Wednesday, April 29, 2020

त्रिशंकू -मन्नू भंडारी /Trishanku/ Mannu Bhandari

Trishanku/ Mannu Bhandari
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त्रिशंकू
-मन्नू भंडारी

“घर की चहारदीवारी आदमी को सुरक्षा देती है, पर साथ ही उसे एक सीमा में बाँधती भी है। स्कूल-कॉलेज जहाँ व्यक्ति के मस्तिष्क का विकास करते हैं, वहीं नियम-कायदे और अनुशासन के नाम पर उसके व्यक्त्वि को कुठित भी करते हैं… बात यह है बंधु, कि हर बात का विरोध उसके भीतर ही रहता है।”

ये सब मैं किसी किताब के उदाहरण नहीं पेश कर रही। ऐसी भारी-भरकम किताबें पढ़ने का तो मेरा बूता ही नहीं। वे तो उन बातों और बहसों के टुकड़े हैं जो रात-दिन हमारे घर में हुआ करती हैं। हमारा घर, यानी बुद्धिजीवियों का अखाड़ा। यहाँ सिगरेट के धूएँ और कॉफी के प्यालों के बीच बातों के बड़े-बड़े तुमार बाँधे जाते हैं… बड़ी-बड़ी शाब्दिक क्रान्तियाँ की जाती हैं। इस घर में काम कम और बातें ज्यादा होती हैं। मैंने कहीं पढ़ा तो नहीं, पर अपने घर से यह लगता ज़रूर है कि बुद्धिजीवियों के लिए काम करना शायद वर्जित है। मातुश्री अपनी तीन घण्टे की तफरीहनुमा नौकरी बजाने के बाद मुक्त। थोड़ा बहुत पढ़ने-लिखने के बाद जो समय बचता है वह या तो बात-बहस में जाता है या फिर लेट लगाने में। उनका ख़्याल है कि शरीर के निष्क्रिय होते ही मन-मस्तिष्क सक्रिय हो उठते हैं और वे दिन के चौबीस घण्टों में से बारह घण्टे अपना मन-मस्तिष्क ही सक्रिय बनाए रखती हैं। पिताश्री और भी दो कदम आगे। उनका बस चले तो वे नहाएँ भी अपनी मेज़ पर ही।

बूढ़ी काकी / लेखक : मुंशी प्रेमचंद Budhi Kaki /Premchand

 बूढ़ी काकी
लेखक : मुंशी प्रेमचंद 


बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जिह्वा-स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही। समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और घर वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिणाम पूर्ण न होता अथवा बाज़ार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो ये रोने लगती थीं। उनका रोना-सिसकना साधारण रोना न था, वे गला फाड़-फाड़कर रोती थीं।
उनके पतिदेव को स्वर्ग सिधारे कालांतर हो चुका था। बेटे तरुण हो-होकर चल बसे थे। अब एक भतीजे के अलावा और कोई न था। उसी भतीजे के नाम उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति लिख दी। भतीजे ने सारी सम्पत्ति लिखाते समय ख़ूब लम्बे-चौड़े वादे किए, किन्तु वे सब वादे केवल कुली-डिपो के दलालों के दिखाए हुए सब्ज़बाग थे। यद्यपि उस सम्पत्ति की वार्षिक आय डेढ़-दो सौ रुपए से कम न थी तथापि बूढ़ी काकी को पेट भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था। इसमें उनके भतीजे पंडित बुद्धिराम का अपराध था अथवा उनकी अर्धांगिनी श्रीमती रूपा का, इसका निर्णय करना सहज नहीं। बुद्धिराम स्वभाव के सज्जन थे, किंतु उसी समय तक जब कि उनके कोष पर आँच न आए। रूपा स्वभाव से तीव्र थी सही, पर ईश्वर से डरती थी। अतएव बूढ़ी काकी को उसकी तीव्रता उतनी न खलती थी जितनी बुद्धिराम की भलमनसाहत।

Tuesday, April 28, 2020

गुण्डा (कहानी ) लेखक : जयशंकर प्रसाद /Gunda Story Jaishankar Prasad

 गुंडा
लेखक : जयशंकर प्रसाद


वह पचास वर्ष से ऊपर था। तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठ और दृढ़ था। चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं। वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की छाया में, कड़कती हुई जेठ की धूप में, नंगे शरीर घूमने में वह सुख मानता था। उसकी चढ़ी मूँछें बिच्छू के डंक की तरह, देखनेवालों की आँखों में चुभती थीं। उसका साँवला रंग, साँप की तरह चिकना और चमकीला था। उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किनारा दूर से ही ध्यान आकर्षित करता। कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें सीप की मूठ का बिछुआ खुँसा रहता था। उसके घुँघराले बालों पर सुनहले पल्ले के साफे का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता। ऊँचे कन्धे पर टिका हुआ चौड़ी धार का गँड़ासा, यह भी उसकी धज! पंजों के बल जब वह चलता, तो उसकी नसें चटाचट बोलती थीं। वह गुंडा था।

ईसा की अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में वही काशी नहीं रह गयी थी, जिसमें उपनिषद् के अजातशत्रु की परिषद् में ब्रह्मविद्या सीखने के लिए विद्वान ब्रह्मचारी आते थे। गौतम बुद्ध और शंकराचार्य के धर्म-दर्शन के वाद-विवाद, कई शताब्दियों से लगातार मंदिरों और मठों के ध्वंस और तपस्वियों के वध के कारण, प्राय: बन्द-से हो गये थे। यहाँ तक कि पवित्रता और छुआछूत में कट्टर वैष्णव-धर्म भी उस विशृंखलता में, नवागन्तुक धर्मोन्माद में अपनी असफलता देखकर काशी में अघोर रूप धारण कर रहा था। उसी समय समस्त न्याय और बुद्धिवाद को शस्त्र-बल के सामने झुकते देखकर, काशी के विच्छिन्न और निराश नागरिक जीवन ने, एक नवीन सम्प्रदाय की सृष्टि की। वीरता जिसका धर्म था। अपनी बात पर मिटना, सिंह-वृत्ति से जीविका ग्रहण करना, प्राण-भिक्षा माँगनेवाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वन्द्वी पर शस्त्र न उठाना, सताये निर्बलों को सहायता देना और प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली पर लिये घूमना, उसका बाना था। उन्हें लोग काशी में गुंडा कहते थे।

Saturday, April 25, 2020

Dopahar ka bhojan -Amartkant

 सिद्धेश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को बुझा दिया और दोनों घुटनों के बीच सिर रख कर शायद पैर की उँगलियाँ या जमीन पर चलते चीटें-चीटियों को देखने लगी।

अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास नहीं लगी हैं। वह मतवाले की तरह उठी ओर गगरे से लोटा-भर पानी ले कर गट-गट चढ़ा गई। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया और वह हाय राम कह कर वहीं जमीन पर लेट गई।

आधे घंटे तक वहीं उसी तरह पड़ी रहने के बाद उसके जी में जी आया। वह बैठ गई, आँखों को मल-मल कर इधर-उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध-टूटे खटोले पर सोए अपने छह वर्षीय लड़के प्रमोद पर जम गई।

लड़का नंग-धड़ंग पड़ा था। उसके गले तथा छाती की हड्डियाँ साफ दिखाई देती थीं। उसके हाथ-पैर बासी ककड़ियों की तरह सूखे तथा बेजान पड़े थे और उसका पेट हंडिया की तरह फूला हुआ था। उसका मुख खुला हुआ था और उस पर अनगिनत मक्खियाँ उड़ रही थीं।

वह उठी, बच्चे के मुँह पर अपना एक फटा, गंदा ब्लाउज डाल दिया और एक-आध मिनट सुन्न खड़ी रहने के बाद बाहर दरवाजे पर जा कर किवाड़ की आड़ से गली निहारने लगी। बारह बज चुके थे। धूप अत्यंत तेज थी और कभी एक-दो व्यक्ति सिर पर तौलिया या गमछा रखे हुए या मजबूती से छाता ताने हुए फुर्ती के साथ लपकते हुए-से गुजर जाते।

दस-पंद्रह मिनट तक वह उसी तरह खड़ी रही, फिर उसके चेहरे पर व्यग्रता फैल गई और उसने आसमान तथा कड़ी धूप की ओर चिंता से देखा। एक-दो क्षण बाद उसने सिर को किवाड़ से काफी आगे बढ़ा कर गली के छोर की तरफ निहारा, तो उसका बड़ा लड़का रामचंद्र धीरे-धीरे घर की ओर सरकता नजर आया।

उसने फुर्ती से एक लोटा पानी ओसारे की चौकी के पास नीचे रख दिया और चौके में जा कर खाने के स्थान को जल्दी-जल्दी पानी से लीपने-पोतने लगी। वहाँ पीढ़ा रख कर उसने सिर को दरवाजे की ओर घुमाया ही था कि रामचंद्र ने अंदर कदम रखा।

रामचंद्र आ कर धम-से चौकी पर बैठ गया और फिर वहीं बेजान-सा लेट गया। उसका मुँह लाल तथा चढ़ा हुआ था, उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और उसके फटे-पुराने जूतों पर गर्द जमी हुई थी।

सिद्धेश्वरी की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास आए और वहीं से वह भयभीत हिरनी की भाँति सिर उचका-घुमा कर बेटे को व्यग्रता से निहारती रही। किंतु, लगभग दस मिनट बीतने के पश्चात भी जब रामचंद्र नहीं उठा, तो वह घबरा गई। पास जा कर पुकारा - बड़कू, बड़कू! लेकिन उसके कुछ उत्तर न देने पर डर गई और लड़के की नाक के पास हाथ रख दिया। साँस ठीक से चल रही थी। फिर सिर पर हाथ रख कर देखा, बुखार नहीं था। हाथ के स्पर्श से रामचंद्र ने आँखें खोलीं। पहले उसने माँ की ओर सुस्त नजरों से देखा, फिर झट-से उठ बैठा। जूते निकालने और नीचे रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह यंत्र की तरह चौकी पर आ कर बैठ गया।

सिध्देश्वर ने डरते-डरते पूछा, 'खाना तैयार है। यहीं लगाऊँ क्या?'

रामचंद्र ने उठते हुए प्रश्न किया, 'बाबू जी खा चुके?'

सिद्धेश्वरी ने चौके की ओर भागते हुए उत्तर दिया, 'आते ही होंगे।'

रामचंद्र पीढ़े पर बैठ गया। उसकी उम्र लगभग इक्कीस वर्ष की थी। लंबा, दुबला-पतला, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें तथा होठों पर झुर्रियाँ।

वह एक स्थानीय दैनिक समाचार पत्र के दफ्तर में अपनी तबीयत से प्रूफरीडरी का काम सीखता था। पिछले साल ही उसने इंटर पास किया था।

सिद्धेश्वरी ने खाने की थाली सामने ला कर रख दी और पास ही बैठ कर पंखा करने लगी। रामचंद्र ने खाने की ओर दार्शनिक की भाँति देखा। कुल दो रोटियाँ, भर-कटोरा पनियाई दाल और चने की तली तरकारी।

रामचंद्र ने रोटी के प्रथम टुकड़े को निगलते हुए पूछा, 'मोहन कहाँ हैं? बड़ी कड़ी धूप हो रही है।'

मोहन सिद्धेश्वरी का मँझला लड़का था। उम्र अठ्ठारह वर्ष थी और वह इस साल हाईस्कूल का प्राइवेट इम्तहान देने की तैयारी कर रहा था। वह न मालूम कब से घर से गायब था और सिद्धेश्वरी को स्वयं पता नहीं था कि वह कहाँ गया है।

किंतु सच बोलने की उसकी तबीयत नहीं हुई और झूठ-मूठ उसने कहा, 'किसी लड़के के यहाँ पढ़ने गया है, आता ही होगा। दिमाग उसका बड़ा तेज है और उसकी तबीयत चौबीस घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है। हमेशा उसी की बात करता रहता है।'

रामचंद्र ने कुछ नहीं कहा। एक टुकड़ा मुँह में रख कर भरा गिलास पानी पी गया, फिर खाने लग गया। वह काफी छोटे-छोटे टुकड़े तोड़ कर उन्हें धीरे-धीरे चबा रहा था।

सिद्धेश्वरी भय तथा आतंक से अपने बेटे को एकटक निहार रही थी। कुछ क्षण बीतने के बाद डरते-डरते उसने पूछा, 'वहाँ कुछ हुआ क्या?'

रामचंद्र ने अपनी बड़ी-बड़ी भावहीन आँखों से अपनी माँ को देखा, फिर नीचा सिर करके कुछ रुखाई से बोला, 'समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।'

सिद्धेश्वरी चुप रही। धूप और तेज होती जा रही थी। छोटे आँगन के ऊपर आसमान में बादल में एक-दो टुकड़े पाल की नावों की तरह तैर रहे थे। बाहर की गली से गुजरते हुए एक खड़खड़िया इक्के की आवाज आ रही थी। और खटोले पर सोए बालक की साँस का खर-खर शब्द सुनाई दे रहा था।

रामचंद्र ने अचानक चुप्पी को भंग करते हुए पूछा, 'प्रमोद खा चुका?'

सिद्धेश्वरी ने प्रमोद की ओर देखते हुए उदास स्वर में उत्तर दिया, 'हाँ, खा चुका।'

'रोया तो नहीं था?'

सिद्धेश्वरी फिर झूठ बोल गई, 'आज तो सचमुच नहीं रोया। वह बड़ा ही होशियार हो गया है। कहता था, बड़का भैया के यहाँ जाऊँगा। ऐसा लड़का..'

पर वह आगे कुछ न बोल सकी, जैसे उसके गले में कुछ अटक गया। कल प्रमोद ने रेवड़ी खाने की जिद पकड़ ली थी और उसके लिए डेढ़ घंटे तक रोने के बाद सोया था।

रामचंद्र ने कुछ आश्चर्य के साथ अपनी माँ की ओर देखा और फिर सिर नीचा करके कुछ तेजी से खाने लगा।

थाली में जब रोटी का केवल एक टुकड़ा शेष रह गया, तो सिद्धेश्वरी ने उठने का उपक्रम करते हुए प्रश्न किया, 'एक रोटी और लाती हूँ?'

रामचंद्र हाथ से मना करते हुए हडबड़ा कर बोल पड़ा, 'नहीं-नहीं, जरा भी नहीं। मेरा पेट पहले ही भर चुका है। मैं तो यह भी छोडनेवाला हूँ। बस, अब नहीं।'

सिद्धेश्वरी ने जिद की, 'अच्छा आधी ही सही।'

रामचंद्र बिगड़ उठा, 'अधिक खिला कर बीमार कर डालने की तबीयत है क्या? तुम लोग जरा भी नहीं सोचती हो। बस, अपनी जिद। भूख रहती तो क्या ले नहीं लेता?'

सिद्धेश्वरी जहाँ-की-तहाँ बैठी ही रह गई। रामचंद्र ने थाली में बचे टुकड़े से हाथ खींच लिया और लोटे की ओर देखते हुए कहा, 'पानी लाओ।'

सिद्धेश्वरी लोटा ले कर पानी लेने चली गई। रामचंद्र ने कटोरे को उँगलियों से बजाया, फिर हाथ को थाली में रख दिया। एक-दो क्षण बाद रोटी के टुकड़े को धीरे-से हाथ से उठा कर आँख से निहारा और अंत में इधर-उधर देखने के बाद टुकड़े को मुँह में इस सरलता से रख लिया, जैसे वह भोजन का ग्रास न हो कर पान का बीड़ा हो।

मँझला लड़का मोहन आते ही हाथ-पैर धो कर पीढ़े पर बैठ गया। वह कुछ साँवला था और उसकी आँखें छोटी थीं। उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। वह अपने भाई ही की तरह दुबला-पतला था, किंतु उतना लंबा न था। वह उम्र की अपेक्षा कहीं अधिक गंभीर और उदास दिखाई पड़ रहा था।

सिद्धेश्वरी ने उसके सामने थाली रखते हुए प्रश्न किया, 'कहाँ रह गए थे बेटा? भैया पूछ रहा था।'

मोहन ने रोटी के एक बड़े ग्रास को निगलने की कोशिश करते हुए अस्वाभाविक मोटे स्वर में जवाब दिया, 'कहीं तो नहीं गया था। यहीं पर था।'

सिद्धेश्वरी वहीं बैठ कर पंखा डुलाती हुई इस तरह बोली, जैसे स्वप्न में बड़बड़ा रही हो, 'बड़का तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रहा था। कह रहा था, मोहन बड़ा दिमागी होगा, उसकी तबीयत चौबीसों घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है।' यह कह कर उसने अपने मँझले लड़के की ओर इस तरह देखा, जैसे उसने कोई चोरी की हो।

मोहन अपनी माँ की ओर देख कर फीकी हँसी हँस पड़ा और फिर खाने में जुट गया। वह परोसी गई दो रोटियों में से एक रोटी कटोरे की तीन-चौथाई दाल तथा अधिकांश तरकारी साफ कर चुका था।

सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। इन दोनों लड़कों से उसे बहुत डर लगता था। अचानक उसकी आँखें भर आईं। वह दूसरी ओर देखने लगी।

थोड़ी देर बाद उसने मोहन की ओर मुँह फेरा, तो लड़का लगभग खाना समाप्त कर चुका था।

सिद्धेश्वरी ने चौंकते हुए पूछा, 'एक रोटी देती हूँ?'

मोहन ने रसोई की ओर रहस्यमय नेत्रों से देखा, फिर सुस्त स्वर में बोला, 'नहीं।'

सिद्धेश्वरी ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, 'नहीं बेटा, मेरी कसम, थोड़ी ही ले लो। तुम्हारे भैया ने एक रोटी ली थी।'

मोहन ने अपनी माँ को गौर से देखा, फिर धीरे-धीरे इस तरह उत्तर दिया, जैसे कोई शिक्षक अपने शिष्य को समझाता है, 'नहीं रे, बस, अव्वल तो अब भूख नहीं। फिर रोटियाँ तूने ऐसी बनाई हैं कि खाई नहीं जातीं। न मालूम कैसी लग रही हैं। खैर, अगर तू चाहती ही है, तो कटोरे में थोड़ी दाल दे दे। दाल बड़ी अच्छी बनी है।'

सिद्धेश्वरी से कुछ कहते न बना और उसने कटोरे को दाल से भर दिया।

मोहन कटोरे को मुँह लगा कर सुड़-सुड़ पी रहा था कि मुंशी चंद्रिका प्रसाद जूतों को खस-खस घसीटते हुए आए और राम का नाम ले कर चौकी पर बैठ गए। सिद्धेश्वरी ने माथे पर साड़ी को कुछ नीचे खिसका लिया और मोहन दाल को एक साँस में पी कर तथा पानी के लोटे को हाथ में ले कर तेजी से बाहर चला गया।

दो रोटियाँ, कटोरा-भर दाल, चने की तली तरकारी। मुंशी चंद्रिका प्रसाद पीढ़े पर पालथी मार कर बैठे रोटी के एक-एक ग्रास को इस तरह चुभला-चबा रहे थे, जैसे बूढ़ी गाय जुगाली करती है। उनकी उम्र पैंतालीस वर्ष के लगभग थी, किंतु पचास-पचपन के लगते थे। शरीर का चमड़ा झूलने लगा था, गंजी खोपड़ी आईने की भाँति चमक रही थी। गंदी धोती के ऊपर अपेक्षाकृत कुछ साफ बनियान तार-तार लटक रही थी।

मुंशी जी ने कटोरे को हाथ में ले कर दाल को थोडा सुड़कते हुए पूछा, 'बड़का दिखाई नहीं दे रहा?'

सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके दिल में क्या हो गया है - जैसे कुछ काट रहा हो। पंखे को जरा और जोर से घुमाती हुई बोली, 'अभी-अभी खा कर काम पर गया है। कह रहा था, कुछ दिनों में नौकरी लग जाएगी। हमेशा, बाबू जी, बाबू जी किए रहता है। बोला, बाबू जी देवता के समान हैं।'

मुंशी जी के चेहरे पर कुछ चमक आई। शरमाते हुए पूछा, 'ऐं, क्या कहता था कि बाबू जी देवता के समान हैं? बड़ा पागल है।'

सिद्धेश्वरी पर जैसे नशा चढ़ गया था। उन्माद की रोगिणी की भाँति बड़बड़ाने लगी, 'पागल नहीं है, बड़ा होशियार है। उस जमाने का कोई महात्मा है। मोहन तो उसकी बड़ी इज्जत करता है। आज कह रहा था कि भैया की शहर में बड़ी इज्जत होती हैं, पढ़ने-लिखनेवालों में बड़ा आदर होता है और बड़का तो छोटे भाइयों पर जान देता हैं। दुनिया में वह सब कुछ सह सकता है, पर यह नहीं देख सकता कि उसके प्रमोद को कुछ हो जाए।'

मुंशी जी दाल-लगे हाथ को चाट रहे थे। उन्होंने सामने की ताक की ओर देखते हुए हँस कर कहा, 'बड़का का दिमाग तो खैर काफी तेज है, वैसे लड़कपन में नटखट भी था। हमेशा खेल-कूद में लगा रहता था, लेकिन यह भी बात थी कि जो सबक मैं उसे याद करने को देता था, उसे बर्राक रखता था। असल तो यह कि तीनों लड़के काफी होशियार हैं। प्रमोद को कम समझती हो?' यह कह कर वह अचानक जोर से हँस पड़े।

मुंशी जी डेढ़ रोटी खा चुकने के बाद एक ग्रास से युद्ध कर रहे थे। कठिनाई होने पर एक गिलास पानी चढ़ा गए। फिर खर-खर खाँस कर खाने लगे।

फिर चुप्पी छा गई। दूर से किसी आटे की चक्की की पुक-पुक आवाज सुनाई दे रही थी और पास की नीम के पेड़ पर बैठा कोई पंडूक लगातार बोल रहा था।

सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे। वह चाहती थी कि सभी चीजें ठीक से पूछ ले। सभी चीजें ठीक से जान ले और दुनिया की हर चीज पर पहले की तरह धड़ल्ले से बात करे। पर उसकी हिम्मत नहीं होती थी। उसके दिल में जाने कैसा भय समाया हुआ था।

अब मुंशी जी इस तरह चुपचाप दुबके हुए खा रहे थे, जैसे पिछले दो दिनों से मौन-व्रत धारण कर रखा हो और उसको कहीं जा कर आज शाम को तोड़ने वाले हों।

सिद्धेश्वरी से जैसे नहीं रहा गया। बोली, 'मालूम होता है, अब बारिश नहीं होगी।'

मुंशी जी ने एक क्षण के लिए इधर-उधर देखा, फिर निर्विकार स्वर में राय दी, 'मक्खियाँ बहुत हो गई हैं।'

सिद्धेश्वरी ने उत्सुकता प्रकट की, 'फूफा जी बीमार हैं, कोई समाचार नहीं आया।

मुंशी जी ने चने के दानों की ओर इस दिलचस्पी से दृष्टिपात किया, जैसे उनसे बातचीत करनेवाले हों। फिर सूचना दी, 'गंगाशरण बाबू की लड़की की शादी तय हो गई। लड़का एम.ए. पास है।'

सिद्धेश्वरी हठात चुप हो गई। मुंशी जी भी आगे कुछ नहीं बोले। उनका खाना समाप्त हो गया था और वे थाली में बचे-खुचे दानों को बंदर की तरह बीन रहे थे।

सिद्धेश्वरी ने पूछा, 'बड़का की कसम, एक रोटी देती हूँ। अभी बहुत-सी हैं।'

मुंशी जी ने पत्नी की ओर अपराधी के समान तथा रसोई की ओर कनखी से देखा, तत्पश्चात किसी छँटे उस्ताद की भाँति बोले, 'रोटी? रहने दो, पेट काफी भर चुका है। अन्न और नमकीन चीजों से तबीयत ऊब भी गई है। तुमने व्यर्थ में कसम धरा दी। खैर, कसम रखने के लिए ले रहा हूँ। गुड़ होगा क्या?'

सिद्धेश्वरी ने बताया कि हंडिया में थोडा सा गुड़ है।

मुंशी जी ने उत्साह के साथ कहा, 'तो थोडे गुड़ का ठंडा रस बनाओ, पीऊँगा। तुम्हारी कसम भी रह जाएगी, जायका भी बदल जाएगा, साथ-ही-साथ हाजमा भी दुरूस्त होगा। हाँ, रोटी खाते-खाते नाक में दम आ गया है।' यह कह कर वे ठहाका मार कर हँस पड़े।

मुंशी जी के निबटने के पश्चात सिद्धेश्वरी उनकी जूठी थाली ले कर चौके की जमीन पर बैठ गई। बटलोई की दाल को कटोरे में उड़ेल दिया, पर वह पूरा भरा नहीं। छिपुली में थोड़ी-सी चने की तरकारी बची थी, उसे पास खींच लिया। रोटियों की थाली को भी उसने पास खींच लिया। उसमें केवल एक रोटी बची थी। मोटी-भद्दी और जली उस रोटी को वह जूठी थाली में रखने जा रही थी कि अचानक उसका ध्यान ओसारे में सोए प्रमोद की ओर आकर्षित हो गया। उसने लड़के को कुछ देर तक एकटक देखा, फिर रोटी को दो बराबर टुकड़ों में विभाजित कर दिया। एक टुकड़े को तो अलग रख दिया और दूसरे टुकड़े को अपनी जूठी थाली में रख लिया। तदुपरांत एक लोटा पानी ले कर खाने बैठ गई। उसने पहला ग्रास मुँह में रखा और तब न मालूम कहाँ से उसकी आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे।

सारा घर मक्खियों से भनभन कर रहा था। आँगन की अलगनी पर एक गंदी साड़ी टँगी थी, जिसमें पैबंद लगे हुए थे। दोनों बड़े लड़कों का कहीं पता नहीं था। बाहर की कोठरी में मुंशी जी औंधे मुँह हो कर निश्चिंतता के साथ सो रहे थे, जेसे डेढ़ महीने पूर्व मकान-किराया-नियंत्रण विभाग की क्लर्की से उनकी छँटनी न हुई हो और शाम को उनको काम की तलाश में कहीं जाना न हो।
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शरणदाता/ अज्ञेय/ Sharandata (complete story written)

 शरणदाता-अज्ञेय

''यह कभी हो ही नहीं सकता, देविन्दरलाल जी!''

    रंफीकुद्दीन वकील की वाणी में आग्रह था, चेहरे पर आग्रह के साथ चिन्ता और व्यथा का भाव। उन्होंने फिर दुहराया, ''यह कभी नहीं हो सकता देविन्दरलाल जी!''

    देविन्दरलाल ने उनके इस आग्रह को जैसे कबूलते हुए, पर अपनी लाचारी जताते हुए कहा, ''सब लोग चले गये। आपसे मुझे कोई डर नहीं बल्कि आपका तो सहारा है, लेकिन आप जानते हैं, जब एक बार लोगों को डर जकड़ लेता है और भगदड़ पड़ जाती है, तब फिजा ही कुछ और हो जाती है। हर कोई हर किसी को शुबहे की नंजर से देखता है, और खामखाह दुश्मन हो जाता है। आप तो मुहल्ले के सरवरा हैं, पर बाहर से आने-जाने वालों का क्या ठिकाण है? आप तो देख ही रहे हैं, कैसी-कैसी वारदातें हो रही हैं...''

    रंफीकुद्दीन ने बात काटते हुए कहा, ''नहीं साहब, हमारी नाक कट जाएगी। कोई बात है भला कि आप घर-बार छोड़कर अपने ही शहर में पनाहगजीं हो जाएँ? हम तो आपको जाने न देंगे बल्कि जबरदस्ती रोक लेंगे। मैं तो इसे मेजारटी का फर्ज मानता हँ कि वह माइनारिटी की हिंफांजत करे और उन्हें घर छोड़-छोड़कर भागने न दे। हम पड़ोसी की हिंफांजत न कर सके तो मुल्क की हिंफांजत क्या खाक करेंगे! और मुझे पूरा यंकीन है कि बाहर की तो खैर बात ही क्या, पंजाब में ही कई हिन्दू भी, जहाँ उनकी बहुतायत है, ऐसा ही सोच और कर रहे होंगे। आप न जाइए, न जाइए। आपकी हिंफांजत की जिम्मेदारी मेरे सिर, बस?''

    देविन्दरलाल के पड़ोस के हिन्दू परिवार धीरे-धीरे एक-एक करके खिसक गये थे। होता यह कि दोपहर-शाम जब कभी साक्षात् होता, देविन्दरलाल पूछते, ''कहो लालाजी (या बाऊजी या पंडजी), क्या सलाह बणायी है आपने? और वे उत्तर देते, 'जी सलाह क्या बणणी है, यहीं रह रहे हैं, देखी जाएगी' पर शाम को या अगले दिन सवेरे देविन्दरलाल देखते कि वे चुपचाप जरूरी सामान लेकर कहीं खिसक गये हैं, कोई लाहौर से बाहर, कोई लाहौर में ही हिन्दुओं के मुहल्ले में। और अन्त में यह परिस्थिति आ गयी थी कि अब उनके दाहिनी ओर चार मकान खाली छोड़कर एक मुसलमान गूजर का अहाता पड़ता था जिसमें एक ओर गूजर की भैंसें और दूसरी ओर कई छोटे-मोटे मुसलमान कारीगर रहते थे, बायीं ओर भी देविन्दर और रंफीकुद्दीन के मकानों के बीच के मकान खाली थे और रंफीकुद्दीन के मकान के बाद मोजंग का अड्डा पड़ता था, जिसके बाद तो विशुद्ध मुसलमान बस्ती थी। देविन्दरलाल और रंफीकुद्दीन में पुरानी दोस्ती थी, और एक-एक आदमी के जाने पर उनमें चर्चा होती थी। अन्त में जब एक दिन देविन्दरलाल ने जताया कि वे भी चले जाने की बात पर विचार कर रहे हैं तब रंफीकुद्दीन को धक्का लगा और उन्होंने व्यथित स्वर में कहा, ''देविन्दरलाल जी, आप भी!''

    रंफीकुद्दीन का आश्वासन पाकर देविन्दरलाल रह गये। तब यह तय हुआ कि अगर खुदा न करे कोई खतरे की बात हुई ही, तो रंफीकुद्दीन उन्हें पहले खबर भी कर देंगे और हिंफाजत का इंतजाम भी कर देंगेचाहे जैसे हो। देविन्दरलाल की स्त्री तो कुछ दिन पहले ही जालन्धर मायके गयी हुई थी, उसे लिख दिया गया कि अभी न आये, वहीं रहे। रह गये देविन्दर और उनका पहाड़िया नौकर सन्तू।

    किन्तु यह व्यवस्था बहुत दिन नहीं चली। चौथे ही दिन सवेरे उठकर उन्होंने देखा, सन्तू भाग गया है। अपने हाथों चाय बनाकर उन्होंने पी, धोने को बर्तन उठा रहे थे कि रंफीकुद्दीन ने आकर खबर दी, सारे शहर में मारकाट हो रही है और थोड़ी देर में मोजंग में भी हत्यारों के गिरोह बँध-बँधकर निकलेंगे। कहीं जाने का समय नहीं है, देविन्दरलाल अपना जरूरी और कीमती सामान ले लें और उनके साथ उनके घर चले चलें। यह बला टल जाए तो फिर घर लौट आवेंगे...

    'कीमती' सामान कुछ था नहीं। गहना-छल्ला सब स्त्री के साथ जालन्धर चला गया था, रुपया थोड़ा-बहुत बैंक में था, और ज्यादा फैलाव कुछ उन्होंने किया नहीं था। यों गृहस्थ को अपनी गिरिस्ती की हर चींज कीमती मालूम होती है...देविन्दरलाल घंटे भर बाद ट्रंक-बिस्तर के साथ रंफीकुद्दीन के यहाँ जा पहुँचे।

    तीसरे पहर उन्होंने देखा, हुल्लड़ मोजंग में आ पहुँचा है। शाम होते-होते उनकी निर्निमेष आँखों के सामने ही उनके घर का ताला तोड़ा गया और जो कुछ था लुट गया। रात को जहाँ-तहाँ लपटें उठने लगीं और भादों की उमस धुआँ खाकर और भी गलघोंटू हो गयी...

    रंफीकुद्दीन भी आँखों में पराजय लिए चुपचाप देखते रहे। केवल एक बार उन्होंने कहा, ''यह दिन भी था देखने को और आंजादी के नाम पर! या अल्लाह!''

    लेकिन खुदा जिसे घर से निकालता है, उसे फिर गली में भी पनाह नहीं देता।

    देविन्दरलाल घर से बाहर तो निकल ही न सकते, रंफीकुद्दीन ही आते-लाते। काम करने का तो वातावरण ही नहीं था, वे घूम-घाम आते, बाजार कर आते, और शहर की खबर ले आते, देविन्दर को सुनाते और फिर दोनों बहुत देर तक देश के भविष्य पर आलोचना किया करते। देविन्दर ने पहले तो लक्ष्य नहीं किया, लेकिन बाद में पहचानने लगा कि रंफीकुद्दीन की बातों में कुछ चिन्ता का और कुछ एक और पीड़ा का भी स्वर है जिसे वह नाम नहीं दे सकताथकान? उदासी? विरक्ति? पराजय? न जाने...

    शहर तो वीरान हो गया था। जहाँ-तहाँ लाशें सड़ने लगीं, घर लुट चुके थे और अब जल रहे थे। शहर के एक नामी डाक्टर के पास कुछ प्रतिष्ठित लोग गये थे यह प्रार्थना लेकर कि वे मुहल्लों में जावें, उनकी सब लोग इंज्जत करते हैं, इसलिए उनके समझाने का असर होगा और मरीज भी वे देख सकेंगे। वे दो मुसलमान नेताओं के साथ निकले। दो-तीन मुहल्ले घूमकर मुसलमानों की बस्ती में एक मरीज को देखने के लिए स्टेथेस्कोप निकालकर मरीज पर झुके ही थे कि मरीज के ही एक रिश्तेदार ने पीठ में छुरा भोंक दिया...

    हिन्दू मुहल्ले में रेलवे के एक कर्मचारी ने बहुत-से निराश्रितों को अपने घर में जगह दी थी जिनके घर-बार सब लुट चुके थे। पुलिस को उसने खबर दी थी कि ये निराश्रित उसके घर टिके हैं, हो सके तो उनके घरों और माल की हिंफांजत की जाएे। पुलिस ने आकर शरणागतों के साथ उसे और उसके घर की स्त्रियों को गिरंफ्तार कर लिया और ले गयी! पीछे घर पर हमला हुआ, लूट हुई और घर में आग लगा दी गयी। तीन दिन बाद उसे और उसके परिवार को थाने से छोड़ा गया और हिफाजत के लिए हथियारबन्द पुलिस के दो सिपाही साथ किये गये। थाने से पचास कदम के फासले पर पुलिसवालों ने अचानक बन्दूक उठाकर उस पर और उसके परिवार पर गोली चलायी। वह और तीन स्त्रियाँ मारी गयीं। उसकी माँ और स्त्री घायल होकर गिर गयीं और सड़क पर पड़ी रहीं...

    विषाक्त वातावरण, द्वेष और घृणा की चाबुक से तड़फड़ाते हुए हिंसा के घोड़े, विष फैलाने को सम्प्रदायों के अपने संगठन, और उसे भड़काने को पुलिस और नौकरशाही ! देविन्दरलाल को अचानक लगता कि वह और रंफीकुद्दीन ही गलत हैं जो कि बैठे हुए हैं, जबकि सब कुछ भड़क रहा है, उफन रहा है, झुलस और जल रहा है...और वे लक्ष्य करते कि वह अस्पष्ट स्वर जो वे रंफीकुद्दीन की बातों में पाते थे, धीरे-धीरे कुछ स्पष्ट होता जाता हैएक लज्जित-सी रुखाई का स्वर...

    हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की अनुमानित सीमा के पास के एक गाँव में कई सौ मुसलमानों ने सिक्खों के गाँव में शरण पायी। अन्त में जब आसपास के गाँव के और अमृतसर शहर के लोगों के दबाव ने उस गाँव में उनके लिए फिर आसन्न संकट की स्थिति पैदा कर दी, तब गाँव के लोगों ने अपने मेहमानों को अमृतसर स्टेशन पहुँचाने का निश्चय किया जहाँ से वे सुरक्षित मुसलमान इलाके में जा सकें, और दो-ढाई सौ आदमी किरपानें निकालकर उन्हें घेरे में लेकर स्टेशन पहुँचा आये .किसी को कोई क्षति नहीं पहुँची...

    घटना सुनाकर रंफीकुद्दीन ने कहा, ''आखिर तो लाचारी होती है। अकेले इनसान को झुकना ही पड़ता है। वहाँ तो पूरा गाँव था, फिर भी उन्हें हारना पड़ा। लेकिन आखिर तक उन्होंने निबाहा, इसकी दाद देनी चाहिए। उन्हें पहुँचा आये...''

    देविन्दरलाल ने हामी भरी। लेकिन सहसा पहला वाक्य उनके स्मृतिपटल पर उभर आया, ''आखिर तो लाचारी होती है अकेले इनसान को झुकना ही पड़ता है!''

    उन्होंने एक तीखी नंजर से रंफीकुद्दीन की ओर देखा, पर वे कुछ बोले नहीं।

    अपराह्न में छ:-सात आदमी रंफीकुद्दीन से मिलने आये। रंफीकुद्दीन ने उन्हें अपने बैठक में ले जाकर दरवांजे बन्द कर लिये। डेढ़-दो घंटे तक बातें हुईं। सारी बात प्राय: धीरे-धीरे ही हुई, बीच-बीच में कोई स्वर ऊँचा उठ जाता और एक-आध शब्द देविन्दरलाल के कान में पड़ जाता'बेवकूंफी', 'गद्दारी', 'इस्लाम',...वाक्यों को पूरा करने की कोशिश उन्होंने आयासपूर्वक नहीं की। दो घंटे बाद जब उनको विदा करके रंफीकुद्दीन बैठक से निकलकर आये, तब भी उनसे लपककर पूछने की स्वाभाविक प्रेरणा को उन्होंने दबाया। पर जब रंफीकुद्दीन उनकी ओर खिंचा हुआ चेहरा झुकाये, उनकी बगल से निकलकर बिना एक शब्द कहे भीतर जाने लगे तब उनसे न रहा गया और उन्होंने आग्रह के स्वर में पूछा, ''क्या बात है रंफीक साहब, खैर तो है?''

    रंफीकुद्दीन ने मुँह उठाकर एक बार उनकी ओर देखा, बोले नहीं। फिर आँखें झुका लीं।

    अब देविन्दरलाल ने कहा, ''मैं समझता हँ। मेरी वजह से आपको जलील होना पड़ रहा है और खतरा उठाना पड़ रहा है सो अलग। लेकिन आप मुझे जाने दीजिए। मेरे लिए आप जोंखिम में न पड़ें। आपने जो कुछ किया है उसके लिए मैं बहुत शुक्रगुंजार हँ। आपका एहसान...''

    रंफीकुद्दीन ने दोनों हाथ देविन्दरलाल के कन्धों पर रख दिये। कहा, ''देविन्दरलाल जी!'' उनकी साँस तेंज चलने लगी। फिर वह सहसा भीतर चले गये।

    लेकिन खाने के वक्त देविन्दरलाल ने फिर सवाल उठाया। बोले, ''आप खुशी से न जाने देंगे तो मैं चुपचाप खिसक जाऊँगा। आप सच-सच बतलाइए आपसे उन्होंने क्या कहा?''

    ''धमकियाँ देते रहे और क्या?''

    ''फिर भी, क्या धमकी आंखिर...''

    ''धमकी को भी 'क्या' होती है क्या? उन्हें शिकार चाहिए...हल्ला करके न मिलेगा तो आग लगाकर लेंगे।''

    ''ऐसा ! तभी तो मैं कहता हँ, मैं चला। मैं इस वक्त अकेला आदमी हँ, कहीं निकल ही जाऊँगा। आप घर-बार वाले आदमी ये लोग तो सब तबाह कर डालने पर तुले हैं।''

    ''गुंडे हैं बिलकुल!''

    ''मैं आज ही चला जाऊँगा...''

    ''यह कैसे हो सकता है? आखिर आपको चले जाने से हमीं ने रोका था, हमारी भी तो कुछ जिम्मेदारी है...''

    ''आपने भला चाहकर ही रोका था उससे आगे कोई जिम्मेदारी नहीं है...''

    ''आप जाएँगे कहाँ...''

    ''देखा जाएगा...''

    ''नहीं, यह नामुमकिन बात है।''

    किन्तु बहस के बाद तय हुआ यही कि देविन्दरलाल वहाँ से टल जाएँगे। रंफीकुद्दीन और कहीं पड़ोस में उनके एक और मुसलमान दोस्त के यहाँ छिपकर रहने का प्रबन्ध कर देंगेवहाँ तकलीफ तो होगी पर खतरा नहीं होगा क्योंकि देविन्दरलाल घर में नहीं रहेंगे। वहाँ पर रहकर जान की हिफाजत तो रहेगी, तब तक कुछ और उपाय सोचा जाएगा निकलने का...

    देविन्दरलाल शेख अताउल्लाह के अहाते के अन्दर पिछली तरफ पेड़ों के झुरमुट की आड़ में बनी हुई एक गैराज में पहुँच गये। ठीक गैराज में तो नहीं, गैराज की बगल में एक कोठरी थी जिसके सामने दीवारों से घिरा हुआ एक छोटा-सा आँगन था। पहले शायद यह ड्राइवर के रहने के काम आती हो। कोठरी में ठीक सामने और गैराज की तरफ के किवाड़ों को छोड़कर खिड़की वगैरह नहीं थी। एक तरफ एक खाट पड़ी थी, आले में एक लोटा। फर्श कच्चा, मगर लिपा हुआ। गैराज के बाहर लोहे की चादर का मजबूत फाटक था, जिसमें ताला पड़ा था। फाटक के अन्दर ही कच्चे फर्श में एक गढ़ा-सा खुदा हुआ था जिसकी एक ओर चूना मिली मिट्टी का ढेर और एक मिट्टी का लोटा देखकर गढ़े का उपयोग समझते देर न लगी।

    देविन्दरलाल का ट्रंक और बिस्तर जब कोठरी के कोने में रख दिया गया और बाहर आँगन का फाटक बन्द करके उसमें भी ताला लगा दिया गया, तब थोड़ी देर वे हतबुद्धि खड़े रहे। यह है आंजादी! पहले विदेशी सरकार लोगों को कैद करती थी कि वे आजादी के लिए लड़ना चाहते थे, अब अपने ही भाई अपनों को तहनाई कैद दे रहे हैं क्योंकि वे आंजादी के लिए ही लड़ाई रोकना चाहते हैं! फिर मानव प्राणी का स्वाभाविक वस्तुवाद जागा और उन्होंने गैराज-कोठरी-आँगन का निरीक्षण इस दृष्टि से आरम्भ किया कि क्या-क्या सुविधाएँ वे अपने लिए कर सकते हैं।

    गैराज ठीक है, थोड़ी-सी दुर्गन्ध होगी, ज्यादा नहीं, बीच का किवाड़ बन्द रखने से कोठरी में नहीं आएगी। नहाने का कोई सवाल ही नहींपानी शायद मुँह-हाथ धोने को काफी हो जाएा करेगा...

    कोठरी...ठीक है। रोशनी नहीं है, पढ़ने-लिखने का सवाल नहीं उठता। पर कामचलाऊ रोशनी आँगन से प्रतिबिम्बित होकर आ जाती है क्योंकि आँगन की एक ओर सामने के मकान की कोने वाली बत्ती से रोशनी पड़ती है। बल्कि आँगन में इस जगह खड़े होकर शायद कुछ पढ़ा भी जा सके। लेकिन पढ़ने को है ही कुछ नहीं, यह तो ध्यान ही न रहा था।

    देविन्दरलाल फिर ठिठक गये। सरकारी कैद में तो गा-चिल्ला भी सकते हैं, यहाँ तो चुप रहना होगा!

    उन्हें याद आया, उन्होंने पढ़ा है, जेल में लोग चिड़िया, कबूतर, गिलहरी, बिल्ली आदि से दोस्ती करके अकेलापन दूर करते हैं, यह भी न हो तो कोठरी में मकड़ी-चींटा आदि का अध्ययन करके...उन्होंने एक बार चारों ओर नंजर दौड़ाई। मच्छरों से भी बन्धुभाव हो सकता है, यह उनका मन किसी तरह नहीं स्वीकार कर पाया।

    वे आँगन में खड़े होकर आकाश देखने लगे। आंजाद देश का आकाश! और नीचे से, अभ्यर्थना में जलते हुए घरों का धुआँ! धूपेन धापयाम:। लाल चन्दन रक्त चन्दन...

    अचानक उन्होंने आँगन की दीवार पर एक छाया देखी एक बिलार! उन्होंने बुलाया, 'आओ, आओ' पर वह वहीं बैठा स्थिर दृष्टि से ताकता रहा।

    जहाँ बिलार आता है, वहाँ अकेलापन नहीं है। देविन्दरलाल ने कोठरी में जाकर बिस्तरा बिछाया और थोड़ी देर में निर्द्वन्द्व भाव से सो गये।

    दिन छिपे के वक्त केवल एक बार खाना आता था। यों वह दो वक्त के लिए काफी होता था। उसी समय कोठरी और गैराज के लोटे भर दिए जाते थे। लाता था एक जवान लड़का, जो स्पष्ट ही नौकर नहीं था, देविन्दरलाल ने अनुमान किया कि शेख साहब का लड़का होगा। वह बोलता बिलकुल नहीं था। देविन्दरलाल ने पहले दिन पूछा था कि शहर का क्या हाल है तो उसने एक अजनबी दृष्टि से उन्हें देख लिया था। फिर पूछा कि अभी अमन हुआ है या नहीं? तो उसने नकारात्मक सिर हिला दिया था। और सब खैरियत? तो फिर हिलाया थाहाँ।

    देविन्दरलाल चाहते तो खाना दूसरे वक्त के लिए रख सकते थे, पर एक बार आता है तो एक बार ही खा लेना चाहिए, यह सोचकर वे डटकर खा लेते थे और बाकी बिलार को दे देते थे। बिलार खूब हिल गया था, आकर गोद में बैठ जाता और खाता रहता, फिर हड्डी-वड्डी लेकर आँगन के कोने में बैठकर चबाता रहता या ऊब जाता तो देविन्दरलाल के पास आकर घुरघराने लगता।

    इस तरह शाम कट जाती थी, रात घनी हो आती थी। तब वे सो जाते थे। सुबह उठकर आँगन में कुछ वरजिश कर लेते थे कि शरीर ठीक रहे, बाकी दिन कोठरी में बैठे कभी कंकड़ों से खेलते, कभी आँगन की दीवार पर बैठने वाली गौरैया देखते, कभी दूर से कबूतर की गुटर-गूँ सुनते और कभी सामने के कोने से शेखजी के घर के लोगों की बातचीत भी सुन पड़ती। अलग-अलग आवांजें वे पहचानने लगे थे, और तीन-चार दिन में ही वे घर के भीतर के जीवन और व्यिक्तयों से परिचित हो गये थे। एक भारी-सी जनानी आवांज थीशेख साहब की बीवी की, एक और तीखी जनानी आवांज थी जिसके स्वर में वय का खुर-दरापन थाघर की कोई और बुजुर्ग स्त्री, एक विनीत युवा स्वर था जो प्राय: पहली आवांज की 'जैबू! नी जैबू!' पुकार के उत्तर में बोलता था और इसलिए शेख साहब की लड़की जेबुन्निसा का स्वर था। दो मर्दानी आवांजें भी सुन पड़ती थींएक तो आबिद मियाँ की, जो शेख साहब का लड़का हुआ, और जो इसलिए वही लड़का है जो खाना लेकर आता है, और एक बड़ी भारी और चरबी से चिकनी आवांज जो शेख साहब की आवांज है। इस आवांज को देविन्दरलाल सुन तो सकते लेकिन इसकी बात के शब्दाकार कभी पहचान में न आते दूर से तीखी आवांजों के बोल ही स्पष्ट समझ आते हैं।

    जैबू की आवांज से देविन्दरलाल का लगाव था। घर की युवती लड़की की आवांज थी, इस स्वाभाविक आकर्षण से ही नहीं, वह विनीत थी, इसलिए। मन-ही-मन वे जेबुन्निसा के बारे में अपने ऊहापोह को रोमानी खिलवाड़ कहकर अपने को थोड़ा झिड़क भी लेते थे, पर अकसर वे यह भी सोचते थे कि क्या यह आवांज भी लोगों में फिरकापरस्ती का जहर भरती होगी? सकती होगी? शेख साहब पुलिस के किसी दफ्तर मे शायद हेड क्लर्क हैं। देविन्दरलाल को यहाँ लाते समय रंफीकुद्दीन ने यही कहा था कि पुलिसियों का घर तो सुरक्षित होता है, वह बात ठीक भी है, लेकिन सुरक्षित होता है इसलिए शायद बहुत-से उपद्रवों की जड़ भी होता है। ऐसे घर में सभी लोग जहर फैलाने वाले हों तो अचम्भा क्या...

    लेकिन खाते वक्त भी वे सोचते, खाने में कौन-सी चींज किस हाथ की बनी होगी! परोसा किसने होगा ! सुनी बातों से वे जानते थे कि पकाने में बड़ा हिस्सा तो उस तीखी खुरदरी आवांज वाली स्त्री का रहता था, पर परोसना शायद जेबुन्निसा के ही जिम्मे था। और यही सब सोचते-सोचते देविन्दरलाल खाना खाते और कुछ ज्यादा ही खा लेते थे...

    खाने में बड़ी-बड़ी मुसलमानी रोटियों के बजाय छोटे-छोटे हिन्दू फुलके देखकर देविन्दरलाल के जीवन की एकरसता में थोड़ा-सा परिवर्तन आया। मांस तो था, लेकिन आज रबड़ी भी थी जबकि पीछे मीठे के नाम एक-आध बार शाह टुकड़ा और एक बार फिरनी आयी थी। आबिद जब खाना रखकर चला गया, तब देविन्दरलाल क्षण-भर उसे देखते रहे। उनकी उँगलियाँ फुलकों से खेलने-सी लगीं उन्होंने एकाध को उठाकर फिर रख दिया, पल-भर के लिए अपने घर का दृश्य उनकी आँखों के आगे दौड़ गया। उन्होंने फिर दो-एक फुलके उठाये और फिर रख दिये।

    हठात् वे चौंके।

    तीन-एक फुलकों की तह के बीच में कागज की एक पुड़िया-सी पड़ी थी।

    देविन्दरलाल ने पुड़िया खोली।

    पुड़िया में कुछ नहीं था।

    देविन्दरलाल उसे फिर गोल करके फेंक देनेवाले ही थे कि हाथ ठिठक गया। उन्होंने कोठरी से आँगन में जाकर कोने में पंजों पर खड़े होकर बाहर की रोशनी में पुर्जा देखा, उस पर कुछ लिखा था। केवल एक सतर :

    ''खाना कुत्तों को खिलाकर खाइएगा।''

    देविन्दरलाल ने कागज की चिन्दियाँ की। चिन्दियों को मसला। कोठरी से गैराज में जाकर उसे गङ्ढे में डाल दिया। फिर आँगन में लौट आये और टहलने लगे।''

    मस्तिष्क ने कुछ नहीं कहा। सन्न रहा। केवल एक नाम उसके भीतर खोया-सा चक्कर काटता रहा, जैबू...जैबू...जैबू...

    थोड़ी देर बाद वह फिर खाने के पास जाकर खड़े हो गये।

    यह उनका खाना है ,देविन्दरलाल का। मित्र के नहीं, तो मित्र के मित्र के यहाँ से आया है और उनके मेजबान के, उनके आश्रयदाता के।

    जैबू के।

    जैबू के पिता के।

    कुत्ता यहाँ-कहाँ है?

    देविन्दरलाल टहलने लगे।

    आँगन की दीवार पर छाया सरकी। बिलार बैठा था।

    देविन्दरलाल ने बुलाया। वह लपककर कन्धे पर आ रहा। देविन्दरलाल ने उसे गोद में लिया और पीठ सहलाने लगे। वह घुरघुराने लगा। देविन्दरलाल कोठरी में गये। थोड़ी देर बिलार को पुकारते रहे, फिर धीरे-धीरे बोले, ''देखो बेटा, तुम मेरे मेहमान, मैं शेख साहब का, है न? वे मेरे साथ जो करना चाहते हैं, वही मैं तुम्हारे साथ करना चाहता हँ। चाहता नहीं हँ, पर करने जा रहा हँ। वे भी चाहते हैं कि नहीं, पता नहीं, यही तो जानना है। इसीलिए तो मैं तुम्हारे साथ वह करना चाहता हँ जो मेरे साथ वे पता नहीं चाहते हैं कि नहीं...नहीं, सब बात गड़बड़ हो गयी। अच्छा, रोज मेरी जूठन तुम खाते हो, आज तुम्हारी मैं खाऊँगा। हाँ, यही ठीक है। लो खाओ...''

    बिलार ने मांस खाया। हड्डी झपटना चाहता था, पर देविन्दरलाल ने उसे गोदी में लिये-लिये ही रबड़ी खिलायी वह सब चाट गया। देविन्दरलाल उसे गोदी में लिये सहलाते रहे।

    जानवरों में तो सहज ज्ञान होता है खाद्य-अखाद्य का, नहीं तो वे बचते कैसे? सब जानवरों में होता है, और बिल्ली तो जानवरों में शायद सबसे अधिक ज्ञान के सहारे जीने वाली है, तभी तो कुत्तों की तरह पलती नहीं...बिल्ली जो खा ले वह सर्वथा खाद्य है यों बिल्ली सड़ी मछली खा ले जिसे इनसान न खाये वह और बात है...

    सहसा बिलार जोर से गुस्से से चीखा और उछलकर गोद से बाहर जा कूदा, चीखता-गुर्राता-सा कूदकर दीवार पर चढ़ा और गैराज की छत पर जा पहुँचा। वहाँ से थोड़ी देर तक उनके कानों में अपने-आपसे ही लड़ने की आवांज आती रही। फिर धीरे-धीरे गुस्से का स्वर दर्द के स्वर में परिणत हुआ, फिर एक करुण रिरियाहट में, एक दुर्बल चीख में, एक बुझती हुई-सी कराह में, फिर एक सहसा चुप हो जानेवाली लम्बी साँस में...

    मर गया...

    देविन्दरलाल फिर खाने को देखने लगे। वह कुछ साफ-साफ दीखता हो सो नहीं, पर देविन्दरलाल जी की आँखें निस्पन्द उसे देखती रहीं।

    आजादी। भाईचारा। देशराष्ट्र...

    एक ने कहा कि हम जोर करके देखेंगे और रक्षा करेंगे, पर घर से निकाल दिया। दूसरे ने आश्रय दिया, और विष दिया।

    और साथ में चेतावनी, कि विष दिया जा रहा है।

    देविन्दरलाल का मन ग्लानि से उमड़ आया। इस धक्के को राजनीति की भुरभुरी रेत की दीवार के सहारे नहीं, दर्शन के सहारे ही झेला जा सकता था।

    उन्होंने खाना उठाकर बाहर आँगन में रख दिया। दो घूँट पानी पिया। फिर टहलने लगे।

    तनिक देर बाद उन्होंने आकर ट्रंक खोला। एक बार सरसरी दृष्टि से सब चीजों को देखा, फिर ऊपर के खाने में से दो-एक कांगंज, दो-एक फोटो, एक सेविंग बैंक की पासबुक और एक बड़ा-सा लिंफांफा निकालकर, एक काले शेरवानी-नुमा कोट की जेब में रखकर कोट पहन लिया। आँगन में आकर एक क्षणभर कान लगाकर सुना।

    फिर वे आँगन की दीवार पर चढ़कर बाहर फाँद गये और बाहर सड़क पर निकल आये. वे स्वयं नहीं जान सके कि कैसे।

    इसके बाद की घटना, घटना नहीं है। घटनाएँ सब अधूरी होती हैं। पूरी तो कहानी होती है। कहानी की संगति मानवीय तर्क या विवेक या कला या सौन्दर्य-बोध की बनायी हुई संगति है, इसलिए मानव को दीख जाती है और वह पूर्णता का आनन्द पा लेता है। घटना की संगति मानव पर किसी शिक्त की कह लीजिए काल या प्रकृति या संयोग या दैव या भगवान की बनायी हुई संगति है। इसलिए मानव को सहसा नहीं भी दीखती। इसलिए इसके बाद जो कुछ हुआ और जैसे हुआ वह बताना जरूरी नहीं। इतना बताने से काम चल जाएगा कि डेढ़ महीने बाद अपने घर का पता लेने के लिए देविन्दरलाल अपना पता देकर दिल्ली रेडियो से अपील करवा रहे थे तब एक दिन उन्हें लाहौर की मुहरवाली एक छोटी-सी चिट्ठी मिली थी :

    ''आप बचकर चले गये, इसके लिए खुदा का लाख-लाख शुक्र है। मैं मनाती हँ कि रेडियो पर जिनके नाम आपने अपील की है, वे सब सलामती से आपके पास पहुँच जाएँ। अब्बा ने जो किया या करना चाहा उसके लिए मैं माफी माँगती हँ और यह भी याद दिलाती हँ कि उसकी काट मैंने ही कर दी थी। अहसान नहीं जताती . मेरा कोई अहसान आप पर नहीं है सिर्फ यह इल्तजा करती हँ कि आपके मुल्क में अकलीयत का कोई मजलूम हो तो याद कर लीजिएगा। इसलिए नहीं कि वह मुसलमान है, इसलिए कि आप इनसान हैं। खुदा हाफिंज।''

    देविन्दरलाल की स्मृति में शेख अताउल्लाह की चरबी से चिकनी भारी आवांज गूँज गयी, 'जैबू ! जैबू !' और फिर गैराज की छत पर छटपटा कर धीरे-धीरे शान्त होने वाले बिलार की वह दर्द-भरी कराह, जो केवल एक लम्बी साँस बनकर चुप हो गयी थी।

    उन्होंने चिट्ठी की छोटी-सी गोली बनाकर चुटकी से उड़ा दी।
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Part 1:https://youtu.be/ygKdF8hpHkI Part 2:https://youtu.be/fNRLRzjanyA Part 3:https://youtu.be/gOunN6daNhs

Wednesday, April 22, 2020

Tuesday, April 21, 2020

हरिहर काका |Harihar Kaka|Class 10|Summary|imp Q-ans|Sanchayan|NCERT

============= प्रश्न - कथावाचक और हरिहर काका के बीच क्या संबंध है और इसके क्या कारण हैं? कथावाचक जब छोटा था तब से ही हरिहर काका उसे बहुत प्यार करते थे। जब वह बड़े हो गए तो वह हरिहर काका के मित्र बन गए। गाँव में इतनी गहरी दोस्ती और किसी से नहीं हुई। हरिहर काका उनसे खुल कर बातें करते थे। यही कारण है कि कथावाचक को उनके एक-एक पल की खबर थी। शायद अपना मित्र बनाने के लिए काका ने स्वयं ही उसे प्यार से बड़ा किया और इतंजार किया। ==================== प्रश्न - हरिहर काका को मंहत और भाई एक ही श्रेणी के क्यों लगने लगे? हरिहर काका को अपने भाइयों और महंत में कोई अतंर नहीं लगा। दोनों एक ही श्रेणी के लगे। उनके भाइयों की पत्नियों ने कुछ दिन तक तो हरिहर काका का ध्यान रखा फिर बची खुची रोटियाँ दी, नाश्ता नहीं देते थे। बीमारी में कोई पूछने वाला भी न था। जितना भी उन्हें रखा जा रहा था, उनकी ज़मीन के लिए था। इसी तरह मंहत ने एक दिन तो बड़े प्यार से खातिर की फिर ज़मीन अपने ठाकुर बाड़ी के नाम करने के लिए कहने लगे। काका के मना करने पर उन्हें अनेकों यातनाएँ दी। अपहरण करवाया, मुँह में कपड़ा ठूँस कर एक कोठरी में बंद कर दिया, जबरदस्ती अँगूठे का निशान लिया गया तथा उन्हें मारा पीटा गया। इस तरह दोनों ही केवल ज़मीन जायदाद के लिए हरिहर काका से व्यवहार रखते थे। अत: उन्हें दोनों एक ही श्रेणी के लगे। ================ प्रश्न - ठाकुर बाड़ी के प्रति गाँव वालों के मन में अपार श्रद्धा के जो भाव हैं उससे उनकी किस मनोवृत्ति का पता चलता है? कहा जाता है गाँव के लोग भोले होते हैं। असल में गाँव के लोग अंध विश्वासी धर्मभीरु होते हैं। मंदिर जैसे स्थान को पवित्र, निष्कलंक, ज्ञान का प्रतीक मानते हैं। पुजारी, पुरोहित मंहत जैसे जितने भी धर्म के ठेकेदार हैं उन पर अगाध श्रद्धा रखते हैं। वे चाहे कितने भी पतित, स्वार्थी और नीच हों पर उनका विरोध करते वे डरते हैं। इसी कारण ठाकुरबाड़ी के प्रति गाँव वालों की अपार श्रद्धा थी। उनका हर सुख-दुख उससे जुड़ा था। ================ प्रश्न - अनपढ़ होते हुए भी हरिहर काका दुनिया की बेहतर समझ रखते हैं। कहानी के आधार पर स्पष्ट कीजिए। हरिहर काका अनपढ़ थे फिर भी उन्हें दुनियादारी की बेहद समझ थी। उनके भाई लोग उनसे ज़बरदस्ती ज़मीन अपने नाम कराने के लिए डराते थे तो उन्हें गाँव में दिखावा करके ज़मीन हथियाने वालो की याद आती है। काका ने उन्हें दुखी होते देखा है। इसलिए उन्होंने ठान लिया था चाहे मंहत उकसाए चाहे भाई दिखावा करे वह ज़मीन किसी को भी नहीं देंगे। एक बार मंहत के उकसाने पर भाइयों के प्रति धोखा नहीं करना चाहते थे परन्तु जब भाइयों ने भी धोखा दिया तो उन्हें समझ में आ गया उनके प्रति उन्हें कोई प्यार नहीं है। जो प्यार दिखाते हैं वह केवल ज़ायदाद के लिए है। ======== प्रश्न - हरिहर काका को जबरन उठा ले जाने वाले कौन थे। उन्होंने उनके साथ कैसा व्यवहार किया? मंहत ने हरिहर काका को बहुत प्रलोभन दिए जिससे वह अपनी ज़मीन जायदाद ठाकुर बाड़ी के नाम कर दे परन्तु काका इस बात के लिए तैयार नहीं थे। वे सोच रहे थे कि क्या भगवान के लिए अपने भाइयों से धोखा करूँ? यह उन्हें सही भी नहीं लग रहा था। मंहत को यह बात पता लगी तो उसने छल और बल से रात के समय अकेले दालान में सोते हुए हरिहर काका को उठवा लिया। मंहत ने अपने चेले साधुसंतो के साथ मिलकर उनके हाथ पैर बांध दिए, मुहँ में कपड़ा ठूँस दिया और जबरदस्ती अँगूठे के निशान लिए, उन्हें एक कमरे में बंद कर दिया। जब पुलिस आई तो स्वयं गुप्त दरवाज़े से भाग गए। ============= प्रश्न - हरिहर काका के मामले में गाँव वालों की क्या राय थी और उसके क्या कारण थे? कहानी के आधार पर गाँव के लोगों को बिना बताए पता चल गया कि हरिहर काका को उनके भाई नहीं पूछते। इसलिए सुख आराम का प्रलोभन देकर मंहत उन्हें अपने साथ ले गया। भाई मन्नत करके काका को वापिस ले आते हैं। इस तरह गाँव के लोग दो पक्षों में बँट गए कुछ लोग मंहत की तरफ़ थे जो चाहते थे कि काका अपनी ज़मीन धर्म के नाम पर ठाकुर बाड़ी को दे दें ताकि उन्हें सुख आराम मिले, मृत्यु के बाद मोक्ष, यश मिले। मंहत ज्ञानी है वह सब कुछ जानता है। लेकिन दूसरे पक्ष के लोग कहते कि ज़मीन परिवार वालो को दी जाए। उनका कहना था इससे उनके परिवार का पेट भरेगा। मंदिर को ज़मीन देना अन्याय होगा। इस तरह दोनों पक्ष अपने-अपने हिसाब से सोच रहे थे परन्तु हरिहर काका के बारे में कोई नहीं सोच रहा था। इन बातों का एक कारण यह भी था कि काका विधुर थे और उनके कोई संतान भी नहीं थी। पंद्रह बीघे ज़मीन के लिए इनका लालच स्वाभाविक था। ============ प्रश्न - कहानी के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि लेखक ने यह क्यों कहा, "अज्ञान की स्थिति में ही मनुष्य मृत्यु से डरते हैं। ज्ञान होने के बाद तो आदमी आवश्यकता पड़ने पर मृत्यु को वरण करने के लिए तैयार हो जाता है।" जब काका को असलियत पता चली और उन्हें समझ में आ गया कि सब लोग उनकी ज़मीन जायदाद के पीछे हैं तो उन्हें वे सभी लोग याद आ गए जिन्होंने परिवार वालों के मोह माया में आकर अपनी ज़मीन उनके नाम कर दी और मृत्यु तक तिल-तिल करके मरते रहे, दाने-दाने को मोहताज़ हो गए। इसलिए उन्होंने सोचा कि इस तरह रहने से तो एक बार मरना अच्छा है। जीते जी ज़मीन किसी को भी नहीं देंगे। ये लोग मुझे एक बार में ही मार दे। अत: लेखक ने कहा कि अज्ञान की स्थिति में मनुष्य मृत्यु से डरता है परन्तु ज्ञान होने पर मृत्यु वरण को तैयार रहता है। ================= प्रश्न - समाज में रिश्तों की क्या अहमियत है? इस विषय पर अपने विचार प्रकट कीजिए। आज समाज में मानवीय मूल्य तथा पारिवारिक मूल्य धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। ज़्यादातर व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए रिश्ते निभाते हैं, अपनी आवश्यकताओं के हिसाब से मिलते हैं। अमीर रिश्तेदारों का सम्मान करते हैं, उनसे मिलने को आतुर रहते हैं जबकि गरीब रिश्तेदारों से कतराते हैं। केवल स्वार्थ सिद्धि की अहमियत रह गई है। आए दिन हम अखबारों में समाचार पढ़ते हैं कि ज़मीन जाय़दाद, पैसे जेवर के लिए लोग घिनौने से घिनौना कार्य कर जाते हैं (हत्या अपहरण आदि)। इसी प्रकार इस कहानी में भी पुलिस न पहुँचती तो परिवार वाले मंहत जी (काका की) हत्या ही कर देते। उन्हें यह अफसोस रहा कि वे काका को मार नहीं पाए। ==================== प्रश्न - यदि आपके आसपास हरिहर काका जैसी हालत में कोई हो तो आप उसकी किस प्रकार मदद करेंगे? यदि हमारे आसपास हरिहर काका जैसी हालत में कोई हो तो हम उसकी पूरी तरह मदद करने की कोशिश करेंगे। उनसे मिलकर उनके दुख का कारण पता करेंगे, उन्हें अहसास दिलाएँगे कि वे अकेले नहीं हैं। सबसे पहले तो यह विश्वास कराएँगे कि सभी व्यक्ति लालची नहीं होते हैं। इस तरह मौन रह कर दूसरों को मौका न दें बल्कि उल्लास से शेष जीवन बिताएँ। रिश्तेदारों से मिलकर उनके संबंध सुधारने का प्रयत्न करेंगे। ==================== हरिहर काका के गाँव में यदि मीडिया की पहुँच होती तो उनकी क्या स्थिति होती? अपने शब्दों में लिखिए। यदि काका के गाँव में मीडिया पहुँच जाती तो सबकी पोल खुल जाती, मंहत व भाइयों का पर्दाफाश हो जाता। अपहरण और जबरन अँगूठा लगवाने के अपराध में उन्हें जेल हो जाती। ===================

टोपी शुक्ला|Summary|Topi Shukla |Class 10 Hindi|Sanchayan NCERT

सपनों के से दिन -Summary-Sapno ke se din- Class 10 Hindi-Sparsh NCERT

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Girgit -गिरगिट - Explanation with Q Ans- Class 10 Hindi NCERT

Tatanra Vamiro Katha।तताँरा-वामीरो कथा ।Summary ।Class 10 Hindi

Bade bhai Sahab| Summary| Class 10| बड़े भाई साहब |Premchand/Sparsh NCERT


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बड़े भाई साहब_ [मुहावरे और लोकोक्तियाँ]

  1. अंधा- चोट निशान पड़ना - अचानक ही कोई वस्तु मिलना,     - बिना परिश्रम के ही सफलता मिल जान   
  2. अंधे के हाथ बटेर लगना - भाग्यवश अच्छी  वस्तु मिल जाना
  3. अमल करना - बताए अनुसार चलना
  4. आँखें फोड़ना - बहुत पढ़ना
  5. आँसू बहाना - रोना
  6. आंधी रोग हो जाना - कुछ नहीं समझ में आना
  7. आटे-दाल का भाव मालूम होना - सच्चाई का पता लगना
  8. आड़े हाथों लेना -  खरी-खोटी सुनना /डाँटना
  9. एक चुल्लू पानी - थोड़ी-सी भी सहायता देने
  10. ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा - महत्वहीन व्यक्ति
  11. खून जलाना - बहुत मेहनत करना
  12. गिरह बाँधना - अच्छी तरह समझना
  13. घाव पर नमक छिड़कना - दुःखी को और दुःखी करना
  14. घुड़कियाँ खाना - गुस्से से भरी बातें सुनना
  15. घोंघा होना - मूर्ख होना
  16. घोर तपस्या - कठिन परिश्रम
  17. चार पन्ने रँगना  - लिखना
  18. चोरों का-सा जीवन काटना - छुपकर रहना
  19. छोटा मुँह बड़ी बात - हैसियत से बढ़चढ़कर बोलना
  20. ज़हर लगना - बुरा लगना
  21. जान तोड़कर - शरीर को दुःख/कष्ट  देकर
  22. जिगर के टुकड़े-टुकड़े होना - बहुत दुःखी होना
  23. टूट पड़ना - चोट पहुँचाना
  24. तलवार खींच लेना-  आक्रमण के लिए तैयार होना
  25. तीर मार लेना  - लक्ष्य पाना
  26. दबे पाँव - चुपचाप /बिना आहट
  27. दाँतो पसीना आ जाना - मेहनत में कष्ट का अनुभव करना
  28. दिमाग  होना - अहंकार होना
  29. नाम-निशान तक मिटा देना - पूरी तरह समाप्त कर देना
  30. निराशा के बादल फट जाना  - निराशा का दुःख समाप्त होना
  31. पहाड़ होना -  कठिन- कार्य
  32. पापड़ बेलना - मुसीबतों का सामना करना
  33. प्राण सूखना - डर लगना /भयभीत होना
  34. बूते के बाहर होना - सामर्थ्य/ क्षमता  के बाहर होना
  35. बे-सिर-पैर की बातें – निरुपयोगी बातें
  36. मुँह चुराना - सामने न आना
  37. मुद्रा कांतिहीन होना - चेहरे की चमक चली जाना
  38. लोहे के चने चबाना - असंभव कार्य करना
  39. हँसी-खेल न होना  - आसान कार्य होना
  40. हिम्मत टूट जाना - निराश होना
  41. हेकड़ी जताना  - अभिमान/ गर्व करना
  42. सिर पर एक नंगी तलवार-सी लटकती मालूम होना -  भय बना रहना
  43. सिर फिरना   - बुद्धि काम न करना
  44. सूक्ति-बाण चलाना  - व्यंग्यपूर्ण /चुभती बातें कहना
  45. स्वच्छंद होना - मनमर्जी  करना, मनमानी करना
  46.  
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Diary ka ek panna l डायरी का एक पन्ना l Summary l Imp Q.ansl Class 10

Imandari Nibandh Explanation

Saturday, April 18, 2020

प्रविशेषण

प्रविशेषण

जो शब्द विशेषण का विशेषण बताते हैं उन्हें  ‘प्रविशेषण’ कहते है।




जैसे :-यह  बहुत सुन्दर लड़की है।
इस वाक्य में ‘बहुत’ प्रविशेषण है जो विशेषण ‘सुन्दर ’ की विशेषता बताता है।



रेखा बहुत चतुर  है |

इस वाक्य में “चतुर ” विशेषण की विशेषता “बहुत” से व्यक्त हुई है |
इस वाक्य में ‘बहुत’ प्रविशेषण है

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विशेषण - adjective


यह काला पक्षी कोयल है .... काला - विशेषण  पक्षी -संज्ञा

संज्ञा अथवा सर्वनाम की विशेषता बताने वाले शब्दों को विशेषण कहते हैं।
विशेष्य- वह संज्ञा या सर्वनाम जिसकी विशेषता विशेषण द्वारा बताई जाती है , वह विशेष्य कहलाता है । इसका उदाहरण वाक्य में प्रयुक्त कोई भी संज्ञा या सर्वनाम हो सकता है जिसकी विशेषता बताई जा रही हो ।

जैसे--
चालाक स्त्री , तीन नदियाँ , नई पुस्तक  इत्यादि।
इनमे चालाक , तीन और नई शब्द विशेषण है जो विशेष्य की विशेषता बतलाते हैं।

विशेषण 5 प्रकार के होते हैं।

1.गुणवाचक विशेषण
2.परिमाणवाचक विशेषण
3.संख्यावाचक विशेषण
4.सार्वनामिक विशेषण
5.व्यक्तिवाचक विशेषण
गुणवाचक विशेषण-

जिस विशेषण से किसी संज्ञा सर्वनाम का गुण प्रकट हो, उसे गुणवाचक विशेषण कहते है। इसके अंतर्गत :- गुण: अच्छा,चालक,बुद्धिमान आदि दोष:: बुरा,गंदा,दुष्ट आदि रंग: काला,लाल आदि आकार: लंबा,छोटा,गोल आदि अवस्था: बीमार,घायल आदि स्थान: पंजाबी,भारतीय,बंगाली आदि आते है।

परिमाणवाचक विशेषण-

जिससे किसी चीज की परिमाण का बोध होता है उसे परिमाणवाचक विशेषण कहते हैं। यथा----
थोड़ा खाना , बहुत धूप  इत्यादि।
यहां पर थोड़ा और बहुत यह दोनों विशेषण है। जो क्रमानुसार खाना  और धूप  के परिमाण को समझा रहा हैं।

संख्यावाचक विशेषण-

जिससे संख्या का बोध होता है उसे संख्यावाचक विशेषण कहते हैं। यथा----
एक लड़का , दो पशु , तीन नदियाँ  इत्यादि।
यहां पर एक, दो और तीन यह तीन विशेषण है। जिससे क्रमानुसार लड़के ,पशु और नदियों की संख्या का बोध हो रहा हैं।

सार्वनामिक विशेषण--

ऐसे सर्वनाम शब्द जो संज्ञा से पहले लगकर उस संज्ञा शब्द की विशेषण की तरह विशेषता बताते हैं, वे शब्द सार्वनामिक विशेषण कहलाते हैं।
यह शब्द संज्ञा के लिए विशेषण का काम करते हैं।
 जैसे: मेरी माँ  , कोई बच्चा  , किसी का घर  , वह  जानवर  , यह  गाड़ी , वह पुस्तक , वे लोग  आदि। सार्वनामिक विशेषण को संकेतवाचक विशेषण भी कहते हैं।

व्यक्तिवाचक विशेषण--

व्यक्तिवाचक संज्ञा शब्दों से बने विशेषण को व्यक्तिवाचक विशेषण कहते हैं। यथा- वह मीना  ही है, जो कल वहाँ खड़ी थी ।

रमेश बंगाली धोती  पहनता है।
इस वाक्य में बंगाल  व्यक्तिवाचक संज्ञा शब्द है जो बंगाली  में बदलकर व्यक्तिवाचक विशेषण हो गया है और जो धोती (जातिवाचक संज्ञा) की विशेषता बता  रहा है।
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Wednesday, April 15, 2020

Padmakar Kavitt Class 11 Hindi Antra NCERT Explanation by Alpana Verma



 
 
 
पहले कवित्त में कवि ने प्रकृति-सौंदर्य का वर्णन किया है। प्रकृति का संबंध विभिन्न ऋतुओं से है। वसंत ऋतुओं का राजा है। वसंत के आगमन पर प्रकृति, विहग और मनुष्यों की दुनिया में जो सौंदर्य संबंधी परिवर्तन आते हैं, कवि ने इसमें उसी को लक्षित किया है।
 दूसरे कवित्त में गोपियाँ लोक-निंदा और सखी-समाज की कोई परवाह किए बिना कृष्ण के प्रेम में डूबे रहना चाहती हैं। 
 अंतिम कवित्त में कवि ने वर्षा ऋतु के सौंदर्य को भौंरों के गुंजार, मोरों के शोर और सावन के झूलों में देखा है। मेघ के बरसने में कवि नेह को बरसते देखता है।
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Monday, April 13, 2020

English Class 10 Audio Lessons Playlist

Audi files includes chapters from the Book :
Footprints without Feet

    Chapter 1 A Triumph of Surgery
    Chapter 2 The Thief’s Story
    Chapter 3 The Midnight Visitor
    Chapter 4 A Question of Trust
    Chapter 5 Footprints without Feet
    Chapter 6 The Making of a Scientist
    Chapter 7 The Necklace
    Chapter 8 The Hack Driver
    Chapter 9 Bholi
    Chapter 10 The Book that Saved the Earth

A Triumph of Surgery /Chapter 1 (Audio book)James Herriot

सयानी बुआ /Sayani Bua/ Mannu Bhandari/HSC 12



सयानी बुआ एक चरित्र प्रधान कहानी है ।
कहानी के कथ्य का केन्द्रबिंदु सयानी बुआ का चरित्र है ।
* यह कहानी समय की पाबंद और अतिव्यवस्था. से बँधी सयानी बुआ की है । बचपन से ही बुआ अपना सामान संभाल रखने में पटु थी । उन्होंने. जो रबर चौथी कक्षा में खरीदी थी, उसे नवीं कक्षा में समाप्त किया ।

Sunday, April 12, 2020

गौरी / Gauri Kahani /Subhdra Kumari Chauhan

Gauri Subhadra Kumari Chauhan गौरी सुभद्रा कुमारी चौहान शाम को गोधूलि की बेला, कुली के सिर पर सामान रखवाये जब बाबू राधाकृष्ण अपने घर आये, तब उनके भारी-भारी पैरों की चाल, और चेहरे के भाव से ही कुंती ने जान लिया कि काम वहाँ भी नहीं बना। कुली के सिर पर से बिस्तर उतरवाकर बाबू राधाकृष्ण ने उसे कुछ पैसे दिए। कुली सलाम करके चला गया और वह पास ही पड़ी, एक आराम कुर्सी पर जिसके स्प्रिंग खुलकर कुछ ढीले होने के कारण इधर-उधर फैल गए थे, गिर से पड़े। उनके इस प्रकार बैठने से कुछ स्प्रिंग आपस में टकराए, जिससे एक प्रकार की झन-झन की आवाज़ हुई। पास ही बैठे कुत्ते ने कान उठाकर इधर-उधर देखा फिर भौं-भौं करके भौंक उठा। इसी समय उनकी पत्नी कुंती ने कमरे में प्रवेश किया।


 काम की सफलता या असफलता के बारे में कुछ भी न पूछकर कुंती ने नम्र स्वर में कहा, "चलो हाथ-मुंह धो लो, चाय तैयार है। 'चाय', राधाकृष्ण चौंक से पड़े, "चाय के लिए मैंने नहीं कहा था।" "नहीं कहा था तो क्या हुआ, पी लो।" कुंती ने आग्रहपूर्वक कहा। "अच्छा चलो", कहकर राधाकृष्ण कुंती के पीछे-पीछे चले गए। गौरी, अपराधिनी की भाँति, माता-पिता दोनों की दृष्टि से बचती हुई, पिता के लिए चाय तैयार कर रही थी। उसे ऐसा लग रहा था कि पिता की सारी कठिनाइयों की जड़ वही है। न वह होती और न पिता को उसके विवाह की चिन्ता में, इस प्रकार स्थान-स्थान घूमना पड़ता। वह मुँह खोलकर किस प्रकार कह दे कि उसके विवाह के लिए इतनी अधिक परेशानी उठाने की आवश्यकता नहीं। माता-पिता चाहे जिसके साथ उसकी शादी कर दें, वह सुखी रहेगी।

न करें तो भी वह सुखी है। जब विवाह के लिए उसे जरा भी चिन्ता नहीं, तब माता-पिता इतने परेशान क्यों रहते हैं–गौरी यही न समझ पाती थी। कभी-कभी वह सोचती–क्या मैं माता-पिता को इतनी भारी हो गयी हूँ? रात-दिन सिवा विवाह के उन्हें और कुछ सूझता नहीं। तब आत्मग्लानि और क्षोभ से गौरी का रोम-रोम व्यथित हो उठता। उसे ऐसा लगता कि धरती फटे और वह समा जाय, किन्तु ऐसा कभी न हुआ। गौरी, वह जो पूनो के चाँद की तरह बढ़ना भर जानती थी, घटने का जिसके पास कोई साधन न था, बाबू राधाकृष्ण के लिए चिंता की सामग्री हो गई थी। गौरी उनकी एकमात्र संतान थी। उसका विवाह वे योग्य वर के साथ करना चाहते थे, यही सबसे बड़ी कठिनाई थी। योग्य पात्र का मूल्य चुकाने लायक उनके पास यथेष्ट संपत्ति न थी। यही कारण था कि गौरी का यह उन्नीसवाँ साल चल रहा था। फिर भी वे कन्या के हाथ पीले न कर सके थे। गौरी ही उनकी अकेली संतान थी । छुटपन से ही उसका बड़ा लाड़-प्यार हुआ था । प्राय: उसके उचित-अनुचित सारे हठ पूरे हुआ करते थे । इसी कारण गौरी का स्वभाव निर्भीक, दृढ़-निश्चयी और हठीला था । वह एक बार जिस बात को सोच-समझकर कह दे, फिर उस बात से उसे कोई हटा नहीं सकता था । पिता की परेशानियों को देखते हुए अनेक बार उसके जी में आया कि यह पिता से साफ-साफ पूछे कि आखिर वे उसके विवाह के लिए इतने चिंतित क्यों हैं ? वह स्वयं तो विवाह को इतना आवश्यक नहीं समझती । और अगर पिता विवाह को इतना अधिक महत्त्व देते हैं, तो फिर पात्र और कुपात्र क्या ? विवाह करना है कर दें, किसी के भी साथ, वह हर हालत में सुखी और संतुष्ट रहेगी । उनकी यह परेशानी, इतनी चिंता अब उससे सही नहीं जाती ।


 किंतु संकोच और लज्जा उसकी जबान पर ताला-सा डाल देते । हजार बार निश्चय करके भी वह पिता से यह बात न कह सकी । पिता को आते देख, गौरी चुपके से दूसरे कमरे में चली गई । राधाकृष्ण बाबू ने जैसे बेमन से हाथ-मुँह धोया और पास ही रखी एक कुरसी पर बैठ गए । वहीं एक मेज पर कुन्ती ने चाय और कुछ नमकीन पूरियाँ पति के सामने रख दीं । पूरियों की तरफ राधाकृष्ण ने देखा भी नहीं । चाय का प्याला उठाकर पीने लगे । ऐसी कन्या को जन्म देकर, जिसके लिए वर ही न मिलता हो, कुन्ती स्वयं ही जैसे अपराधिन हो रही थी । कुन्ती ने डरते-डरते पूछा, जहाँ गए थे क्या वहाँ भी कुछ ठीक नहीं हुआ ? -ठीक ! ठीक होने को वहाँ धरा ही क्या है, चाय का घूँट गले से नीचे उतारते हुए बाबू राधाकृष्ण ने कहा, सब हमीं लोगों पर है । विवाह करना चाहें तो सब ठीक है, न करना चाहें तो कुछ भी ठीक नहीं है। कुन्ती ने उत्सुकता से पूछा, फिर क्या बात है, लड़के को देखा? -हाँ देखा, अच्छी तरह देखा हूँ ! कह राधाकृष्ण फिर चाय पीने लगे । कुन्ती की समझ में यह पहेली न आई, उसने कहा, 'जरा समझाकर कहो । तुम्हारी बात तो समझ में ही नहीं आती ।' राधाकृष्ण ने कहा, "समझाकर कहता हूँ, सुनो। वह लड़का, लड़का नहीं आदमी है। तुम्हारी गौरी के साथ मामूली चपरासी की तरह दिखेगा। बोलो करोगी ब्याह?'' कुंती बोली, ''विवाह की बात तो पीछे होगी। क्या रूप-रंग बहुत खराब है ? फोटो में तो वैसा नहीं जान पड़ता।" राधाकृष्ण ने कहा, "रूप-रंग नहीं, रहन-सहन बहुत खराब है । उम्र भी अधिक है, पैंतीस-छस्तीस साल । साथ ही दो बच्चे भी ।

उन्हीं बच्चों को सँभालने के लिए तो वह विवाह करना चाहते हैं, वरना वे शायद कभी न करते। उनकी यह दूसरी शादी होगी। उनकी उमंगें , उत्साह सब कुछ ठंडा पड़ चुका है। वे अपने बच्चों के लिए एक धाय चाहते हैं", मेरी लड़की की तो दूसरी शादी नहीं है। वे साफ़-साफ़ कहते हैं कि मैं बच्चों के लिए शादी कर रहा हूँ।" कुंती ने कहा, 'जिन्हें दूसरी शादी करनी होती है वे ऐसे ही कहते हैं।" राधाकृष्ण बोले, "अरे नहीं-नहीं यह आदमी कपटी नहीं है। उसके भीतर कुछ और बाहर कुछ नहीं हो सकता। उसका हदय तो दर्पण की तरह साफ़ है। उसका खादी कुरता, गांधी टोपी, फटे-फटे चप्पल देखकर जी हिचकता है। वह नेता बनकर व्याख्यान तो दे सकता है, पर दूल्हा बनकर आने लायक नहीं है। तीस रुपए कुल उनकी तनख्वाह है। कांग्रेस के दफ्तर में वे सेक्रेटरी हैं। तीन बार जेल जा चुके हैं, फिर कब चले जाएँ कुछ पता नहीं।' कुंती बोली, "आदमी तो बुरा नहीं जान पड़ता।' राधाकृष्ण ने कहा, "बुरा आदमी तो मैं भी नहीं कहता उसे, पर वह गौरी का पति होने लायक नहीं । सच बात यह है।" कुंती बोली, "फिर तुमने क्या कह दिया?" राधाकृष्ण ने कहा, "क्या कह देता? उन्हें बुला आया हूँ। अगले इतवार को आवेंगे। आने के लिए भी वे बडी मुश्किल सै तैयार हुए: कहने लगे, नहीं साहब ! मैं लड़की देखने न जाऊँगा। इस तरह लड़की देखकर मुझसे किसी लड़की का अपमान नहीं किया जाता। जब मैंने समझाकर कहा कि आप लड़की देखेंगे लड़की और उसकी माँ आपको देखेंगी, तब जाकर कहीं बड़ी मुश्किल से राजी हुए ।"


गौरी दरवाजे की आड़ में खड़ी सब बातें सुन रही थी है जिस व्यक्ति के प्रति उनके पिता इतने असंतुष्ट और उदासीन थे, उसके प्रति गौरी के हदय में अनजाने ही कुछ श्रद्धा के भाव जाग्रत हो गए । राधाकृष्ण बाबू पान का बीड़ा उठाकर अपनी बैठक में चले गए । और उसी रात फिर उन्होंने अपने कुछ मित्रों और रिश्तेदारों को गौरी के लिए योग्य वर तलाशने को कई पत्र लिखे । अगला इतवार आया । आज ही बाबू सीताराम जी, गौरी को देखने या अपने आपको दिखलाने आवेंगे । राधाकृष्ण जी ने यह पहले से ही कह दिया है कि किसी बाहर वाले को कुछ न मालूम पड़े कि कोई गौरी को देखने आया है । अतएव यह बात कुछ गुप्त रखी गई है । घर के भीतर आँगन में ही उनके बैठने का प्रबंध किया गया है । तीन-चार कुर्सियों के बीच एक मेज है, जिस पर एक साफ धुला हुआ खादी का कपड़ा बिछा दिया गया है । और एक गिलास में आंगन के ही गुलाब के कुछ फूलों को तोड़कर, गुलदस्ते का स्वरूप दिया गया है । बहुत ही साधारण-सा आयोजन है ।


सीताराम जी सरीखे व्यक्ति के लिए किसी विशेष आडंबर की आवश्यकता भी तो न थी । यथासमय बाबू सीताराम जी अपने दोनों बच्चों के साथ आए । बच्चे भी वही खादी के कुरते और हाफपैंट पहने थे । न जूता न मोजा, न किसी प्रकार का ठाटबाट । पर दोनों बड़े प्रसन्न, हँसमुख; आकर घर में वे इस प्रकार खेलने लगे जैसे इस घर से चिरपरिचित हों । कुंती एक तरफ बैठी थी । बच्चों के कोलाहल से परिपूर्ण घर उसे क्षण भर के लिए नंदनकानन-सा जान पड़ा । उसने मन-ही-मन सोचा, कितने अच्छे बच्चे हैं । यदि बिना किसी प्रकार का संबंध हुए भी, सीताराम इन बच्चों के संभालने का भार उसे सौंप दें, तो वह खुशी-खुशी ले ले । वह बच्चों के खेल में इतनी तन्मय हो गई कि क्षण भर के लिए भूल बैठी कि सीताराम भी बैठे हैं, और उनसे भी कुछ बातचीत करनी है । इसी समय अचानक छोटे बच्चे को जैसे कुछ याद आ गया हो, दौड़कर पिता के पास आया । उनके पैरों के बीच में खड़ा होकर बोला, बाबू, तुम तो कैते थे न कि माँ को दिखाने ले चलते हैं । माँ कआँ है, बतलाओ? बाबू ने किंचित् हँसकर कहा, ये माँ जी बैठी हैं, इनसे कहो, यही तुम्हें दिखाएँगी ।

 बालक ने मचलकर कहा, 'ऊँ हूँ तुम दिकाओ ।' और इसी समय एक बड़ी-सी सफेद बिल्ली आँगन से होती हुई भीतर को भाग गई । बच्चे बिल्ली के पीछे सब कुछ भूलकर, दौड़ते हुए अंदर पहुंच गए । गौरी पिछले दरवाजे पर चुपचाप खड़ी थी । वह न जाने किस खयाल में थी । छोटे बच्चे ने उसका आँचल पकड़कर खींचते हुए पूछा, तुम अमारी मां हो ? गौरी ने देखा हृष्ट-पुष्ट सुंदर-सा बालक, कितना भोला, कितना निश्चल । उसने बालक को गोद में उठाकर कहा, हां । बच्चे ने फिर उसी स्वर में पूछा, अमारे घर चलोगी न ? बाबू तो तुम्हें लेने आए हैं औल हम भी आए हैं। अब तो गौरी उसकी बातों का उत्तर न दे सकी । पूछा, मिठाई खाओगे ? कुछ क्षण बाद कुंती ने अंदर देखा, छोटा बच्चा गौरी की गोद में और बड़ा उसी के पास बैठा मिठाई खा रहा है । एक नि:श्वास के साथ कुंती बाहर चली गई और थोड़ी देर बाद ज्योंही गौरी ने ऊपर आँख उठाई, उसने माता-पिता दोनों को सामने खड़ा पाया । पिता ने स्नेह से पुत्री से कहा, बेटा जरा चलो, चलती हो न ? गौरी ने कोई उत्तर न दिया । उसने बच्चों का हाथ-मुँह धुलाया, उन्हें पानी पिलाया, फिर मां के पीछे-पीछे बाहर चली गई । बच्चे अब भी उसी को घेरे हुए थे । वे उसे छोड़ना नहीं चाहते थे । बही मुश्किल से सीताराम जी उन्हें बुलाकर कुछ देर तक अपने पास बिठा सके, किंतु जरा-सा मौका पाते ही वे फिर जाकर गौरी के आसपास बैठ गए ।

पिता के विरुद्ध उन्हें कुछ नालिशें भी दायर करनी थीं, जो पिता के पास बैठकर न कर सकते थे। छोटे ने कहा, बाबू हमें कबी खिलौने नहीं ले देते। बड़े ने कहा, मिठाई भी तो कभी नहीं खिलाते । छोटा बोला, और अमें छोड़कर दफ्तर जाते हैं, दिन भर नई आते, बाबू अच्छे नई हैं । बड़ा बोला, मां तुम चलो, नहीं तो हम भी यहीं रहेंगे । बच्चों की बातों से सभी को हंसी आ रही थी । कुन्ती ने बच्चों से कहा, तो तुम दोनों भाई यहीं रह जायो, बाबू को जाने दो, है न ठीक? काफी देर हो गई यह देखकर सीताराम जी ने कहा, समय बहुत हो चुका है, अब चलूँगा, नहीं तो शाम की ट्रेन न मिल सकेगी । फिर राधाकृष्ण की तरफ देखकर कहा, आप लोगों से मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई । लड़की तो आपकी साक्षात् लक्षमी है । और यह मैं जानता था कि आपकी लड़की ऐसी ही होगी, इसीलिए देखने को आना नहीं चाहता था । फिर कुछ ठहरकर बोले, और सच बात तो यह है कि मुझे पत्नी की उतनी जरूरत नहीं, जितनी इन बच्चों को जरुरत है एक मां की । मेरा क्या ठिकाना ? आज बाहर हूँ कल जेल में । मेरे बाद इनकी देख-रेख करने बाला कोई नहीं रहता । यही सोच-समझकर विवाह करने को तैयार हो सका हूँ, अन्यथा इस उमर में विवाह? कहकर वे स्वयं हँस पड़े । राधाकृष्ण ने मन-ही-मन सोचा, तो मेरी लड़की इनके बच्चों की धाय बनकर जाएगी ।

कुंती ने सोचा, कोई भी स्त्री ऐसे बच्चों का लालन-पालन कर अपना जीवन सार्थक बना सकती है! गौरी ने मन-ही-मन इस महापुरुष के चरणों में प्रणाम किया और बच्चों की और ममता-भरी दृष्टि से देखा । जैसे यह दृष्टि कह रही थी कि किसी विलासी युवक की पत्नी बनने से अधिक मैं इन भोले-भाले बच्चों की मां बनना पसंद करूँगी । सीताराम जी को जाने के लिए प्रस्तुत देख, बच्चे फिर गौरी से लिपट गए । झूठ ही सही, यदि राधाकृष्ण एक बार भी कहते कि बच्चों को छोड़ जाओ तो सीताराम बच्चों को छोड़कर निश्चिंत होकर चले जाते । परंतु इस ओर से जब ऐसी कोई बात न हुई तो बच्चों को सिनेमा, सरकस और मिठाई का प्रलोभन देकर बड़ी कठिनाई से गौरी से अलग करके वे ले जा सके ।

जाते समय सीताराम जी को पक्का विश्वास था कि विवाह होगा, केवल तारीख निश्चित करने भर की देर है । सीताराम जी उस पत्र की प्रतीक्षा में थे जिसमें विवाह की निश्चित तारीख लिखकर आने वाली थी । देश की परिस्थिति, गवर्नमेंट का रुख, और महात्माजी के वक्तव्यों को पढ़कर, वे जानते थे कि निकट भविष्य में फिर सत्याग्रह-संग्राम छिड़ने बाला है । न जाने किस दिन उन्हें फिर जेल का मेहमान बनना पड़े । पिछली बार जब गए थे तब उनकी बूढ़ी बुआ थीं, पर अब तो वे भी नहीं रहीं । यह कहारिन क्या बच्चों की देखभाल कर सकेंगी । बच्चों की उन्हें बड़ी चिंता थी । और बच्चे भी सदा ही मां-मां की रट लगाए रहते थे । उन्होंने फिर एक पत्र बाबू राधाकृष्ण को शीघ्र ही तारीख निश्चित काने के लिए लिख भेजा । उधर राधाकृष्ण जी दूसरी ही बात तय कर रहे थे । उन्होंने सीताराम के पत्र के उत्तर में लिख भेजा कि गौरी की मां पुराने खयाल की है । वे बिना जन्मपत्री मिलवाए विवाह नहीं करना चाहतीं । अतएव आप अपनी जन्मपत्री भेज दें । पत्र पढ़ने के साथ ही सीताराम को यह समझने में देर न लगी कि यह विवाह न करने का केवल बहाना मात्र है, किन्तु फिर भी उन्होंने जन्मपत्री भेज दी । जन्मपत्री भेजने के कुछ ही दिन बाद उत्तर भी आ गया कि जन्मपत्री नहीं मिलती, इसलिए विवाह न हो सकेगा, क्षमा कीजिएगा ।

 बाबू राधाकृष्ण को गौरी के लिए दूसरा वर मिल गया था, जो उनकी समझ में गौरी " के बहुत योग्य था । धनवान ये भी अधिक न थे । पर अभी-अभी नायब तहसीलदार के पद पर नियुक्त हुए थे, आगे और भी उन्नति की आशा थी । बी०ए० पास थे । देखने में अधिक सुंदर न थे । बदशक्ल भी कहे जा सकते थे, पर पुरुषों की भी कहीं सुंदरता देखी जाती है ? उमर कुछ अधिक न थी, यही 24-25 साल । लेने-देने का झगड़ा यहाँ भी न था । पहली शादी थी और माँ-बाप, भाई-बहन से भरा-पूरा परिवार था । राधाकृष्ण जी इससे अधिक और चाहते ही क्या थे । ईश्वर को उन्होंने कोटिश: धन्यवाद दिए, जिसकी कृपा से ऐसा अच्छा वर उन्हें गौरी के लिए मिल गया । विवाह आगामी आषाढ़ में होना निश्चित hua । दोनों तरफ से विवाह की तैयारी हो रही थी । राधाकृष्ण जी की यही तो एक लड़की थी । वे बड़ी तन्मयता के साथ गहने-कपड़ों का चुनाव करते थे । सोचते थे, देर से शादी हुई तो क्या हुआ वर भी तो अच्छा ढूँढ़ निकाला है । कुन्ती भी बहुत खुश थी । उसकी आँखों में यह दृश्य झूलने लगता था कि उसका दामाद छोटा साहब हो गया है, बेटी-दामाद छोटे-छोटे बच्चों के साथ उससे मिलने आए हैं । किंतु बच्चों की बात सोचते ही उसे सीताराम जी के दोनों बच्चे तुरंत याद आ जाते और याद आ जाती उनकी बात । बच्चों की देख-रेख करने वाला कोई नहीं है । फिर वह सोचती, ऊंह, दुनिया में और भी तो लड़कियाँ हैं । कर लें शादी, क्या मेरी गौरी ही है । इस प्रकार पति-पत्नी दोनों ही प्रसन्न थे, पर गौरी से कौन पूछता कि उसके हृदय में कैसी हलचल मची रहती है । रह-रहकर उसे उन बच्चों का भोला-भाला मुंह और मीठी-मीठी बातें याद आ जातीं । साथ ही याद आ जाते विनयी, नम्र और सादगी की प्रतिमा सीताराम जी । उनकी याद आते ही श्रद्धा से गौरी का माथा अपने आप ही झुक जाता । देशभक्त त्यागी वीरों के लिए उसके हदय में बड़ा सम्मान था ।

सीताराम जी ने भी तो देश के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग कर दिया है, नहीं तो बी०ए० पास करने के बाद क्या प्रयत्न करने पर उन्हें नायब तहसीलदार की नौकरी न मिल जाती ? मिलती क्यों नहीं ? पर सीताराम जी सरकार की गुलामी पसंद करते तब न ? दूसरी और थे उसके होनेवाले वर-नायब तहसीलदार साहब, जिन्हें अपने आराम, अपने ऐश के लिए ब्रिटिश गवर्नमेंट के जरा से इंगित मात्र से निरीह देशवासियों के गले पर छुरी फेरने में जरा भी संकोच या हिचक नहीं । जिनके सामने कुछ चाँदी के दुकड़े दिए जाते हैं और ये दुम हिलाते हुए, निंद्य-से-निंद्य कर्म करने में भी किंचित् लज्जित नहीं होते । घृणा से गौरी का जी भर जाता, किन्तु उसके इन मनोभावों को जानने वाला यहाँ कोई भी न था । वह रात-दिन एक प्रकार की अव्यक्त पीड़ा से विकल-सी रहती । बहुत चाहती थी कि अपनी मां से कह दे कि वह नायब तहसीलदार से शादी न करेगी, किंतु लज्जा उसे कुछ भी न कहने देती । ज्यों-ज्यों विवाह की तिथि नजदीक आती, गौरी की चिंता बढ़ती ही जाती थी । विवाह की निश्चित तारीख से पंद्रह दिन पहले एकाएक तार आया कि नायब तहसीलदार के पिता का देहांत हो गया । इस मृत्यु के कारण विवाह साल भर को टल गया । गौरी के माता-पिता बड़े दुखी हुए, किंतु गौरी के सिर पर से जैसे चिंता का पहाड़ हट गया ।

इसी बीच सत्याग्रह आंदोलन की लहर सारे देश में बड़ी तीव्र गति से फैल गई । शहर-शहर में गिरफ्तारियों का तांता लग गया । रोज ही न जाने कितने गिरफ्तार होते, कितनों को सजा होती । कहीं लाठी चार्ज !- कहीं 144 ! सरकार की दमन की चक्की बड़े भयंकर रूप से चल रही थी । गौरी को चिंता थी उन बच्चों की । जब से सत्याग्रह-संग्राम छिड़ा था, तभी से उसे फिकर थी कि न जाने कब सीताराम जी गिरफ्तार हो जाएँ । और फिर वे बच्चे बेचारे-उन्हें कौन देखेगा । रोज का अखबार ध्यान से पढ़ती, कानपुर का समाचार तो और भी ध्यान से देखती थी । इसी प्रकार उसने एक दिन पढ़ा कि राजद्रोह के अपराध में सीताराम जी गिरफ्तार हो गए । और उन्हें एक साल का सपरिश्रम कारावास हुआ है । इस समाचार को पढ़कर गौरी कुछ क्षण तक स्तब्ध-सी खड़ी रही, फिर कुछ सोचती हुई टहलने लगी । कुछ ही देर बाद उसने अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया । वह मां के पास गई, मां कोई पुस्तक देख रही थी । उसने अपने सारे साहस को समेटकर दृढ़ता से कहा, 'मां, मैं कानपुर जाऊँगी ।' 'कानपुर में क्या है ?' आश्चर्य से कुंती ने पूछा । गौरी ने कहा, 'वहां बच्चे हैं ।' मां ने उसी स्वर में कहा, 'बच्चे ? कैसी बात करती हो गौरी, पागलों-सी ?' गौरी बोली, 'नहीं माँ, मैं पागल नहीं हूँ । बच्चों को तुम भी जानती हो । उनके पिता को राजद्रोह के मामले में साल भर की सजा हो गई । बच्चे छोटे हैं । मैं जाऊँगी माँ । मुझे जाना ही पड़ेगा ।'

 गौरी के स्वभाव से कुन्ती भली-भांति परिचित थी । वह जानती थी कि गौरी जिस बात की हठ पकड़ती है, कभी छोड़ती नहीं है अतएव सहसा वह गौरी का विरोध न कर सकी, बोली, पर तेरे बाबू जी तो बाहर गए हैं, उन्हें तो आ जाने दे । गौरी ने दृढ़ता के साथ कहा, बाबूजी के आने तक नहीं ठहर सकूंगी मां। मुझे जाने दो । रास्ते में मुझे कुछ कष्ट न होगा । अब मैं काफी बड़ी हो गई हूँ । और उसी दिन शाम को एक नौकर के साथ गौरी कानपुर चली गई । अपनी सजा पूरी करके सीताराम घर लौटे । इस साल भर के भीतर उन्होंने बच्चों को एक बार भी न देखा था । उन्हें कायदे के अनुसार हर महीने उनका कुशल-समाचार मिल जाता था, पर बच्चों की चिंता उन्हें लगातार बनी ही रहती थी । जिस कहारिन के भरोसे वे बच्चों को छोड़ गए थे, उसके भी तीन-चार बच्चे थे । वह बच्चों को कैसे रखेगी, सो सीताराम जी जानते थे; पर विवशता थी क्या करते ।

सबेरे-सबेरे छै बजे ही जेल से मुक्त कर दिए गए । एक ताँगे पर बैठकर वे घर की ओर चले । जेब में कुछ पैसे थे । एक जगह गरम-गरम जलेबियां बन रही थीं । बच्चों के लिए थोड़ी-सी खरीद लीं । घर के दरवाजे पर पहुंचे । दरवाजा खुला था । घर के अंदर पैर रखने में हृदय धड़कता था । न जाने किस हालत में हों । वे चोरों की तरह चुपके-चुपके घर में घुसे । परंतु यह क्या ? आँगन में पहुंचते ही वे ठगे-से खड़े रह गए । फिर जरा आगे बढ़कर उन्होंने कहा, आप ? गौरी ने झुककर उनकी पद-धूलि माथे से लगा ली । =========== 

नञ् तत्पुरुष  समास Hindi Vyakaran/ Samas

Saturday, April 11, 2020

अंडे के छिलके /Ande ke chhilake Ekanki/ Mohan Rakesh

अंडे के छिलके (एकांकी)
लेखक: मोहन राकेश
प्रस्तुति: अल्पना वर्मा


 Ande ke chhilke ( Ekanki)
Mohan Rakesh/ Class 11 Hindi/ CBSE

Hindi Book Antral (NCERT)

Sunday, April 5, 2020

अकेली /पूरी कहानी /मन्नू भण्डारी/Akeli -Hindi Story

  • अकेली’ मन्नू भंडारी जी की रचना है। 
  • कहानी में सोमा बुआ अकेली होने के कारण सबको अपना मान कर जीने वाली सबके दुख-सुख में सदा सहयोग देने के लिए तत्पर रहने वाली लाचार स्त्री है। 
  • उनकी इसी लाचारी के कारण वे अपने पास-पड़ोस के लोगों द्वारा छली जाती हैं।
  •  वे धन भी लुटाती हैं जी-तोड़ मेहनत भी करती हैं फिर भी लोगों से सम्मान नहीं पाती। सोमा बुआ एक अकेली स्त्री है। 
  • सोमा बुआ के पति सन्यासी हैं। साल के ११ महीने वे बाहर रहते हैं, और एक महीने भर के लिए घर आते हैं। 
  • सोमा बुआ के एक ही बेटा था वह भी अब जीवित न रहा। 
  • बेटे के साथ पति की अनुपस्थिति में बुआ अपने जीवन में एकदम अकेली हो चुकी थी। अपने इसी अकेलेपन को दूर करना चाहती है। इसलिए आस पड़ोस के घरों में शादी, मुंडन, छठी या फिर जनेऊ जैसे कार्यक्रमों में बिन बुलाये जाकर छाती फाड़कर काम करती है। 
  • लोगों को अपना मानकर उनमें घुलने मिलने की कोशिश करती रहती। अपना सारा दुख भूल कर लोगों की खुशी में शामिल हो जाती।
  • सोमाबुआ के पास मृत पुत्र की एकमात्र निशानी अंगूठी थी। जिसे बेचकर वे अपने किसी सम्बन्धी के एक कार्यक्रम में भाग लेने जाने की तैयारी करती हैं और बुलावे की प्रतीक्षा करती रहती हैं,जब उन्हें बुलावा नहीं आता तब बेहद निराश होती हैं.
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