Sunday, May 17, 2020

आषाढ़ का एक दिन-Ashaadh Ka ek din - By Mohan Rakesh

आषाढ़ का एक दिन
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Watch it ---Natak @ Doordarshan
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कथासार तीन अंकों में 'आषाढ़ का एक दिन नाटक की रचना की गयी है। प्रथम अंक के आरंभ में छाज से धान फटकती हुर्इ अंबिका के दर्शन होते हैं। तभी वर्षा में भीगकर आर्इ मलिलका का प्रवेश होता है। दोनों के वार्तालाप से ज्ञात होता है कि मलिलका अंबिका की पुत्राी है। मलिलका ने कालिदास के साथ आषाढ़ की पहली बरसात में भीगने का आनंद उठाया है इसलिए वह अपने इस सौभाग्य पर मुग्ध है। परंतु अंबिका को मलिलका का यह आचरण अनुचित प्रतीत होता है- वैयकितक स्तर पर भी और सामाजिक स्तर पर भी। वह कालिदास को नापसंद करती है क्योंकि वह भावनाओं में निमग्न रहने वाला एक अव्यावहारिक व्यकित है जिससे यह आशा करनी व्यर्थ है कि वह मलिलका को किसी प्रकार का सांसारिक सुख दे पायेगा। सामाजिक स्तर पर वह उन दोनों से इसलिए क्रुद्ध है क्योंकि प्रेमी युगल का विवाह से पूर्व इस प्रकार घूमना-फिरना लोकापवाद का कारण हो सकता है। उन दोनों के वाद-विवाद के बीच ही कालिदास भी आते है। उन्हें किसी राजपुरुष के बाण से आहत हरिण शावक के प्राण-रक्षा की चिंता है। राजपुरुष दंतुल भी अपने उस शिकार को खोजते हुए वहाँ पहँुच जाते हैं। कालिदास और दन्तुल में वाद-विवाद होता है। दन्तुल अपने राजपुरुष होने के दर्प में चूर है परंतु जब उसे ज्ञात होता है कि जिस व्यकित से वह तर्क-वितर्क कर रहा था वह प्रसिद्ध कवि कालिदास हैं तो उसका स्वर और भावभंगिमा तुरंत बदल जाती है। वह उनसे क्षमा माँगने को भी तैयार है क्योंकि सम्राट चंद्रगुप्त के आदेश पर वह उन्हीं को लेने तो वहाँ आया था। इस सूचना से ही कालिदास को राजकीय सम्मान का अधिकारी समझा गया है मलिलका प्रसन्न हो जाती है, परंतु अमिबका पर मानो इस सबका कोर्इ प्रभाव ही नहीं पड़ता। दोनों एक दूसरे को अपना दृषिटकोण समझाने का प्रयास करती हैं, तभी मातुुल का आगमन होता है। मातुल कालिदास के संरक्षक हैं पर उनकी भाँति भावुक नहीं वरन अति व्यावहारिक। वे राजकीय सम्मान के इस अवसर को किसी भी प्रकार खोना नहीं चाहते। कालिदास की उदासीनता से भी वे नाराज हैं। निक्षेप कालिदास की मन:सिथति को समझता है परंतु इस अवसर को खोने के पक्ष में वह भी नहीं है इसलिए वह मलिलका से अनुरोध करता है कि वह कालिदास को समझाये। इसी अंक में विलोम का भी प्रवेश होता है। उसकी बातों से ज्ञात होता है कि वह मलिलका से प्रेम करता है। वह यह भी जानता है कि मलिलका कालिदास को चाहती है और उसके जीवन में विलोम का कोर्इ स्थान नहीं। वस्तुत: ऐसा स्वाभाविक भी है क्योंकि उसका व्यकितत्व कालिदास के व्यकितत्व से नितान्त विपरीत है। कालिदास के इस सम्मान से वह थोड़ा दु:खी दिखार्इ देता है जिसकी अभिव्यकित उसक व्यंग्यपूर्ण कटाक्षों से होती है। उसके कारण कर्इ हैंµएक उसके मन का र्इष्र्या-भाव है। कालिदास को वह अपने प्रतिद्वंद्वी की भाँति ग्रहण करता है और उसे लगता है कि इस प्रतिद्धंद्विता में कालिदास का स्थान उससे ऊपर हो गया है। दो, वह कालिदास और मलिलका के पारस्परिक स्नेह-भाव को भलीभाँति समझता है। वह जानता है कि कालिदास के चले जाने से मलिलका दु:खी हो जायेगी और मलिलका का दु:ख उसे असहाय है। तीन, उसे आशंका है कि उज्जयिनी का नागरिक वातावरण, राज्य सत्ता की सुख-सुविधाएँ, आमोद-प्रमोद में कालिदास जैसा व्यकितत्व कहीं खो न जाये, उसकी रचनाशीलता को कोर्इ क्षति न पहुँचे, विलोम के मन में जो शंका है वही कालिदास के मन में भी है। उज्जयिनी जाने-न-जाने की दुविधा का कारण यही श्ांका है। परंतु मलिलका के मन में इस प्रकार की कोर्इ शंका नहीं। उसे कालिदास की प्रतिभा पर विश्वास है। यहाँ रोक कर वह उसे स्थानीय कवि नहीं बने रहने देना चाहती। उज्जयिनी जाकर उसके अनुभवों में विस्तार हो, राजकीय सुख-सुविधाओं के बीच अपने अभावों को भूल कर साहित्य-रचना में वह लीन हो जाए, उसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैले भले ही इसके लिए उसे कालिदास का वियोग क्यों न सहना पड़े..इसी अभिलाषा से वह कालिदास को उज्जयिनी जाने के लिए मना लेती है। ====== दूसरा अंक कालिदास के जाने से कुछ वषो± बाद का है। घर की साज सज्जा में आये परिवर्तन और अव्यवस्था से इस अंतर के संकेत मिल जाते हैं। अमिबका अस्वस्थ है और मलिलका को आर्थिक अभावों की पूर्ति के लिए काम करना पड़ रहा है। मलिलका और निक्षेप के वार्तालाप से यह स्पष्ट होता है कि वह आज भी कालिदास से उसी प्रकार जुड़ी है। राजधानी से आने जाने वाले व्यवसायियों के माध्यम से वह उनकी रचनाओं को पढ़ती रही है। उसे यह संतोष भी है कि उसके स्नेह और आग्रह के कारण ही कालिदास राजधानी जाने के लिए तैयार हुए थे। अत: वह उनकी उपलबिध में कहीं स्वयं भी भागीदार हैं। निक्षेप से बातचीत से ही इस बात की भी सूचना दी गयी है कि कालिदास अब पहले वाले कालिदास नहीं रहे गये हैं। वहाँ के वातावरण के अनुरूप अब वे सुरा और सुंदरी में मग्न रहने लगे हैं, गुप्त साम्राज्य की विदुषी राजकुमारी से उन्होंने विवाह कर लिया है, अब काश्मीर का शासन भार भी वे सँभालने वाले हैं और इसी यात्राा के बीच वे अपने इस ग्राम प्रांतर में भी कुछ समय के लिये रुकेंगे, उनका नया नाम अब मातृगुप्त है, 'ऋतु संहार के बाद वे और भी अनेक काव्यों-नाटकों की रचना कर चुके हैं, सारा गाँव आज उनके स्वागत की तैयारी कर रहा है। तभी राजसी वेशभूषा में एक घुड़सवार के दर्शन निक्षेप को होते हैं। उसे विश्वास है कि वह राजपुरुष और कोर्इ नहीं बलिक स्वयं कालिदास ही हैं। यह सूचना मलिलका को विचलित कर देती है। तभी रंगिणी-संगिणी का प्रवेश होता है। ये दोनों नागरिकाएँ कालिदास के परिवेश पर शोध करना चाहती हैं पंरतु उनका काम करने का ढंग अत्यंत हास्यास्पद और सतही है। वे मलिलका से उस प्रदेश की वनस्पतियों, पशु-पक्षियों, दैनिक जीवन मे उपयोग में आने वाली वस्तुओं और विशिष्ट अभिव्यकितयों के विषय में प्रश्न करती हैं। परंतु कुछ भी असाधारण न दिखार्इ देने से निराश हो कर लौट जाती हैं। उनके जाते ही अनुस्वार और अनुनासिक नामक दो राज-कर्मचारी आते हैं। कालिदास की पत्नी और राजपुत्राी प्रियंगुमंजरी के आगमन की तैयारी में वे मलिलका के घर की व्यवस्था में कुछ ऐसा परिवर्तन करना चाहते हैं जो राजकुमारी के गौरव के अनुरूप हो और सुविधाजनक भी हो। परन्तु वास्तव में वे व्यवस्था-परिवर्तन का नाटक भर करते हैं और बिना कोर्इ बदलाव किये वहाँ से चले जाते हैं। फिर मातुल के साथ प्रियगुमंजरी का आगमन होता है। वह जानती है कि मलिलका कालिदास की प्रेयसी है और कालिदास के मन में उसके लिए अथाह स्नेह और सम्मान है। उसे मालूम है कि कालिदास की समस्त रचनाओं की प्रेरणा स्रोत मलिलका और यह परिवेश ही है। अत: स्त्राी-सुलभ जिज्ञासा और र्इष्र्या के फलस्वरूप वह इस प्रदेश में आने और मलिलका को देखने का लोभ संवरण कर पाती है। उसे आश्चर्य होता है कि राजधानी से इतनी दूर होने पर भी मलिलका ने कालिदास की सभी रचनाएँ प्राप्त कर ली हैं, पढ़ ली हैं। अब कालिदास को मातृगुप्त के नाम से जाना जाता है अत: मलिलका का 'कालिदास संबोधन उसे आपत्तिजनक लगता है। वह मलिलका के घर का परिसंस्कार करना चाहती है और उसकी इच्छा है कि मलिलका किसी राजकर्मचारी से विवाह कर ले, उसके साथ उसकी संगिनी बन कर रहे। वहाँ की वनस्पतियों, पत्थरों, कुछ पशु-पक्षियों ओर कुछ गरीब बच्चों को अपने साथ ले जाना चाहती है जिससे कालिदास को राजसुख में रहते हुए भी कभी अपने परिवेश का वियोग न खटके मलिलका घर के परिसंस्कार और विवाह के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है। प्रियगुमंजरी का वियोग न खटके। मलिलका घर के परिसंस्कार और विवाहके प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है। प्रियगुमंजरी हतप्रभ सी होकर वहाँ से चली जाती है। उसके जाने के बाद विलोमभीआताहै। इस सारे घटनाचक्र से वह भी परिचित है। वह इस आशा से वहाँ आता है कि कालिदास यदि वहाँ आये तो वह उसकी वास्तविकता, उसके व्यकितत्व में आये परिवर्तन को सबके सम्मुख उजागर कर दे। यधपि वह जानता है कि कालिदासवहाँनहीं आयेगा। कालिदास के मलिलका से बिना मिले चले जाने से अमिबका और विलोम-दोनों की आशंकाएँ सत्य सिद्ध होती हैं। =========== तीसरे अंक में कुछ और वषो± के बाद की घटनाएँ हैं। इस बार अंबिका दिखार्इ नहीं देती। वहाँ है पालने में लेटा एक शिशु जो मलिलका के अभाव की संतान है। घर की अस्त-व्यस्त और जीर्ण-शीर्ण सिथति मलिलका के दु:खों की कहानी कह रहेहैं। इस बार फिर आषाढ़ का पहला दिन है पहले की भाँति इस बार भी मूसलाधार वर्षा हो रही है। परंतु इस बार उस वर्षा का आनंद उठाने की सिथति मलिलका की नहीं है। मातुल भीगता हुआ आता है। जिस वैभव और सत्ता-सुख की लालसा से वह उज्जयिनी गया था, वह लालसा तो पूरी हुर्इ किंतु उस सबसे मातुल का मोह भी भंग हुआ है। चिकने शिलाख्ांडों से बने प्रासाद, आगे-पीछे चलते प्रतिहारी, कालिदास का संबंधी होने के नाते अकारण मिलने वाला सम्मान शुरू में तो बहुत आÑष्ट करता है परंंतु धीरे-धीरे इस सबसे वह ऊबने लगता है। वह सूचना देता है कि कालिदास ने काश्मीर का शासन भार त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया है। मातुल के चले जाने के पश्चात इसी अंक में कालिदास का प्रवेश होता है। प्रथम अंक में जिस तेजस्वी कालिदास के दर्शन होते हैं और दूसरे अंक में जिसकी प्रतिभा, योग्यता और यश की चर्चा है, इस तीसरे अंक में उसके विपरीत भग्नâदय-विवश कालिदास दिखार्इ देते हैं। इस अंक में कालिदास का लंबा आत्मवक्तव्य है। वह बताता है कि यहाँ से जाने के बाद वह सुख-सुविधाओं आमोद-प्रमोद, साहित्य-सृजन में व्यस्त भले ही रहा हो परंतु कभी भी अपने ग्रामप्रांतर और मलिलका से अलग नहीं हुआ। अपने पुराने अनुभवों को ही वह बार-बार अनेक रूपों में पुन: सृजित करता रहा है। जिन लोगों ने सदा उसका तिरस्कार किया था, उपहास किया था उनसे प्रतिशोध लेने की कामना से ही उसने काश्मीर के शासन का दायित्व वहन किया था। परंतु अब वह इस Ñत्रिम जीवन से थक चुका है। अत: शासक मातृगुप्त के कलेवर से संन्यास लेकर वह पुन: कालिदास के कलेवर में लौट आया है। अब वह यहीं इस पर्वत प्रदेश में ही रहना चाहता है, मलिलका के साथ अपने जीवन का पुनरारंभ करना चाहता है। इस बातचीत के बीच-बीच में दरवाजे पर दस्तक होती रहती है परंतु मलिलका दरवाजा नहीं खोलती। इस वक्तव्य के दौरान उसे एक बार भी यह विचार नहीं आता कि उसके उज्जयिनी जाने और वहाँ से वापिस आने की दीर्घ अवधि में मलिलका को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा। उसके जीवन की दिशा भी बदल सकती है यह तो वह सोच ही नहीं पाता। सहसा अंदर बच्ची के रोने की आवाज और विलोम के प्रवेश से उसे वस्तुसिथति का बोध होता है। अब उसे अनुभव होता है कि इच्छा और समय के द्वंद्व में समय अधिक शकितशाली सिद्ध होता है और समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। वह वहाँ से चला जाता है और यहीं नाटक समाप्त हो जाता है। कथानक की विशेषताएँ प्रस्तुत नाटक की कथा आषाढ़ के (पहले) एक दिन से ही आरंभ होती है और आषाढ़ के (पहले) एक दिन पर ही समाप्त होती है। अर्थात नाटक का प्रस्थान और समापन बिंदु एक ही है। परंतु तीसरे अंक के आषाढ़ का एक दिन वैसा ही नहीं है जैसा प्रथम अंक का है। पहले अंक में आषाढ़ के प्रथम दिवस की धाराधार वर्षा में भीगी उल्लसित मलिलका दिखार्इ देती है पर तीसरे अंक में उस वर्षा के प्रति उसका कोर्इ उत्साह नहीं। समग्र रूप से देखें तो यह नाटक कालिदास और मलिलका की प्रेमगाथा है परंतु प्रेमगाथा से कुछ अधिक समसामयिक संदर्भों को खोलती चलती है। यदि नाटक के तीनो अंकों की मुख्य घटनाओं को अलग-अलग देखें तो प्रथम अंक की मुख्य घटना है कालिदास का उज्जयिनी जाना, दूसरे अंकों की मुख्य घटना है उसका ग्राम में आकर भी मलिलका से मिलने न आना और तीसरे अंक की मुख्य घटना है उसका मलिलका के पास आकर भी वापिस लौट जाना। अर्थात तीनों अंकों की प्रत्येक गतिविधि का केंद्र एक ही हैµ कालिदास, और कालिदास की प्रत्येक गतिविधि से प्रभावित होती है मलिलका। कालिदास और मलिलका के साथ-साथ विलोम की कथा भी पाठकों को प्रभावित किये बिना नहीं रहती। विलोम के प्रवेश से कथा में प्रेम त्रिकोण बनता है क्योंकि वह मलिलका से प्रेम करता है जबकि मलिलका कालिदास के प्रति अनुरक्त है। अपने संवादों से विलोम की भूमिका खलनायक जैसी लग सकती है क्योंकि वह सदा ही कालिदास को अपने व्यंग्य बाणों से छीलने को तत्पर दिखार्इ देता है। परंतु वास्तव में वह खलनायक नहीं है। वह कालिदास से विपरीत प्रÑति का पात्रा है। उसके सोचने विचारने-जीवन जीने का तरीका कालिदास से भिन्न है। कथा-केन्द्र कालिदास होने पर भी विलोम अपने व्यकितत्व के खरेपन के कारण पाठकों को प्रभावित किये बिना नहीं रहता। विलोम के आगमन से कथा-गति में क्षिप्रता आती दिखार्इ देती है। वस्तुत: मोहन राकेश कथा गति की इस तीव्रता के प्रति पर्याप्त सजग रहे हैं। पहले अंक में यह तीव्रता मलिलका और अंबिका के तुर्शी भरे संवादों, कालिदास और दंतुल के वाद-विवाद, विलोम और मातुल के तीखे व्यंग्यों से आयी है। दूसरे अंक में रंगिनी-संगिणी और अनुस्वार-अनुनासिक का आचरण वातावरण को किंचित विनोदपूर्ण बना देता है परंतु प्रियंगुमंजरी का अहंकारपूर्ण आभिजात्य व्यवहार, मलिलका के âदय को भेदने वाले उसके अनुचित प्रस्ताव, मलिलका से बिना मिले कालिदास का वापिस चले जाना और विलोम द्वारा कालिदास के इस अवांछित व्यवहार को रेखांकित करनाµये सारी घटनाएँ मलिलका की वेदना को और भी सघन रूप से व्यंजित करती है। यधपि आलोचकों का कहना है कि इस अंक में रंगिणी-संगिनी ओर अनुस्वार-अनुनासिक के प्रसंगों को अनुचित रूप से खींचा गया है। यह आरोप सही हो या न हो, परंतु यह सत्य है कि ये पात्रा और ये प्रसंग पाठकों को भूलते नहीं। इस प्रसंग में पाठकों-दर्शकों का मनोरंजन करने की क्षमता भी है और नाटकों को सामयिक संदभो± से जोड़कर उसे सार्थक बनाने की भी। तीसरे अंक में गतिशीलता उतनी तीव्र नहीं है। कारण इस अंक में अधिकांशत: मलिलका स्वगत कथनों के माध्यम से आत्मलीन रहती है। कालिदास के वक्तव्य लंबे हैं। वस्तुत: यह नाटक का चरम बिंदु है इसलिए कथा की गति का सिथर हो जाना खटकने लगता है। परंतु बार-बार दरवाजा खटखटाने और विलोम के कुछ समय के लिए प्रवेश से कथा को पुन: गति मिलती है। मलिलका को उसके हाल पर छोड़कर कालिदास का चुपचाप चले जाना और यहीं नाटक का अंत हो जाना अत्यंत आकसिमक है जो पाठकों-दर्शकों को खटकता भी है। परंतु कालिदास के चरित्रा को जैसा अव्यावहारिक और अतिशय भावुक दर्शाया गया है, उससे कुछ और अपेक्षा भी संभवत: नहीं हो सकती थी। 'आषाढ़ का एक दिन के कथानक की समीक्षा यदि नाटय-शास्त्राीय मानदंडों के आधार पर की जाए तो आलोचकों को निराशा होगी। कारण, इसमें परंपरागत कार्यावस्थाएँµप्रारंभ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, कथानक में चमत्कार उत्पन्न करने वाली अर्थ प्रÑतिµबीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य तथा कार्यावस्था और अर्थप्रÑति को जोड़ने वाली संधियोंµमुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहरण-को नहीं खोजा जा सकता। प्रस्तुत नाटक का कथ्य और शिल्प पुरातन पद्धति के अनुसार है ही नहीं। हाँ, सघर्ष का तत्त्व इसमें अवश्य विधमान है जो कि नाटक का प्राण माना जाता है। यह द्वंद्व या संघर्ष परस्पर विरोèाी प्रÑति वाले चरित्राों के मध्य हैµअमिबका और मलिलका के बीच, कालिदास और विलोम के बीच, कालिदास और दंतुल के बीच और मलिलका तथा विलोम और मलिलका तथा मातुल के बीच। संघर्ष के ये विविध प्रसंग कथानक को गति प्रदान करते हैं और पात्राों के चरित्राों की विभिन्न विशेषताओं को स्पष्ट करते हैं। ---------- 'आषाढ़ का एक दिन में कथानक का आधार एक ही कथा हैµ कालिदास और मलिलका की कथा। नाटक के तीनों अंकों में यही कथा विन्यस्त है। विलोम मातुल, प्रियंगुमंजरी आदि कुछ प्रासंगिक कथासूत्रा भी इस मुख्य कथा से आ जुडते हैं परंतु वे मुख्य कथा को उलझाते नहीं बलिक कालिदास और मलिलका के चरित्रा के विभिन्न आयामों को उदघटित करते हैं। साथ ही ये कथासूत्रा इसे केवल प्रेमकथा भर न रहने देकर सामयिक संदभो से भी जोड़ने में सहायक हैं।