Monday, April 22, 2019

कतकी पूनो [सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय']

कतकी पूनो
-सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'

छिटक रही है चाँदनी, मदमाती उन्मादिनी
कलगी-मौर सजाव ले कास हुए हैं बावले
पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गई फलाँगती-
सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती!

कुहरा झीना और महीन, झर-झर पड़े अकासनीम
उजली-लालिम मालती गंध के डोरे डालती,
मन में दुबकी है हुलास ज्यों परछाईं हो चोर की-
तेरी बाट अगोरते ये आँखें हुईं चकोर की!
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