भरी किताबें पड़ी रहती थीं और फिर कुछ दिनों बाद माँ ने कहा, “वृन्दा को रोज़ स्कूल जाने में देर हो जाती है। अपनी अलार्म घड़ी दे दो, सुबोध!”

सुबोध ने कठोर होकर कहा था, “नई घड़ी ख़रीद क्यों नहीं लेती? उसे कमी है?”

माँ ने आहत और भर्त्सनापूर्ण दृष्टि से उसे देखकर कहा, “उसके पास बचता ही क्या है! तुम ख़र्च करते होते तो जानते!”

“नहीं, मुझे क्या पता? हमेशा से तो वृन्दा ही घर का ख़र्च चलाती आयी है। मैं तो बेकार हूँ, निठल्ला।” और झुँझलाकर सुबोध ने घड़ी उसे दे दी थी।

सबसे अधिक आश्चर्य तो उसे वृन्दा पर था। अक्सर वह सोच उठता था कि यह वही वृन्दा है, जो उसके आगे-पीछे घूमा करती थी, उसके सारे काम दौड़-दौड़कर किया करती थी! जब भी उसने चाय माँगी, वृन्दा ने चाय तैयार कर दी। और अब? एक रात ज़रा देर से आने पर उसने सुना, वृन्दा बिगड़कर माँ से कह रही थी, ‘काम न धन्धा, तब भी दादा से यह नहीं होता कि ठीक वक़्त पर खाना खा लें। तुम कब तक जाड़े में बैठोगी, माँ? उठकर रख दो, अपने-आप खा लेंगे’।

उसके बाद सुबोध रात को चुपचाप आता। ठंडा खाना खाकर अपने कमरे में लेट जाता। सुबह जग जाने पर भी पड़ा रहता और वृन्दा के चाय पी लेने पर उठकर चाय पीता। बाज़ार से सौदा ला देता। मैले ही कपड़े पहनकर बाहर चला जाता। और जब थक जाता, तो खिड़की के बाहर देखने लगता।

माँ प्रतीक्षा में दरवाज़े पर खड़ी थीं। उनके हाथ में थैला देकर वह अपने कमरे में चला गया। कमरा उसे फिर नग्न और सूना-सा लगा। जूते उतारकर वह चारपाई पर लेट गया। चारपाई बहुत ढीली थी। उसके लेटते ही दरी सिकुड़ गई, तकिया नीचे खिसक आया। दरी की सिकुड़ने पीठ में गड़ती रहीं। सुबोध की आँखें बन्द थीं। हाथ शिथिल और कान अन्दर और बाहर के विभिन्न स्वर सुनते रहे। खिड़की के पास से गुज़रते दो बच्चे, सड़क पर किसी राही की बेसुरी बजती बाँसुरी, खटखट करते दो भारी जूते, अन्दर बर्तन की हल्की खटपट, तरकारी में पानी पड़ने की छन्न और खींची जाती चारपाई के पायों की फ़र्श से रगड़…।

तभी बाहर का दरवाज़ा अचानक खुला और वृन्दा ने कुछ तीखे स्वर में पूछा, “अम्माँ, दादा घर में हैं?”

सुबोध सुनकर भी न उठा। माँ का उत्तर सुन वृन्दा उसके कमरे के दरवाज़े पर खड़ी होकर बोली, “दादा, ताँगेवाले को रुपया भुनाकर बारह आने दे दो।”

सुबोध ने चप्पलों में पैर डाले, उसके हाथ से रुपया लिया और बाहर आया।

उसकी दृष्टि सामने खड़ी शोभा से मिल गई। उसके नमस्कार का संक्षिप्त उत्तर दे वह बाहर आ गया। नोट तुड़ाकर ताँगेवाले को पैसे दिए और फिर अन्दर नहीं गया। पड़ोस में एक परिचित के घर बैठ गया, और शतरंज की बाज़ी देखने लगा।

वहाँ बैठे-बैठे जब उसने मन में अन्दाज़ लगा लिया कि अब तक शोभा और निर्मला खाना खाकर चली गई होंगी, तो वह घर आया। सड़क पर सन्नाटा हो गया था। बत्तियों के आसपास धुंधले प्रकाश का घेरा था, और पानवाला, ग्राहकों की प्रतीक्षा में चुप और स्थिर बैठा था।

वृन्दा ने झुँझलाकर कहा, “कहाँ चले गए थे, दादा? शोभा और निर्मला कब से घर जाने को बैठी हैं! तुम्हें पहुँचाने जाना है।”

“मुझे मालूम नहीं था”, सुबोध ने कहा।

“जैसे कभी शोभा को घर पहुँचाया नहीं है!” वृन्दा ने कहा।

“तब”, सुबोध ने सोचा, “तब शोभा की सगाई कहीं और नहीं हुई थी, तब वह बेकार न था। शोभा उससे शरमाती थी, पर उसके गुलदान में फूल लगा जाती थी। माँ नए गहने बनवा रही थीं, और वृन्दा अपने कमरे में बैठी-बैठी कुढ़ती थी, क्योंकि वह बदसूरत थी और उससे कोई शादी करने को राज़ी नहीं होता था…”

“अच्छा तो चलें”, सुबोध ने शोभा की ओर नहीं देखा।

पर शोभा बोल पड़ी, “हमें जल्दी नहीं है। आप खाना खा लीजिए।”

माँ ने कढ़ाई चूल्हे पर चढ़ा दी। वृन्दा निर्मला को लेकर अपने कमरे में चली गई। सुबोध बैठ गया और शोभा ने उसके आगे तिपाई लाकर रख दी। फिर उसने रेशमी साड़ी का आँचल कमर में खोंस लिया और थाली लाकर उसके सामने रख दी। सुबोध नीची नज़र किए खाने लगा। चौके से बरामदे, बरामदे से चौके में बार-बार जाती हुई शोभा की साड़ी का बॉर्डर उसे दिखायी देता रहा, हरी साड़ी, जोगिया बॉर्डर, जिस पर मोर और तोते कढ़े हुए थे। कभी-कभी एड़ियाँ भी झलक उठतीं, उजली, चिकनी एड़ियाँ। सुबोध को लगता कि वह अतीत में पहुँच गया है। और शोभा वही है, वही जिससे कभी उसकी प्यार की बातें नहीं हुईं, पर जो अनायास ही उससे शरमाने लगी थी। शायद उसे पता चल गया था कि उसके पिता ने सुबोध से बातचीत शुरू कर दी है… और शायद अब तक शादी भी हो जाती, अगर सुबोध को कोई दूसरी नौकरी मिल जाती या अगर सुबोध पहली अच्छी नौकरी न छोड़ता….

सुबोध ने खाना बन्द कर दिया। पानी पीकर, हाथ धोने उठा, तो शोभा झट से हाथ धुलाने लगी। उसकी आँखों में विनय-भरी कातरता थी, उसके मुख पर उदासी, पर उसके बालों से सुबास आ रही थी।

जब वह ताँगा लेकर आया, तो शोभा माँ के पास चुप खड़ी थी और माँ उसके सिर पर हाथ फेर रही थीं।

रास्ते-भर दोनों चुप रहे। सबसे पहले निर्मला का घर आया, उसके उतर जाने पर शोभा ने आँसू-भरे कंठ से कहा, “आप यहाँ पीछे आ जाइए न!”

वह उतरकर पीछे आ गया, तब बोली, “कुछ बोलेंगे नहीं?”

“क्या कहूँ?” सुबोध ने उसकी ओर मुड़कर उसे देखते हुए कहा।

शोभा की आँखें छलक रही थीं। पोंछकर कहा, “मैंने तो पिताजी से बहुत कहा।… फिर आख़िर मैं क्या करती?”

    “मैं तो कुछ भी नहीं कह रहा हूँ। इस बात को स्वीकार कर लो कि मैं ज़िन्दगी में फ़ेलियर हूँ, कम्पलीट फ़ेलियर। कुछ नहीं कर सका! जैसे मेरी ज़िन्दगी में अब फुलस्टॉप लग गया है। अब ऐसे ही रहूँगा। तुम्हारे फ़ादर ने ठीक ही किया। तुम सुखी होओगी। प्यार से बड़ी एक और आग होती है, भूख की, पेट की! वह आग धीरे-धीरे सब कुछ लील लेती है…”

“आप इतने बिटर क्यों हो गए हैं?”

“ज़िन्दगी ने ही मुझे बिटर बना दिया है, फिर जैसे जागकर ताँगेवाले से कहा, “अरे बड़े मियाँ! लौटा ले चलो, घर तो पीछे छूट गया।”

शोभा उतरी। कुछ क्षण अनिश्चित-सी खड़ी रही। सुबोध के हाथ बढ़े, पर फिर पीछे लौट आए, “अच्छा, शोभा।”

“नमस्ते”, शोभा ने कहा और वह अन्दर चली गई।

ताँगे में अकेला सुबोध सड़क पर घोड़े की एकरस टापों के शब्द को सुन रहा था। कभी-कभी ताँगेवाला खाँस उठता और वह खाँसी उसका शरीर झिंझोड़ जाती। अँधेरा… खाँसी… और आख़िरी सपने की भी मौत!

सुबह उठकर सुबोध ने सबसे पहले बरामदे में बैठे धोबी को देखा। जितनी देर में उसके लिए चाय बनी, उसने अपने सारे गन्दे कपड़े इकट्ठे कर, उनका ढेर लगा दिया। अलमारी में सिर्फ़ एक साफ़ कमीज़ बची थी, पीठ पर फटी हुई। उसे ढकने के लिए सुबोध ने कोट पहन लिया। कोट को भी काफ़ी दिनों से धोबी को देने का इरादा था, परन्तु अब जब तक धोबी कपड़े लाए, तब तक यही सही।

चाय पीकर वह बाहर चला आया। कोट की जेबों की तलाशी लेने पर उँगलियाँ एक इकन्नी से जा टकरायीं। पानवाले की दुकान पर सिगरेट ख़रीदा और जलाकर एक गहरा कश खींचा, और दो-एक जगह रुककर वापस चला। रास्ते में धोबी मिला, और उसने सुबोध को दोबारा सलाम किया।

“कपड़े ज़रा जल्दी लाना, समझे?” कुछ रोब से सुबोध ने कहा।

“अच्छा बाबूजी!” धोबी चला गया।

कमरे में घुसते ही मैले कपड़ों का ढेर उसे वैसे ही दिखायी पड़ा, जैसा कि छोड़ गया था। उसने वहीं रुककर पुकारा, “अम्माँ! मेरे कपड़े धुलने नहीं गए।”

“पता नहीं, बेटा। वृन्दा दे रही थी, उससे कहा भी था कि तुम्हारे भी दे दे…”

सुबोध को न जाने कहाँ का ग़ुस्सा चढ़ आया। चीख़कर बोला, “कितने दिनों से गन्दे कपड़े पहन रहा हूँ! पन्द्रह दिन में नालायक़ धोबी आया, तो उसे भी कपड़े नहीं दिए गए। तुम माँ-बेटी चाहती क्या हो? आज मैं बेकार है, तो मुझसे नौकरों-सा बर्ताव किया जाता है! लानत है ऐसी ज़िन्दगी पर।”

माँ त्रस्त हो उठीं। जब सुबोध का कंठ-स्वर इतना ऊँचा हो गया कि बाहर तक आवाज़ जाने लगी, तो वह रो दी। उन्होंने कुछ कहना चाहा, मगर सुबोध ने अवसर नहीं दिया। कहता गया, “मुझे मुफ़्त का नौकर समझ लिया है? पहले कभी तुमने मुझे यह सब काम करते देखा था।”

फिर उनके कंठ की नक़ल करता हुआ बोला, “घर में तरकारी नहीं है! वृन्दा की सहेलियाँ खाना खाएँगी। उधर हमारी बहन हैं कि हुकूमत किया करती है! अब मैं समझ गया हूँ कि मेरी इस घर में क्या क़द्र है। मैं आज ही चला जाऊँगा। तुम दोनों चैन से रहना।”

कहता-कहता वह घर से बाहर आ गया। अपनी छटपटाहट में उसके अन्दर तक तीव्र विध्वंसक प्रवृत्ति जाग उठी। उसका मन चाह रहा था कि जो कुछ भी सामने पड़े, उसे तहस-नहस कर डाले। वह चलता गया और उसी धुन में एक साइकिल सवार से टकरा गया। वह गिर पड़ा, उसके ऊपर साइकिल आ गई और वह व्यक्ति सबसे ऊपर। जब उसकी कोहनियाँ खुरदुरी सड़क से छिलीं, और एक तीव्र पीड़ा हुई, तो उसका ध्यान बँटा। वह कुछ हक्का-बक्का-सा रह गया। उसने पाया कि उस व्यक्ति ने उससे तकरार नहीं की, अपने कपड़े झाड़े और साइकिल उठाते हुए कहा, “भाई साहब, ज़रा देखकर चला कीजिए। चोट तो नहीं आयी।”

अगर वह लड़ता तो उस मूड में शायद सुबोध मारपीट करने को उतारू हो जाता। पर उसकी अप्रत्याशित विनम्रता से सुबोध ठिठककर रह गया।

जब सुबोध ने उठकर चलने की कोशिश की तो पाया कि बायाँ पैर सूजने लगा है। लँगड़ाता हुआ वह पार्क की बेंच पर आकर बैठ गया। उसकी दाहिनी कोहनी से ख़ून टपक रहा था। ज़रा-सा भी हिलने से पैर में तीव्र पीड़ा होने लगती थी। उसने सम्भालकर पैर बेंच पर रख लिया और लेट गया।

अपना ध्यान पीड़ा से हटाने के लिए वह फूलों को देखने लगा। उसकी बेंच के पास ही गुलाब की घनी बेल थी, जिसमें हल्के पीले फूल थे। दर्द बढ़ता जा रहा था। उसने हिलना-डुलना भी बन्द कर दिया। कुछ देर स्थिर पड़े रहने से दर्द में विराम हुआ, तो उसके ख़याल फिर सवेरे की घटना पर केन्द्रित हो गए।

उसका पैर हिला और दर्द की एक तेज़ लहर उठकर पूरे बाएँ पैर में व्याप्त हो गई। सुबोध ने होंठ भींच लिए।

जाड़ों की धूप थी पर लोहे की बेंच धीरे-धीरे गरम होती जा रही थी और बेंच का एक उठा हुआ कोना उसकी पीठ में गड़ रहा था। पर वह हिला-डुला नहीं। आँखें खोलकर सड़क की ओर देखा, तो स्कूल जाते हुए बच्चे, साइकिलें, खोमचेवाले… उसने आँखें बन्द कर लीं। जब पैर का दर्द कम होता, तो कोहनी छरछराने लगती। पर इस आत्म-पीड़न से जैसे उसे कुछ सन्तोष-सा हो रहा था।

वह कब सो गया, उसे पता नहीं। जब आँखें खुलीं, तो सूरज सिर पर था और बेंच तप रही थी। वह उठकर, बायाँ पैर घसीटता और दर्द सहता हुआ छाँह में घास पर लेट गया। उस पर एक बेहोशी-सी छायी जा रही थी। घास का स्पर्श शीतल था, सुखदाई हवा में गुलाब के फूलों की सुवास थी, पर उसे चैन न था।

उसे अचानक माँ का ध्यान आ गया। शायद वह चिन्तित दरवाज़े पर खड़ी हों, शायद वह उसके इन्तज़ार में भूखी हों। उसने एक लम्बी साँस ली और बाँहें सिर के नीचे रख लीं।

दिन कितना लम्बा हो गया था कि बीत ही नहीं रहा था। जैसे एक युग के बाद आकाश में एक तारा चमका और फिर अनेक तारे चमक उठे। सुबोध घास में से उठकर फिर बेंच पर लेट गया। उसके सिर में भारीपन था, मुँह में कड़वाहट, पैर में जैसे एक भारी पत्थर बँधा था। सारा दिन हो गया था, पर उसे कोई खोजता हुआ नहीं आया। वृन्दा को तो पता था कि वह अक्सर पार्क में बैठा करता है। मगर उसे क्या फ़िक्र?

पार्क से लोग उठ-उठकर जाने लगे थे। बच्चे, उनकी आयाएँ, स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए घूमने आनेवाले प्रौढ़, दो-दो चोटियाँ किए, हँस-हँसकर एक-दूसरे पर गिरती मुहल्ले की लड़कियाँ… पार्क शान्त हो गया। हरी घास पर बच गए मूँगफली के छिलके, पुड़ियों के काग़ज़ के टुकड़े, तोड़े गए फूलों की मसली हुई पंखुड़ियाँ…

तीन फाटक बन्द कर लेने के बाद चौकीदार सुबोध की बेंच के पास आकर खड़ा हो गया।

“अब घर जाओ, बाबू, पार्क बन्द करने का टेम हो गया।”

बिना कुछ कहे सुबोध उठ गया। दो-दो क़दम लड़खड़ाया, फिर चलने लगा। हर बार जब बायाँ पैर रखता, तो दर्द होता। धीरे-धीरे लँगड़ा-लँगड़ाकर वह पार्क से बाहर निकल आया।

दरवाज़ा खुला था। बरामदे में मद्धिम रोशनी थी। चौके में अँधेरा। वह अपने कमरे में आया। कोने में मैले कपड़ों का ढेर था। ढीली चारपाई, गन्दा बिस्तर, तिपाई पर खाना ढँका हुआ रखा था।

सुबोध चारपाई पर बैठ गया, और तिपाई खींचकर लालचियों की तरह जल्दी-जल्दी बड़े-बड़े कौर खाने लगा।
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विडिओ में वाचन स्वर : अल्पना वर्मा

Sunday, August 21, 2022

पता नहीं (कविता ) मुक्तिबोध

 Gajanan Madhav Muktibodh - Wikipedia

 ता नहीं 

 पता नहीं कब, कौन, कहाँ किस ओर मिले 

किस साँझ मिले, किस सुबह मिले

यह राह ज़िन्दगी की
जिससे जिस जगह मिले
है ठीक वही, बस वही अहाते मेंहदी के
जिनके भीतर
है कोई घर
बाहर प्रसन्न पीली कनेर
बरगद ऊँचा, ज़मीन गीली
मन जिन्हें देख कल्पना करेगा जाने क्या!!
तब बैठ एक
गम्भीर वृक्ष के तले
टटोलो मन, जिससे जिस छोर मिले,
कर अपने-अपने तप्त अनुभवों की तुलना
घुलना मिलना!!

यह सही है कि चिलचिला रहे फासले,
तेज़ दुपहर भूरी
सब ओर गरम धार-सा रेंगता चला
काल बाँका-तिरछा;
पर, हाथ तुम्हारे में जब भी मित्रता का हाथ
फैलेगी बरगद-छाँह वही
गहरी-गहरी सपनीली-सी
जिसमें खुलकर सामने दिखेगी उरस्-स्पृशा
स्वर्गीय उषा
लाखों आँखों से, गहरी अन्तःकरण तृषा
तुमको निहारती बैठेगी
आत्मीय और इतनी प्रसन्न,
मानव के प्रति, मानव के
जी की पुकार
जितनी अनन्य!
लाखों आँखों से तुम्हें देखती बैठेगी
वह भव्य तृषा
इतने समीप
ज्यों लालीभरा पास बैठा हो आसमान
आँचल फैला,
अपनेपन की प्रकाश-वर्षा
में रुधिर-स्नात हँसता समुद्र
अपनी गम्भीरता के विरुद्ध चंचल होगा।

मुख है कि मात्र आँखें है वे आलोकभरी,
जो सतत तुम्हारी थाह लिए होतीं गहरी,
इतनी गहरी
कि तुम्हारी थाहों में अजीब हलचल,
मानो अनजाने रत्नों की अनपहचानी-सी चोरी में
धर लिए गये,
निज में बसने, कस लिए गए।
तब तुम्हें लगेगा अकस्मात्,

ले प्रतिभाओं का सार, स्फुलिंगों का समूह
सबके मन का
जो बना है एक अग्नि-व्यूह
अन्तस्तल में,
उस पर जो छायी हैं ठण्डी
प्रस्तर-सतहें
सहसा काँपी, तड़कीं, टूटीं
औ' भीतर का वह ज्वलत् कोष
ही निकल पड़ा !!
उत्कलित हुआ प्रज्वलित कमल !!
यह कैसी घटना है...
कि स्वप्न की रचना है।
उस कमल-कोष के पराग-स्तर
पर खड़ा हुआ
सहसा होता प्रकट एक
वह शक्ति-पुरुष
जो दोनों हाथों आसमान थामता हुआ
आता समीप अत्यन्त निकट
आतुर उत्कट
तुमको कन्धे पर बिठला ले जाने किस ओर
न जाने कहाँ व कितनी दूर !!

फिर वही यात्रा सुदूर की,
फिर वही भटकती हुई खोज भरपूर की,
कि वही आत्मचेतस् अन्तःसम्भावना,
जाने किन खतरों में जूझे ज़िन्दगी

अपनी धकधक
में दर्दीले फैले-फैलेपन की मिठास,
या निःस्वात्मक विकास का युग
जिसकी मानव गति को सुनकर
तुम दौड़ोगे प्रत्येक व्यक्ति के
चरण-तले जनपथ बनकर !!
वे आस्थाएँ तुमको दरिद्र करवायेंगी
कि दैन्य ही भोगोगे
पर, तुम अनन्य होगे,
प्रसन्न होगे !!
आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकायेगी
जिस जगह, जहाँ जो छोर मिले
ले जाएगी
पता नहीं, कब, कौन, कहाँ, किस ओर मिले

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Sunday, June 5, 2022

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!

 आज के शब्द में पढ़ें : वसंत पंचमी और निराला की याद

 बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु! 

-
सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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Friday, June 3, 2022

उद्यमी नर व्याख्या सहित कविता/Udyami Nar /ISC Hindi /Detailed Explana...




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===मनुष्य को कर्मरत रहने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं
श्रम की महत्ता बताई है । भाग्य और कर्म का विवाद पुराना है।
प्रकृति के भीतर जितनी भी धन संपदा छिपी हैं।

प्रकृति के भीतर  अनंत ऐश्वर्य छुपे हैं जिनका उपभोग करके प्रशवी पर रहने वाले सभी निवासी अपनी इच्छानुसार नुसार सुख पा सकते हैं ।स्वाभाविक रूप से /सहजता से सभी प्रकार से समान रूप से सुख पा सकते हैं ,वे चाहें तो इस प्रथिवी  को स्वरग बना सकते हैं ।

 ईश्वर ने सभी तत्त्वों को आवरण के नीचे छुपा दिया है जिन्हें जुझारू/कर्मवीर /मेहनती  मनुष्यों ने अपने परिश्रम और संघर्षों  से खोज निकाल है,
मनुष्य अपना भाग्य ब्रह्मा(भाग्य का विधाता ) से लिखवा कर नहीं लाया जो पाया वह अपने परिश्रम से पाया है।

प्रकृति कभी भाग्य के भरोसे रहें वाले के भाग्य के  बल पर डरकर नहीं झुकती। मेहनती जनों से
परिश्रम नर से ही प्रकृति ,वीर और उद्यमी मनुष्य अपने परि श्रम के बल
भाग्य को बदल सकता है।

Wednesday, June 1, 2022

Badal ko ghirte dekha hai/ Explanation /कवि नागार्जुन

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शब्दार्थ:
१. अमल-स्‍वच्‍छ
२. तुहिन- ओस
३. विसतंतु- कमल की नाल के भीतर स्‍थित कोमल रेशे या तंतु
४. विरहित- अलग
५. शैवाल- पानी के ऊपर उगने वाली घास, सेवार
६. अलख- जो दिखाई न दे
७. परिमल- सुगंध
८. किन्‍नर- स्‍वर्ग के गायक
९. धवल- श्‍वेत
१०. सुघड़- सुंदर
११. वेणी- चोटी
१२. त्रिपदी- तिपाई
१३. शोणित-रक्‍त
१४. कुंतल- बाल
१५. कुवलय- नील कमल



-   कवि का नाम नागार्जुन तथा कविता का नाम ‘बादल को घिरते देखा है’ है। कवि नागार्जुन आधुनिक काल की
    जनवादी काव्‍यधारा के प्रमुख कवि हैं।


 

Saturday, May 14, 2022

राणा हम्मीर सिंह सिसोदिया - वीर योद्धा जिन्होंने तुगलक को ज़िन्दा बंदी बनाया

 


राणा हम्मीर सिंह (सन 1314–1364  ई )
या हम्मीरा
जो १४वीं शताब्दी में भारत के राजस्थान के मेवाड़ के एक वीर प्रतापी शासक थे।
१३वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत ने गुहिलों की सिसोदिया राजवंश की शाखा को मेवाड़ से सत्तारूढ़ कर दिया था, इनसे पहले गुहिलों की रावल शाखा का शासन था जिनके प्रथम शासक बप्पा रावल थे और अंतिम रावल रतन सिंह थे।
मेवाड़ राज्य के इस शासक को 'विषम घाटी पंचानन'(सकंट काल मे सिंह के समान) के नाम से जाना जाता है, राणा हम्मीर को विषम घाटी पंचानन की संज्ञा राणा कुम्भा ने कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति में दी।
सीसोद गाँव के ठाकुर राणा हम्मीर सिसोदिया वंश के प्रथम शासक थे, तथा इन्हें मेवाड़ का उद्धारक कहा जाता है।
 राणा हम्मीर ,महाराणा अरिसिंह के पुत्र तथा सामंत लक्ष्मणसिंह (लाखा) के पौत्र हैं, जिन्होंने अपनी सैन्य क्षमता के आधार पर मेवाड़ के खैरवाड़ा (उदयपुर) नामक स्थान को मुख्य केंद्र बनाया।
 राजस्थान के इतिहास में राणा हम्मीर ने चित्तौड़ से मुस्लिम सत्ता को उखाड़ने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। मेवाड़ की विषम परिस्थितियों के होते हुए भी इन्होंने चित्तौड़ पर विजयश्री प्राप्त की। इस प्रकार 1326 ई. में राणा हम्मीर को पुनः चित्तौड़ प्राप्त हुआ।
इसी कारण राणा हम्मीर को विषम घाटी पंचानन के नाम से जाना जाता है।

हम्मीर इनके अलावा सिसोदिया राजवंश [जो कि गुहिल वंश की ही एक शाखा है ]के प्रजनक भी बन गए थे, इसके बाद सभी महाराणा सिसोदिया राजवंश के ही रहे।

इन्होंने राजस्थान के चित्तौड़गढ़ ज़िले में स्थित चित्तौड़गढ़ दुर्ग में अन्नपूर्णा माता के मन्दिर का निर्माण भी करवाया था।
 राणा हम्मीर के शासनकाल में दिल्ली के सुल्तान मौहम्मद बिन तुगलक ने मेवाड़ पर आक्रमण किया।
दोनों के बीच सिंगोली नामक स्थान पर युद्ध लड़ा गया जिसे सिंगोली का युद्ध कहा जाता है। जिसमें हम्मीर सिंह ने तुगलक सेना को हराया और मुहम्मद बिन तुगलक को बंदी बना लिया।

वर्तमान में सिंगोली नामक स्थान उदयपुर में स्थित है।
 इस युद्ध के बाद मेवाड़ में राणा हम्मीर के दिन सामान्य रहे तथा 1364 ई. में इनकी मृत्यु हो गयी।
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यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' : परिचय

 

 


 

नाम यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र'

जन्म 1932  बीकानेर, राजस्थान

मृत्यु 3 मार्च, 2009 मृत्यु स्थान जयपुर

कर्म भूमि भारत कर्म-क्षेत्र
उपन्यासकार, नाटककार, कहानीकार

मुख्य रचनाएँ- 'तेरा मेरा उसका सच', 'सन्‍यासी और सुंदरी', 

'हज़ार घोडों पर सवार', 'मेरी प्रेम कहानियां', ‘एक और मुख्यमंत्री’ आदि। 

हिन्दी भाषा में लेखन । 'खून का टीका ' उपन्यास इनका पहल ऐतिहासिक उपन्यास है।

राजस्थानी पुरस्कार-उपाधि साहित्य अकादमी पुरस्कार

 'लाज राखो राणी सती' नामक पहली राजस्‍थानी फ़िल्‍म यादवेन्द्र शर्मा के लेखन का ही परिणाम थी। 'गुलाबडी', 'चकवे की बात' और 'विडम्‍बना' पर भी टेलीफ़िल्‍म का निर्माण हुआ था।

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Saturday, May 7, 2022

पेपरवेट / लेखक :गिरिराज किशोर

 

 

पेपरवेट
लेखक :गिरिराज किशोर


भेड़ों के रेवड़ के पीछे गड़रिये को लाठी लिए चलते देखकर मृणाल बाबू को हँसी आ रही थी। गड़रिया उनको इकट्ठा करने के लिए मुँह से अजीब-अजीब बोलियाँ निकाल रहा था। कभी अपनी लाठी को ज़मीन पर दे मारता था, भेड़ें बेचारी डर के मारे एक-दूसरे से सट जाती थीं।

जमादार (चपरासी) ने आकर बताया, 'हुज़ूर, साहब दफ़्तर आ गए हैं।' हालाँकि वे शिवनाथ बाबू से ही मिलने आए थे, लेकिन इस सूचना ने उन्हें क्षण-भर के लिए अव्यवस्थित कर दिया। तुरंत ही ध्यान आ गया, 'जमादार' उनके चेहरे के बदलते रंगों को बराबर देख रहा है। वे शिवनाथ बाबू के कमरे की तरफ़ तेज़ी से बढ़ गए। कमरे के बाहर 'लुकिंग-ग्लास' लगा हुआ था। एक नज़र उधर डालने पर उन्हें मालूम हुआ, कि वे ख़ामख़ाह परेशान थे कि उनके चेहरे पर घबराहट है। धीरे से पर्दा हटाकर पायदान पर पाँव रगड़े, और खखारते हुए-से अंदर चले गए।

शिवनाथ बाबू फ़ाइलें देखने में व्यस्त थे। उनके काम में व्यवधान न डालने के ख़याल से हाथ जोड़कर चुपचाप कुर्सी पर बैठ गए। बैठने के दो-चार क्षण बाद ही उन्हें ख़याल हुआ, आराम से न बैठकर उठंगे बैठे हैं। इस तरह का बैठना घबराहट का द्योतक है। मृणाल बाबू ने पीठ कुर्सी के तकिये से लगा ली और पाँव फैला दिए। उनके पाँव ऑफ़िस-टेबल के नीचे रखे लकड़ी के खोखले पायदान से टकराए। चेहरा एकदम उतर गया और नज़रें शिवनाथ बाबू के चेहरे की ओर चली गर्इं। शिवनाथ बाबू पर पायदान से पाँव टकराने की उस आवाज़ का कोई असर नहीं हुआ था। वे बदस्तूर अपनी फ़ाइलें देख रहे थे। मृणाल बाबू उनकी कार्य-कुशलता को ग़ौर से देखने का अभिनय करने लगे, जैसे कुछ सीखने का प्रयत्न कर रहे हों।

शिवनाथ बाबू फ़ाइल उठाते, लाल फीता खोलते, फिर 'फ़्लैग' लगे स्थान पर से उलटकर पढ़ने लगते थे। बीच-बीच में पीछे के पृष्ठ भी उलटने की आवश्यकता पड़ जाती थी। पढ़ते समय उनके होंठ भी व्यस्त नज़र आते थे। फिर या तो उस पर कोई नोट लिखकर या प्रश्नचिह्न बनाकर फ़ाइल नीचे डाल देते थे। बहुत ही कम ऐसी फ़ाइलें थीं जिन पर उन्होंने उसी रूप में हस्ताक्षर किए हों। इस क्रिया को देखते रहने के कारण मृणाल बाबू को ऊब आने लगी। अतः इधर-उधर ताक-झाँक करने लगे। चारों तरफ़ से बंद कमरा, जलता हुआ लैंप और लैंप के प्रकाश का फ़ाइलों पर पड़ता घेरा... किसी दार्शनिक के अंतस्तल-सा महसूस हुआ। बाक़ी कमरे में उस प्रकाश का आभास-मात्र था। बैठे-बैठे मृणाल बाबू को एक पुठ में दुखन महसूस होने लगी है, दूसरी पुठ बदल ली।

शिवनाथ बाबू ने फ़ाइलों पर से जब गर्दन उठाई तो मृणाल बाबू सकपका-से गए। शायद उनका ख़याल था शिवनाथ बाबू गर्दन उठाने से पूर्व कोई तो आभास देंगे। ज़बरदस्ती उन्हें अपने होंठों पर मुस्कान लानी पड़ी, उनके सूखे होंठ बोसीदा रबड़ की तरह खिंच गए। शिवनाथ बाबू ने मूँछों की सघनता में छिपी स्वाभाविक मुस्कान के साथ पूछा, 'कहिए, विभाग का काम ठीक चल रहा है?'

मृणाल बाबू वही सब बताने के लिए आए थे। दरअसल शिवनाथ बाबू के विदेश से लौटने के बाद से उन्होंने कई बार उनसे मिलने का प्रयत्न किया था, लेकिन अत्यधिक व्यस्तता के कारण समय नहीं दे पाए थे। विदेश जाते समय शिवनाथ बाबू उन्हें मंत्री पद की शपथ दिलवाकर गए थे। उस समय उनसे यह भी कहा था, 'मैं चाहता हूँ आप अपनी उसी तेज़ी और अक़्लमन्दी का यहाँ भी परिचय दें, आपकी अतिरिक्त तत्परता के कारण ही तो शांतिशरण को त्यागपत्र देना पड़ा था। मैं समझता हूँ...आप उन सब परिस्थितियों को भली प्रकार समझ सकेंगे।' फिर धीरे से मुस्कुराकर पुन: कहा, 'मैं इस बारे में सचेत हूँ...आप जैसे मेहनती और ईमानदार व्यक्ति कम ही हैं...' वे हवाई जहाज़ में बैठ गए थे। लगभग सभी लोग हवाई जहाज़ के उड़ने तक खड़े देखते रहे थे। शिवनाथ बाबू के चले जाने के कई दिन बाद तक उन्हें लगता रहा, पिता जैसे बच्चे को स्कूल में भरती कराकर चला गया है।

मृणाल बाबू ने उनकी उस बात की गिरह बाँध ली और इस बात की पूरी कोशिश की थी कि शिवनाथ बाबू के लौटकर आने तक विभाग को पूरी तरह बदल डालें। हर फ़ाइल को वह स्वयं देखते थे। कोई भी फ़ाइल पंद्रह दिन से अधिक न रुके, इस बात के लिए विभाग को सख़्त आदेश थे।

शिवनाथ बाबू के विदेश से लौटने के बाद उन्होंने इस बात को महसूस किया, कैबिनेट की मीटिंग में उन्होंने सब मंत्रियों के काम की किसी-न-किसी रूप में सराहना की है। मृणाल बाबू के विभाग के बारे में उन्होंने एक शब्द नहीं कहा था। विभाग के काम में भी एक अजीब तरह का परिवर्तन आ रहा था। जो भी फ़ाइल विभाग से माँगी जाती थी, पता चलता था मुख्यमंत्री के पास है। सचिव को पूछते थे, वह भी मुख्यमंत्री के यहाँ गया हुआ होता था। मृणाल बाबू के मन में यह निश्चय हो गया था, सचिव की बदमाशी है। मुख्यमंत्री को बात करनी होगी, तो विभाग के मंत्री को बुलाकर बात करेंगे। वे यह भी सुन चुके थे कि वह व्यक्ति मुख्यमंत्री के मुँह लगा है।

शिवनाथ बाबू ने गर्दन उठाकर कॉल-बेल बजाते हुए उनकी ओर मुख़ातिब होकर कहा 'आपने कुछ बताया नहीं... क्या बात थी?' घंटी सुनकर वही जमादार आ गया। उसने एक नज़र मृणाल पर भी डाली। शिवनाथ बाबू ने मृणाल बाबू की ओर इशारा करते हुए जमादार से कहा, 'ज़रा आपके सचिव... मिस्टर राय से टेलीफ़ोन मिलाओ... हम बात करेंगे।'

उनके बैठे हुए, विभाग के सचिव को बुलाया जाना उन्हें अच्छा नहीं लगा। लेकिन चुप रहे। शिवनाथ बाबू ने अपनी तरफ़ आँखों का इशारा करके 'हूँ' करने पर मृणाल बाबू ने पूछा, 'मिस्टर राय से... कोई विभाग का काम है?' शिवनाथ बाबू कुछ इस तरह अपनी फ़ाइलें देखते रहे, जैसे उन्होंने सुना ही न हो। क्षण-भर के लिए मृणाल बाबू का चेहरा खिसियाना-सा हो गया। कुछ देर के बाद फिर हिम्मत करके बोले, 'इधर मैंने अपने विभाग में... यानी विभाग को काफ़ी समझने की कोशिश की है... कई स्कीमें मेरे दिमाग़ में हैं...'

उनका वाक्य समाप्त होने के बाद शिवनाथ बाबू ने बड़ी-सी 'हूँ' की। मृणाल बाबू समझ नहीं पाए यह 'हूँ' उनकी बात पर की गई है या फ़ाइल देखकर मुँह से निकल गई। फ़ाइल बाँधते हुए वे मुस्कुराए और बोले, 'अच्छा।'

'अच्छा' सुनकर मृणाल बाबू ज़रा उत्साहित हो गए, कहने लगे, 'मिस्टर राय बिल्कुल सहयोग नहीं दे रहे। कोई भी फ़ाइल मेरे सामने नहीं आती। माँगने पर यही उत्तर मिलता है, मुख्यमंत्री के यहाँ गई हुई है। भला आप फ़ाइलें मँगाकर क्या करेंगे? आख़िर आपने ही तो मुझे मंत्री बनाया है... आपका विश्वासपात्र हूँ। लेकिन मिस्टर राय... आप तो जानते ही हैं, बड़े चलते हुए व्यक्ति... फिर रुककर सकुचाते हुए कहा, 'मिस्टर राय समझते हैं, मुझे यह सब आपसे कहते डर लगेगा... नया-नया आदमी हूँ...'

शिवनाथ बाबू को पुनः फ़ाइलों में व्यस्त देखकर मृणाल बाबू को अपने प्रति ज़ियादती-सी होती महसूस हुई। जब जमादार ने आकर बताया कि राय साहब कोठी पर नहीं हैं। मंदिर गए हैं, शिवनाथ बाबू बिना कुछ कहे कुर्सी पर से उठ खड़े हुए। मृणाल बाबू की ओर हाथ जोड़कर बोले, 'अच्छा'...।'

मृणाल बाबू को लगा कि उन्हें कोठी से धक्के देकर निकलवा दिया गया है। तेज़ी के साथ कमरे से बाहर निकल आए। बाहर निकलते ही उनकी नज़र जमादार पर गई। वह बड़े हाव-भाव के साथ उनके ड्राइवर को कुछ बता रहा था। उसके चेहरे पर कुछ इस प्रकार की हँसी थी, जैसे किसी की नक़ल उतारकर मज़ा ले रहा हो। उसका इस तरह करना मृणाल बाबू को अच्छा नहीं लगा। कार में बैठने पर ड्राइवर से पूछा, 'जमादार क्या कह रहा था?'

ड्राइवर इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था। वह घबरा-सा गया और उसके मुँह से निकला, 'जी, कुछ नहीं।'

'कुछ कैसे नहीं...' मृणाल बाबू ने ज़रा सख़्त आवाज़ से उसी का वाक्य दोहराया।

ड्राइवर ने यह कहकर जान बचानी चाही, 'कुछ आपस की ही बातें थीं।' मृणाल बाबू को इस सबसे संतोष नहीं हुआ ज़रा खुलकर पूछा, 'हमारे बारे में कुछ कह रहा था?'

ड्राइवर ने उनकी तरफ़ देखने के लिए ज़रा-सी गर्दन घुमाई, वे पिछली सीट पर बाएँ कोने में थे। सामने ऊपर का शीशा भी दूसरे कोण पर था। ड्राइवर को सामने की तरफ़ ही देखते हुए कहना पड़ा, 'हुज़ूर, और तो कुछ नहीं... बस यही पूछ रहा था, मुख्यमंत्री जी तुम्हारे साहब से क्यों नाराज़ हैं... अभी-अभी तो तुम्हारे साहब मंत्री बने हैं।'

मृणाल बाबू को बड़े ज़ोर से ग़ुस्सा आया। उन्होंने कहना चाहा, शिवनाथ बाबू, मुझसे क्या नाराज़ होगा... मैं ही उससे नाराज़ हूँ...' उन्होने कहा नहीं। केवल आँखें बंद करके पीछे की ओर लुढ़क गए। आँखें बंद कर लेने पर भी उनके मन का आक्रोश कम नहीं हुआ, नाक के नथुने फूल गए और यह सोचने का प्रयत्न करने लगे, घर जाकर त्यागपत्र दे देंगे। मंत्री बनने से पूर्व शिवनाथ बाबू का जो उनके साथ व्यवहार था, अब एकदम उससे भिन्न है। उन्हें एकाएक आभास हुआ, वे आप-ही-आप कुछ बोल रहे हैं। सीधे बैठ गए और ड्राइवर की तरफ़ देखने लगे, उसने देख तो नहीं लिया। लेकिन जब उनकी नज़र सामने वाले शीशे पर पड़ी, तो शीशे का कोण बदला हुआ था। सब स्थितियों उन्हें ऐसी लगी, जैसे बंदी बना दिए गए हों।

आज की परिस्थिति पहले से एकदम भिन्न हो गई थी। जब शिवनाथ बाबू उन्हें मंत्री-पद के लिए आमंत्रित करने गए थे, तो कितने मधुर, स्नेहशील नज़र आ रहे थे। मृणाल बाबू को उनका वह डायलाग शब्दशः याद हो आया, उस समय उनसे कहा गया था, 'मैं जानता हूँ आप स्पष्टवादी और ईमानदार हैं। 'पार्टी-सचेतक के होते हुए भी आपने मेरी सरकार का विरोध किया। शांतिशरण को आपके ही कारण त्यागपत्र देना पड़ गया..' यह कहते हुए वह साधारण-सा हँस दिए थे। फिर गंभीर होकर कहा था, 'यदि मैं चाहता तो आपको पार्टी और सदन से निष्कासित करा सकता था। लेकिन मैं जानता हूँ, अपने विधायकों में आप जैसी सूझ-बूझ वाला व्यक्ति कोई भी नहीं...' शपथ वाले दिन भी राज्यपाल से परिचय कराते समय उन्होंने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। शपथ वाले दिन राजभवन तक ले जाने के लिए मय-पायलेट के अपनी गाड़ी भेजी थी। मृणाल बाबू सोचने लगे, उस समय उनके चेहरे पर बालक जैसी सरलता और निस्पृहता थी, लेकिन आज का चेहरा...

ड्राइवर ने इतनी ज़ोर से ब्रेक लगाया कि मृणाल बाबू को लगा, एक्सीडेंट हो गया है। कोई बकरी का बच्चा कार के नीचे से बच गया था। मृणाल बाबू को बकरी के बच्चे पर बड़ी दया आई।

उनकी कार पोर्टिको में जाकर रुकी, बरांडे में बहुत-से लोग जमा थे। उनका मन हुआ, कार से उतरकर वापस लौट चला जाए। वे लोग पहले रोज़ भी मिल चुके थे। मृणाल बाबू ने उन्हें अगले दिन उत्तर देने का आश्वासन दिया था। उनका ख़याल था कि वे सरकार को उन लोगों की शर्त मानने के लिए रज़ामंद कर लेंगे। एक औद्योगिक बस्ती का मसला था। सरकार जिन झोपड़ियों को लेना चाहती थी, उनमें रहनेवाले मुआवज़े में फैक़्टरी की पक्की नौकरी और रहने के लिए औद्योगिक बस्ती में कम किराये पर घर माँगते थे। सरकार को इस बात पर आपत्ति थी। मात्र मुआवज़ा देकर पीछा छुड़ा लेना चाहती थी। यही मसला शांतिशरण के ज़माने में उठा था, आज भी उसी रूप में मौजूद था। इसी मामले पर बातचीत करने के लिए वे मुख्यमंत्री के पास गए भी थे। प्रतिनिधि-मंडल के चले जाने पर भी उन्होंने सचिव को फ़ोन किया था कि उस मामले की फ़ाइल लेकर चले आए। सचिव ने यह कहकर पीछा छुड़ा लिया था, फ़ाइल मुख्यमंत्री के पास है। मृणाल बाबू को उत्तर सुनकर इतने ज़ोर का ग़ुस्सा आ गया था कि सचिव को फ़ोन पर ही डाँटने लगे थे। कोई भी फ़ाइल बिना उनकी मर्ज़ी के मुख्यमंत्री के पास न भेजी जाए। उनकी इस बात का कोई भी उत्तर देना सचिव ने उचित नहीं समझा था।

लेकिन मुख्यमंत्री के व्यवहार से मृणाल बाबू काफ़ी त्रसित थे। औद्योगिक बस्ती के बारे में बात न कर पाने से व अपने आपको एक बड़ी अजीब स्थिति में फँसा महसूस कर रहे थे। उन्होंने यही निश्चय किया कि उन लोगों को मुख्यमंत्री के पास भेज देना उचित होगा। बिना शिवनाथ बाबू से सलाह किए किसी बात का आश्वासन देने का अर्थ यही था कि वे अपने को भी शांतिशरण वाली उलझन (कन्ट्रॉवर्सी) में डाल लें।

मृणाल बाबू ने जब उन लोगों को मुख्यमंत्री से मिलने का सुझाव दिया तो उनमें से एक विरोधी पार्टी के विधायक और डेपुटेशन के नेता बिगड़ उठे, आप भी शांतिशरण जैसी ही बातें कर रहे हैं। आख़िर विभाग आपके पास है या मुख्यमंत्री के! मुख्यमंत्री कहते हैं, आप लोग शांतिशरण को तो बेईमान और कम-अक़्ल समझते थे। अब तो मैंने विधानसभा के सबसे ईमानदार और आप लोगों के विश्वासपात्र को उसी विभाग का मंत्री बना दिया। अब भी आप मेरे पास ही दौड़ते हैं।...' मृणाल बाबू ख़ामोश-से खड़े रह गए। उनको लगा दरवाज़ा खोलते हुए किवाड़ की चूल निकल गई है। मन हुआ, साफ़ कह दें, मैं तो नाम का मिनिस्टर हूँ... लेकिन सबके सामने अपने मुँह से यह स्वीकार करना उन्हें अपमानजनक-सा लगा। अतः यही उत्तर देना उचित समझा, 'अच्छा, आप निश्चिन्त रहें... अगर मैं कुछ भी कर सकूँगा तो ज़रूर करूँगा...' नमस्कार करके अंदर चले गए।

मृणाल बाबू को ऐसा अनुभव हो रहा था कि उन्हें किसी ख़ासतौर से तैयार की गई स्थिति में फिट कर दिया गया है। एक बार फिर त्यागपत्र देने की बात दिमाग़ में आई। लेकिन...' यह लेकिन उन्हें पहाड़ की ऊँचाई जैसा लगा। वह उस संपूर्ण स्थिति की कल्पना कर गए जो त्यागपत्र देने से उत्पन्न हो सकती है। अगर शिवनाथ बाबू ने उनके लिए किसी भी स्थिति-विशेष का निर्माण किया है तो भी त्यागपत्र देना उन्हीं के पक्ष में होगा। लोग कहेंगे विधान-भवन में तो बड़ा शोर मचाता था...काम करने का वक़्त आया तो दुम कटाकर लॉडा शेर बन गया। इस बात का प्रचार इस रूप में भी किया जा सकता है...'त्यागपत्र माँगा गया है।'
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उन्होंने मेज़ पर रखे पेपरवेट को उठा लिया और ज़ोर से घुमाने लगे। अपनी उँगलियों के ज़रा-से 'ट्विस्ट' पर पेपरवेट का घूमते रहना देखकर वे समझ नहीं पाए कि इस क्रिया को क्या संज्ञा दी जाए।

टेलीफ़ोन-एक्सटेंशन मधुमक्खी की तरह भिनभिनाने लगा। उन्हें अपने पी.ए. पर गुस्सा आया, क्यों नहीं उसने मना कर दिया। मुझे सूचित करने की क्या ज़रूरत थी? जब देखिए 'बजर' दबा देता है। लोग समझते है 'मिनिस्टर हूँ... मेरी सिफ़ारिश से न जाने क्या से क्या हो सकता है।' उनका मन हुआ वे रिसीवर को उठाकर बिना सुने ही रख दें। लेकिन चपरासी ने आकर बताया, 'सरकार, पी.ए. साहब ने कहलवाया है, मुख्यमंत्री जी बात करना चाहते है...' रिसीवर उठाना मृणाल बाबू को मनों वज़नी वस्तु उठाने के समान लगा। उधर से शिवनाथ बाबू स्वयं बोल रहे थे। उन्होंने दो ही वाक्य कहे, 'ज़रा चले आइए, ज़रूरी बातें करनी हैं...' रिसीवर रख दिया। स्वर अपेक्षाकृत नरम था।

मृणाल बाबू ने आक्रोश के साथ दोहराया, 'ज़रूरी काम है...'

कमरे से बाहर आए। सामने पी.ए. वाले कमरे में ड्राइवर, चपरासी, शैडो (सुरक्षा-अधिकारी) सब जमा थे, क़हक़हे लगा-लगाकर बातें कर रहे थे। मृणाल बाबु ग़ुस्से से काँप उठे, सीधे पी.ए. के कमरे में पहुँचकर पी.ए. पर बिगड़ने लगे, 'आपको शर्म नहीं आती−इन लोगों के साथ बैठकर हँसी-ठट्ठा करते हैं। अपनी पोज़ीशन का ख़याल रखना चाहिए।' पी.ए. साहब पर डाँट पड़ती देख सब लोग दूसरे दरवाज़े से निकलकर अपनी-अपनी जगह पर पहुँच मुस्तैदी से खड़े हो गए। ड्राइवर कार पोंछने लगा, शैडो बेंच पर जा बैठा, चपरासी अंदर चला गया।

कार चलाते हुए ड्राइवर को बराबर लग रहा था कि अब मृणाल बाबू की डाँट पड़ी। ड्राइवर के बराबर में बैठा शैडो भी थोड़ा आतंकित था। लेकिन मृणाल बाबू का मन शिवनाथ बाबू के कुछ देर पहले वाले व्यवहार को लेकर अत्यधिक त्रसित था। वे सोच रहे थे, अगर शिवनाथ बाबू इस ममय ठीक मूड में होगे तो ज़रूर इस बात को कहेंगे।

मुख्यमंत्री की कोठी पर पहुँचकर वे बरांडे में ही ठिठक गए। पी.ए. तुरंत दौड़ा हुआ आया और बड़े सम्मान के साथ ड्राइंगरूम में ले गया। क्षण-भर को मृणाल बाबू ने इस आवभगत का और सुबह आधा घंटे तक लॉन में टहलने वाली स्थिति के साथ मिलान किया। लेकिन सामने ही दीवान पर शिवनाथ बाबू बाईं कोहनी गाव-तकिये से टिकाए तिरछे बैठे हुए थे। बायाँ घुटना पट लेटा हुआ था और दाहिना घुटना नब्बे डिग्री कोण पर खड़ा था। उन्होंने विस्तृत-सी मुस्कान के साथ कहा, 'आइए।' दाएँ हाथ से सोफ़े की तरफ़ इशारा कर दिया। मृणाल बाबू चुपचाप बैठ गए।

'आपने अभी भोजन तो नहीं किया होगा?' शिवनाथ बाबू ने मुस्कुराते हुए स्नेहपूर्वक पूछा।

'जी नहीं, लौटकर ही करूँगा।'

'आज मेरे साथ ही भोजन कीजिए... जब से विदेश से लौटा हूँ, पल-भर की फ़ुरसत नहीं मिली। सुबह भी आपसे बात नहीं कर पाया। बाद में मुझे बहुत बुरा लगा। दरअसल एक फ़ाइल देखकर मेरा दिमाग़ इतना ख़राब हो गया कि... आप बुरा न मानें। कभी-कभी मानसिक तनाव की स्थिति में बड़ी अजीब-अजीब हरकतें कर बैठता हूँ।' अंतिम वाक्य पर उन्होंने अधिक ज़ोर दिया और मुस्कुराए भी।

मृणाल बाबू को उस समय उनके साथ भोजन करना उचित नहीं लगा। बहाना बना दिया, 'मैंने कुछ लोगों को घर पर आमंत्रित किया है...।'

शिवनाथ बाबू ने और भी सरल होकर कहा, 'ठीक है, आपकी दावत हम पर ड्यू रही।' उस समय उनके चेहरे पर ठीक वैसा ही भाव आ गया था जैसा उस समय था, जब वे उन्हें मंत्री-पद के लिए आमंत्रित करने उनके फ़्लैट पर ही गए थे।

'हाँ, शायद आप राय के बारे में कुछ कह रहे थे सुबह। मैं उसे ख़ूब जानता हूँ...' शिवनाथ बाबू बड़ी ज़ोर से हँस दिए।

'आपने एक कहानी सुनी है—एक चालाक भेड़िया नदी के किनारे बैठा अपनी डींग मार रहा था—'मैंने ख़रबूज़े का पूरा खेत खा डाला। मगरमच्छ को यह बात निहायत बेईमानी की लगी। जब भेड़िया पानी पीने के लिए झुका तो मगरमच्छ ने चट भेड़िये का मुँह पकड़ लिया और बोला, 'निकाल ख़रबूज़े का खेत, अकेला खा गया?'

भेड़िया ज़ोर से हँस दिया और बोला, निकल बे ख़रबूज़े के खेत! पीछे के रास्ते से। मगरमच्छ पीछे की तरफ़ लपका तो भेड़िया ग़ायब था।'

शिवनाथ बाबू द्वारा सुनाई गई इस कहानी पर मृणाल बाबू को हँसी आ गई। लेकिन शिवनाथ बाबू गंभीर होकर बोले, 'आप नए-नए आदमी हैं, धीरे-धीरे समझने की कोशिश कीजिए... आप इन अफ़सरों के रास्ते नहीं जानते...'

अपने लिए नए-नए विशेषण का प्रयोग उन्हें पसंद नहीं आया। दबी आवाज़ में बोले, 'बाबूजी, आख़िर मेरा नयापन कब तक बना रहेगा। आपके अफ़सर भी मुझे नौसिखिया ही समझते है।' कहकर मृणाल बाबू को लगा उन्होंने अपनी बिसात से ज़ियादा बात कह दो है। अतः मुस्कुराकर बात को हल्का करने का प्रयत्न किया।

शिवनाथ बाबू के चेहरे पर सुबह वाली कठोरता फिर उद्भासित हो गई।

'मृणाल बाबू, आपको मैं राजनीतिज्ञ मान बैठा था। लेकिन आप तो भावुक बालक निकले, मिठाई पाकर हँस देते हैं, ज़रा-सी चाट खाकर रोने लगते हैं। राजनीतिज्ञ लोहे के समानधर्मा होते हैं। 'लोहा जब तक ठंडा रहता है चोट करने की स्थिति में रहता है...।'

शिवनाथ बाबू कुछ और भी कहते, परंतु मिस्टर राय के एकाएक अंदर चले आने के कारण ख़ामोश हो गए। मृणाल बाबू को अपने-आपको उस तनाव की स्थिति से वापस लाने में कुछ समय लगा लेकिन वे सोचने लगे, 'मंत्री होकर भी शिवनाथ बाबू से मिलने के लिए मुझे आज्ञा लेनी पड़ती है। मिस्टर राय सचिव होकर भी, अपने मंत्री के बैठे हुए, बे-हिचक चले आते हैं...।'

शिवनाथ बाबू मिस्टर राय को डाँटते हुए बोले, 'मिस्टर राय, मैं आदेशों के पालन को अधिक महत्त्व देता। मेरे द्वारा नियुक्त किया गया सभा-सचिव भी मुख्यमंत्री है। जनता का प्रत्येक प्रतिनिधि सरकार का अभिन्न अंग है। जो शिकायतें मैंने सुनी हैं, भविष्य में उनको दोहराया जाना मुझे पसंद नहीं होगा। शासन के मामले में भी किसी तरह का हस्तक्षेप मेरे लिए असहनीय।

अंतिम वाक्य कहते समय मुख्यमंत्री ने मृणाल बाबू की ओर देख लिया था। कुछ रुककर पुनः कहा, 'जनता के अधिकारों का दायित्व मुख्यमंत्री पर है—वह अपने अधिकारों को ही, मंत्रियों, सचिवों यानी पूरी सरकार से अंगों में आवश्यकतानुसार बाँटता है। लेकिन किसी की भी ज़रा-सी चूक की जवाबदेही मुख्यमंत्री से होती है...।'

शिवनाथ बाबू बोलते-बोलते रुक गए। मृणाल बाबू और मिस्टर राय पर बारी-बारी से नज़र डाली। दोनों नज़रों में अंतर ज़रूर था, परंतु मृणाल बाबू को लगा जैसे मिस्टर राय पर पड़ने वाली डाँट में उनका भी बराबर का हिस्सा है। अंतर उतना ही था कि मिस्टर राय गर्दन झुकाए खड़े थे और मृणाल बाबू उनके बराबर वाले सोफ़े पर बैठे थे।

शिवनाथ बाबू ने मिस्टर राय से उसी टोन मे पूछा, 'आप फ़ाइल लाए?'

मिस्टर राय ने अपनी बग़ल से फ़ाइल निकालकर उनकी ओर सादर बढ़ा दी। हाथ में लेते हुए बिना उसकी ओर देखे मुख्यमंत्री ने कहा, 'अब आप जा सकते हैं, लेकिन मेरी बात का ध्यान रखिए।'

मृणाल बाबू ने देखा, मिस्टर राय ड्राइंगरूम के दरवाज़े से निकलते हुए हल्का-सा मुस्कुराए है। उनके बाहर चले जाने पर शिवनाथ बाबू ने वही फ़ाइल मृणाल बाबू की ओर बढ़ा दी और कहा, 'कल आपको ही विधानसभा में उत्तर देना है।' उनके कथन में आज्ञा का स्वर भी था।

मृणाल बाबू गर्दन नीची करके फ़ाइल को उलट-पुलटकर देखने लगे। उनको लग रहा था कि शिवनाथ बाबू उनके चेहरे पर होने वाली हर प्रतिक्रिया को नोट कर रहे हैं। लेकिन जब शिवनाथ बाबू बोले, 'वैसे तो घर जाकर भी इस फ़ाइल को देखा जा सकता है। पर आप मेरे सामने ही देख लें। मैं अभी बाहर जा रहा हूँ। कल सुबह सीधा विधानसभा पहुँचूँगा—आप भावुक और आदर्शवादी व्यक्ति हैं। कभी बाद में फ़ाइल देखकर आपको लगे, आपके आदर्श टूट रहे हैं— यह सब मैं पसंद नहीं करूँगा।'

मृणाल बाबू को लगा कि दूसरे शब्दों में उनसे भी यह कहा जा रहा है—'मैं आदेशों के पालन को अधिक महत्त्व देता हूँ...।'

शिवनाथ बाबू उठ गए, अंदर जाते हुए पूछा, 'आप समझ गए?'

मृणाल बाबू को नमस्कार करने का अवसर भी नहीं मिल सका।

मृणाल बाबू ने कार में बैठते हुए सोचा—''तनाव की स्थिति में शिवनाथ बाबू अजीब-अजीब हरकतें कर बैठते हैं...।'

घर जाकर जब उन्होंने फ़ाइल खोली, वही औद्योगिक बस्ती वाला मसला था। शब्दों में थोड़े-से परिवर्तन के साथ वही उत्तर लिखा था जो शांतिशरण जी ने विधान-भवन में दिया था।

मृणाल बाबू को लगा, विधानसभा का प्रत्येक सदस्य वही वाक्य दोहरा रहा है जो उन्होंने शांतिशरण के लिए कहा था, 'हड्डी निचोड़ने वाले कुत्ते हमें नहीं चाहिए।'

शिवनाथ बाबू मुस्कुराते हुए कह रहे हैं, 'शांतिशरण तो कम-अक़्ल और बेईमान थे—अब तो विधानसभा का सबसे ईमानदार और आपका विश्वासपात्र मिनिस्टर भी वही बात कह रहा है...।'
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Friday, May 6, 2022

हंसा जाई अकेला [कहानी] --- मार्कण्डेय

 

 हंसा जाई अकेला
[कहानी]
--- मार्कण्डेय

वहाँ तक तो सब साथ थे, लेकिन अब कोई भी दो एक-साथ नहीं रहा। दस-के-दसों अलग खेतों में अपनी पिंडलियाँ खुजलाते, हाँफ रहे थे।

“समझाते-समझाते उमिर बीत गयी, पर यह माटी का माधो ही रह गया। ससुर मिलें, तो कस कर मरम्मत कर दी जाए आज।” बाबा अपने फूटे हुए घुटने से खून पोंछते हुए ठठा कर हँसे।

पास के खेत मे फँसे मगनू सिंह हँसी के मारे लोट-पोट होते हुए उनके पास पहुंचे।

“पकड़ तो नहीं गया ससुरा? बाप रे… भैया, वे सब आ तो नहीं रहे हैं?” और वह लपक कर चार कदम भागे, पर बाबा की अडिगता ने उन्हें रोक लिया। दोनों आदमी चुपचाप इधर-उधर देखने लगे।

सावन-भादों की काली रात, रिम-झिम बूँदें पड़ रही थीं।

“का किया जाय, रास्ता भी तो छूट गया। पता नहीं कहाँ है, हम लोग।”

“किसी मेंड पर चढ़ कर, इधर-उधर देखा जाय। मेरा तो घुटना फूट गया है।”

“बुढ़वा कैसे हुक्का पटक के दौड़ा था।”

“अरे भइया, कुछ न पूछो।” मगनू हो-होकर के हँसने लगे।

इसी बीच गाने की आवाज सुनाई पड़ी-

हंसा जाई अकेला, ई देहिया ना रही।
मल ले, धो ले, नहा ले, खा ले
करना हो सो कर ले, ई देहिया…

दस-एक बीघे के इर्द-गिर्द, अँधेरे और भय में धँसी हुई पूरी मंडली सिमट आयी। चेहरे किसी के नहीं दिखाई पड़े, पर हँसी के मारे सबका पेट फूल रहा था। उसी बीच थूक घोंटने की-सी आवाज करता हुआ, वह आया और जोर से हँसने लगा।

“होई गयी गलती भइया। मैं का जानूँ कि मेहरिया है। समझा, तुम में से कोई रुक गया है।”

मगनू ने कहा, “सरऊ, साँड़ हो रहे हो, अब मरद-मेहरारू में भी तुम्हें भेद नहीं दिखाई पड़ता?”

“नाहीं, भाय, जब ठोकर खा कर गिरने को हुये न, मैंने सहारे के लिए उसे पकड़ लिया। फिर जो मालूम हुआ, तो हकबका गया। तभी बुढ़वा ने एक लाठी जमा दी। खैर कहो निकल भागा।” उसने झुक कर अपनी टाँगों पर हाथ फेरा। नीचे से ऊपर तक झरबेरी के काँटे चुभे हुए थे।


 
“ससुरे को बीच में कर लो।” बाबा ने कहा।

मगनू कहने लगे, “चलो मेहरारू तो छू लिया, ससुरे की किस्मत में लिखी तो है नहीं।”

उसे लोग हंसा कहते हैं, काला-चिट्ठा बहुत ही तगड़ा आदमी है। उसके भारी चेहरे में मटर-सी आँखें और आलू-सी नाक, उसके व्यक्तित्व के विस्तार को बहुत सीमित कर देती हैं। सीने पर उगे हुए बाल, किसी भींट पर उगी हुई घास का बोध कराते हैं। घुटने तक की धोती और मारकीन का दुगजी गमछा उसका पहनावा है। वैसे उसके पास एक दोहरा कुर्त्ता भी है, पर वह मोके-झोंके या ठारी के दिनों में ही निकालता है। कुर्त्ता पहन कर निकलने पर, गांव के लड़के उसी तरह उसका पीछा करने लगते हैं, जैसे किसी भालू का नाच दिखाने वाले मदारी का।

“हंसा दादा दुल्हा बने हैं दुलहा।” और नन्हें-नन्हें चूहों की तरह उसके शरीर पर रेंगने लगते हैं। कोई चुटइया उखाड़ता है, तो काई कान में पूरी-की-पूरी अँगुली डाल देता हैं। कोई लकड़ी के टुकड़े से नाक खुजलाने लगता है, तो कोई उसकी बड़ी-बड़ी छातियों को मुँह में लेकर, हंसा माई, हंसा माई, का नारा लगाने लगता है। इसी बीच एक मोटा सोटा आ जाता है, वह हंसा के कंधे से सटा कर लगा दिया जाता है और हंसा दो-एक बार उस पर अँगुलियाँ दौड़ा कर, अलाप भरते-भरते रुक कर कहता है, “बस न।”

लड़के चिल्ला पड़ते हैं, “नहीं, दादा। अब हो जाय।”

कोई पैर से लटक जाता है, तो कोई हाथ से। फिर वह मगन हो कर गाने लगता है, “हंसा जाई अकेला, ई देहिआ ना रही…”

उस दिन बारह बजे रात को गाँव लौट कर, हंसा सीधे बाबा के दालान आया। लालटेन जलायी गयी। हंसा अपनी पिंडलियों में धँसे झरबेरी के काँटों को चुनने लगा। जैसे जाड़े मे चिल्लर पड़ जाते हैं, उसी तरह हंसा की टाँग में काँटे गड़े थे।

बाबा ने कहा, “कहाँ जाएगा ठोंकने-पकाने इतनी रात को, यहीं दो रोटी खा ले।” और झरबेरियों के काँटे देखे, तो उन्हें जैसे आज पहली बार हंसा की भीतरी जिन्दगी की झाँकी दिखाई दी। इतनी खेत-बारी, ऐसा घर-दुआर, पर एक मेहरारू के बिना बिलल्ला की तरह घूमता रहता है। बाबा उठ कर हंसा की पिंडलियों से काँटे बीनने लगे।


 
उसे रतौंधी का रोग है! इसीलिए रात को वह गाँव से बाहर नहीं जाता। वह तो मजगवाँ का दंगल था, जो उसे खींच ले गया। बाबा सरताज हैं पहलवानों के, भला क्यों न जाते। बेर डूबा गयी वहीं, चले तो अँधेरा घिर आया था। पाँच मील का रास्ता था। हंसा दस लोगों की टोली के बीच में चल रहा था। कई बार उसके पाँव लोगों से लड़े, तो लोगों ने गालियाँ दीं और उसे पीछे कर दिया। हंसा गालियों का बुरा नहीं मानता। वह बहुत सारे काम गाली सुनने के लिए ही करता है। गाँव के बूढ़ों-बुजुर्गों की इस दुआ से उसे मोह है।

वह पीछे-पीछे आ रहा था। रास्ते में एक गाँव आया, तो गलियों के घुमाव फिराव में वह जरा पीछे रह गया। एक झोपड़ी के आगे एक बूढ़ा बैठा हुक्की गरमाये था। उसकी जवान बहू किसी काम से बाहर आयी थी, दस आदमियों की लम्बी कतार देख कर बगल में खड़ी हो गयी। फिर हंसा के आगे से वह निकल जाने को हुई, तो संयोग से हंसा के पाँव उससे लड़ गये और अँधेरे मे गिरते-गिरते वह हंसा के बाजुओं में आ गयी। बहू चीख उठी। बूढ़ा हुक्की फेंककर डंडा लिये दौड़ा। लेकिन हंसा निकल गया। दूसरा डंडा उसकी बहू की ही पीठ पर पड़ा। यह गये, वह गये और सारी मण्डली रात के अँधेरे में खो गयी। सबकी आँखें साथ दे रही थीं पर हंसा खाइयों-खंदकों मे गिरता-पड़ता भागता रहा।

बाबा काँटा बीनते जा रहे थे। हंसा अपनी मटर-सी आँखों को बार-बार अपने भालू के-से बालों में धँसाता- हाथ को काँटे मिल जाते, पर आँखें न खोज पातीं। रह-रह कर रास्ते की वह घटना उसके सामने नाच जाती। क्या सोचती होगी बेचारी? और वह बाबा की ओर देखने लगता।

“बड़ी चूक हो गयी, भइया। समझो, निकल भागे किसी तरह नहीं तो जाने का कहती दुनिया? हमें तो यही सोच कर और लाज लग रही थी कि तुम भी साथ थे।”


 
“अरे, यह क्या कहता है, हंसा।”

“यही कि आपके साथ ऐसे लोग रहते हैं। कितना नाव-गाँव है। कितनी हँसाई होती।”

हंसा कभी कोई बात सोचता नहीं पर आज बार-बार उसका दिमाग उलझ जाता था। अगर भइया चाहें… तो…

इसी बीच आजी पूड़ियाँ थाल में परसे बाहर आयी। हंसा हड़बड़ा कर उठ गया। बहुत दिन पर भउजी को देखा था। रात न होती, तो वह बाहर क्यों आती। उसने सलाम किया। थाल थामने ही जा रहा था कि उन्होंने मजाक कर दिया, “कहीं डड़वार डाके रहे का बबुआ, जो काँटा विनाय रहा है।”

“कुछ न कहो भउजी।” हंसा कह ही रहा था कि बाबा बोला उठे, “फँसी गया था हंसवा आज, वह तो खैर मनाओ, बच गया, नहीं वह पड़ती कि याद करता! एक औरत को इसने…!”

“अब हँसी-ठिठोली छोड़ कर, बियाह करो। जब तक देह कड़ी है दुनिया-जहान है, नहीं तो रोटी के भी लाले पड़ जाएँगे! कहते क्यों नहीं अपने भइया से? गूँगे-बहरे, कुत्ते-बिल्ली सबका तो बियाह रचाते रहते हैं, पर तुम्हारा ध्यान नहीं करते। खेत-बारी, जगह, जमीन सब तो है।”

बाबा कुछ नहीं बोले, लगा सेंध पर धरे गये हों। आजी जाने लगी, तो बाबा ने तेल भेजने को कहा।

तेल की कटोरी लेकर हंसा बाबा के पैताने जा बैठा।

“अपने पैरों में लगाओ न हंसा! दरद कम हो जाएगा।”

“गजब कहते हो, भइया। अरे लगाया भी है कभी तेल।” और बाबा की मोटी रान पर झुक गया।

“मनों तेल पी गयीं ये रानें। कितने तो तेल ही लगा कर पहलवान हो गये…” हंसा कहने लगा।

बाबा चुप पड़े रहे। ओरउती से लटकी हुई लालटेन में गुल पड़ गया था, धुएँ से उसका शीशा काला पड़ चुका था और कालिख ऊपर उड़ने लगी थी।

हंसा उठा और बत्ती बुझा कर लेट गया।

भउजी की बात हंसा के कानों में गूँंज रही थी – ‘जब तक देह कड़ी है…’ हंसा ने करवट लेते लेते बूढे़ के डंडे की चोट का हाथ से अंदाज लिया और भुनभुनाने लगा, “जान-बुझकर तो कुछ नहीं किया। हम तो भइया की तरह मेहरारू को आँख उठा कर भी नहीं देखते। यह रतौन्हीं साली जो न कराये।” उसने इधर-उधर आँख चलायी, पर कुछ नहीं- सब मटमैला, धुंध।


 
पाला पड़े चाहे पत्थर; काम से खाली होकर हंसा बाबा के पास जरूर आएगा। कभी देश-विदेश की बात, कभी महाभारत-रामायण की बात। लेकिन ‘गन्ही महत्मा’ की बात में उसे बड़ा मजा आता है। किसी ने उसे समझा दिया है कि गाँधी जी अवतारी पुरूष थे।

उस दिन दालान में कोई नहीं था। शाम का वक्त था। बाबा की चारपाई के पास बोरसी में गोहरी सुलग रही थी। जानवर मन मारे अपनी नाँदों में मुँह गाड़े थे। रिम-झिम पानी बरस रहा था। कलुआ पाँवों से पोली जमीन खोद कर, मुकुड़ी मारे पड़ा था। बीच-बीच में जब कुटकियाँ काटतीं, तो वह कूँ….कूँऽ करके, पाँवों से गर्दन खुजाने लगता। इसी समय एक आदमी पानी से लथ-पथ, कीचड़ में अपनी साईकिल को खींचता आया और जैसे ही साइकिल खड़ी करके दालान में घुसने लगा, हंस ने कहा, “जै हिन्न की, गनेश बाबू।”

“जै हिन्द हंसा भाई, जै हिन्द।”

उसने अपने झोले से नोटिसों का पुलिन्दा निकाल कर, बाबा के आगे रख दिया। हंसा बाबा की गोड़वारी बैठ गया। बाबा नोटिस पढ़ कर बोले, “कैसे होगा, बरखा-बूनी का दिन है।”

हंसा कुछ समझ नहीं सका। जब उसका पेट फूलने लगा, तो वह बोल बैठा, “का है भइया।”

“कोई सुशीला बहिन आज यहां गांधी जी का संदेश सुनाना चाहती हैं। जिला कमेटी का नोटिस है।”

“का लिखा है नोटिस में!” हंसा मुँह बा कर उन्हें देखते हुए बोला, तनी बाँच दो, भइया। गवनई भी न होगी।”

“अरे वही, जागा हो बलमुआ गांधी टोपी वाले…”

हंसा ने खूँटी पर टँगी ढोलक उतारकर गले मे लटका ली और एक ओर पड़े फटहे झंडे को ले कर लाठी में टांग लिया। दो बार ढोलक पीटी। फिर, – जागा हो बलमुआ गन्हीं टोपी वाले आय गइलैं… टोपी वाले आय गइलैं… गा कर, ढोलक पर धड़म्-धड़म् घुम्-घुम्… धढ़म-धड़ाम घुमघुम्…


 
मिनटों में ही पचासों लड़के आ जुटे। चल पड़ा हंसा का जुलूस।

“सुसिल्ला की गवनई, जौने में बीर जवाहिर की कहानी है….”

“दल-के-दल लरिका-बच्चा सब… बोलो, बोलो, गन्हीं बाबा की जय!”

और फिर, जागा हो बलमुआ… और हंसा की ढोलक गमकती रही। क्षण भर में ही जैसे सारे गाँव को हंसा ने जगा दिया हो।

जिधर से देखो, लोग चले आ रहे हैं। लड़के गाँधी बाबा को क्या जानें, उनके लिए तो हंसा ही सब कुछ था। एक उनके आगे झंडा तानकर कहता, “बोलो, हंसा दादा की…!”

कुछ कहते, ‘जै’, और कुछ ‘छै’, फिर जोर की हँसी चारों ओर छा जाती।

कुछ बूढ़े नाक फुलाते हुए, सुरती की नास ले, अपने सुतलियों के ढेरे पर चक्कर दे कर कहते, “मिल गया ससुर को एक काम। गन्ही बाबा का गायक काहे नहीं हो जाता। कौनों कँगरेसी जात-कुजात मेहरारू मिल जाती। गन्ही का कोई विचार थोड़े है, चमार-सियार का छुआ-छिरका तो खाते हैं।”

हंसा को फुरसत नहीं है। बाबू साहब का तकरपोस और बाबू राम का चमकउआ चादर तो आना ही चाहिए।

बाबा चुपचाप बैठे हैं। धीरे-धीरे गाँव सिमटता आ रहा है। दालान भरता जा रहा है। अँधेरे की गाढ़ी चादर फैलती जा रही है। रिम-झिम पानी बरस रहा है। चार लालटेनें जल रही हैं।

“बुला तो लिया पानी-बूनी में। हल्ला भी पूरा मचा दिया। पर ठहरेंगी कहाँ सुशीला? कुछ खाना-पीना…”

“आने पर देख लेंगे। अपना घर तो खाली ही है। खाने की भी चिन्ता न करो। घी है ही, पूड़ी-ऊड़ी बन जाएगी।” कहता हुआ हंसा बाहर निकला।

हंसा सँभाल सँभाल कर चल रहा था – अँधेरे की वहीं धुंध, वही मटमैलापन। आखिर वह क्या करे कि उसे दिखाई पड़ने लगे। वह एक बच्चे की सहायता से किसी तरह बाबू साहब के दलान के सामने पहुँच गया। पहाड़ से तख्त को सिर पर बिड़ई रख, उठा लिया और किसी तरह रेंगता-रेंगता बाबा के दालान आ पहुँचा।

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बाबा बहुत बिगड़े, “ससुरा मरने पर लगा है।”

हंसा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि सुशीला जी आ गयी हैं। वह बाबा के पास बैठ, उनकी बातें बड़े ध्यान-पूर्वक पीने लगा।

सुशीला जी हंसा के ठीक सामने बैठी थीं। लालटेन जल रही थी, पर वह देख नहीं पाता था कि वह कैसी हैं!

– आवाज तो कड़ी है और यह गन्ने के ताजे रस-सी महक कहाँ से आ रही है?

हंसा खो गया। सुशीला का साल भर पहले का गाना, ‘जागा हो बलमुआ गाँधी टोपी वाले आय गइलैं… उसके होठों पर थिरक उठा। साँवला-साँवला-सा रंग था, लम्बा छरहरा बदन, रूखे-रूखे से बाल और तेज आँखे। कैसा अच्छा गाती थी! – हंसा सोचता रहा।

इसी बीच कीर्तन-प्रवचन हो गया। सुशीला जी ने भाषण भी दिया और सारी ग्राम-मंडली, ‘बिन विद्या के भारत देश, दिन-दिन होती है तेरी ख्वारी रे।’ गुनगुनाती वापस जाने लगी। हंसा खोया बैठा रहा। खंजड़ी की डिम्-डिम् और झांझ की झंकार उसके कानों में गूँजती रही। सुशीला का पैना स्वर उसके हृदय को बेधता रहा, और दंगल की शामवाली घटना का भी उसे बार-बार ध्यान आता रहा। – देखो तो इन आँखों की जो न करा दें। – उसकी नसों में रक्त की झनझनाहट भर जाती। एकाएक, ‘गन्ही महात्मा की…’ सुनकर, वह चौंक पड़ा और जोर से चिल्ला पड़ा, ‘जय… जय…’

बहुत रात बीत चुकी है। हंसा के घर में पूड़ियां छानने की तैयारी हो रही है। आटा गूँथा जा रहा है। तरकारी कट रही है। आग जल रही है। पर भीतर के कमरे की भंडरिया से घी कौन निकाले? हंसा वहीं इधर-उधर डोलता है। उसकी आँखें सुशील जी की आवाज का पीछा कर रही हैं। सुशीला जी कभी-कभी संकोच में पड़ती हैं, पर हंसा के चौड़े सीने पर उगे हुए बालों के जंगल में वह खो जाती हैं। कितना पौरूषी आदमी है।

लेकिन हंसा के आगे वह छाया-मात्र हैं, जिसका बस रूप नहीं है आगे, और सब कुछ है। – मीठी-मीठी, थकनभरी आवाज और डाल के ताजे फल जैसी सुगंध। वह बड़ा खुश है। एक औरत के रहने से घर कैसा हो जाता है। कितना अच्छा लगता है।… वह सोच ही रहा है कि घी की माँग होती है। हंसा उठता है। पर चारपाई से ठोकर खा कर गिर पड़ता है। सुशीला जी दौड़ कर उसे उठाती हैं। हंसा मारे लाज के डूब जाता है।


 
धत्, तेरी आँखों की। और वह जल्दी से उठ खड़ा होता है।

सुशीला जी उसका हाथ पकड़े थीं, “चोट तो नहीं आयी।”

घुमची की तरह की आँखें मुलमुला कर हंसा हँसता है। उसके रोएँ भभर आते हैं, उसका कलेजा धड़कने लगता है।

कहार कहता है, “हंसा दादा को रतौन्ही हैं, रतौन्ही।”

“रतौधी! तो बताओ, कहाँ है घी? मैं चलती हूँ, साथ।”

मेनका के कंधे पर विश्वामित्र के उलम्ब बाहु। सावन की अंधियारी और बादलों की रिम-झिम। बीच-बीच में हवा का सर्द झोंका।

दोनों आँगन पार करते बूँदों में भींगते हैं। पीछे से आवाज आती है, “लालटेन दूँ?”

“एक ही तो है। रहने दो, काम चल जाएगा।”

घर की अँधेरी भँडरिया। दोनों भटकते हैं। हंसा कुछ बताता है। सुशीला जी कुछ सुनती हैं। आँख कुछ देखती है। हाथ कुछ टटोलते हैं। बहरहाल, पता नहीं कहाँ क्या है?

अँधेरे में जैसे आँख, तैसे बेआँख। दोनों को सहारा चाहिए। कभी वह लुढ़कता है, कभी वह लुढ़कती हैं और दोनों दृष्टिवान हो जाते हैं- दिव्यदृष्टिवान।

सुबह कुत्तों की झाँव-झाँव के बीच, कारवाँ आगे बढ़ गया। बैलों की घंटियाँ टुनटुनायीं, भुजंगे बोले और बाबा ने उठ कर अपना छप्पन पतरीवाला बाँस का छाता छठाया और ताल की ओर चल पड़े, निरूआही हो रही थी।

रास्ते में मगनू सिंह मिल गये, “लग गयी पार हंसवा की नाव!”

“क्या हुआ?”

“कुछ न पूछो, भइया। तुम्हें खबर ही नहीं, सारे गाँव में रात ही खबर फैल गयी। यह ससुरा दुआरे बैठाने-लायक नहीं है। कहते थे कि कोई राँड़-रेवा मढ़ दो इसके गले। कल रात बाबू साहब के यहां पंचाइत हुई। तय हुआ कि अब सभा-सोसाइटी की चौकी, गाँव में नहीं धरी जाएगी। औरत-सौरत का भासन यहाँ नहीं होने पाएगा। बहू-बेटियों पर खराब असर पड़ता है। बात यह है भइया कि राजा साहब ओट लड़ रहे हैं, कांगरेस के खिलाफ। बाबू साहब उनको ओट दिलाना चाहते हैं। आपके डर से कुछ कह तो सकते न थे। अब मौका मिला है।”

“कैसा मौका?” बाबा झुँझला कर बोले।

अगनू आकर उनके छाते के नीचे खड़े हो गये। बोले, “उलट दिया हंसवा ने कल रात!”

“क्या मतलब?”

“सच मानो, खाना-पीना नहीं हुआ। जब बहुत देर होने लगी, तो बंगा ने लालटेन ले कर देखा, और बाहर निकल कर, सारे गाँव में ढिंढोरा पीट दिया। अभी तो सर-सामान ले कर, घाट तक पहुँचाने गया है।”


 
बाबा चुपचाप आगे बढ़ गये। इस तरह की बात सुन कर बरदाश्त करना उनके लिए कठिन है, पर न जाने क्यों उन्हें हँसी आ रही थी। तभी दूर हंसा की भारी आवाज सुनाई दी?

– जग बेल्हमौलू जुलूम कइलू ननदी… जग…
बरम्हा के मोहलू, बिसुनू के मोहलू
सिव जी के नचिया नचैलू मोरी ननदी… जग….।

बाबा खड़े थे। हंसा धीरे-धीरे पास आ गया। अँधेरा छँट गया था। हंसा डर गया। – कैसे खड़ा हूँ भइया के सामने, कैसे?

कुछ देर दोनों चुप रहे। बाबा ने देखा, हंसा के हाथों में खद्दर के कुछ कपड़े थे, पर उसकी निगाह नीचे जमीन में धँसी थी।

“हंसा!” बाबा बड़ी कड़ी आवाज में बोले, “जहाँ पहुँच गये हो, वहाँ से वापस नहीं आना होगा!”

“भइया, बोटी-बोटी कट जाऊँगा, पर यह कैसे हो सकता है!”

हंसा जाने लगा, तो बाबा ने कहा, “घर जा कर सीधा-समान बाँधे आना। आज मछरी पकड़वाऊँगा, वहीं खावाँ पर बनेगी।”

“अच्छा, भइया!” कह कर हंसा अपनी बटन-सी आँखों को पोंछता हुआ चला गया।

गाँव में चुनाव की धूम मची थी। बाबू साहब बभनौटी के साथ कांग्रेस का विरोध कर रहे थे। उनके पेड़ों पर इश्तिहार टांग दिये जाते, तो उनके आदमी उखाड़ देते। किसान बुलवाये जाते, उन्हें धमकाया जाता। खेत निकाल लेने की, जानवरों को हँकवा देने की बातें कही जातीं और हंसा-सुशीला की कहानी का प्रचार किया जाता, भ्रष्ट हैं सब! इनका कोई दीन-धरम नहीं है! गन्ही तो तेली है।….

और हंसा अब पूरा स्वयंसेवक बन गया है। खद्दर का कुर्ता-धोती और हाथ की लम्बी लाठी में तिरंगा। बगल में बिगुल लटका रहता है और वह बापू के संदेश की परची बाँटता फिरता है।

“बाबू साहब जो कहें मान लो! पूड़ी-मिठाई राजा के तम्मू में खाओं! खरचा खोराक बाबू साहब से लो और मोटर में बैठो! लेकिन कँगरेस का बक्सा याद रखो! वहाँ जा कर, खाना-पीना भूल जाओ? कँगरेस तुम्हारे राज के लिए लड़ती है। बेदखली बंद होगी! छुआछुत बंद होगा। जनता का राज होगा। एक बार बोलो, बोलो गन्हीं महात्मा की जय!… जय…”


 
घर-घर में, कंठ-कंठ में सुशीला के मनोहर गानों की धुनें गूँजने लगीं। गाँव के बच्चे हंसा दादा के पीछे, हाथों में अखबार की रंग कर बनायी झंडियां लिये इधर-से-उधर चक्कर लगाया करते थे।

उन्हीं दिनों गाँव में रामलीला होने को थी। बाबू साहब की पार्टी के राम-लक्ष्मण बने थे। पर रावण बनने वाला कोई नहीं मिलता था। लोग कहते, रावण बनने वाला मर जाता है। कोई तैयार न होता था।

बाबा दशमी के मालिक थे। हंसा कैसे बरदाश्त करता कि लीला खराब हो। ऊपर से सुशीला जी लीला खत्म होने पर भाषण करने वाली थीं। हंसा सोचने लगा, क्या हो? सहसा लड़कों ने तालियाँ बजायीं और हंसा दादा को घेरा लिया। जल्दी-जल्दी काला चोंगा रावण के गले में डाल दिया गया। सिर पर पगड़ी बाँध कर दस मुँह वाला चेहरा हंसा दादा ने पहन लिया। हाथ में तलवार ली और गरज कर बोले, “मैं रावण हूँ कहां है दुष्ट राम?”

एक बच्चे ने अपनी छड़ी में लगा हुआ तिरंगा झट दशानन के सिर पर खोंस दिया और सब लोग जोर से हँसने लगे। उसी भीड़ में से किसी ने चिल्ला कर कहा, “गन्हीं महात्मा की जय…!”


 
रावण भाषण देने लगा, “भाइयों! राम राजा था। देखो, छोटी जात का कोई कभी राम नहीं बनने पाता है। राक्षस सब बनते हैं। बिराहिम, कालू, भुलई, फेद्दर, सभी की पालटी है, हमारी। यह जनता की लड़ाई है। बोल दो धावा।” और हंसा हाथ-पाँव हिलाता आगे को चल पड़ा। पीछे-पीछे सारी राक्षसी सेना। किसानों के बंदर बने लड़के भी अपना चेहरा लगाये, गदा लिये, जनता की पार्टी में शामिल हो गये। राम बेचारे अकेले बैठे रह गये। रामायण बंद हो गयी। तिवारी चिल्लाने लगा, पर कौन सुनता है!

“गन्हीं महतमा की जय! हंसा दादा की जय!”

बाबा हँसी के मारे लोट-पोट हो रहे थे। उनसे कुछ कहते ही नहीं बनता था। राक्षसी सेना के काले रंग में रंगे मुँह और हाथों में तिरंगे झंडे देख कर, लोग राम के लिए खरीदी मालाएँ, हंसा के ही ऊपर फेंकने लगे।

इसी बीच सुशीला जी तीर की तरह भीड़ में घुसीं, “कौन बना है रावण? क्या तिरंगा इसीलिए है?” उन्होंने हाथ से चेहरे को ठेल दिया। सहसा हंसा को देख कर, वह पसीने-पसीने हो गयीं।

“यही स्वयंसेवक हो। बदनाम करते हो झंडे को। बंद करो यह सारा तमाशा, होने दो रामलीला ठीक से।”

सब लोग अपनी जगहों पर लौट गये। बाबा चुपचाप खड़े थे। सुशीला जी अपना झोला सँभाले उनकी बगल आ खड़ी हुईं।

लड़ाई चलती रही। नगाड़े और ढोल बजते रहे। संठे के रँगे हुए तीर छूटते रहे। पर रावण मरे, तो क्यों मरे। चौपाई बार-बार टूटती। व्यास बार-बार कहता, “सो जाओ।” पर कौन सुनता है। हंसा की सेना क्यों हारे?


 
इसी समय लक्ष्मण को जमीन से ठोकर लगी। वह लुढ़क पड़े। उनका मुकुट गिर गया। आगे पीछे दौड़ते-दौड़ते राम को चक्कर आ गया, और उनको उल्टी होने लगी। सारे मेले में शोर मच गया, “जीत गयी जनता की फौज। हंसा दादा की पाल्टी ऐसे ही वोट जीत लेगी।”

इधर दिन रात सुशील जी खँजड़ी बजाती, घूमती रहतीं और रात हंसा के घर लौट आतीं। दूसरे दल के लोगों ने चिट्ठियाँ भिजवायीं। – सुशीला जी को यहाँ से बुला लिया जाए। जनता पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।… चुनाव के दो दिन पहले उन्हें नोटिस मिली कि वह बापू के आदर्शों को तोड़ रही हैं, इसलिए उन्हें काम से अलग किया जाता है। वह हँस पड़ी थी, ईश्वर ने पति से अलग किया और अब बापू के नकली चेले उन्हें जनता से अलग करना चाहते हैं!

उनकी खँजड़ी और जोर से बजने लगी। उनका स्वर और तेज हो गया।

चुनाव के दो दिन रह गये। सुशीला जी बीमार पड़ गयीं। हंसा के घर में उनका डेरा पड़ा था। वह बुखार की जलन सह रही थीं, पर किसी को अपने पास बैठने नहीं देती थीं। रात जब हंसा लौटता, तो वह उससे कहतीं, “तुम सुनाओ अपना भजन।”

हंसा बिना कुछ सोचे-विचारे गाने लगता, ‘हंसा जाई, अकेला, ई देहिया ना रही….’

फिर प्रचार का समाचार ले कर, वह उसके रोयें भरे सीने में मुँह छिपा लेतीं।

चुनाव का दिन आ गया, लेकिन सुशीला जी बिस्तर से नहीं उठीं। किसानों की जय-जयकार करती हुई टोलियाँ गुजरतीं, तो वह अपने बिस्तर में तड़प कर रह जातीं। हंसा उन्हें बहुत रोकता, पर वह उठ कर उनसे मिलतीं। बाबा बहुत समझाते, पर न मानतीं। चुनाव के दिन डोली में उठा कर वह पोलिंग पर ले जायी गयीं। वहीं पेड़ के नीचे बैठे-बैठे उन्हें कई बार चक्कर आया और बेहोश हुईं। ओट पड़ता रहा। किसान राजासाहब के कैम्प में खाना खाते, उनकी मोटर में आते, पर ओट डालते कांग्रेस के बक्स में। उन्हें सुराज मिलेगा, उन्हें आजादी मिलेगी; यही सब सोचते थे।


 
तीसरे पहर जोर की बारिश आयी। सुशीला जी छाया में जाते जाते भीग गयीं। बाबा ने उन्हें डोली में बैठा कर, घर भेज दिया। चुनाव चलता रहा। हंसा भूत की तरह काम में जुटा था। बहुत देर पर कभी उसे सुशीला की याद आती, तो मन को दबा कर फिर परची बाँटने लगता। बहुत कम ओट राजा के बक्से में गिरे। शाम हो गयी।

राजा का तम्बू हारे हुए कर्मचारियों से भर गया। हंसा उन्हें देख कर जाने क्यों क्रोध से जल रहा था। उसे बार-बार सुशीला की याद आ रही थी।

“भइया, कुछ और होना चाहिए।”

“मुझे चले जाने दो, हंसा।”

और पच्चीस-तीस लोग हँसिया ले कर राजा साहब के तम्बू की डोरियों के पास खड़े हो गये। कौन जाने क्यों खड़े हैं! हंसा ने विजय का बिगुल फूँका और सारा तम्बू एक मिनट में जमीन पर था। जोर का शोर मचा। किसानों ने जय-जयकार की, और लोग अपने घरों को वापस चले गये।

सुशीला जो को निमोनिया हो गया। उनकी साँस फँस गयी। बाबा रात-दिन उनके पास बैठे रहे। हंसा ने जमीन-आसमान एक कर दिया, पर फायदा न हुआ। वह बार-बार महात्मा जी का नाम लेतीं, हंसा से उनका भजन सुनतीं और आँखें बन्द कर लेती। चुनाव का नतीजा सुनाया गया, तो नेता लोग मोटर पर चढ़ कर सुशीला जी से माफी माँगने आये। पर सुशीला जी ने मुँह फेर लिया, जैसे वह कहती हों, – ‘मैं तुम्हारे करतब जानती हूँ’। और हंसा उठ कर बाहर चला गया।

अन्त में एक दिन सुशीला जी की साँस बन्द हो गयी। हाय मच गयी। बच्चे फूट-फूट कर रोने लगे। हंसा ने बकरी के लिये पत्ता तोड़ने वाली लग्गी में तिरंगा टाँग कर, हाथों से ऊपर उठा लिया और अपना बिगुल फूँकने लगा। उसकी हँसी लोगों के मन में भय पैदा करने लगी पर वह हँसता रहा।

आज तक, गन्हीं महात्मा, जवाहिरलाल और जनता की फउज, यही तीन शब्द वह जानता है। लड़के अब भी उसे उसी तरह घेरे रहते हैं। पर पहाड़ से तखत को उठा नहीं सकता। हाँ, उठाकर ले जाने वालो को देख कर वह जोर-जोर से हँसता है और घंटों हँसता रहता है।

उसके खेत में घास उगी है। मकान ढह गया है। पर लग्गी में फटहा तिरंगा और सुशील का दिया हुआ बिगुल अब भी टँगा रहता है। कभी-कभी वह गन्दे कागज दिवारों पर सटाता फिरता है और कभी सारे गाँव की गलियाँ साफ कर आता है।

आजादी मिली, तो उसे रुपये मिले। राजनीतिक पीड़ित था, वह। पर वह रूपयों की गड्डी ले कर हँसता रहा, और फिर उन्हें गाँव की दीवारों में एक-एक कर टाँग आया।

दो बार लोग उसे आगरे ले गये। पर कुछ ही दिनों बाद फिर ‘हंसा जाई अकेला’ का स्वर गाँव की फिजाँ में गूँजने लगता।

अब भी कभी-कभी वह आजादी लेने की कसमें खाता है। उसके तमतमाये हुए चेहरे की नसें तन जाती हैं और वह अपना बिगुल फूँकता हुआ, कभी धान के खेतों, कभी ईख और मकई के खेतों की मेड़ों पर घूमता हुआ, गाया करता हैं…

‘हंसा जाई अकेला…’
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