चिन्तामणि( भाग-1) लेखक :रामचंद शुक्ल , (निबंध )
उत्साह
दु:ख
के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनंदवर्ग में उत्साह का है। भय में हम प्रस्तुत कठिन स्थिति के नियम से
विशेष रूप में दु:खी और कभी कभी उस स्थिति से अपने को दूर रखने के लिए प्रयत्नवान्
भी होते हैं। उत्साह में हम आनेवाली कठिन स्थिति के भीतर साहस के अवसर के निश्चय
द्वारा प्रस्तुत कर्म-सुख की उमंग से अवश्य प्रयत्नवान् होते हैं। उत्साह
में कष्ट या हानि सहने की दृढ़ता के साथ साथ कर्म में प्रवृत्त होने के आनंद का योग
रहता है। साहसपूर्ण आनंद की उमंग का नाम
उत्साह है। कर्म सौंदर्य
के उपासक ही सच्चे उत्साही कहलाते हैं।
जिन
कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है उन सबके
प्रति उत्कंठापूर्ण आनंद उत्साह के अंतर्गत लिया जाता है। कष्ट या हानि के
भेद के अनुसार उत्साह के भी भेद हो जाते हैं। साहित्य मीमांसकों ने इसी
दृष्टि से युद्धवीर, दानवीर, दयावीर इत्यादि भेद किए हैं। इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्ध
वीरता है, जिसमें आघात, पीड़ा क्या, मृत्यु
तक की परवा नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यंत प्राचीन काल से पड़ता
चला आ रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम
उत्कर्ष पर पहुँचते हैं। पर केवल कष्ट या पीड़ा सहन करने के साहस में ही उत्साह का
स्वरूप स्फुरित नहीं होता। उसके साथ आनंदपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा का योग
चाहिए। बिना बेहोश हुए भारी फोड़ा चिराने को तैयार होना साहस कहा जाएगा, पर उत्साह नहीं। इसी प्रकार चुपचाप, बिना हाथ पैर हिलाए, घोर प्रहार सहने के लिए तैयार रहना साहस और
कठिन से कठिन प्रहार सहकर भी जगह से न हटना धीरता कही जाएगी। ऐसे साहस और धीरता को
उत्साह के अंतर्गत तभी ले सकते हैं जब कि साहसी या धीर उस काम को आनंद के साथ करता
चला जाए, जिसके कारण उसे इतने प्रहार सहने पड़ते
हैं। सारांश यह कि आनंदपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा(कोई काम करने या कुछ पाने
की प्रबल इच्छा।) में ही उत्साह का दर्शन होता है, केवल
कष्ट सहने के निश्चेष्ट साहस में नहीं। धृति(धैर्य) और
साहस दोनों का उत्साह के बीच संचरण होता है।
दानवीर
में
अर्थ त्याग का साहस अर्थात् उसके कारण होनेवाले कष्ट या कठिनता को सहने की क्षमता
अंतर्हित रहती है। दानवीरता तभी कही जाएगी जब दान के कारण दानी को अपने जीवन
निर्वाह में किसी प्रकार का कष्ट या कठिनता दिखाई देगी। इसी कष्ट या कठिनता की
मात्रा या संभावना जितनी ही अधिक होगी, दानवीरता
उतनी ही ऊँची समझी जाएगी। पर इस अर्थ त्याग के साहस के साथ ही जब तक पूर्ण तत्परता
और आनंद के चिह्न न दिखाई पड़ेंगे तब तक
उत्साह का स्वरूप न खड़ा होगा।
युद्ध
के अतिरिक्त संसार में और भी ऐसे विकट काम होते हैं जिनमें घोर
शारीरिक कष्ट सहना पड़ता है और प्राण हानि तक की संभावना रहती है। अनुसंधान के लिए
तुषार मंडित अभ्रभेदी अगम्य पर्वतों की चढ़ाई, धारुव
देश या सहारा के रेगिस्तान का सफर, क्रूर, बर्बर जातियों के बीच अज्ञात घोर जंगलों में
प्रवेश इत्यादि भी पूरी वीरता और पराक्रम के कर्म हैं। इनमें जिस आनंदपूर्ण
तत्परता के साथ लोग प्रवृत्त हुए हैं वह भी उत्साह ही है।
मनुष्य
शारीरिक कष्ट से ही पीछे हटनेवाला प्राणी नहीं है। मानसिक क्लेश की संभावना से भी
बहुत से कर्मों की ओर प्रवृत्त होने का साहस उसे नहीं होता। जिन बातों से समाज के बीच उपहास, निंदा, अपमान
इत्यादि का भय रहता है, उन्हें अच्छी और कल्याणकारिणी समझते
हुए भी बहुत से लोग उनसे दूर रहते हैं। प्रत्यक्ष हानि देखते हुए भी कुछ
प्रथाओं का अनुसरण बड़े -बड़े समझदार तक इसलिए करते चलते हैं कि उनके त्याग से वे
बुरे कहे जाएँगे, लोगों में उनका वैसा आदर सम्मान न रह
जाएगा। उसके लिए मन ग्लानि का कष्ट सब शारीरिक क्लेशों से बढ़कर होता है। जो
लोग मन अपमान का कुछ भी ध्याबन न करके, निंदा
स्तुति की कुछ भी परवा न करके किसी प्रचलित प्रथा के विरुद्धा पूर्ण तत्परता और
प्रसन्नता के साथ कार्य करते जाते हैं वे एक ओर तो उत्साही और वीर कहलाते हैं
दूसरी ओर भारी बेहया।
किसी
शुभ परिणाम पर दृष्टि रखकर निंदा स्तुति, मन
अपमान आदि की कुछ, परवा न करके प्रचलित प्रथाओं का
उल्लंघन करनेवाले वीर या उत्साही कहलाते हैं, यह
देखकर बहुत से लोग केवल इस विरुद( कीर्ति/यश )के
लोभ में ही अपनी उछलकूद दिखाया करते हैं। वे केवल उत्साही या साहसी कहे जाने के
लिए ही चली आती हुई प्रथाओं को तोड़ने की धूम मचाया करते हैं। शुभ या अशुभ परिणाम
से उनसे कोई मतलब नहीं, उनकी ओर उनका ध्यान लेशमात्र नहीं
रहता। जिस पक्ष के बीच की सुख्याति का वे अधिक महत्व समझते हैं उसकी वाहवाही से उत्पन्न आनंद की चाह
में वे दूसरे पक्ष के बीच की निंदा या अपमान की कुछ परवाह नहीं करते। ऐसे ओछे
लोगों के साहस या उत्साह की अपेक्षा उन लोगों का उत्साह या साहस भाव की दृष्टि से
कहीं अधिक मूल्यवान है जो किसी प्राचीन प्रथा की चाहे वह वास्तव में हानिकारिणी ही
हो-उपयोगिता का सच्चा विश्वास रखते हुए प्रथा तोड़नेवालों की निंदा, उपहास, अपमान
आदि सहा करते हैं।
समाज
सुधार के वर्तमान आंदोलनों के बीच जिस प्रकार सच्ची अनुभूति से प्रेरित उच्चाशय और
गंभीर पुरुष पाए जाते हैं,
उसी प्रकार कुछ मनोवृत्तियों द्वारा
प्रेरित साहसी और दयावान् भी बहुत मिलते हैं। मैंने कई छिछोरों और लंपटों को
विधवाओं की दशा पर दया दिखाते हुए उनके पापाचार के लंबे चौड़े दास्तान हर दम सुनते
सुनाते पाया है। ऐसे लोग वास्तव में काम कथा के रूप में ऐसे वृत्तांतों का तन्मयता
के साथ कथन और श्रवण करते हैं। इस ढाँचे के लोगों से सुधार के कार्य में कुछ
सहायता पहुँचाने के स्थान पर बाधा पहुँचाने की ही संभावना रहती है। 'सुधार' के
नाम पर साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसे लोग गंदगी फैलाते पाए जाते हैं।
उत्साह
की गिनती अच्छे गुणों में होती है। किसी भाव के अच्छे या बुरे होने का निश्चय अधिकतर उसकी प्रवृत्ति के
शुभ या अशुभ परिणाम के विचार से होता है। वही उत्साह जो कर्तव्य कर्मों के प्रति
इतना सुंदर दिखाई पड़ता है,
अकर्तव्य कर्मों की ओर होने पर वैसा
श्लाघ्य ( सराहनीय ) नहीं प्रतीत होता। आत्मरक्षा, पररक्षा, देशरक्षा आदि के निमित्त साहस की जो उमंग दिखाई देती है उसके सौंदर्य को परपीड़न, डकैती आदि कर्मों का साहस कभी नहीं पहुँच सकता। यह
बात होते हुए भी विशुद्ध उत्साह या साहस की प्रशंसा संसार में थोड़ी बहुत होती ही
है। अत्याचारियों या डाकुओं के शौर्य और साहस की कथाएँ भी लोग तारीफ करते हुए
सुनते हैं।
अब
तक उत्साह का प्रधान रूप ही हमारे सामने रहा, जिसमें
साहस का पूरा योग रहता है। पर कर्ममात्र के संपादन में जो तत्परतापूर्ण
आनंद देखा जाता है वह उत्साह ही कहा जाता है। सब कार्यों में साहस
उपेक्षित नहीं होता, पर थोड़ा बहुत आराम विश्राम, सुभीते (आसानी) आदि का त्याग सबको करना पड़ता है, और कुछ नहीं तो उठकर बैठना, खड़ा होना या दस -पाँच कदम चलना ही पड़ता है।
जब
तक आनंद का लगाव किसी क्रिया, व्यापार या उसकी भावना के साथ नहीं दिखाई पड़ता तब तक उसे 'उत्साह' की संज्ञा प्राप्त नहीं होती। यदि किसी प्रिय मित्र के आने का
समाचार पाकर हम चुपचाप ज्यों के ज्यों आनंदित होकर बैठे रह जाएँ या थोड़ा हँस भी
दें तो यह हमारा उत्साह नहीं कहा जाएगा। हमारा उत्साह तभी कहा जाएगा जब हम अपने
मित्र का आगमन सुनते ही उठ खड़े होंगे। उससे मिलने के लिए दौड़ पड़ेंगे और उसके ठहरने
आदि के प्रबंध में प्रसन्न मुख इधर उधर आते जाते दिखाई देंगे। प्रयत्न और कर्म
संकल्प उत्साह नामक आनंद के नित्य लक्षण हैं।
प्रत्येक
कर्म में थोड़ा या बहुत बुद्धि का योग भी रहता है। कुछ कर्मों में तो बुद्धि की
तत्परता और शरीर की तत्परता दोनों बराबर साथ साथ चलती है। उत्साह की उमंग जिस
प्रकार हाथ पैर चलवाती है, उसी
प्रकार बुद्धि से भी काम कराती है। ऐसे उत्साहवाले वीर को कर्मवीर कहना चाहिए या बुद्धिवीर-यह
प्रश्न मुद्राराक्षस नाटक बहुत अच्छी तरह हमारे सामने लाता है। चाणक्य और राक्षस
के बीच जो चोटें चली हैं वे नीति की हैं-शस्त्र की नहीं।
अत:
विचार करने की बात यह है कि उत्साह की अभिव्यक्ति बुद्धि व्यापार के अवसर पर होती
है अथवा बुद्धि द्वारा निश्चित उद्योग में तत्पर होने की दशा में। हमारे देखने में
तो उद्योग की तत्परता में ही उत्साह की अभिव्यक्ति होती है; अत: कर्मवीर ही कहना ठीक है।
बुद्धिवीर
के दृष्टांत कभी कभी हमारे पुराने ढंग के शास्त्रार्थों में देखने को मिल
जाते हैं। जिस समय किसी भारी शास्त्रार्थी पंडित से भिड़ने के लिए कोई विद्यार्थी
आनंद के साथ सभा में आगे आता है, उस
समय उसके बुद्धि साहस की प्रशंसा अवश्य होती है। वह जीते या हारे, बुद्धि वीर समझा ही जाता है। इस जमाने में वीरता का
प्रसंग उठाकर वाग्वीर(खूब लंबी चौड़ी बातें करनेवाला व्यक्ति- वाग्वीर
– वाक् (वाणी)में वीर) का उल्लेख यदि न हो तो बात अधूरी ही
समझी जाएगी। ये वाग्वीर आजकल बड़ी बड़ी सभाओं के मंचों पर से लेकर स्त्रियों के उठाए
हुए पारिवारिक प्रपंचों तक में पाए जाते हैं और काफी तादाद में।
थोड़ा
यह भी देखना चाहिए कि उत्साह में ध्यान किस पर रहता है। कर्म पर, उसके फल पर अथवा व्यक्ति या वस्तु पर?
हमारे
विचार में उत्साही वीर का ध्यान आदि से अंत तक पूरी कर्म शृंखला पर से होता हुआ
उसकी सफलतारूपी समाप्ति तक फैला रहता है। इसी ध्यान से जो आनंद की तरंगें उठती हैं
वे ही सारे प्रयत्न को आनंदमय कर देती हैं। युद्ध वीर में विजेतव्य (जो जीतने के योग्य हो) को
आलंबन कहा गया है। उसका अभिप्राय यही है कि विजेतव्य कर्मप्रेरक के रूप में वीर के
ध्यान में स्थिर रहता है,
वह कर्मस्वरूप का भी निर्धारण करता है।
पर आनंद और साहस के मिश्रित भाव का सीधा लगाव उसके साथ नहीं रहता।
सच
पूछिए तो वीर के उत्साह का विषय विजय-विधायक कर्म या युद्ध ही रहता है।
दानवीर और धर्मवीर पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। दान दयावश, श्रद्धावश या कीर्ति लोभवश दिया जाता है। यदि
श्रद्धावश दान दिया जा रहा है तो दानपात्र वास्तव में श्रद्धा का और यदि दयावश
दिया जा रहा है तो पीड़ित यथार्थ में दया का विषय या आलंबन (आश्रय/सहारा/कारण )
ठहरता है। अत: उस श्रद्धा या दया की प्रेरणा से जिस कठिन या दुस्साधय कर्म की
प्रवृत्ति होती है उसी की ओर उत्साही का साहसपूर्ण आनंद उन्मुख कहा जा
सकताहै। अत: और रसों में आलंबन का स्वरूप जैसा निर्दिष्ट रहता है वैसा वीर रस में
नहीं। बात यह है कि उत्साह एक यौगिक भाव है जिसमें साहस और आनंद का मेल रहता है।
जिस
व्यक्ति या वस्तु पर प्रभाव डालने के लिए वीरता दिखाई जाती है उसकी ओर उन्मुख
कर्म होता है और कर्म की ओर उन्मुख उत्साह नामक भाव होता है।
सारांश
यह है कि किसी व्यक्ति या वस्तु के साथ उत्साह का सीधा लगाव नहीं होता। समुद्र
लाँघने के लिए जिस उत्साह के साथ हनुमान उठे हैं उसका कारण समुद्र नहीं लाँघने का
विकट कर्म है। कर्म भावना ही उत्साह उत्पन्न करती है, वस्तु या व्यक्ति की भावना नहीं।
किसी
कर्म के संबंध में जहाँ आनंदपूर्ण तत्परता दिखाई पड़ी कि हम उसे उत्साह कह देते
हैं।
कर्म के अनुष्ठान में जो आनंद होता है उसका विधान तीन रूपों में दिखाई पड़ता है-
1.
कर्म भावना से उत्पन्न,
2.
फल भावना से उत्पन्न; और
3.
आगंतुक, अर्थात् विषयांतर से प्राप्त।
इसमें
कर्म भावना प्रसूत आनंद को ही सच्चे वीरों का आनंद समझना चाहिए, जिसमें साहस का योग प्राय: बहुत अधिक रहा करता
है। सच्चा वीर जिस समय मैदान में उतरता है उसी समय उसमें उतना आनंद भरा रहता है
जितना औरों को विजय या सफलता प्राप्त करने पर होता है। उसके सामने कर्म और फल के
बीच या तो कोई अंतर होता ही नहीं या बहुत सिमटा हुआ होता है। इसी से कर्म की ओर वह
उसी झोंक से लपकता है जिस झोंक से साधारण लोग फल की ओर लपका करते हैं। इसी
कर्मप्रवर्तक आनंद की मात्रा के हिसाब से शौर्य और साहस का स्फुरण होता है।
फल
की भावना से उत्पन्न आनंद भी साधक कर्मों की ओर हर्ष और तत्परता के साथ प्रवृत्त करता है। पर फल
का लोभ जहाँ प्रधान रहता है वहाँ कर्म विषयक आनंद उसी फल की भावना की
तीव्रता और मंदता पर अवलंबित रहता है। उद्योग के प्रभाव के बीच जब जब फल की
भावना मंद पड़ती है-उसकी आशा कुछ धुधंली पड़ जाती है, तब तब आनंद की उमंग गिर जाती है और उसी
के साथ उद्योग में भी शिथिलता आ जाती है। पर कर्म भावना प्रधान उत्साह
बराबर एकरस रहता है। फलासक्त उत्साही असफल होने पर खिन्न और दु:खी होता है, पर कर्मासक्त उत्साही केवल कर्मानुष्ठान के
पूर्व की अवस्था में हो जाता है। अत: हम कह सकते हैं कि कर्म भावना प्रधान उत्साह
ही सच्चा उत्साह है। फल भावना प्रधान उत्साह तो लोभ ही का एक प्रच्छन्न(छुपा)
रूप है।
उत्साह
वास्तव में कर्म और फल की मिली जुली अनुभूति है जिसकी प्रेरणा से तत्परता आती है। यदि फल दूर ही पर दिखाई पड़े, उसकी भावना के साथ ही उसका लेशमात्र भी कर्म या
प्रयत्न के साथ लगाव न मालूम हो तो हमारे हाथ पाँव कभी न उठें और उस फल के साथ
हमारा संयोग ही न हो। इससे कर्म शृंखला की पहली कड़ी पकड़ते ही फल के आनंद की भी कुछ
अनुभूति होने लगती है। **यदि हमें यह निश्चय हो जाए की अमुक स्थान पर जाने से हमें
किसी प्रिय व्यक्ति का दर्शन होगा तो उस निश्चय के प्रभाव से हमारी यात्रा भी
अत्यंत प्रिय हो जाएगी। हम चल पड़ेंगे और हमारे अंगों की प्रत्येक गति में
प्रफुल्लता दिखाई देगी। यही प्रफुल्लता कठिन से कठिन कर्मों के साधन में भी देखी
जाती है। वे कर्म भी प्रिय हो जाते हैं और अच्छे लगने लगते हैं। जब तक फल तक
पहुँचनेवाला कर्म पथ अच्छा न लगेगा तब तक केवल फल का अच्छा लगना कुछ नहीं। **फल की
इच्छा मात्र हृदय में रखकर जो प्रयत्न किया जाएगा वह अभावमय और आनंदशून्य होने के
कारण निर्जीव सा होगा।
कर्मरुचिशून्य
प्रयत्न में कभी कभी इतनी उतावली और आकुलता होती है कि मनुष्य साधना के
उत्तारोत्तार क्रम का निर्वाह न कर सकने के कारण बीच ही में चूक जाता है। मान
लीजिए कि एक ऊँचे पर्वत के शिखर पर विचरते हुए किसी व्यक्ति को नीचे बहुत दूर तक
गई हुई सीढ़ियाँ दिखाई दीं और यह मालूम हुआ कि नीचे उतरने पर सोने का ढेर
मिलेगा। यदि उसमें इतनी सजीवता है कि उक्त सूचना के साथ ही वह उस स्वर्णराशि के
साथ एक प्रकार के मानसिक संयोग का अनुभव करने लगा तथा उसका चित्त प्रफुल्ल और अंग
सचेष्ट हो गए, उसे एक एक सीढ़ी स्वर्णमयी दिखाई देगी, एक एक सीढ़ी उतरने में उसे आनंद मिलता जाएगा, एक एक क्षण उसे सुख से बीतता हुआ जान पड़ेगा और
वह प्रसन्नता के साथ स्वर्णराशि तक पहुँचेगा। इस प्रकार उसके प्रयत्नकाल को भी
फलप्राप्ति काल के अंतर्गत ही समझना चाहिए। इसके विरुद्ध यदि उसका हृदय दुर्बल
होगा और उसमें इच्छामात्र ही उत्पन्न होकर रह जाएगी; तो अभाव के बोध के कारण उसके चित्त में यही होगा कि कैसे झट से नीचे
पहुँच जाएँ। उसे एक एक सीढ़ी उतरना बुरा मालूम होगा और आश्चर्य नहीं कि वह या तो
हारकर बैठ जाए या लड़खड़ाकर मुँह के बल गिर पड़े।
फल
की विशेष आसक्ति से
कर्म के लाघव (लघुता /कमी /
जल्दी) की वासना उत्पन्न होती है; चित्त
में यही आता है कि कर्म बहुत कम या बहुत सरल करना पड़े और फल बहुत सा मिल जाए। श्रीकृष्ण ने कर्म मार्ग से
फलासक्ति की प्रबलता हटाने का बहुत ही स्पष्ट उपदेश दिया; पर
उनके समझाने पर भी भारतवासी इस वासना से ग्रस्त होकर कर्म से तो उदास हो बैठे और
फल के इतने पीछे पड़े कि ***गरमी में ब्राह्मण को एक पेठा देकर पुत्र की आशा करने
लगे; चार आने रोज का अनुष्ठान कराके व्यापार
में लाभ, शत्रु पर विजय, रोग से मुक्ति, धान धन्य की वृद्धि तथा और भी न जाने क्या क्या चाहने लगे। आसक्ति
प्रस्तुत या उपस्थित वस्तु में ही ठीक कही जा सकती है। कर्म सामने उपस्थित
रहता है। इससे आसक्ति उसी में चाहिए। फल दूर रहता है, इससे उसकी ओर कर्म का लक्ष्य काफी है। जिस
आनंद से कर्म की उत्तेजना होती है और जो
आनंद कर्म करते समय तक बराबर चला चलता है उसी का नाम उत्साह है।
कर्म
के मार्ग पर आनंदपूर्वक चलता हुआ उत्साही मनुष्य यदि अंतिम फल तक न भी
पहुँचे तो भी उसकी दशा कर्म न करनेवाले की अपेक्षा अधिकतर अवस्थाओं में अच्छी
रहेगी; क्योंकि एक तो कर्म काल में उसका जो
जीवन बीता वह संतोष या आनंद में बीता, उसके
उपरांत फल की अप्राप्ति पर भी उसे यह पछतावा न रहा कि मैंने प्रयत्न नहीं किया। फल
पहले से कोई बना बनाया पदार्थ नहीं होता। अनुकूल प्रयत्न कर्म के अनुसार, उसके एक एक अंग की योजना होती है। बुद्धि
द्वारा पूर्ण रूप से निश्चित की हुई व्यापार परंपरा का नाम ही प्रयत्न है।** किसी
मनुष्य के घर का कोई प्राणी बीमार है। वह वैद्यों के यहाँ से जब तक औषधि ला लाकर
रोगी को देता जाता है और इधर उधर दौड़धूप करता जाता है तब तक उसके चित्त में जो
संतोष रहता है-प्रत्येक नए उपचार के साथ जो आनंद का उन्मेष होता रहता है-यह उसे
कदापि न प्राप्त होता, यदि वह रोता हुआ बैठा रहता। *प्रयत्न
की अवस्था में उसके जीवन का जितना अंश संतोष, आशा और उत्साह में बीता, अप्रयत्न
की दशा
में उतना ही अंश केवल शोक और दु:ख में बँटता। इसके अतिरिक्त रोगी के न अच्छे होने
की दशा में भी वह आत्मग्लानि के उस कठोर दु:ख से बचा रहेगा जो उसे जीवन भर यह सोच
सोचकर होता कि मैंने पूरा प्रयत्न नहीं किया।
कर्म
में आनंद अनुभव करनेवालों ही का नाम कर्मण्य है। धर्म और उदारता के उच्च कर्मों के विधान में
ही एक ऐसा दिव्य आनंद भरा रहता है कि कर्तव्य को वे कर्म ही फलस्वरूप लगते हैं।
अत्याचार का दमन और क्लेश का शमन करते हुए चित्त में जो उल्लास और तुष्टि
होती है, वही लोकोपकारी कर्मवीर का सच्चा
सुख है। उसके लिए सुख तब तक के लिए रुका नहीं रहता जब तक कि फल प्राप्त न हो जाए; बल्कि उसी समय से थोड़ा थोड़ा करके मिलने लगता है, जब से वह कर्म की ओर हाथ बढ़ाता है।
कभी
कभी आनंद का मूल विषय तो कुछ और रहता है, पर
उस आनंद के कारण एक ऐसी स्फूर्ति होती है जो बहुत से कार्यों की ओर हर्ष के साथ
अग्रसर करती है। इसी प्रसन्नता और तत्परता को देख लोग कहते हैं कि वे काम बड़े
उत्साह से किए जा रहे हैं। यदि किसी मनुष्य को बहुत सा लाभ हो जाता है या उसकी कोई
बड़ी भारी कामना पूर्ण हो जाती है तो जो काम उसके सामने आते हैं उन सबको वह बड़े
हर्ष और तत्परता के साथ करता है। उसके इस हर्ष और तत्परता को भी लोग उत्साह ही
कहते हैं। इसी प्रकार किसी उत्तम फल या सुख प्राप्ति की आशा या निश्चय से
उत्पन्न आनंद, फलोन्मुख प्रयत्नों के अतिरिक्त और
दूसरे व्यापारों के साथ संलग्न होकर, उत्साह
के रूप में दिखाई पड़ता है। यदि हम किसी ऐसे उद्योग में लगे हैं जिससे आगे चलकर
हमें बहुत लाभ या सुख की आशा है तो हम उस उद्योग को तो उत्साह के साथ करते ही हैं, अन्य कार्यों में भी प्राय: अपना उत्साह दिखा
देते हैं।
यह
बात उत्साह में नहीं, अन्य मनोविकारों में बराबर पाई जाती
है। यदि हम किसी बात पर क्रुद्ध बैठे हैं और इसी बीच में कोई दूसरा आकर हमसे कोई
बात सीधी तरह भी पूछता है तो भी हम उसपर झुँझला उठते हैं। इस झुँझलाहट का न तो कोई
निर्दिष्ट कारण होता है, न उद्देश्य। यह केवल क्रोध की
स्थिति व्याघात को रोकने की क्रिया है, क्रोध की रक्षा का प्रयत्न है। इस झुंझलाहट द्वारा हम यह प्रकट करते हैं कि
हम क्रोध में हैं और क्रोध ही में रहना चाहते हैं। क्रोध को बनाए रखने के लिए हम
उन बातों से भी क्रोध ही संचित करते हैं जिनसे दूसरी अवस्था में हम विपरीत भाव
प्राप्त करते। इसी प्रकार यदि हमारा चित्त किसी विषय में उत्साहित रहता है तो हम
अन्य विषयों में भी अपना उत्साह दिखा देते हैं। यदि हमारा मन बढ़ा हुआ रहता है तो
हम बहुत से काम प्रसन्नतापूर्वक करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसी बात का विचार
करके सलाम साधक लोग हाकिमों से मुलाकात करने के पहले अर्दलियों से उनका मिजाज पूछ
लिया करते हैं।