Thursday, December 31, 2020

हिंदी निबंध और अनुच्छेद

 Hindi Essay and Paragraph
Playlist
https://www.youtube.com/watch?v=M_0FFnqxDDs&list=PLIYadHwZA8a23dal-gBcgohqwzlrD6d3K
।अनुच्छेद लेखन।।
एक अच्छा  अनुच्छेद   कैसे लिखें ,यहाँ देखें: 

https://youtu.be/r0wIOu8zAS8
1.परोपकार
https://youtu.be/_6tMUgynIoE
2.जीवन में श्रम की महत्ता
https://youtu.be/r0wIOu8zAS8
3.भ्रष्टाचार  Bharshtachar
https://youtu.be/aXFfLImo7Gg
4.अभ्यास का महत्व
https://youtu.be/WntNHf-93Xc
5.जल ही जीवन है
https://youtu.be/uPVoudMvp-Q
6.पर्यावरण और हम
https://youtu.be/MIqfXyLlz2w
7.योग का महत्व  Yog ka Mahtav
https://youtu.be/MFYjBMRK6ks
8.खेलों के क्षेत्र में उभरता भारत
https://youtu.be/ZOEssulm7Uw
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निबंध लेखन कैसे करें
https://youtu.be/xmr-DaQ3LhA
1.स्वच्छ भारत अभियान
 https://youtu.be/qNhtfLt2Ocs
2.मित्र कैसा हो ?
https://youtu.be/M_0FFnqxDDs
3.भारतीय समाज में नारी का स्थान
https://youtu.be/0gDGgnm4NtM
4.कंप्यूटर: आज की आवश्यकता
 https://youtu.be/ZSsxv2ACcR4
5.खेलों का महत्व ।khelon ka mahtv
https://youtu.be/3pjRuP5pnio
6.भारतीय किसान की समस्याएँ
https://youtu.be/CVjXAoRD02c
7.पर्यावरण प्रदूषण
https://youtu.be/axv5nvVRWNM
8.कन्या भ्रूण हत्या -एक अभिशाप
https://youtu.be/d9J3xs5h3Rc
9.विद्यार्थी जीवन में अनुशासन
https://youtu.be/THwAIUmkiMc
10.विद्यार्थी और राष्ट्र-प्रेम
https://youtu.be/d7gHld0hAVo
11.विकास के पथ पर भारत
https://youtu.be/ITeAldQpbtE
12.आतंकवाद की समस्या।
https://youtu.be/Xuqsg-kbV8k
13.विज्ञान वरदान या अभिशाप
https://youtu.be/oEQwO6nUsi8
14.भारतीय किसान  
https://youtu.be/QSA2JmYCD-U

15.कोविड 19 एक वैश्विक महामारी

https://youtu.be/dnzbjGAC9Zw

16.पुस्तकालय का महत्व





Monday, December 14, 2020

कफ़न (kahani ) प्रेमचंद

 यहाँ सुन सकते हैं


कफ़न
प्रेमचंद
झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीबी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था।

घीसू ने कहा-मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ।

माधव चिढक़र बोला-मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूँ?

‘तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!’

‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।’

चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना काम-चोर था कि आध घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता। इसलिए उन्हें कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। घर में मुठ्ठी-भर भी अनाज मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढक़र लकडिय़ाँ तोड़ लाता और माधव बाजार से बेच लाता और जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर-उधर मारे-मारे फिरते। गाँव में काम की कमी न थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर इन दोनों को उसी वक्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता। अगर दोनो साधु होते, तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिलकुल जरूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए जिये जाते थे। संसार की चिन्ताओं से मुक्त कर्ज से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई गम नहीं। दीन इतने कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे देते थे। मटर, आलू की फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते या दस-पाँच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी आकाश-वृत्ति से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद-चिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी खेत से खोद लाये थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए, देहान्त हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जब से यह औरत आयी थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी। जब से वह आयी, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकडऩे भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निब्र्याज भाव से दुगुनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाए, तो आराम से सोयें।

घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा-जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है!

माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ कर देगा। बोला-मुझे वहाँ जाते डर लगता है।

‘डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।’

‘तो तुम्हीं जाकर देखो न?’

‘मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं; और फिर मुझसे लजाएगी कि नहीं? जिसका कभी मुँह नहीं देखा, आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूँ! उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी!’

‘मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!’

‘सब कुछ आ जाएगा। भगवान् दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।’

जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था। हाँ, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहाँ उसकी मण्डली के और लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गाँव उँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते! दोनों आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नहीं खाया था। इतना सब्र न था कि ठण्डा हो जाने दें। कई बार दोनों की जबानें जल गयीं। छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज्यादा खैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुँच जाए। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफी सामान थे। इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते। हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते।

घीसू को उस वक्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताजी थी, बोला-वह भोज नहीं भूलता। तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला। लडक़ी वालों ने सबको भर पेट पूडिय़ाँ खिलाई थीं, सबको! छोटे-बड़े सबने पूडिय़ाँ खायीं और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोज में क्या स्वाद मिला, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज चाहो, माँगो, जितना चाहो, खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पिया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म, गोल-गोल सुवासित कचौडिय़ाँ डाल देते हैं। मना करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिये जाते हैं। और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान-इलायची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी? खड़ा हुआ न जाता था। चटपट जाकर अपने कम्बल पर लेट गया। ऐसा दिल-दरियाव था वह ठाकुर!

माधव ने इन पदार्थों का मन-ही-मन मजा लेते हुए कहा-अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता।

‘अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। सादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोरकर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ, खर्च में किफायत सूझती है!’

‘तुमने एक बीस पूरियाँ खायी होंगी?’

‘बीस से ज्यादा खायी थीं!’

‘मैं पचास खा जाता!’

‘पचास से कम मैंने न खायी होंगी। अच्छा पका था। तू तो मेरा आधा भी नहीं है।’

आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हों।

और बुधिया अभी तक कराह रही थी।



सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी। उसके मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। पथराई हुई आँखें ऊपर टँगी हुई थीं। सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था।

माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे।

मगर ज्यादा रोने-पीटने का अवसर न था। कफ़न की और लकड़ी की फिक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोंसले में माँस?

बाप-बेटे रोते हुए गाँव के जमींदार के पास गये। वह इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे। कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे। चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए। पूछा-क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखलाई भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता।

घीसू ने जमीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा-सरकार! बड़ी विपत्ति में हूँ। माधव की घरवाली रात को गुजर गयी। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गयी। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा मालिक! तबाह हो गये। घर उजड़ गया। आपका गुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा। हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में उठ गया। सरकार ही की दया होगी, तो उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ।

जमींदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह दें, चल, दूर हो यहाँ से। यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है। हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड देने का अवसर न था। जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिए। मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो।

जब जमींदार साहब ने दो रुपये दिये, तो गाँव के बनिये-महाजनों को इनकार का साहस कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिये, किसी ने चारे आने। एक घण्टे में घीसू के पास पाँच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी। कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकड़ी। और दोपहर को घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बाँस-वाँस काटने लगे।

गाँव की नर्मदिल स्त्रियाँ आ-आकर लाश देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।



बाज़ार में पहुँचकर घीसू बोला-लकड़ी तो उसे जलाने-भर को मिल गयी है, क्यों माधव!

माधव बोला-हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिए।

‘तो चलो, कोई हलका-सा कफ़न ले लें।’

‘हाँ, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जाएगी। रात को कफ़न कौन देखता है?’

‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।’

‘कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।’

‘और क्या रखा रहता है? यही पाँच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।’

दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाजार में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस बजाज की दूकान पर गये, कभी उसकी दूकान पर! तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि शाम हो गयी। तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुँचे। और जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गये। वहाँ जरा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे। फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा-साहूजी, एक बोतल हमें भी देना।

उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्तिपूर्वक पीने लगे।

कई कुज्जियाँ ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गये।

घीसू बोला-कफ़न लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो न जाता।

माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो-दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बाँभनों को हजारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!

‘बड़े आदमियों के पास धन है, फ़ूँके। हमारे पास फूँकने को क्या है?’

‘लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफ़न कहाँ है?’

घीसू हँसा-अबे, कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये। बहुत ढूँढ़ा, मिले नहीं। लोगों को विश्वास न आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे।

माधव भी हँसा-इस अनपेक्षित सौभाग्य पर। बोला-बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो खूब खिला-पिलाकर!

आधी बोतल से ज्यादा उड़ गयी। घीसू ने दो सेर पूडिय़ाँ मँगाई। चटनी, अचार, कलेजियाँ। शराबखाने के सामने ही दूकान थी। माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया। पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया। सिर्फ थोड़े से पैसे बच रहे।

दोनों इस वक्त इस शान में बैठे पूडिय़ाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो। न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी की फ़िक्र। इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था।

घीसू दार्शनिक भाव से बोला-हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा?

माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक़ की-जरूर-से-जरूर होगा। भगवान्, तुम अन्तर्यामी हो। उसे बैकुण्ठ ले जाना। हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला वह कभी उम्र-भर न मिला था।

एक क्षण के बाद माधव के मन में एक शंका जागी। बोला-क्यों दादा, हम लोग भी एक-न-एक दिन वहाँ जाएँगे ही?

घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया। वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा न डालना चाहता था।

‘जो वहाँ हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफ़न क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे?’

‘कहेंगे तुम्हारा सिर!’

‘पूछेगी तो जरूर!’

‘तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!’

माधव को विश्वास न आया। बोला-कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में तो सेंदुर मैंने डाला था।

‘कौन देगा, बताते क्यों नहीं?’

‘वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया। हाँ, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएँगे।’

‘ज्यों-ज्यों अँधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज होती थी, मधुशाला की रौनक भी बढ़ती जाती थी। कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपटा जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्हड़ लगाये देता था।

वहाँ के वातावरण में सरूर था, हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाएँ यहाँ खींच लाती थीं और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं। या न जीते हैं, न मरते हैं।

और यह दोनों बाप-बेटे अब भी मजे ले-लेकर चुसकियाँ ले रहे थे। सबकी निगाहें इनकी ओर जमी हुई थीं। दोनों कितने भाग्य के बली हैं! पूरी बोतल बीच में है।

भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडिय़ों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा इनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था। और देने के गौरव, आनन्द और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया।

घीसू ने कहा-ले जा, खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गयी। मगर तेरा आशीर्वाद उसे जरूर पहुँचेगा। रोयें-रोयें से आशीर्वाद दो, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं!

माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा-वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी।

घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला-हाँ, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं?

श्रद्धालुता का यह रंग तुरन्त ही बदल गया। अस्थिरता नशे की खासियत है। दु:ख और निराशा का दौरा हुआ।

माधव बोला-मगर दादा, बेचारी ने जिन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा। कितना दु:ख झेलकर मरी!

वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा। चीखें मार-मारकर।

घीसू ने समझाया-क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गयी, जंजाल से छूट गयी। बड़ी भाग्यवान थी, जो इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिये।

और दोनों खड़े होकर गाने लगे-

‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी।

पियक्कड़ों की आँखें इनकी ओर लगी हुई थीं और यह दोनों अपने दिल में मस्त गाये जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, अभिनय भी किये। और आखिर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े।

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Claim Story /Writer Mohan Rakesh क्लेम कहानी लेखक मोहन राकेश

Monday, December 7, 2020

मतिराम के छंद (अनुरोध पर )

१.कुन्दन को रंग फीको लागै, झलकै अति अंगन चारु गुराई।
आँखिन में अलसानि चितौन में मंजु बिलासन की सरसाई।।
को बिन मोल बिकात नहीं मतिराम लहै मुसकानि मिठाई।
ज्यों ज्यों निहारिए नेरे है नैनहि, त्यों त्यों खरी निकरै सी निकाई।।

सन्दर्भ :
प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक .....के पाठ ‘प्रेम और सौन्दर्य’ के  'मतिराम के छन्द’ शीर्षक से लिया गया  है। इसके कवि  मतिराम हैं। 

प्रसंग :
प्रस्तुत पद में कवि ने नायिका के  सौन्दर्य का वर्णन किया है।

व्याख्या :
कवि कहता है कि नायिका के अंग-अंग में झलकने वाले सौन्दर्य के आगे स्वर्ण (सोने) की छवि भी फीकी लगती है। उसके नेत्र अलसाए हुए हैं और उसकी चितवन में मधुर विलास का सौन्दर्य है। कवि मतिराम कहते हैं कि उसकी मुसकान इतनी मीठी  है कि देखने वाला ऐसा कौन है जो 'बिना मोल नहीं बिक जाता 'है अर्थ यह है कि जो उसके सौन्दर्य को देखता है वही उसपर  मोहित हो जाता है। जैसे-जैसे पास  जाकर उसके नेत्रों(आँखों ) को निहारो वैसे-वैसे ही उसकी सुन्दरता और अधिक बढ़ती जाती है।

विशेष :

  •     पद में प्रयुक्त भाषा 'ब्रजभाषा' है।
  •    ' कुन्दन को रंग फीकौ लगै' में व्यतिरेक अलंकार है।
  •    अति अंगन, 'आँखिन अलसान' ,ज्यों-ज्यों, त्यों-त्यों में अनुप्रास अलंकार है।
  •     'बिन मोल बिकात’ में लोकोक्ति का प्रयोग है।
  •    संयोग शृंगार रस है और  गुण माधुर्य है .

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Monday, November 9, 2020

हिंदी के राष्ट्रकवि कितने और कौन हैं

 राष्ट्रकवि कौन होता है ? राष्ट्रकवि वह होता है जिसके काव्य में राष्ट्र का चिंतन अथवा राष्ट्रीय चेतना का स्वर मुखर होता है और यह उद्देश्य वह महाकाव्य अथवा खण्डकाव्य के माध्यम से पूरा करता है।
राष्ट्रकवि की मान्यता साहित्य जगत द्वारा दी जाती है। (संवैधानिक रूप से नहीं )

आधिकारिक रूप से ‘राष्ट्रकवि’ नामक कोई पदवी /पदक/सम्मान हमारे देश में नही हैं । ।

कुछ असाधारण कवियों, जैसे कि, श्री मैथिलीशरण गुप्त एवं श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को उनकी रचनाओं एवं उनके योगदान के लिए ‘राष्ट्रकवि’ का दर्जा दिया गया है। 

 हिंदी में दो राष्ट्रकवि माने गए हैं- 

एक मैथिलीशरण गुप्त जी , 

और दूसरे रामधारी सिंह 'दिनकर' जी !

 

1) रामधारी सिंह दिनकर-
बिहार में जन्मे
 काव्य कृतियाँ : कुरुक्षेत्र, परशुराम की प्रतीक्षा, रश्मिरथी
अपनी रचनाओं के  द्वारा राष्ट्रीय चेतना का संचार किया।


प्रथम राष्ट्र कवि का  सम्मान  मैथिलीशरण गुप्त जी को मिला.कहा जाता है  गांधी जी ने उन्हें यह सम्मान दिया !


Maithili Sharan Gupt 1974 stamp of India.jpg2) मैथलीशरण गुप्त-
 उत्तर प्रदेश में जन्म .
 भारत-भारती नामक काव्य कृति तथा अन्य । 


हिंदी साहित्य जगत में तीसरे राष्ट्रकवि का स्थान रिक्त है।

सुधिजन, निराला जी और अटल बिहारी बाजपाई जी को भी राष्ट्रकवि का दर्ज़ा देने की बात कहते हैं ।

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Sunday, November 8, 2020

विराम-चिह्न /Punctuations

  1.    पूर्ण विराम-चिह्न (Sign of full-stop ) – (।)
  2.     अर्द्ध विराम-चिह्न ( semi-colon) – (;)
  3.     अल्प विराम-चिह्न ( comma) – (,)
  4.     प्रश्नवाचक चिह्न ( interrogation) – (?)
  5.     विस्मयादिबोधक चिह्न (exclamation) – (!)
  6. सम्बोधन चिह्न    (sign of interjection)   (!)
  7.     उद्धरण चिह्न (inverted commas) – (” “) (” “)  (i) इकहरा       ‘…………’                 (ii) दुहरा      “…………..”
  8.     निर्देशक या रेखिका चिह्न (Sign of dash) – (—)
  9.     विवरण चिह्न (Sign of colon dash/sign following) – (:-)
  10.     अपूर्ण विराम-चिह्न (Sign of colon) – (:)
  11.     योजक विराम-चिह्न (Sign of hyphen) – (-)
  12.     कोष्ठक (Brackets) – () [] {}
  13.      तुल्यता सूचक/समता सूचक /समानतासूचक चिह्न (Sign of equality) (=)
  14.     संकेत चिह्न /तारक चिह्न/पाद-टिप्पणी चिह्न (Sign of foot note) (*)
  15. पुनरुक्ति चिह्न (Repeat pointer symbol          ’’

  16.     त्रुटि चिह्न/हंसपद/विस्मरण चिह्न (Oblivion sign) (Sign of error indicator) (^)
  17. विकल्प चिह्न        / 

  18. इतिश्री/समाप्ति सूचक चिह्न       -0-0--0--


     

दिनों के नाम (हिंदी में )

एक सप्ताह में सात दिन होते हैं 

हिंदी में दिनों के नाम

 
हिंदी            English   /                   Phonetic /Diety of the day

  • सोमवार  -  Monday-            / Somvaar /Lord Shiva
  • मंगलवार -   Tuesday    /       Mangalvaar/Lord Hanuman
  • बुधवार   - Wednesday         /Budhvaar/Lord Ganesha
  • बृहस्पतिवार  -  Thursday /    Braspativaar /Lord Brahspati , Sai baba
  • (Thursday को गुरूवार/guruvaar  भी कहा  जाता है .)
  • शुक्रवार  -  Friday   /            Shukrvaar/Goddess Lakshmi/Santoshi Ma
  • शनिवार  -  Saturday /            Shanivaar/Lord Shani
  • रविवार  -  Sunday   /             Ravivaar/Lord Sun/Lord Ram
  •  

 


क्रियाविशेषण /kriya visheshan/adverb

 जिन शब्दों से क्रिया की विशेषता का बोध होता है उन्हें क्रियाविशेषण कहते हैं।

[Adverb is a word that either modifies the meaning of an adjective  ]

 जैसे  - 

वह धीरे-धीरे बोलता  है। 

इस वाक्य में 'बोलता ' क्रिया है और 'धीरे-धीरे' उसकी विशेषता बता रहा है। 

अतः 'धीरे-धीरे' क्रियाविशेषण है।

 क्रियाविशेषण का वर्गीकरण तीन आधारों पर किया गया है :-

(1) प्रयोग के आधार पर
(2) रूप के आधार पर
(3) अर्थ के आधार पर

अर्थ के आधार पर क्रियाविशेषण के चार भेद होते हैं:
  1. कालवाचक क्रियाविशेषण- :- जिन अविकारी शब्दों से क्रिया के व्यापार के समय का पता चलता है उसे कालवाचक क्रियाविशेषण कहते हैं।अथार्त जिन शब्दों से क्रिया के घटित होने के समय का पता चले उसे कालवाचक क्रियाविशेषण कहते हैं।

    जैसे :- आज , कल , परसों , पहले , पीछे , अब तक , अभी-अभी , लगातार , बार-बार , प्रतिदिन , अक्सर , बाद में , जब , तब , अभी , आज , कभी , नित्य , सदा , तुरंत , आजकल , कई बार , हर बार आदि।

  2. रीतिवाचक क्रियाविशेषण-जिन अविकारी शब्दों से क्रिया की रीति या विधि का पता चलता है उसे रीतिवाचक क्रियाविशेषण कहते हैं।

    जैसे :- सचमुच , ठीक , अवश्य , कदाचित , यथासंभव , ऐसे , वैसे , सहसा , तेज , सच ,अत: , इसलिए , क्योंकि , नहीं , मत , कदापि , तो , हो , मात्र , भर , गलत , सच , झूठ , धीरे , सहसा , ध्यानपूर्वक , हंसते हुए , तेजी से , फटाफट , धडाम से , आदि। ..................................................................................................(रीतिवाचक क्रियाविशेषण के प्रकार :-

    (1) निश्चयवाचक क्रियाविशेषण :-
    जैसे :- अवश्य , बेशक , सचमुच , वस्तुतः , निसंदेह , सही , जरुर , अलबत्ता , यथार्थ में , दरअसल आदि।

    (2) अनिश्चयवाचक क्रियाविशेषण :-
    जैसे :- शायद , कदाचित , संभवतः , अक्सर , बहुतकर , यथासंभव आदि।

    (3) कारणात्मक क्रियाविशेषण :-
    जैसे :- क्योंकि , अत: , अतएव , इसलिए , चूँकि , किसलिए , क्यों , काहे को आदि।

    (4) आक्स्मिकतात्म्क क्रियाविशेषण :-
    जैसे :- सहसा , अकस्मात , अचानक , एकाएक आदि।

    (5) स्वीकारात्मक क्रियाविशेषण :-
    जैसे :- हाँ , सच , ठीक , बिलकुल , जी , अच्छा आदि।

    (6) निषेधात्मक क्रियाविशेषण :-
    जैसे :- न , मत , नहीं आदि।

    (7) आवृत्यात्मक क्रियाविशेषण :-
    जैसे :- गटागट , धडाधड आदि।

    (8) अवधारक क्रियाविशेषण :-
    जैसे :- ही , तो , भर , तक , भी , मात्र , सा आदि।

    (9) निष्कर्ष क्रियाविशेषण :-
    जैसे :- अत: , इसलिए आदि।)
  3. स्थानवाचक क्रियाविशेषण:- जिन अविकारी शब्दों से क्रिया के व्यापार के स्थान का पता चले उसे स्थानवाचक क्रियाविशेषण कहते हैं। वे शब्द जो क्रिया के घटित होने के स्थान का बोध कराते हैं उन्हें स्थानवाचक क्रियाविशेषण कहते हैं।

    जैसे :- यहाँ , वहाँ , कहाँ , जहाँ , तहाँ , सामने , नीचे , ऊपर , आगे , भीतर , बाहर , दूर , पास , अंदर , किधर , इस ओर , उस ओर , इधर , उधर , जिधर , दाएँ , बाएँ , दाहिने आदि।
  4. परिमाणवाचक क्रियाविशेषण- :-जिन अविकारी शब्दों से क्रिया के परिमाण और उसकी संख्या का पता चलता है उसे परिमाणवाचक क्रियाविशेषण कहते हैं। जैसे - बहुत , अधिक , पूर्णतया , सर्वथा , कुछ , थोडा , काफी , केवल , यथेष्ट , इतना , उतना , कितना , थोडा-थोडा , तिल-तिल , एक-एक करके , पर्याप्त , जरा , खूब , बिलकुल , बहुत , थोडा , ज्यादा , अल्प , केवल , तनिक , बड़ा , भारी , अत्यंत , लगभग , क्रमशः , सर्वथा , अतिशय , निपट , टुक , किंचित् , बराबर , अस्तु , यथाक्रम आदि।

 

अल्पप्राण और महाप्राण /Alp Pran aur Maha Pran


वायु को संस्कृत में 'प्राण' कहते हैं ।

1.       अल्पप्राण –

 कम हवा से उच्चरित ध्वनि ‘अल्पप्राण’ कही जाती है । 


  • प्रत्येक वर्ग का पहला , तीसरा और पाँचवाँ वर्ण अल्पप्राण है ।
  •  सभी स्वर अल्पप्राण हैं ।
  • क, च, ट, त, प ।   ग, ज, ड, द, ब, ।   


2.       महाप्राण – 

अधिक हवा से उत्पन्न  ध्वनि ‘महाप्राण’ कही जाती है ।

  • प्रत्येक वर्ग का दूसरा और चौथा वर्ण महाप्राण है ।  
  •  ख, छ, ठ, थ, फ ।घ, झ, ढ, ध, भ । 
  •  इसमें विसर्ग की तरह ‘ह’ की ध्वनि सुनाई पड़ती है । 
  • सभी ऊष्म  वर्ण महाप्राण हैं । 
3. अनुनासिक [अल्पप्राण]

स्पर्श वर्णों में प्रत्येक वर्ग का अंतिम यानी पाँचवाँ वर्ण नासिका से बोला जाता है , ये अनुनासिक कहलाते हैं। 

  ङ, ञ, ण, न, म

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घोष और अघोष वर्ण /Ghosh aur Aghosh Varn


1.       घोष वर्ण

जिन वर्णों के उच्चारण में केवल नाद का उपयोग होता है , उन्हे घोष वर्ण कहते हैं । 

  • स्पर्श वर्णों में प्रत्येक वर्ग का तीसरा , चौथा और पाँचवाँ वर्ण  घोष वर्ण हैं ।
  • सभी स्वर वर्ण और य, र, ल, व, ह घोष वर्ण हैं ।

2.       अघोष वर्ण – 
जिन वर्णों के उच्चारण में नाद की जगह केवल श्वास  का उपयोग होता हैं , वे अघोष वर्ण कहलाते हैं । 

  • स्पर्श वर्णों में प्रत्येक वर्ग का पहला , दूसरा और श, ष, स अघोष वर्ण हैं ।=====




Sunday, November 1, 2020

MCQ /One liners for class 12 Hindi Core/Aroh 2/Vitan 2 NCERT

 MCQ /One liners for class 12 Hindi Core/Aroh 2/Vitan 2 /Abhivyakti madhyam NCERT

These Videos are having MCQs/One liners of all the lessons of Aaroh & Vitan 2 Class 12 Hindi Core.

All question & answers are prepared by Alpana Verma .

Hope you will find them useful and appreciate the hard work put in to it. :)

Thanks!

Mcqs Playlist

https://www.youtube.com/watch?v=gXVnWM4MbR4&list=PLIYadHwZA8a0a-9ztRTj2-e5uQvMnjCsF

Class 12 Hindi Aaroh आरोह भाग 2
पाठ्यपुस्तक एवं पूरक पाठ्यपुस्तक
आरोह, भाग 2
(पाठ्यपुस्तक)

(अ) काव्य भाग

    Chapter 1 आत्म-परिचय, एक गीत
https://youtu.be/D_49zLtXMZs
    Chapter 2 पतंग
https://youtu.be/1OwOdZr_bCI
    Chapter 3 कविता के बहाने, बात सीधी थी पर
https://youtu.be/Nhmbfq5a7Xc
    Chapter 4 कैमरे में बंद अपाहिज
https://youtu.be/RLyZ-8KYe5o
    Chapter 5 सहर्ष स्वीकारा है
https://youtu.be/VOwjniP_hjs
    Chapter 6 उषा
https://youtu.be/yZ8Y__jlSVQ
    Chapter 7 बादल राग
https://youtu.be/Dyzx_QibYL4
    

Chapter 8 कवितावली (उत्तर कांड से), लक्ष्मण-मूर्छा  और राम का विलाप
    Coming soon.....

Chapter 9 रुबाइयाँ, गज़ल
Coming soon.....
    Chapter 10 छोटा मेरा खेत, बगुलों के पंख
Coming soon.....
(ब) गद्य भाग

    Chapter 11 भक्तिन
https://youtu.be/UqNJ90sfqGw
    Chapter 12 बाजार दर्शन
https://youtu.be/gjWSZCF_8aY
    Chapter 13 काले मेघा पानी दे
https://youtu.be/FYa9IC5G9FY
    Chapter 14 पहलवान की ढोलक
https://youtu.be/WghN8JDNp44
    Chapter 15 चार्ली चैप्लिन यानी हम सब
https://youtu.be/XizggxBrDFA
    Chapter 16 नमक
https://youtu.be/AsqqooSxPXU
    Chapter 17 शिरीष के फूल
https://youtu.be/k8MxYBo0a1w
    Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज
https://youtu.be/X3B1pUSwCyo
Hindi Vitan वितान भाग 2

वितान, भाग 2  /     

Objective Qs/MCQs  For 2021 CBSE board exam/ for 10 marks from Vitan
(पूरक पाठ्यपुस्तक)


    Chapter 1 सिल्वर वैडिंग
https://youtu.be/vYZgvNaYHJI
    Chapter 2 जूझ
https://youtu.be/_QJq-KQr-9g
    Chapter 3 अतीत में दबे पाँव
https://youtu.be/-qiRsgHE_YA
    Chapter 4 डायरी के पन्ने
https://youtu.be/fzTc_5U-f_I

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न-उत्तर ।Writers poets।हिंदी लेखक कवि ।
https://youtu.be/HwUvV6OfmoU
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आरोह २ के कवियों का परिचय |Aaroh 2 NCERT
https://youtu.be/Zy1Cwg8tA4M 

आरोह २|वितान के लेखकों का परिचय |Aaroh 2 NCERT

https://youtu.be/O90y0sRinEg

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2021 Board exam will have 5 marks Objective Qs from Abhivykti

Jansanchar |अभिव्यक्ति और माध्यम | Part 1 -Q-Answers
https://youtu.be/Xw0sO9DiTwY
Jansanchar -अभिव्यक्ति और माध्यम Short Answer Qs ( Part 2)Class 12

https://youtu.be/3QEcrYfkPNU

Jansanchar।अभिव्यक्ति माध्यम ।Short Q Ans।Part -3।Class 11 & 12
https://youtu.be/oTx17zjcABA

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Saturday, October 31, 2020

Audio Books NCERT /CBSE syllabus 2020-2021

 Dear CBSE students, NCERT has provided audio books for almost all the classes(Primary , grade 1 to grade 12) .. Please refer them ,take help for reading.Many of you may not be knowing about it.Make use of them to learn better.

क्या आपको पुस्तक के वाचन में सहायता  चाहिए?

NCERT ने इस लिंक पर कक्षा १ से १२ तक की कई पुस्तकों की ऑडियो उपलब्ध की हुई है ,

आप भी इसका लाभ उठा सकते हैं !

Audio Books

Primary

Grade VI

Grade VII

Grade VIII

Grade IX

Grade X

Grade XI

Grade XII

Grade VI Audio Books

1. Ruchira I
2. Doorva I
3. Vasant I
4. A Pact with Sun
5. HoneySuckle

6. History- Kasturba Gandhi Vidyalay

7. Itihaas Ek Romanchak Gaatha

8. Apni zaban

https://ciet.nic.in/pages.php?id=audiobookgradevi&ln=en  

Grade VII Audio Books

1. Ruchira II
2. Doorva II
3. Vasant II

Grade VIII Audio Books

1. Ruchira III
2. Doorva III 3. Hamare Ateet
3. Vasant III

Grade IX Audio Books

1. Beehive
2. Moments
3. Kritika I
4. Kshitij I
5. Sparsh I
6. Sanchayan I
7. Bharat Aur Samkaleen Vishwa I
8. Loktantrik Rajniti I
9. Gulzare-e-urdu
10. Arthshastra
11. Shemushi I 
12. Contemporary India
13. Samkaleen Bharat-1
14. Nawa-e-Urdu Part 1

Grade X Audio Books

1. Footprint Without Feet
2. Kshitij II
3. Kritika II
4. Locktantrik Rajniti II
5. First Flight
6. Arthik Vikas Ki samajh
7. Bharat Aur Samkaleen Vishwa-II
8. Nawa-e-Urdu Part 2
9. Gulzar-e-Urdu
10. Contemporary India
11. Moments
12. Samkaleen Bharat II

13. shemushi II

Grade XI Audio Books

1. Antraal I
2. Vitaan I
3. Hornbill
4. Aaroh
5. Woven Words

Grade XII Audio Books

1. Vitaan II
2. Aaroh II
3. Antraal II
4. Flamingo
5. Abhiwyakti Aur Madhyam
6. Kaleidoscope

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Tuesday, October 20, 2020

सती (कहानी ) लेखिका : शिवानी


 सती  (कहानी )
लेखिका : शिवानी



गाड़ी ठसाठस भरी थी. स्टेशन पर तीर्थयात्रियों का उफान सा उमड़ रहा था. एक तो माघ की पुण्यतिथि में अर्द्ध कुंभ का मेला, उस पर प्रयाग का स्टेशन. मैंने रिजर्वेशन स्लिप में अपना नाम ढूँढा और बड़ी तसल्ली से अन्य तीन नामों की सूची देखी. चलिए, तीनों महिलाएँ ही थीं. पुरुष सहयात्रियों के नासिकागर्जन से तो छुट्टी मिली. दो महिलाएँ आ चुकी थीं,एक जैसा कि मैंने नाम से अनुमान लगा लिया था कि महाराष्ट्री थी और दूसरी पंजाबी. तीसरी मैं थी और चौथी अभी आई नहीं थी. मैं एक ही दिन के लिए बाहर जा रही थी, इसी से एक छोटा बटुआ ही साथ में था.

आसपास बिखरे दोनों महिलाओं के भारी भरकम सूटकेस, स्टील के बक्स और मेरू पर्वत से ऊँचे ठंसे कसे होल्डाल देखकर मैंने अपने को बहुत हल्का-फुल्का अनुभव किया. वैसे भी मैं सोचती हूँ, बक्स होल्डालहीन यात्रा में जो सुख है, वह अन्य किसी में नहीं. चटपट चढ़े और खटखट उतर गये. न कुलियों के हथेली पर धरे द्रव्य को अवज्ञापूर्ण दृष्टि से देखकर ‘ये क्या दे रही हैं, साहब’ कहने का भय, न सहयात्रियों के उपालंभ की चिंता. मेरे साथ की महाराष्ट्री महिला ने अपने वृहदाकार स्टील के बक्स एक के ऊपर एक चुनकर पिरामिड से सजा दिए थे. लगता था, वह प्रत्येक वस्तु के लिए स्थान और प्रत्येक स्थान के लिए वस्तु की उपादेयता में विश्वास रखती थी.
वह स्वयं बड़ी शालीनता से लेटकर एक सीध में दो तकिये लगाये एक मराठी पत्रिका पढ़ने में तल्लीन थी. दूसरी पंजाबी महिला के पास एक सूटकेस, टोकरी और बिस्तरा ही था, पर तीनों बेतरतीबी से बिखरे पड़े थे. उनका एक सुराहीदान, जिसकी एक टाँग, अधिकांश सुराहीदानों की भाँति कुछ छोटी थी, बार-बार लुढ़ककर उनको परेशान किये जा रहा था.

वे बेचारी चश्मा उतारकर रखतीं, हाथ की जासूसी अंग्रेजी पुस्तक, जिसे पढ़ने में उन्हें पर्याप्त रस आ रहा था, औंधी कर बर्थ पर टिकातीं, झुँझलाकर सुराहीदान ठिकाने से लगाकर जैसे ही हाथ की पुस्तक के रस की डुबकी लगातीं कि सुराहीदान फिर लुढ़क जाता. मुझे उनकी उलझन देखकर बड़ी हँसी आ रही थी, वैसे मैं उनकी परेशानी काफी हद तक दूर कर सकती थी, क्योंकि सुराहीदान मेरे पास ही धरा था. मैं उसकी लँगड़ी टाँग को अपने बर्थ से टिकाकर लुढ़कने से रोक सकती थी. पर सुराही को ऐसी बेतुकी काठ की सवारी में साथ लेकर चलनेवालों से मुझे कभी सहानुभूति नहीं रहती.

 पंजाबी महिला संभवत: किसी मीटिंग में भाग लेने जा रही थीं, क्योंकि उनके साथ एक मोटी सी फाइल भी चल रही थी, जिसे खोल वो बीच-बीच में हिल हिलकर कुछ आंकड़ों को पहाड़ों की भाँति रटने लगती और फिर बंद कर उपन्यास पढ़ने लगतीं. उनकी सलवार, कमीज, दुपट्टा, यहाँ तक कि रुमाल भी खद्दर का था और शायद उसी के संघर्ष से उनकी लाल नाक का सिरा और भी अबीरी लग रहा था. उनके चेहरे पर रोब था, किंतु लावण्य नहीं. रंग गोरा था, किंतु खाल में हाथ की बुनी खादी सा ही खुरदरापन था. ठुड्डी पर एक बड़े से तिल पर दो-तीन लंबे बाल लटक रहे थे, जिन्हें वे उँगली में लपेटती छल्ले सा घूमा रही थीं.

 या वे प्रौढ़ा कुमारी थीं, या विधवा, क्योंकि चेहरे पर एक अजीब रीतापन था. जीवन के उल्लास की एक आध रेखा मुझे ढूँढने से भी नहीं मिली. जासूसी पुस्तक को थामने वाली उनके हाथों की बनावट मर्दानी और पकड़ मजबूत थी.
 ये वे हाथ नहीं हो सकते, मैं मन में सोच रही थी, जो बच्चों को मीठी लोरी की थपकनें देकर सुलाते हैं. पति की कमीज के बटन टाँकते हैं, या चिमटा सँडसी पकड़ते हैं. ये वे हाथ नहीं हैं, जिनकी हस्तरेखाओं को उनकी कर्मरेखाएँ धूल-कालिख की दरारों से मलिन कर देती हैं.

           मेरा अनुमान ठीक था, स्वयं ही उन्होंने अपना परिचय दे दिया. वे पंजाब के एक विस्थापित स्त्रियों के लिए बनाये गये आश्रम की संचालिका थीं. हाल ही में विदेश से लौटी थीं और लखनऊ की किसी समाज-कल्याण गोष्ठी में भाग लेने जा रही थीं. समाज-सेविकाओं में उनका नाम अग्रणी था.

            महाराष्ट्री महिला के परिचय का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था. उस स्वल्प भाषिणी सुंदरी प्रौढ़ा ने हममें से किसी को भी मैत्री का हाथ बढ़ाकर प्रोत्साहित नहीं किया. हाथ की मराठी पत्रिका को पढ़ती वे कभी स्वयं ही मुस्कराती जा रही थीं और कभी गहरी उदासी से गर्दन मोड़ ले रही थीं. स्पष्ट था कि किसी कुशल मराठी कथा लेखक की सिद्ध कलम का जादू उन्हें कठपुतली-सी नचा रहा था. वे हमारे डिब्बे में होकर भी नहीं थीं. उनके गोरे रंग पर उनकी लाल शोलापुरी साड़ी लपटें सी मार रही थी. गोल परिपाटी से बाँधा गया जूड़ा एड़ी चुंबी केशराशि के मूलधन का परिचय दे रहा था. कानों में सात मोतियों के वर्तुलाकार कर्णफूल थे और गले में था दुहरी लड़ का मंगलसूत्र, जिसे वे अभ्यासवश बार-बार दाँतों में दबा ले रही थीं. उनके सामान पर संभवत: उनके पति के नाम का लेबल लगा था- मेजर जनरल विनोलकर और वे वास्तव में थीं भी मेजर जनरल की ही पत्नी होने के योग्य. पूरे चेहरे में दोनों आँखें ही सबसे ज्वलंत आभूषण थीं. वे कुछ भी नहीं बोल रही थीं, पर वे बड़ी-बड़ी आँखें निरंतर हँसती-मुस्कराती, परिचय देती, मजाक उड़ाती जा रही थी. कभी वे मुझे देखतीं, कभी उस पंजाबी महिला को, पर आँखें चार होते ही बड़ी अवज्ञा से दृष्टि फेर मंगलसूत्र दाँतों में दबा पत्रिका पढ़ने लगतीं.

          गाड़ी ने सीटी दी और ठीक इसी समय हमारे साथ की चौथी महिला ने डिब्बे में प्रवेश किया. गाड़ी मानो उन्हीं के लिए रुकी थी, डाँट-डपट की फुफकारें छोड़ती गाड़ी चली और उसी धक्के के साथ ये महिला फद्द से सीट पर लुढ़क पड़ीं. उनके हाथ में बेंत से बनी एक छोटी सी टोकरी थी और काँख में चौकोर बटुआ दबा था. ‘ओह! लगता था, गाड़ी छूट ही जाएगी. बाप रे बाप! कैसी दौड़ लगानी पड़ी.’ मैं उन्हें देखती ही रह गयी. समाज सेविका ने जासूसी उपन्यास बंद कर दिया,मराठी मोनालिसा ने चश्मा उतारकर हाथ में ले लिया और बैठ गयी.

        हम तीनों की ही दृष्टि उस चौथी पर आबद्ध हो गयी. दोष हमारा नहीं था, वह चीज ही देखने लायक थी.

       हमारा घूरना उन्होंने भाँप लिया, “केम बेन, बहुत लंबी हूँ न मैं.” वह हँसी, “छह फुट साढ़े दस इंच टु बी एग्जैक्ट, शायद भारत की सबसे लंबी नारी. चलिए, यह अच्छा है कि इस डिब्बे में आज हम चारों महिलाएँ ही हैं, नहीं तो मुए पुरुष भी मुझे घूरते.” फिर वे दनादन हमारा इंटरव्यू लेने लगीं. पहला प्रहार मुझ पर ही हुआ. समाज-सेविका ने ठक-ठक कर रूखे उत्तरों के दो-तीन चाँटे धर दिये.

           महाराष्ट्री महिला ने ‘हिंदी नहीं जानता’ कह पीठ फेर ली, तो उस महिला ने त्रुटिहीन अंग्रेजी का धाराप्रवाह भाषण झाड़ दिया, “मुझे मदालसा कहते हैं. मदालसा सिंघानिया. कल ही प्रिटोरिया से आई हूँ, अपने पति की मृत देह लेने.” मैं चौंक गयी. समाज-सेविका ने अपने रूखे व्यवहार पर लज्जित होकर, चट आगे बढ़कर उसके दोनों हाथ थाम लिए, “अरे राम राम, कोई दुर्घटना हो गई थी क्या?” उन्होंने बड़े दर्द से पूछा.

         मदालसा की वेशभूषा में सद्य वैधव्य का कहीं कोई चिह्न नहीं था. वे लंबी होने पर भी पठानिन सी गठे कसे शरीर की लावण्यमयी गतयौवना थीं. उनके बाल किसी दामी सैलून में कटे सँवरे लग रहे थे. अपनी धानी रेशमी साड़ी को वे हाफ पैंट की भाँति ऊपर चढ़ा, दोनों पैरों की पालथी मार, आराम से जम गईं.

         “असल में पिछले वर्ष, एक पर्वतारोही दल के साथ मेरे पति भारत आए थे, वहीं एक एवलैंश (तूफान) के नीचे दबकर उनकी मृत्यु हो गई.”

         “च्च च्च च्च, तो क्या मृत देह अब मिली? मैंने पूछा.

         “हाँ, भारत सरकार ने मुझे सूचित किया, तो भागती आई. बर्फ में दबी देह, सुना ज्यों की त्यों मिली है. मेरे बुने स्वेटर का, जिसे इन्होंने पहना था, एक फंदा भी नहीं टूटा.”

      मृत पति की स्मृति ने उन्हें भाव विभोर कर दिया. बटुए से मर्दाना रूमाल निकाल, वे कभी आँखें पोंछने लगीं, कभी अपनी सूपनखा सी लंबी नाक. बेचारी करतीं भी क्या! कोई भी जनाना रूमाल उस नाक का अस्तित्व नहीं सँभाल सकता था.

           अचानक हम तीनों को, बेचारी मदालसा का एक वर्ष पुराना वैधव्य, एक दम ताजा लगने लगा.

         “तो क्या अब आप अपने “हसबैंड’ का ‘डेड बॉडी’ लेकर प्रिटोरिया ‘फ्लाई’ करेगा?” महाराष्ट्री महिला ने पूछा.

            “नहीं बेन” मदालसा सीट पर लेट गयी,तो लगा एक लंबे खजूर का कटा पेड़ ढह गया.

            एक लंबी साँस खींचकर उन्होंने कहा, “मैं असल में सती होने भारत आई हूँ.” हम तीनों को ए साथ अपने इस उत्तर का क्लोरोफॉर्म सुँघा, सती ने एकदम आँखें मूँद ली, जैसे वह चाह रही थी कि अब हम उन्हें शांति से पड़े रहने दें.

        ऐसा भी भला किसी ने सुना था इस युग में! सुस्पष्ट उच्चारण में अँग्रेजी बोलने वाली, छह फुट साढ़े दस इंच की यह काया, कल बर्फ में दबी पति की एक साल बासी लाश को छाती से लगा, जल भुनकर राख हो जायगी.

        “नहीं, आपको ऐसी मूर्खता करने का कोई अधिकार नहीं है. यह एक अपराध है, क्या आप यह नहीं जानतीं?” खादीधारी महिला उठकर मदालसा के सिरहाने बैठी, उसे गंभीर भाषण की गोलाबारी झाड़ने लगी, जैसे चिता सचमुच प्रज्वलित हो चुकी है और सती लपटों में कूदने को तत्पर है. ‘भावावेश के दुर्बल क्षणों में नारी कभी बड़ा बचपना कर बैठती है, इसका मुझे व्यापक अनुभव है. अभी हाल ही में मेरे आश्रम की दो युवतियाँ ऐसी मूर्खता कर बैठीं. मुझे ही देखिये, भारत विभाजन के समय मेरे पति की हत्या कर दी गई,पर मैं क्या सती हो गयी? सिली सेंटिमेंट! यदि मैं भी उस दिन आपकी भाँति सती हो जाती, तो आज यह देह दीन-दुखियों के काम आ सकती थी? पहले मॉडल जेल की अध्यक्षा रही और अब गिरी बहनों के आश्रम की देखरेख करती हूँ.”

           “ना बेन, ना”, मदालसा ने करवट बदली, “मैं तो सती होने ही भारत आयी हूँ. हाय मेरा नीलरतन, नीलू डार्लिंग!” कह वह फिर मर्दाने रूमाल में मुँह छिपाकर सिसकने लगीं.

       “आप चाहें तो मैं आपके साथ चल सकती हूँ. आपके पति के अंतिम संस्कार में आपकी सहायता कर आपको अपने आश्रम में ले चलूँगी.” समाज-सेविका ने अपने उदार प्रस्ताव का चुग्गा डालकर मदालसा को रिझाने की चेष्टा की.

          मदालसा बड़ी उदासी से हँसी, “धन्यवाद बेन, पर ब्रह्मा भी अब मुझे अपने निश्चय से नहीं डिगा सकते. यह रोग हमारे खानदान में चला आया है. मेरी परनानी तो राजा राममोहन राय और सर विलियम बेंटिक को भी घिस्सा देकर सती हो गयी थीं. और नानी के लिए तो लोग कहते हैं कि नानाजी की मृत देह गोद में लेकर चिता में बैठते ही, स्वयं चिता धू धू कर जल उठी थी. फिर मेरी माँ और अब मैं.”

     “खैर हटाइये भी, पता नहीं किस धुन में आकर आप लोगों से कह गयी. ‘आई शुड नॉट हैव टोल्ड यू.’(मुझे आपसे नहीं कहना चाहिए था.) चलिए, हाथ-मुँह धोकर खाना खा लिया जाय. क्यों, क्या ख्याल है?” उन्होंने अपनी कदली स्तंभ सी जंघाओं पर दोनों हाथों से त्रिताल का टुकड़ा सा बजाया.

          हम तीनों को एक बार फिर आश्चर्य उदधि में गोता लगाने को छोड़, वे टोकरी से एक स्वच्छ तौलिया, साबुन निकाल गुसलखाने में घुस गयीं.

         उनके जाते ही हम तीनों परम मैत्री की एक डोर में गुँथ गये.

“अजीब औरत है! क्या आप सोचती हैं यह सचमुच सती होने जा रही है?” मैंने मराठी महिला से पूछा.

     “देखिए, मरने वाला कभी ढिंढोरा पीटकर नहीं मरता.” वह हँसकर बोली, “हमको तो इसका यह स्क्रू ढीला लगता है.” उन्होंने अपने माथे की ओर अँगुली घुमाई, “इस जमाने में ऐसे सती-फती कोई नहीं होती.”

       “क्षमा कीजिएगा”, खादीधारी महिला बड़ी गंभीरता से बोली, “मुझे औरतों का अनुभव आ दोनों से अधिक है. मैं ऐसी भावुक प्रकृति की भोली औरतों को चेहरा देखते ही पहचान लेती हूँ. आँखें नहीं देखी आपने? कितनी निष्पाप, पवित्र और उदार हैं. मुझे पक्का विश्वास है कि पति की मृत देह देखते ही यह वही मूर्खता कर बैठेगी, जिसका यह खुलेआम ऐलान कर रही है. लगता है मुझे अपना प्रोग्राम कैंसिल कर, इसके साथ जा पुलिस को खबर देनी होगी. तभी इसे बचाया जा सकता है.”

      इतने ही में मदालसा, हाथ मुँह धोकर ताजा चेहरा लिए आ गयी. मेल गाड़ी वन, ग्राम, नदी, नाले, पुल कूदती-फाँदती सर्राटे से भागी जा रही थी. मदालसा ने अपनी टोकरी खोलकर नाश्तादान निकाल लिया. जैसे खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग पकड़ता है, ऐसे ही एक यात्री को खाते देख दूसरे सहयात्री को भी भूख लग आती है. क्षणभर में सती प्रथा पर चल रही बहस, कपूर धुएँ की भाँति उड़ गयी और चटाचट नाश्तेदान खुलने लगे.

           “आइये न, एक साथ बैठकर खाया जाय.” मदालसा ने कहा और बड़े यत्न से, स्वच्छ नैपकिन बिछा, छोटे-छोटे स्टील के कटोरदान सजाने लगी.

        “धन्यवाद!” मैंने कहा, “पर हमारे साथ भी तो खाना है. इसे कौन खाएगा?”

         “वाह जी वाह, उसे हम खाएँगी. ईश्वर ने यह छह फुट साढ़े दस इंच का दुर्ग आखिर बनाया किसलिए है?” उनकी भुवनमोहिनी हँसी ने हमें पराजित कर दिया. वैसे भी हम तीनों ने, एक दूसरी को काकदृष्टि से, सती के घृत पकवान को आँखों ही आँखों में घूरते चखते पकड़ भी लिया था. सुनहरी मोयनदार कचौड़ियाँ थीं, मसालों की गहरी पर्त में डूबी सब्जियाँ थीं,रायता था, चटनी थी– और थे ठाँस – ठाँसकर बाँधे गये, मेवा जड़े बूँदी के लड्डू!

      “यह तो सफर का खाना नहीं, अच्छा खासा विवाह भोज है.” समाज-सेविका की आँखों से लार टपक रही थी, “बड़ा हैवी खाना लेकर चली हैं आप!” उन्होंने कहा और कचौड़ियों पर टूट पड़ीं.

        हम तीनों के पास, भारतीय रेल यात्रियों के साथ युग युगांतर से चली आ रही वही पूरी तरकारी और आम के अचार की फाँकें थीं. अपना खाना खाया ही किसने! मदालसा के स्वादिष्ट भोजन को चटखारे ले लेकर हम तीनों ने साफ कर दिया,उधर वे अकेली ही हम तीनों के नाश्तादानों को जीभ से चाट गयीं थीं. विधाता ने सचमुच ही उनके शरीर के दुर्ग में असीम गोला-बारूद भरने के लिए अनेक कोष्ठ-प्रकोष्ठों की रचना की थी. महातृप्ति के कई तार और मंद्र सप्तक के डकार लेकर,  हाथ-मुँह धो मदालसा ने टोकरी में से एक मस्जिद के गुंबद के आकार का पानदान निकाला.

         “यह मेरे नीलू ने मुझे बगदाद से लाकर भेंट किया था. उसे पान बेहद पसंद थे, इसी से एक ढोली मघई पान और यह पानदान लेकर ही कल चिता में उतरूँगी.” इसी शहीदाना अदा से, हम तीनों को घायल कर उन्होंने केवड़ा, इलायची और मैनपुरी सुपारी से ठँसा बीड़ा थमाया.

         सती प्रथा पर फिर जोरदार बहस छिड़ गयी–”हाय, मेरे अंतिम सफर की प्यारी साथिनों, तुम अब हमें नहीं रोक सकती.” मदालसा लेट गयी और बड़ी सधी आवाज में गाने लगी, “न जाणयू जानकी नाथे सवारे शू थवानू छे”, “समझी इसका अर्थ” उन्होंने हँसकर मुझसे पूछा, “जानकीनाथ भी यह नहीं जान सके थे कि सुबह क्या होगा.”

         अब मुझे लगता है, उस गुजराती पद की व्याख्या उन्होंने संभवत: हमारे ही हित में की थी. “चलो जी, अब सो जाओ सब. आज इस पृथ्वी पर मेरी यह अंतिम निद्रा है बेन, बहस व्यर्थ है. चलो गुड नाइट और बहुत प्यारे-प्यारे सपने दिखें तुम तीनों को.” सचमुच ही उसकी शुभकामनाओं ने जादू का असर किया. ऐसी नींद तो पहले कभी आई ही नहीं थी! और सपने?

     कभी लगता — जगमगाते आभूषणों के ढेर में गोते खा रही हूँ, हीरे के हारों से गर्दन टूटी जा रही है, बाजूबंद-अँगुठियों के भार से हड्डियाँ खिसकी जा रही हैं. और साड़ियाँ? क्या-क्या रंग हैं! कैसा चिकना रेशम! साड़ियों के विशाल उदधि में रंगीन कीमती साड़ियों की तरंगें रह रहकर उठ रही हैं. इससे प्यारे सपने और क्या दिख सकते थे? पर सपनों का अंत भी समुद्र के ज्वार भाटे की ही भाँति हुआ– वास्तविकता की अंतिम तरंग ने पटाक से हम तीनों को धोबीपछाड़ दी, आँखें खोली तो सती गायब थी.

           “हाय मेरे स्टील का बक्स!” मिसेज वनोलकर बर्थ से उतरते ही लड़खड़ा गईं, “उसमें तो मेरे विवाह का जड़ाऊ सेट था. लगता है वह सती की बच्ची हमें कुछ विष खिला गयी. सिर फटा जा रहा है.” उनका गला भर्रा गया. हाँ, ठीक ही तो कह रही थी, मुझे कोई जैसे सावन के झूले की ऊँची ऊँची पेंगें दे रहा था, पूरा डिब्बा गोल-गोल घूम रहा था. पंखे के चारों ओर बल्ब, बल्ब के चारों ओर छत और छत के इर्दगिर्द कई रे‌शमी साड़ियाँ और भारी-भारी आभूषण पहने स्वयं मैं लट्टू सी घूम रही थी. कभी जी में आ रहा था जोर-जोर से हँसूँ, कभी दहाड़े मारकर, रोने को तड़प रही थी. बहुत पहले एक बार भाभी ने भंग खिलाकर ऐसी ही अवस्था कर दी थी.

        सुना गया है कि कुकुरमुत्तों को पीसकर बनाया गया विष भी ऐसे ही मीठे सपने दिखाता है. उनको खाते ही गहरी नींद आ जाती है, जो कभी-कभी दिनों तक नहीं टूटती.

        मीठे सपने दिखा सजग मनुष्य को अर्द्धविक्षिप्त सा कर देने वाला यह अवश्य वही विष होगा. समाज-सेविका दोनों हाथों से सिर थामे बिलख रही थी, “हाय, मैं तो लुट गयी! मेरे सूटकेस में आश्रम का दस हजार रुपया था.”

      और मैं? सहसा गोल-गोल घूमते रेल के डिब्बे में गोल घूमते मेरे दिमाग ने मुझे सूचित किया, “तुम्हारा बटुआ ले गयी है, बटुआ!”

और ले भी क्या जाती! सामान तो कुछ था नहीं. पचपन रुपये और एक फर्स्ट क्लास का वापसी टिकट. सती की चिता में, मैं यही सामान्य सी घृताहुति दे पाई. चेन खींचकर गाड़ी रोकी गयी. सचमुच ही समाज-सेविका को पुलिस को खबर देनी पड़ी, पर सती को बचाने नहीं, पकड़वाने के लिए. वह मिल जाती तो शायद, हम तीनों स्वयं उसकी चिता चुनकर उसे झोंक देतीं. पर कहना व्यर्थ है, आज तक पुलिस उस सती मैया के फूल नहीं चुन पाई.
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Monday, October 19, 2020

शरणागत (कहानी ) लेखक : वृंदावनलाल वर्मा

  शरणागत (कहानी )
लेखक : वृंदावनलाल वर्मा




रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुरा नामक गाँव में ठहर जाने का निश्चय किया। उसकी पत्नी को बुखार हो आया था, रकम पास में थी, और बैलगाड़ी किराए पर करने में खर्च ज्यादा पड़ता, इसलिए रज्जब ने उस रात आराम कर लेना ही ठीक समझा।

परंतु ठहरता कहाँ? जात छिपाने से काम नहीं चल सकता था। उसकी पत्नी नाक और कानों में चाँदी की बालियाँ डाले थी, और पैजामा पहने थी। इसके सिवा गाँव के बहुत से लोग उसको पहचानते भी थे। वह उस गाँव के बहुत-से कर्मण्य और अकर्मण्य ढोर खरीद कर ले जा चुका था।

अपने व्यवहारियों से उसने रात भर के बसेरे के लायक स्थान की याचना की। किसी ने भी मंजूर न किया। उन लोगों ने अपने ढोर रज्जब को अलग-अलग और लुके-छुपे बेचे थे। ठहरने में तुरंत ही तरह-तरह की खबरें फैलती, इसलिए सबों ने इन्कार कर दिया।

गाँव में एक गरीब ठाकुर रहता था। थोड़ी-सी जमीन थी, जिसको किसान जोते हुए थे। जिसका हल-बैल कुछ भी न था। लेकिन अपने किसानों से दो-तीन साल का पेशगी लगान वसूल कर लेने में ठाकुर को किसी विशेष बाधा का सामना नहीं करना पड़ता था। छोटा-सा मकान था, परंतु उसके गाँववाले गढ़ी के आदरव्यंजक शब्द से पुकारा करते, और ठाकुर को डरके मारे 'राजा' शब्द संबोधन करते थे।

शामत का मारा रज्जब इसी ठाकुर के दरवाजे पर अपनी ज्वरग्रस्त पत्नी को ले कर पहुँचा।

ठाकुर पौर में बैठा हुक्का पी रहा था। रज्जब ने बाहर से ही सलाम कर के कहा 'दाऊजू, एक बिनती है।'

ठाकुर ने बिना एक रत्ती-भर इधर-उधर हिले-डुले पूछा - "क्या?"

रज्जब बोला - "दूर से आ रहा हूँ। बहुत थका हुआ हुँ। मेरी औरत को जोर से बुखार आ गया है। जाड़े में बाहर रहने से न जाने इसकी क्या हालत हो जायगी, इसलिए रात भर के लिए कहीं दो हाथ जगह दे दी जाय।"

"कौन लोग हो?" ठाकुर ने प्रश्न किया।

"हूँ तो कसाई।" रज्जब ने सीधा उत्तर दिया। चेहरे पर उसके बहुत गिड़गिड़ाहट थी।

ठाकुर की बड़ी-बड़ी आँखों में कठोरता छा गई। बोला - "जानता है, यह किसका घर है? यहाँ तक आने की हिम्मत कैसे की तूने?"

रज्जब ने आशा-भरे स्वर में कहा - "यह राजा का घर है, इसलिए शरण में आया हुआ है।"

तुरंत ठाकुर की आँखों की कठोरता गायब हो गई। जरा नरम स्वर में बोला - "किसी ने तुमको बसेरा नहीं दिया?"

"नहीं महाराज," रज्जब ने उत्तर दिया - "बहुत कोशिश की, परंतु मेरे खोटे पेशे के कारण कोई सीधा नहीं हुआ।" वह दरवाजे के बाहर ही एक कोने से चिपट कर बैठ गया। पीछे उसकी पत्नी कराहती, काँपती हुई गठरी-सी बन कर सिमट गई।

ठाकुर ने कहा- "तुम अपनी चिलम लिए हो?"

"हाँ, सरकार।" रज्जब ने उत्तर दिया।

ठाकुर बोला- "तब भीतर आ जाओ, और तमाखू अपनी चिलम से पी लो। अपनी औरत को भीतर कर लो। हमारी पौर के एक कोने में पड़े रहना।

जब वह दोनों भीतर आ गए, तो ठाकुर ने पूछा - "तुम कब यहाँ से उठ कर चले जाओगे?" जवाब मिला- "अँधेरे में ही महाराज। खाने के लिए रोटियाँ बाँधे हूँ इसलिए पकाने की जरूरत न पड़ेगी।"

"तुम्हारा नाम?"

"रज्जब।"

थोड़ी देर बाद ठाकुर ने रज्जब से पूछा - "कहाँ से आ रहे हो?" रज्जब ने स्थान का नाम बतलाया।

"वहाँ किसलिए गए थे?"

"अपने रोजगार के लिए।"

"काम तुम्हारा बहुत बुरा है।"

"क्या करूँ, पेट के लिए करना ही पड़ता है। परमात्मा ने जिसके लिए जो रोजगार नियत किया है, वहीं उसको करना पड़ता है।"

"क्या नफा हुआ?" प्रश्न करने में ठाकुर को जरा संकोच हुआ, और प्रश्न का उत्तर देने में रज्जब को उससे बढ़ कर।

रज्जब ने जवाब दिया- "महाराज, पेट के लायक कुछ मिल गया है। यों ही।" ठाकुर ने इस पर कोई जिद नहीं की।

रज्जब एक क्षण बाद बोला- "बड़े भोर उठ कर चला जाऊँगा। तब तक घर के लोगों की तबीयत भी अच्छी हो जायगी।"

इसके बाद दिन भर के थके हुए पति-पत्नी सो गए। काफी रात गए कुछ लोगों ने एक बँधे इशारे से ठाकुर को बाहर बुलाया। एक फटी-सी रजाई ओढ़े ठाकुर बाहर निकल आया।

आगंतुकों में से एक ने धीरे से कहा - "दाऊजू, आज तो खाली हाथ लौटे हैं। कल संध्या का सगुन बैठा है।"

ठाकुर ने कहा - "आज जरूरत थी। खैर, कल देखा जायगा। क्या कोई उपाय किया था?"

"हाँ", आगंतुक बोला - "एक कसाई रुपए की मोट बाँधे इसी ओर आया है। परंतु हम लोग जरा देर में पहुँचे। वह खिसक गया। कल देखेंगे। जरा जल्दी।"

ठाकुर ने घृणा-सूचक स्वर में कहा - "कसाई का पैसा न छुएँगे।"

"क्यों?"

"बुरी कमाई है।"

"उसके रुपए पर कसाई थोड़े लिखा है।"

"परंतु उसके व्यवसाय से वह रुपया दूषित हो गया है।"

"रुपया तो दूसरों का ही है। कसाई के हाथ आने से रुपया कसाई नहीं हुया।"

"मेरा मन नहीं मानता, वह अशुद्ध है।"

"हम अपनी तलवार से उसको शुद्ध कर लेंगे।"

ज्यादा बहस नहीं हुई। ठाकुर ने सोच कर अपने साथियों को बाहर का बाहर ही टाल दिया।

भीतर देखा कसाई सो रहा था, और उसकी पत्नी भी। ठाकुर भी सो गया।

सबेरा हो गया, परंतु रज्जब न जा सका। उसकी पत्नी का बुखार तो हल्का हो गया था, परंतु शरीर भर में पीड़ा थी, और वह एक कदम भी नहीं चल सकती थी।

ठाकुर उसे वहीं ठहरा हुआ देख कर कुपित हो गया। रज्जब से बोला - "मैंने खूब मेहमान इकट्ठे किए हैं। गाँव भर थोड़ी देर में तुम लोगों को मेरी पौर में टिका हुआ देख कर तरह-तरह की बकवास करेगा। तुम बाहर जाओ इसी समय।"

रज्जब ने बहुत विनती की, परंतु ठाकुर न माना। यद्यपि गाँव-भर उसके दबदबे को मानता था, परंतु अव्यक्त लोकमत का दबदबा उसके भी मन पर था। इसलिए रज्जब गाँव के बाहर सपत्नीक, एक पेड़ के नीचे जा बैठा, और हिंदू मात्र को मन-ही-मन कोसने लगा।

उसे आशा थी कि पहर - आध पहर में उसकी पत्नी की तबीयत इतनी स्वस्थ हो जायगी कि वह पैदल यात्रा कर सकेगी। परंतु ऐसा न हुआ, तब उसने एक गाड़ी किराए पर कर लेने का निर्णय किया।

मुश्किल से एक चमार काफी किराया ले कर ललितपुर गाड़ी ले जाने के लिए राजी हुआ। इतने में दोपहर हो गई। उसकी पत्नी को जोर का बुखार हो आया। वह जाड़े के मारे थर-थर काँप रही थीं, इतनी कि रज्जब की हिम्मत उसी समय ले जाने की न पड़ी। गाड़ी में अधिक हवा लगने के भय से रज्जब ने उस समय तक के लिए यात्रा को स्थगित कर दिया, जब तक कि उस बेचारी की कम से कम कँपकँपी बंद न हो जाय।

घंटे-डेढ़-घंटे बाद उसकी कँपकँपी बंद तो हो गई, परंतु ज्वर बहुत तेज हो गया। रज्जब ने अपनी पत्नी को गाड़ी में डाल दिया और गाड़ीवान से जल्दी चलने को कहा।

गाड़ीवान बोला - "दिन भर तो यहीं लगा दिया। अब जल्दी चलने को कहते हो।"

रज्जब ने मिठास के स्वर में उससे फिर जल्दी करने के लिए कहा।

वह बोला - "इतने किराए में काम नहीं चलेगा, अपना रुपया वापस लो। मैं तो घर जाता हूँ।"

रज्जब ने दाँत पीसे। कुछ क्षण चुप रहा। सचेत हो कर कहने लगा - "भाई,
आफत सबके ऊपर आती है। मनुष्य मनुष्य को सहारा देता है, जानवर तो देते नहीं। तुम्हारे भी बाल-बच्चे हैं। कुछ दया के साथ काम लो।"

कसाई को दया पर व्याख्यान देते सुन कर गाड़ीवान को हँसी आ गई। उसको टस से मस न होता देख कर रज्जब ने और पैसे दिए। तब उसने गाड़ी हाँकी।

पाँच-छ: मील चले के बाद संध्या हो गई। गाँव कोई पास में न था। रज्जब की गाड़ी धीरे-धीरे चली जा रही थी। उसकी पत्नी बुखार में बेहोश-सी थी। रज्जब ने अपनी कमर टटोली, रकम सुरक्षित बँधी पड़ी थी।

रज्जब को स्मरण हो आया कि पत्नी के बुखार के कारण अंटी का कुछ बोझ कम कर देना पड़ा है - और स्मरण हो आया गाड़ीवान का वह हठ, जिसके कारण उसको कुछ पैसे व्यर्थ ही दे देने पड़े थे। उसको गाड़ीवान पर क्रोध था, परंतु उसको प्रकट करने की उस समय उसके मन में इच्छा न थी।

बातचीत करके रास्ता काटने की कामना से उसने वार्तालाप आरंभ किया -

"गाँव तो यहाँ से दूर मिलेगा।"

"बहुत दूर, वहीं ठहरेंगे।"

"किसके यहाँ?"

"किसी के यहाँ भी नहीं। पेड़ के नीचे। कल सबेरे ललितपुर चलेंगे।"

................................

"कल को फिर पैसा माँग उठना।"

"कैसे माँग उठूँगा? किराया ले चुका हूँ। अब फिर कैसे माँगूँगा?"

"जैसे आज गाँव में हठ करके माँगा था। बेटा, ललितपुर होता, तो बतला देता !"

"क्या बतला देते? क्या सेंत-मेंत गाड़ी में बैठना चाहते थे?"

"क्यों बे, क्या रुपया दे कर भी सेंत-मेंत का बैठना कहाता है? जानता है, मेरा नाम रज्जब है। अगर बीच में गड़बड़ करेगा, तो नालायक को यहीं छुरे से काट कर फेंक दूँगा और गाड़ी ले कर ललितपुर चल दूँगा।"

रज्जब क्रोध को प्रकट नहीं करना चाहता था, परंतु शायद अकारण ही वह भली भाँति प्रकट हो गया।

गाड़ीवान ने इधर-उधर देखा। अँधेरा हो गया था। चारों ओर सुनसान था। आस-पास झाड़ी खड़ी थी। ऐसा जान पड़ता था, कहीं से कोई अब निकला और अब निकला। रज्जब की बात सुन कर उसकी हड्डी काँप गई। ऐसा जान पड़ा, मानों पसलियों को उसकी ठंडी छूरी छू रही है।

गाड़ीवान चुपचाप बैलों को हाँकने लगा। उसने सोचा - गाँव आते ही गाड़ी छोड़ कर नीचे खड़ा हो जाऊँगा, और हल्ला-गुल्ला करके गाँववालों की मदद से अपना पीछा रज्जब से छुड़ाऊँगा। रुपए-पैसे भली ही वापस कर दूँगा, परंतु और आगे न जाऊँगा। कहीं सचमुच मार्ग में मार डाले !

गाड़ी थोड़ी दूर और चली होगी कि बैल ठिठक कर खड़े हो गए। रज्जब सामने न देख रहा था, इललिए जरा कड़क कर गाड़ीवान से बोला - "क्यों बे बदमाश, सो गया क्या?"

अधिक कड़क के साथ सामने रास्ते पर खड़ी हुई एक टुकड़ी में से किसी के कठोर कंठ से निकला, "खबरदार, जो आगे बढ़ा।"

रज्जब ने सामने देखा कि चार-पाँच आदमी बड़े-बड़े लठ बाँध कर न जाने कहाँ से आ गए हैं। उनमें तुरंत ही एक ने बैलों की जुआरी पर एक लठ पटका और दो दाएँ-बाएँ आ कर रज्जब पर आक्रमण करने को तैयार हो गए।

गाड़ीवान गाड़ी छोड़ कर नीचे जा खड़ा हुआ। बोला - "मालिक, मैं तो गाड़ीवान हूँ। मुझसे कोई सरोकार नहीं।"

"यह कौन है?" एक ने गरज कर पूछा।

गाड़ीवान की घिग्घी बँध गई। कोई उत्तर न दे सका।

रज्जब ने कमर की गाँठ को एक हाथ से सँभालते हुए बहुत ही नम्र स्वर में कहा - "मैं बहुत गरीब आदमी हूँ। मेरे पास कुछ नहीं है। मेरी औरत गाड़ी में बीमार पड़ी है। मुझे जाने दीजिए।"

उन लोगों में से एक ने रज्जब के सिर पर लाठी उबारी। गाड़ीवान खिसकना चाहता था कि दूसरे ने उसको पकड़ लिया।

अब उसका मुँह खुला। बोला - "महाराज, मुझको छोड़ दो। मैं तो किराए से गाड़ी लिए जा रहा हूँ। गाँठ में खाने के लिए तीन-चार आने पैसे ही हैं।"

"और यह कौन है? बतला।" उन लोगों में से एक ने पुछा।

गाड़ीवान ने तुरंत उत्तर दिया - "ललितपुर का एक कसाई।"

रज्जब के सिर पर जो लाठी उबारी गई थी, वह वहीं रह गई। लाठीवाले के मुँह से निकला - "तुम कसाई हो? सच बताओ !"

"हाँ, महाराज!" रज्जब ने सहसा उत्तर दिया - "मैं बहुत गरीब हुँ। हाथ जोड़ता हूँ मत सताओ। मेरी औरत बहुत बीमार है।"

औरत जोर से कराही ।

लाठीवाले उस आदमी ने अपने एक साथी से कान में कहा - "इसका नाम रज्जब है। छोड़ो। चलें यहाँ से।"

उसने न माना। बोला- "इसका खोपड़ा चकनाचुर करो दाऊजू, यदि वैसे न माने तो। असाई-कसाई हम कुछ नहीं मानते।"

"छोड़ना ही पड़ेगा," उसने कहा - "इस पर हाथ नहीं पसारेंगे और न इसका पैसा छुएँगे।"

दूसरा बोला- "क्या कसाई होने के डर से दाऊजू, आज तुम्हारी बुद्धि पर पत्थर पड़ गए हैं। मैं देखता हूँ!" और उसने तुरंत लाठी का एक सिरा रज्जब की छाती में अड़ा कर तुरंत रुपया-पैसा निकाल देने का हुक्म दिया। नीचे खड़े उस व्यक्ति ने जरा तीव्र स्वर में कहा - "नीचे उतर आओ। उससे मत बोलो। उसकी औरत बीमार है।"

"हो, मेरी बला से," गाड़ी में चढ़े हुए लठैत ने उत्तर दिया - "मैं कसाइयों की दवा हूँ।" और उसने रज्जब को फिर धमकी दी।

नीचे खड़े हुए उस व्यक्ति ने कहा - "खबरदार, जो उसे छुआ। नीचे उतरो, नहीं तो तुम्हारा सिर चकनाचूर किए देता हूँ। वह मेरी शरण आया था।"

गाड़ीवाला लठैत झख-सी मार कर नीचे उतर आया।

नीचेवाले व्यक्ति ने कहा - "सब लोग अपने-अपने घर जाओ। राहगीरों को तंग मत करो।" फिर गाड़ीवान से बोला - "जा रे, हाँक ले जा गाड़ी। ठिकाने तक पहुँच आना, तब लौटना, नहीं तो अपनी खैर मत समझियो। और, तुम दोनों में से किसी ने भी कभी, इस बात की चर्चा कहीं की, तो भूसी की आग में जला कर खाक कर दूँगा।"

गाड़ीवान गाड़ी ले कर बढ़ गया। उन लोगों में से जिस आदमी ने गाड़ी पर चढ़ कर रज्जब के सिर पर लाठी तानी थी, उसने क्षुब्ध स्वर में कहा - "दाऊजू, आगे से कभी आपके साथ न आऊँगा।"

दाऊजू ने कहा - "न आना। मैं अकेले ही बहुत कर गुजरता हूँ। परंतु बुंदेला शरणागत के साथ घात नहीं करता, इस बात को गाँठ बाँध लेना।"
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Sunday, October 18, 2020

Class 8 Hindi Vasant/CBSE/NCERT

कक्षा (Class) -  8th
विषय (Subject) - हिंदी (Hindi)
किताब का नाम (Book Name):  वसंत (Vasant)

विषय - सूची

1. ध्वनि (कविता) सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
2. लाख की चूड़ियाँ (कहानी) कामतानाथ
3. बस की यात्रा (व्यंग्य) हरिशंकर परसाई
4. दीवानों की हस्ती (कविता) भगवतीचरण वर्मा
5. चिट्ठियों की अनूठी दुनिया (निबंध्) अरविंद कुमार सिंह
  • चिट्ठियाँ (कविता) रामदरश मिश्र
(केवल पढ़ने के लिए)
6. भगवान के डाकिए (कविता) रामधरी सिंह ‘दिनकर’
7. क्या निराश हुआ जाए (निबंध्) हजारी प्रसाद द्विवेदी
8. यह सबसे कठिन समय नहीं (कविता) जया जादवानी
  • पहाड़ से उँचा आदमी (जीवनी) सुभाष गाताड़े
(केवल पढ़ने के लिए)
9. कबीर की साखियाँ कबीर
10. कामचोर (कहानी) इस्मत चुगताई
11. जब सिनेमा ने बोलना सीखा प्रदीप तिवारी
  • कंप्यूटर गाएगा गीत (आलेख) ट्टत्विक घटक
(केवल पढ़ने के लिए)
12. सुदामा चरित (कविता) नरोत्तमदास
13. जहाँ पहिया है (रिपोर्ताज) पी. साईनाथ (अनु.)
पिता के बाद (कविता) मुक्ता
(केवल पढ़ने के लिए)
14. अकबरी लोटा (कहानी) अन्नपूर्णानंद वर्मा
15. सूर के पद (कविता) सूरदास
16. पानी की कहानी (निबंध्) रामचंद्र तिवारी
  • हम पृथ्वी की संतान (आलेख) प्रभु नारायण
(केवल पढ़ने के लिए)
17. बाज और साँप (कहानी) निर्मल वर्मा
18. टोपी (कहानी) सृंजय

महाभारत कथा /Class 7 Hindi

कक्षा (Class) -   सातवीं  (7th)
विषय (Subject) - हिंदी (Hindi)
किताब का नाम (Book Name):  महाभारत  (Mahabharat)

विषय - सूची

महाभारत कथा
देवव्रत
भीष्म-प्रतिज्ञा
अंबा और भीष्म
विदुर
कुंती
भीम
कर्ण
द्रोणाचार्य
लाख का घर
पांडवों की रक्षा
द्रौपदी-स्वयंवर
इंद्रप्रस्थ
जरासंध
शकुनि का प्रवेश
चौसर का खेल व द्रौपदी की व्यथा
धृतराष्ट्र की चिंता
भीम और हनुमान
द्वेष करनेवाले का जी नहीं भरता
मायावी सरोवर
यक्ष-प्रश्न
अज्ञातवास
प्रतिज्ञा-पूर्ति
विराट का भ्रम
मंत्रणा
राजदूत संजय
शांतिदूत श्रीकृष्ण
पांडवों और कौरवों के सेनापति
पहला, दूसरा और तीसरा दिन
चौथा, पाँचवाँ और छठा दिन
सातवाँ, आठवाँ और नवाँ दिन
भीष्म शर-शयया पर
बारहवाँ दिन
अभिमन्यु
युधिष्ठिर की चिंता और कामना
भूरिश्रवा, जयद्रथ और आचार्य द्रोण का अंत
कर्ण और दुर्योधन भी मारे गए
अश्वत्थामा
युधिष्ठिर की वेदना
पांडवों का धृतराष्ट्र के प्रति व्यवहार
श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर
प्रश्न-अभ्यास

Saturday, October 17, 2020

Class 7 Hindi CBSE

Class 7 Hindi CBSE

 Vasant 2

    Chapter 1 हम पंछी उन्मुक्त गगन के
    Chapter 2 दादी माँ
    Chapter 3 हिमालय की बेटियाँ    

    Chapter 4 कठपुतली
    Chapter 5 मिठाईवाला
    Chapter 6 रक्त और हमारा शरीर
    Chapter 7 पापा खो गए
    Chapter 8 शाम एक किशान
    Chapter 9 चिड़िया की बच्ची
    Chapter 10 अपूर्व अनुभव
    Chapter 11 रहीम की दोहे
    Chapter 12 कंचा
    Chapter 13 एक तिनका
    Chapter 14 खानपान की बदलती तस्वीर
    Chapter 15 नीलकंठ
    Chapter 16 भोर और बरखा
    Chapter 17 वीर कुवर सिंह
    Chapter 18 संघर्ष के कराण मैं तुनुकमिजाज हो गया धनराज
    Chapter 19 आश्रम का अनुमानित व्यय
    Chapter 20 विप्लव गायन