Sunday, May 17, 2020

आषाढ़ का एक दिन-Ashaadh Ka ek din - By Mohan Rakesh

आषाढ़ का एक दिन
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Watch it ---Natak @ Doordarshan
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कथासार तीन अंकों में 'आषाढ़ का एक दिन नाटक की रचना की गयी है। प्रथम अंक के आरंभ में छाज से धान फटकती हुर्इ अंबिका के दर्शन होते हैं। तभी वर्षा में भीगकर आर्इ मलिलका का प्रवेश होता है। दोनों के वार्तालाप से ज्ञात होता है कि मलिलका अंबिका की पुत्राी है। मलिलका ने कालिदास के साथ आषाढ़ की पहली बरसात में भीगने का आनंद उठाया है इसलिए वह अपने इस सौभाग्य पर मुग्ध है। परंतु अंबिका को मलिलका का यह आचरण अनुचित प्रतीत होता है- वैयकितक स्तर पर भी और सामाजिक स्तर पर भी। वह कालिदास को नापसंद करती है क्योंकि वह भावनाओं में निमग्न रहने वाला एक अव्यावहारिक व्यकित है जिससे यह आशा करनी व्यर्थ है कि वह मलिलका को किसी प्रकार का सांसारिक सुख दे पायेगा। सामाजिक स्तर पर वह उन दोनों से इसलिए क्रुद्ध है क्योंकि प्रेमी युगल का विवाह से पूर्व इस प्रकार घूमना-फिरना लोकापवाद का कारण हो सकता है। उन दोनों के वाद-विवाद के बीच ही कालिदास भी आते है। उन्हें किसी राजपुरुष के बाण से आहत हरिण शावक के प्राण-रक्षा की चिंता है। राजपुरुष दंतुल भी अपने उस शिकार को खोजते हुए वहाँ पहँुच जाते हैं। कालिदास और दन्तुल में वाद-विवाद होता है। दन्तुल अपने राजपुरुष होने के दर्प में चूर है परंतु जब उसे ज्ञात होता है कि जिस व्यकित से वह तर्क-वितर्क कर रहा था वह प्रसिद्ध कवि कालिदास हैं तो उसका स्वर और भावभंगिमा तुरंत बदल जाती है। वह उनसे क्षमा माँगने को भी तैयार है क्योंकि सम्राट चंद्रगुप्त के आदेश पर वह उन्हीं को लेने तो वहाँ आया था। इस सूचना से ही कालिदास को राजकीय सम्मान का अधिकारी समझा गया है मलिलका प्रसन्न हो जाती है, परंतु अमिबका पर मानो इस सबका कोर्इ प्रभाव ही नहीं पड़ता। दोनों एक दूसरे को अपना दृषिटकोण समझाने का प्रयास करती हैं, तभी मातुुल का आगमन होता है। मातुल कालिदास के संरक्षक हैं पर उनकी भाँति भावुक नहीं वरन अति व्यावहारिक। वे राजकीय सम्मान के इस अवसर को किसी भी प्रकार खोना नहीं चाहते। कालिदास की उदासीनता से भी वे नाराज हैं। निक्षेप कालिदास की मन:सिथति को समझता है परंतु इस अवसर को खोने के पक्ष में वह भी नहीं है इसलिए वह मलिलका से अनुरोध करता है कि वह कालिदास को समझाये। इसी अंक में विलोम का भी प्रवेश होता है। उसकी बातों से ज्ञात होता है कि वह मलिलका से प्रेम करता है। वह यह भी जानता है कि मलिलका कालिदास को चाहती है और उसके जीवन में विलोम का कोर्इ स्थान नहीं। वस्तुत: ऐसा स्वाभाविक भी है क्योंकि उसका व्यकितत्व कालिदास के व्यकितत्व से नितान्त विपरीत है। कालिदास के इस सम्मान से वह थोड़ा दु:खी दिखार्इ देता है जिसकी अभिव्यकित उसक व्यंग्यपूर्ण कटाक्षों से होती है। उसके कारण कर्इ हैंµएक उसके मन का र्इष्र्या-भाव है। कालिदास को वह अपने प्रतिद्वंद्वी की भाँति ग्रहण करता है और उसे लगता है कि इस प्रतिद्धंद्विता में कालिदास का स्थान उससे ऊपर हो गया है। दो, वह कालिदास और मलिलका के पारस्परिक स्नेह-भाव को भलीभाँति समझता है। वह जानता है कि कालिदास के चले जाने से मलिलका दु:खी हो जायेगी और मलिलका का दु:ख उसे असहाय है। तीन, उसे आशंका है कि उज्जयिनी का नागरिक वातावरण, राज्य सत्ता की सुख-सुविधाएँ, आमोद-प्रमोद में कालिदास जैसा व्यकितत्व कहीं खो न जाये, उसकी रचनाशीलता को कोर्इ क्षति न पहुँचे, विलोम के मन में जो शंका है वही कालिदास के मन में भी है। उज्जयिनी जाने-न-जाने की दुविधा का कारण यही श्ांका है। परंतु मलिलका के मन में इस प्रकार की कोर्इ शंका नहीं। उसे कालिदास की प्रतिभा पर विश्वास है। यहाँ रोक कर वह उसे स्थानीय कवि नहीं बने रहने देना चाहती। उज्जयिनी जाकर उसके अनुभवों में विस्तार हो, राजकीय सुख-सुविधाओं के बीच अपने अभावों को भूल कर साहित्य-रचना में वह लीन हो जाए, उसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैले भले ही इसके लिए उसे कालिदास का वियोग क्यों न सहना पड़े..इसी अभिलाषा से वह कालिदास को उज्जयिनी जाने के लिए मना लेती है। ====== दूसरा अंक कालिदास के जाने से कुछ वषो± बाद का है। घर की साज सज्जा में आये परिवर्तन और अव्यवस्था से इस अंतर के संकेत मिल जाते हैं। अमिबका अस्वस्थ है और मलिलका को आर्थिक अभावों की पूर्ति के लिए काम करना पड़ रहा है। मलिलका और निक्षेप के वार्तालाप से यह स्पष्ट होता है कि वह आज भी कालिदास से उसी प्रकार जुड़ी है। राजधानी से आने जाने वाले व्यवसायियों के माध्यम से वह उनकी रचनाओं को पढ़ती रही है। उसे यह संतोष भी है कि उसके स्नेह और आग्रह के कारण ही कालिदास राजधानी जाने के लिए तैयार हुए थे। अत: वह उनकी उपलबिध में कहीं स्वयं भी भागीदार हैं। निक्षेप से बातचीत से ही इस बात की भी सूचना दी गयी है कि कालिदास अब पहले वाले कालिदास नहीं रहे गये हैं। वहाँ के वातावरण के अनुरूप अब वे सुरा और सुंदरी में मग्न रहने लगे हैं, गुप्त साम्राज्य की विदुषी राजकुमारी से उन्होंने विवाह कर लिया है, अब काश्मीर का शासन भार भी वे सँभालने वाले हैं और इसी यात्राा के बीच वे अपने इस ग्राम प्रांतर में भी कुछ समय के लिये रुकेंगे, उनका नया नाम अब मातृगुप्त है, 'ऋतु संहार के बाद वे और भी अनेक काव्यों-नाटकों की रचना कर चुके हैं, सारा गाँव आज उनके स्वागत की तैयारी कर रहा है। तभी राजसी वेशभूषा में एक घुड़सवार के दर्शन निक्षेप को होते हैं। उसे विश्वास है कि वह राजपुरुष और कोर्इ नहीं बलिक स्वयं कालिदास ही हैं। यह सूचना मलिलका को विचलित कर देती है। तभी रंगिणी-संगिणी का प्रवेश होता है। ये दोनों नागरिकाएँ कालिदास के परिवेश पर शोध करना चाहती हैं पंरतु उनका काम करने का ढंग अत्यंत हास्यास्पद और सतही है। वे मलिलका से उस प्रदेश की वनस्पतियों, पशु-पक्षियों, दैनिक जीवन मे उपयोग में आने वाली वस्तुओं और विशिष्ट अभिव्यकितयों के विषय में प्रश्न करती हैं। परंतु कुछ भी असाधारण न दिखार्इ देने से निराश हो कर लौट जाती हैं। उनके जाते ही अनुस्वार और अनुनासिक नामक दो राज-कर्मचारी आते हैं। कालिदास की पत्नी और राजपुत्राी प्रियंगुमंजरी के आगमन की तैयारी में वे मलिलका के घर की व्यवस्था में कुछ ऐसा परिवर्तन करना चाहते हैं जो राजकुमारी के गौरव के अनुरूप हो और सुविधाजनक भी हो। परन्तु वास्तव में वे व्यवस्था-परिवर्तन का नाटक भर करते हैं और बिना कोर्इ बदलाव किये वहाँ से चले जाते हैं। फिर मातुल के साथ प्रियगुमंजरी का आगमन होता है। वह जानती है कि मलिलका कालिदास की प्रेयसी है और कालिदास के मन में उसके लिए अथाह स्नेह और सम्मान है। उसे मालूम है कि कालिदास की समस्त रचनाओं की प्रेरणा स्रोत मलिलका और यह परिवेश ही है। अत: स्त्राी-सुलभ जिज्ञासा और र्इष्र्या के फलस्वरूप वह इस प्रदेश में आने और मलिलका को देखने का लोभ संवरण कर पाती है। उसे आश्चर्य होता है कि राजधानी से इतनी दूर होने पर भी मलिलका ने कालिदास की सभी रचनाएँ प्राप्त कर ली हैं, पढ़ ली हैं। अब कालिदास को मातृगुप्त के नाम से जाना जाता है अत: मलिलका का 'कालिदास संबोधन उसे आपत्तिजनक लगता है। वह मलिलका के घर का परिसंस्कार करना चाहती है और उसकी इच्छा है कि मलिलका किसी राजकर्मचारी से विवाह कर ले, उसके साथ उसकी संगिनी बन कर रहे। वहाँ की वनस्पतियों, पत्थरों, कुछ पशु-पक्षियों ओर कुछ गरीब बच्चों को अपने साथ ले जाना चाहती है जिससे कालिदास को राजसुख में रहते हुए भी कभी अपने परिवेश का वियोग न खटके मलिलका घर के परिसंस्कार और विवाह के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है। प्रियगुमंजरी का वियोग न खटके। मलिलका घर के परिसंस्कार और विवाहके प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है। प्रियगुमंजरी हतप्रभ सी होकर वहाँ से चली जाती है। उसके जाने के बाद विलोमभीआताहै। इस सारे घटनाचक्र से वह भी परिचित है। वह इस आशा से वहाँ आता है कि कालिदास यदि वहाँ आये तो वह उसकी वास्तविकता, उसके व्यकितत्व में आये परिवर्तन को सबके सम्मुख उजागर कर दे। यधपि वह जानता है कि कालिदासवहाँनहीं आयेगा। कालिदास के मलिलका से बिना मिले चले जाने से अमिबका और विलोम-दोनों की आशंकाएँ सत्य सिद्ध होती हैं। =========== तीसरे अंक में कुछ और वषो± के बाद की घटनाएँ हैं। इस बार अंबिका दिखार्इ नहीं देती। वहाँ है पालने में लेटा एक शिशु जो मलिलका के अभाव की संतान है। घर की अस्त-व्यस्त और जीर्ण-शीर्ण सिथति मलिलका के दु:खों की कहानी कह रहेहैं। इस बार फिर आषाढ़ का पहला दिन है पहले की भाँति इस बार भी मूसलाधार वर्षा हो रही है। परंतु इस बार उस वर्षा का आनंद उठाने की सिथति मलिलका की नहीं है। मातुल भीगता हुआ आता है। जिस वैभव और सत्ता-सुख की लालसा से वह उज्जयिनी गया था, वह लालसा तो पूरी हुर्इ किंतु उस सबसे मातुल का मोह भी भंग हुआ है। चिकने शिलाख्ांडों से बने प्रासाद, आगे-पीछे चलते प्रतिहारी, कालिदास का संबंधी होने के नाते अकारण मिलने वाला सम्मान शुरू में तो बहुत आÑष्ट करता है परंंतु धीरे-धीरे इस सबसे वह ऊबने लगता है। वह सूचना देता है कि कालिदास ने काश्मीर का शासन भार त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया है। मातुल के चले जाने के पश्चात इसी अंक में कालिदास का प्रवेश होता है। प्रथम अंक में जिस तेजस्वी कालिदास के दर्शन होते हैं और दूसरे अंक में जिसकी प्रतिभा, योग्यता और यश की चर्चा है, इस तीसरे अंक में उसके विपरीत भग्नâदय-विवश कालिदास दिखार्इ देते हैं। इस अंक में कालिदास का लंबा आत्मवक्तव्य है। वह बताता है कि यहाँ से जाने के बाद वह सुख-सुविधाओं आमोद-प्रमोद, साहित्य-सृजन में व्यस्त भले ही रहा हो परंतु कभी भी अपने ग्रामप्रांतर और मलिलका से अलग नहीं हुआ। अपने पुराने अनुभवों को ही वह बार-बार अनेक रूपों में पुन: सृजित करता रहा है। जिन लोगों ने सदा उसका तिरस्कार किया था, उपहास किया था उनसे प्रतिशोध लेने की कामना से ही उसने काश्मीर के शासन का दायित्व वहन किया था। परंतु अब वह इस Ñत्रिम जीवन से थक चुका है। अत: शासक मातृगुप्त के कलेवर से संन्यास लेकर वह पुन: कालिदास के कलेवर में लौट आया है। अब वह यहीं इस पर्वत प्रदेश में ही रहना चाहता है, मलिलका के साथ अपने जीवन का पुनरारंभ करना चाहता है। इस बातचीत के बीच-बीच में दरवाजे पर दस्तक होती रहती है परंतु मलिलका दरवाजा नहीं खोलती। इस वक्तव्य के दौरान उसे एक बार भी यह विचार नहीं आता कि उसके उज्जयिनी जाने और वहाँ से वापिस आने की दीर्घ अवधि में मलिलका को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा। उसके जीवन की दिशा भी बदल सकती है यह तो वह सोच ही नहीं पाता। सहसा अंदर बच्ची के रोने की आवाज और विलोम के प्रवेश से उसे वस्तुसिथति का बोध होता है। अब उसे अनुभव होता है कि इच्छा और समय के द्वंद्व में समय अधिक शकितशाली सिद्ध होता है और समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। वह वहाँ से चला जाता है और यहीं नाटक समाप्त हो जाता है। कथानक की विशेषताएँ प्रस्तुत नाटक की कथा आषाढ़ के (पहले) एक दिन से ही आरंभ होती है और आषाढ़ के (पहले) एक दिन पर ही समाप्त होती है। अर्थात नाटक का प्रस्थान और समापन बिंदु एक ही है। परंतु तीसरे अंक के आषाढ़ का एक दिन वैसा ही नहीं है जैसा प्रथम अंक का है। पहले अंक में आषाढ़ के प्रथम दिवस की धाराधार वर्षा में भीगी उल्लसित मलिलका दिखार्इ देती है पर तीसरे अंक में उस वर्षा के प्रति उसका कोर्इ उत्साह नहीं। समग्र रूप से देखें तो यह नाटक कालिदास और मलिलका की प्रेमगाथा है परंतु प्रेमगाथा से कुछ अधिक समसामयिक संदर्भों को खोलती चलती है। यदि नाटक के तीनो अंकों की मुख्य घटनाओं को अलग-अलग देखें तो प्रथम अंक की मुख्य घटना है कालिदास का उज्जयिनी जाना, दूसरे अंकों की मुख्य घटना है उसका ग्राम में आकर भी मलिलका से मिलने न आना और तीसरे अंक की मुख्य घटना है उसका मलिलका के पास आकर भी वापिस लौट जाना। अर्थात तीनों अंकों की प्रत्येक गतिविधि का केंद्र एक ही हैµ कालिदास, और कालिदास की प्रत्येक गतिविधि से प्रभावित होती है मलिलका। कालिदास और मलिलका के साथ-साथ विलोम की कथा भी पाठकों को प्रभावित किये बिना नहीं रहती। विलोम के प्रवेश से कथा में प्रेम त्रिकोण बनता है क्योंकि वह मलिलका से प्रेम करता है जबकि मलिलका कालिदास के प्रति अनुरक्त है। अपने संवादों से विलोम की भूमिका खलनायक जैसी लग सकती है क्योंकि वह सदा ही कालिदास को अपने व्यंग्य बाणों से छीलने को तत्पर दिखार्इ देता है। परंतु वास्तव में वह खलनायक नहीं है। वह कालिदास से विपरीत प्रÑति का पात्रा है। उसके सोचने विचारने-जीवन जीने का तरीका कालिदास से भिन्न है। कथा-केन्द्र कालिदास होने पर भी विलोम अपने व्यकितत्व के खरेपन के कारण पाठकों को प्रभावित किये बिना नहीं रहता। विलोम के आगमन से कथा-गति में क्षिप्रता आती दिखार्इ देती है। वस्तुत: मोहन राकेश कथा गति की इस तीव्रता के प्रति पर्याप्त सजग रहे हैं। पहले अंक में यह तीव्रता मलिलका और अंबिका के तुर्शी भरे संवादों, कालिदास और दंतुल के वाद-विवाद, विलोम और मातुल के तीखे व्यंग्यों से आयी है। दूसरे अंक में रंगिनी-संगिणी और अनुस्वार-अनुनासिक का आचरण वातावरण को किंचित विनोदपूर्ण बना देता है परंतु प्रियंगुमंजरी का अहंकारपूर्ण आभिजात्य व्यवहार, मलिलका के âदय को भेदने वाले उसके अनुचित प्रस्ताव, मलिलका से बिना मिले कालिदास का वापिस चले जाना और विलोम द्वारा कालिदास के इस अवांछित व्यवहार को रेखांकित करनाµये सारी घटनाएँ मलिलका की वेदना को और भी सघन रूप से व्यंजित करती है। यधपि आलोचकों का कहना है कि इस अंक में रंगिणी-संगिनी ओर अनुस्वार-अनुनासिक के प्रसंगों को अनुचित रूप से खींचा गया है। यह आरोप सही हो या न हो, परंतु यह सत्य है कि ये पात्रा और ये प्रसंग पाठकों को भूलते नहीं। इस प्रसंग में पाठकों-दर्शकों का मनोरंजन करने की क्षमता भी है और नाटकों को सामयिक संदभो± से जोड़कर उसे सार्थक बनाने की भी। तीसरे अंक में गतिशीलता उतनी तीव्र नहीं है। कारण इस अंक में अधिकांशत: मलिलका स्वगत कथनों के माध्यम से आत्मलीन रहती है। कालिदास के वक्तव्य लंबे हैं। वस्तुत: यह नाटक का चरम बिंदु है इसलिए कथा की गति का सिथर हो जाना खटकने लगता है। परंतु बार-बार दरवाजा खटखटाने और विलोम के कुछ समय के लिए प्रवेश से कथा को पुन: गति मिलती है। मलिलका को उसके हाल पर छोड़कर कालिदास का चुपचाप चले जाना और यहीं नाटक का अंत हो जाना अत्यंत आकसिमक है जो पाठकों-दर्शकों को खटकता भी है। परंतु कालिदास के चरित्रा को जैसा अव्यावहारिक और अतिशय भावुक दर्शाया गया है, उससे कुछ और अपेक्षा भी संभवत: नहीं हो सकती थी। 'आषाढ़ का एक दिन के कथानक की समीक्षा यदि नाटय-शास्त्राीय मानदंडों के आधार पर की जाए तो आलोचकों को निराशा होगी। कारण, इसमें परंपरागत कार्यावस्थाएँµप्रारंभ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, कथानक में चमत्कार उत्पन्न करने वाली अर्थ प्रÑतिµबीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य तथा कार्यावस्था और अर्थप्रÑति को जोड़ने वाली संधियोंµमुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहरण-को नहीं खोजा जा सकता। प्रस्तुत नाटक का कथ्य और शिल्प पुरातन पद्धति के अनुसार है ही नहीं। हाँ, सघर्ष का तत्त्व इसमें अवश्य विधमान है जो कि नाटक का प्राण माना जाता है। यह द्वंद्व या संघर्ष परस्पर विरोèाी प्रÑति वाले चरित्राों के मध्य हैµअमिबका और मलिलका के बीच, कालिदास और विलोम के बीच, कालिदास और दंतुल के बीच और मलिलका तथा विलोम और मलिलका तथा मातुल के बीच। संघर्ष के ये विविध प्रसंग कथानक को गति प्रदान करते हैं और पात्राों के चरित्राों की विभिन्न विशेषताओं को स्पष्ट करते हैं। ---------- 'आषाढ़ का एक दिन में कथानक का आधार एक ही कथा हैµ कालिदास और मलिलका की कथा। नाटक के तीनों अंकों में यही कथा विन्यस्त है। विलोम मातुल, प्रियंगुमंजरी आदि कुछ प्रासंगिक कथासूत्रा भी इस मुख्य कथा से आ जुडते हैं परंतु वे मुख्य कथा को उलझाते नहीं बलिक कालिदास और मलिलका के चरित्रा के विभिन्न आयामों को उदघटित करते हैं। साथ ही ये कथासूत्रा इसे केवल प्रेमकथा भर न रहने देकर सामयिक संदभो से भी जोड़ने में सहायक हैं।

Saturday, May 9, 2020

महाभोज /मन्नू भंडारी /हिंदी उपन्यास/नेट २०२० नया पाठ्यक्रम

  •  महाभोज मन्नू भंडारी द्वारा लिखा गया एक बहुत ही चर्चित  हिंदी उपन्यास है। 
  • यह एक ओर तंत्र के शिकंजे की तो दूसरी ओर जन की नियति के द्वन्द की दारुण कथा है।
  • कहें तो यह विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है ।
     अपराध और राजनीति के गठजोड़ का यथार्थवादी चित्रण किया गया है।
  • महाभोज उपन्यास का ताना-बाना सरोहा नामक गाँव के इर्द-गिर्द बुना गया है। 
  • सरोहा गाँव उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में स्थित है, जहाँ विधान सभा की एक सीट के लिए चुनाव होने वाला है। कहानी बिसेसर उर्फ़ बिसू की मौत की घटना से प्रारंभ होती है। 
  • सरोहा गाँव की हरिजन बस्ती में आगजनी की घटना में दर्जनों व्यक्तियों की निर्मम हत्या हो चुकी थी। 
  • बिसू के पास इस हत्याकाण्ड के प्रमाण थे, जिन्हें वह दिल्ली जाकर सक्षम प्राधिकारियों को सौंपना और बस्ती के लोगों को न्याय दिलाना चाहता था। किंतु राजनीतिक षडयंत्र द्वारा बिसू को ही जेल में डाल कर इस प्रतिरोध को कुचल देने का प्रयास किया जाता है। 
  • बिसू की मौत के पश्चात उसका साथी बिंदेश्वरी उर्फ़ बिंदा इस प्रतिरोध को ज़िंदा रखता है।
  •  बिंदा को भी राजनीति और अपराध के चक्र में फँसाकर सलाखों के पीछे डाल दिया जाता है। अंततः नौकरशाही वर्ग का ही एक चरित्र, पुलिस अधीक्षक सक्सेना, वंचितों के प्रतिरोध को जारी रखता है। 
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  •  राजनीति और नौकरशाही के सूत्रधारों ने सारे ताने-बाने को इस तरह उलझा दिया है कि वह जनता को फांसने और घोटने का जाल बनकर रह गया है.
  • इस जाल की हर कड़ी महाभोज के दा साहब की उँगलियों के इशारों पर सिमटती और कहती है/ हर सूत्र के वे कुशल संचालक हैं. उनकी सरपरस्ती में राजनीति के खोटे सिक्के समाज चला रहे हैं...खरे सिक्के एक तरफ फेंक दिए गए हैं
  • जातिगत समीकरण किस प्रकार भारतीय स्थानीय राजनीति का अनिवार्य अंग बन गये हैं, उपन्यास की केंद्रीय चिंता है। पिछड़ी और वंचित जाति के लोगों के साथ अत्याचार और प्रतिनिधि चरित्रों द्वारा उसका प्रतिरोध कथा को गति प्रदान करता है।उपन्यास में नैतिकता, अंतर्द्वंद्व, अंतर्विरोध से जूझते सत्ताधारी वर्ग, सत्ता प्रतिपक्ष, मीडिया और नौकरशाही वर्ग के अवसरवादी चरित्र पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी की है।
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मुख्य पात्र
  1.     बिसेसर उर्फ़ बिसू (मुख्य पात्र)
  2.     हीरा (बिसू के पिता)
  3.     बिंदेश्वरी प्रसाद उर्फ़ बिंदा
  4.     रुक्मा (बिंदा की पत्नी)
  5.     दा साहब (मुख्यमंत्री, गृह मंत्रालय का प्रभार भी)
  6.     सदाशिव अत्रे (सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष)
  7.     जोरावर (स्थानीय बाहुबली और दा साहब का सहयोगी)
  8.     सुकुल बाबू (सत्ता प्रतिपक्ष, पूर्व मुख्यमंत्री और सरोह गाँव की विधानसभा सीट के प्रत्याशी)
  9.     लखनसिंह (सरोहा गाँव की सीट से सत्ताधारी पार्टी का प्रत्याशी, दा साहब का विश्वासपात्र)
  10.     लोचनभैया (सत्ताधारी पार्टी के असंतुष्ट विधायकों के मुखिया)
  11.     सक्सेना (पुलिस अधीक्षक)
  12.     दत्ता बाबू (मशाल समाचार पत्र के संपादक)

Aapka Bunty /Hindi Upanyaas/Mannu Bhandari/Summary

Aapka Bunty /Hindi Upanyaas/Mannu Bhandari/Summary 
उपन्यास का सार  सुनिए -
Part 1 https://youtu.be/EvFT1DcZNWI
Part 2 https://youtu.be/cuqAKSfO3PE
Part 3 https://youtu.be/89BrU4P_xF8


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  • 'आपका बंटी' मन्नू जी का स्वतंत्र रूप से लिखा पहला उपन्यास है/ प्रकाशन वर्ष 1970 है
  • ('एक इंच मुस्कान ' उन्होंने राजेन्द्र यादव जी के सहयोग से लिखा था  )
  • बंटी की उम्र सात साल है .नाम -अरूप बत्रा
  • शकुन (दिल्ली के कॉलेज में प्रिंसिपल )
  • अजय बत्रा मन मुटाव के बाद कलकत्ता चला जाता है .
  • अजय मीरा से और शकुन डॉ जोशी से विवाह कर लेते  हैं.
  • खंडित दाम्पत्य जीवन /इसके कारन बाल मन पर पड़ा प्रभाव
  • इसकी भाषा पात्रों के अनुरूप है ।
  • इस उपन्यास में सुशिक्षित. और अशिक्षित पात्र हैं ।
  •  शिक्षित पात्रों के अन्तर्गत शकुन डॉ.जोशी, अजय बत्रा
  • मीरा ,वकील चाचा ,अमी,जोत,बंटी
  • अशिक्षित पात्र  : फूफी ,माली ,चपरासी बंसीलाल 

Sunday, May 3, 2020

A house is not a Home Class 9 English /Audio

The moral of this story-
  •  One must face the challenges of life head-on. 
  • People encounter many challenges in life but they must stand firm and fight them through.


Learn to read the lesson .........
Class 9 English Moments

    Chapter 1- The Lost Child
    Chapter 2- The Adventures of Toto
    Chapter 3- Iswaran the Storyteller
    Chapter 4- In the Kingdom of Fools
    Chapter 5- The Happy Prince
    Chapter 6- Weathering the Storm in Ersama
    Chapter 7- The Last Leaf
    Chapter 8- A House is Not a Home
    Chapter 9- The Accidental Tourist
    Chapter 10- The Beggar
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Saturday, May 2, 2020

गौरा /महादेवी वर्मा /gauraa

गौरा
------ महादेवी वर्मा
(रेखाचित्र)

गाय के नेत्रों में हिरन के नेत्रों-जैसा विस्मय न होकर आत्मीय विश्वास रहता है। उस पशु को मनुष्य से यातना ही नहीं, निर्मम मृत्यु तक प्राप्त होती है, परंतु उसकी आंखों के विश्वास का स्थान न विस्मय ले पाता है, न आतंक।
गौरा मेरी बहिन के घर पली हुई गाय की व:यसंधि [जवानी एवं लड़कपन के मिलने की सन्धि।]तक पहुंची हुई बछिया थी। उसे इतने स्नेह और दुलार से पाला गया था कि वह अन्य गोवत्साओं [ बछिया] से कुछ विशिष्ट हो गई थी।

बहिन ने एक दिन कहा, तुम इतने पशु-पक्षी पाला करती हो-एक गाय क्यों नहीं पाल लेती, जिसका कुछ उपयोग हो। वास्तव में मेरी छोटी बहिन श्यामा अपनी लौकिक बुद्धि [दुनियादारी का ज्ञान]में मुझसे बहुत बड़ी है और बचपन से ही उनकी कर्मनिष्ठा और व्यवहार-कुशलता की बहुत प्रशंसा होती रही है, विशेषत: मेरी तुलना में। यदि वे आत्मविश्वास के साथ कुछ कहती हैं तो उनका विचार संक्रामक रोग के समान सुननेवाले को तत्काल प्रभावित करता है। आश्चर्य नहीं, उस दिन उनके प्रतियोगितावाद संबंधी भाषण ने मुझे इतना अधिक प्रभावित किया कि तत्काल उस सुझाव का कार्यान्वयन आवश्यक हो गया।

वार्ता

 वार्ता क्या है ?
 वार्ता का अर्थ है बातचीत या आपसी संवाद ।
सामान्यतः रेडियो  या टी वी पर होने वाली  वार्ताएँ  सांस्कृतिक,  राजनैतिक ,आर्थिक विषयों और वैज्ञानिक विषयों पर आधारित होती हैं।
कार्यक्रम विशेष के लिए होने वाली विशेष वार्ताएँ इस प्रकार हैं--  छात्रों  के लिए वार्ता, किसानों  के लिए वार्ता, महिलाओं के लिए वार्ता, शिक्षकों के लिए वार्ता आदि।

 वार्ता को सफल बनाने के लिए निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए –
  • भाषा सरल  हो जिससे सभी  श्रोता  आसानी से समझ सकें।
  • सरल, सुबोध शैली का प्रयोग होना चाहिए।
  • वार्ता के वाक्य बहुत अधिक लम्बे और कठिन न   हों ।
  • विषय की प्रस्तुति रोचक हो ।
  • वार्ता में आवश्यकतानुसार उदाहरण देकर बात को स्पष्ट रूप से समझाया जाए  ।
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