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देवसेना का गीत [प्रसाद जी के नाटक स्कंदगुप्त का अंश है।]
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आह ! वेदना मिली विदाई !
मैंने भ्रम-वश जीवन संचित,
मधुकरियो की भीख लुटाई।
छलछल थे संध्या के श्रमकण
आंसू - से गिरते थे प्रतिक्षण।
मेरी यात्रा पर लेती थी-
निरवता अनंत अंगड़ाई।
मित स्वप्न की मधुमाया में,
गहन - विपिन की तरु - छाया में,
पथिक उनींदी श्रुति में किसने-
यह विहाग की तान उठाई।
लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी,
रही बचाए फिरती कबकी।
मेरी आशा आह ! बावली,
तूने खो दी सकल कमाई।
चढ़कर मेरे जीवन - रथ पर,
प्रलय चल रहा अपने पथ पर।
मैंने निज दुर्बल पद - बल पर,
उससे हारी - होड़ लगाई।
लौटा लो यह अपनी थाती ,
मेरी करुणा हा - हा खाती।
विश्व ! न सँभलेगा यह मुझसे,
इससे मन की लाज गंवाई।
शब्दार्थ :
वेदना - पीड़ा। भ्रमवश - भ्रम के कारण। मधुकरियो - पके हुए अन्न। श्रमकण - मेहनत से उत्पन्न पसीना।
नीरवता - खामोशी। अनंत - अंतहीन।निज - अपना। प्रलय - आपदा। थाती - धरोहर /प्यार /अमानत। सतृष्ण - तृष्णा se युक्त।
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