Wednesday, June 26, 2019

अंत: सलिला /antah salila


अंतःसलिला        ---अज्ञेय

अंत: सलिला

रेत का विस्तार

नदी जिस में खो गयी

कृश-धार :

झरा मेरे आंसुओं का भार

-मेरा दुःख-धन,

मेरे समीप अगाध पारावार –

उस ने सोख सहसा लिया

जैसे लूट ट ले बटमार।

और फिर अक्षितिज

लहरीला मगर  बेट्ट

सूखी रेत का विस्तार –
नदी जिस में खो गयी
कृश-धार
किन्तु जब-जब जहाँ भी जिस ने कुरेदा
नमी पायी : और खोदा –
हुआ रस-संचार :
रिसता हुआ गड्ढा भर गया।
यों अनजान पा पंथ
जो भी क्लांत आया, रुका ले कर आस,
स्वल्पायास से ही शांत
अपनी प्यास
इस से कर गया :
खींच लंबी साँस
पार उतर गया।
अरे, अंत: सलिल है रेत :
अनगिनत पैरों तले रौंदी हुई अविराम फिर भी घाव अपने आप भरती,

पड़ी सहज ही,

धूसर-गौर,

निरीह और उदार!
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 (1959 ,आँगन के पार द्वार )
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