Thursday, January 3, 2019

भरत- महिमा Bhart- Mahima (Part 1 )तुलसीदास Class 11 Hindi UP

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--व्याख्या हेतु महत्वपूर्ण पंक्तियाँ ---

भरत-महिमा




तेहि बासर बसि प्रातहीं, चले सुमिरि रघुनाथ ।
राम दूरस की लालसा, भरत सरिस सब साथ ॥



[संदर्भ -ये पंक्तियाँ गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘श्रीरामचरितमानस’ से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘.... ’ में संकलित ‘भरत-महिमा’ शीर्षक काव्यांश से ली गई हैं ]।
अंश की व्याख्या – उस दिन वहीं ठहरकर दूसरे दिन प्रातःकाल ही रघुनाथ जी का स्मरण करके भरत जी चले। साथ के सभी लोगों को भी भरत जी के समान ही श्रीराम जी के दर्शन की लालसा लगी हुई है। इसीलिए सभी लोग शीघ्रातिशीघ्र श्रीराम के समीप पहुँचना चाहते हैं।

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तिमिरु तरुन तरनिहिं मकु गिलई । गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई ॥
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी । सहज छमा बरु छाड़े छोनी ।।
मसक फूक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमद् भरतहिं पाई ।।
 अंश की व्याख्या – श्रीराम लक्ष्मण को समझाते हुए कहते हैं कि अन्धकार चाहे तरुण (मध्याह्न के) सूर्य को निगल जाए, आकाश चाहे बादलों में समाकर मिल जाए, गौ के खुर जितने जल में चाहे अगस्त्य जी डूब जाएँ, पृथ्वी चाहे अपमी स्वाभाविक सहनशीलता को छोड़ दे और मच्छर की फेंक से सुमेरु पर्वत उड़ जाए, परन्तु हे भाई! भरत को राजपाट  का मद  कभी नहीं हो सकता या राजा होने का घमंड नहीं हो सकता ।


कवितावली



लंका-दहन

बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल-जाल मानौं,
लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है ।
कैधौं ब्योमबीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
 

अंश की व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी की विशाल पूँछ से अग्नि की भयंकर लपटें उठ रही थीं। अग्नि की उन लपटों को देखकर ऐसा प्रतीत होता था, मानो लंका
को निगलने के लिए स्वयं काल अर्थात् मृत्यु के देवता ने अपनी जिह्वा फैला दी हो। ऐसा प्रतीत होता था जैसे आकाश-मार्ग में अनेकानेक पुच्छल तारे भरे हुए हों।

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तुलसी बिलोकि लोग ब्याकुल बिहाल कहैं,
“लेहि दससीस अब बीस चख चाहि रे’ ।।

 अंश की व्याख्या – लंकानिवासी राजा रावण को कोसते हुए कह रहे हैं कि हे दस मुखों वाले रावण! अब तुम अपने सभी मुखों से लंकानगरी के विनाश का यह स्वाद स्वयं चखकर देखो। इस विनाश को अपनी बीस आँखों से भलीभाँति देखो और अपने मस्तिष्क से विचार करो कि तुम्हारे द्वारा बलपूर्वक किसी दूसरे की स्त्री का हरण करके कितना अनुचित कार्य किया गया है। अब तो तुम्हारी आँखें अवश्य ही खुल जानी चाहिए, क्योंकि तुमने उसके पक्ष के एक सामान्य से वानर के द्वारा की गयी विनाश-लीला का दृश्य अपनी बीस आँखों से स्वयं देख लिया है।



दोहावली

हरो चरहिं तापहिं बरत, फरे पसारहिं हाथ ।
तुलसी स्वारथ मीत सब, परमारथ रघुनाथ ॥

 

 अंश की व्याख्या – तुलसीदास जी कहते हैं कि संसार में सभी मित्र और सम्बन्धी स्वार्थ के कारण ही सम्बन्ध रखते हैं। जिस दिन हम उनके स्वार्थ की पूर्ति में असमर्थ हो जाते हैं, उसी दिन सभी व्यक्ति हमें त्यागने में देर नहीं लगाते। इसी प्रसंग में तुलसीदास ने कहा है कि श्रीराम की भक्ति ही परमार्थ का सबसे बड़ा साधन है और श्रीराम ही बिना किसी स्वार्थ के हमारा हित-साधन करते हैं।


बरषत हरषत लोग सब, करषत लखै न कोइ ।
तुलसी प्रजा-सुभाग ते, भूप भानु सो होइ ।।


अंश की व्याख्या – प्रायः राजा अपने सुख और वैभव के लिए जनता से कर प्राप्त करते हैं। प्रजा अपने परिश्रम की गाढ़ी कमाई राजा के चरणों में अर्पित कर देती है, किन्तु वही प्रजा सौभाग्यशाली होती है, जिसे सूर्य जैसा राजा मिल जाए। जिस प्रकार सूर्य सौ-गुना जल बरसाने के लिए ही धरती से जल ग्रहण : करता है, उसी प्रकार से प्रजा को और अधिक सुखी करने के लिए ही श्रेष्ठ राजा उससे कर वसूल करता है।


विनय-पत्रिका


परिहरि देहजनित चिंता, दु:ख सुख समबुद्धि सहौंगो ।
तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि भक्ति लहौंगो ।।




अंश की व्याख्या – तुलसीदास जी कहते हैं कि क्या कभी वह दिन आएगा, जब मैं सन्तों की तरह जीवन जीने लगूंगा? क्या तुलसीदास इस मार्ग पर चलकर कभी अटल भगवद्भक्ति प्राप्त कर सकेंगे; अर्थात् क्या कभी हरि-भक्ति प्राप्ति का मेरा मनोरथ पूरा होगा?

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अब लौं नसानी अब न नसैहौं ।
राम कृपा भवनिसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं ।।
 

 अंश की व्याख्या – तुलसीदास जी कहते हैं कि मैंने अब तक अपनी आयु को व्यर्थ के कार्यों में ही नष्ट किया है, परन्तु अब मैं अपनी आयु को इस प्रकार नष्ट नहीं होने दूँगा । उनके कहने का भाव यह है। कि अब उनके अज्ञानान्धकार की राज्ञि समाप्त हो चुकी है और उन्हें सद्ज्ञान प्राप्त हो चुका है; अत: अब वे मोह-माया में लिप्त होने के स्थान पर ईश्वर की भक्ति में ही अपना समय व्यतीत करेंगे और ईश्वर से साक्षात्कार करेंगे। श्रीराम जी की कृपा से संसार रूपी रात्रि बीत चुकी है; अर्थात् मेरी सांसारिक प्रवृत्तियाँ दूर हो गयी हैं; अतः अब जागने पर अर्थात् विरक्ति उत्पन्न होने पर मैं फिर कभी बिछौना न बिछाऊँगा; अर्थात् सांसारिक मोह-माया में नहीं उलझूँगा ।

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